आम बजटः किसानों को फिर उनके हाल पर छोड़ने की तैयारी

Estimated read time 1 min read

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश का आम बजट प्रस्तुत करने की तैयारियां लगभग मुकम्मल कर ली हैं। इस सिलसिले में सरकार ने बड़े उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों से विस्तृत विचार विमर्श किया। यह प्रक्रिया अंतिम क्षणों में भी जारी है। इसमें केंद्र सरकार और उसके प्रतिनिधियों ने कृषि सेक्टर से जुड़े वर्ग की घोर उपेक्षा की है।

देश की लगभग 60 फ़ीसदी आबादी कृषि और उससे जुड़े उद्योग-धंधों से सीधे जुड़ी है अथवा निर्भर है। बावजूद इसके आम बजट बनाने की प्रक्रिया में किसी भी किसान संगठन से सलाह-मशवरा नहीं किया गया और न उनकी अपेक्षाओं की बाबत आधिकारिक तौर पर पूछा-जाना गया।

कृषि क्षेत्र अपने इतिहास के सबसे ज्यादा बड़े संकट से जूझ रहा है और उसका कुल घरेलू उत्पादन में हिस्सा सिर्फ 14 फ़ीसदी रह गया है। इस संकट से समूचे देश के किसान अपने तईं अकेले ही संघर्ष कर रहे हैं। दशकों से ऐसा होता आया है कि आम बजट के वक्त केंद्र सरकार उद्योग जगत, बड़े अर्थशास्त्रियों और यहां तक की उच्च सेना अधिकारियों को तो बजट बनाने की प्रक्रिया में बाकायदा शामिल करती है और उनके सुझावों को गंभीरता से लेती है, लेकिन कृषि सेक्टर से जुड़े लोगों को इससे बाहर रखती है।

इसके चलते जमीनी सच्चाइयों की भी खुली अनदेखी होती है। नतीजतन जब बजट आता है तो अमूमन देश के एक से दूसरे कोने तक के किसान नाखुश दिखाई देते हैं। उन्हें जो राहत दी जाती है, उसे लागू करने की प्रक्रिया बेहद जटिल और लालफीताशाही से लबरेज होती है। इसीलिए साल दर साल कृषि संकट और ज्यादा गहराता जाता है तथा किसान और खेत मजदूरों की आत्महत्याओं में देशव्यापी इजाफा दर्ज किया जाता है।

अब जब बजट बनकर लगभग तैयार है तो देश के विभिन्न हिस्सों में किसान कर्ज मुक्ति और खेती को लाभदायक बनाने के लिए आंदोलन और संघर्ष कर रहे हैं। पंजाब कृषि प्रधान राज्य है। साल का एक भी दिन ऐसा नहीं होता, जब किसान संगठन किसी न किसी जगह धरना प्रदर्शन न करते हों। इसी के साथ यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब आर्थिक संकट के चलते किसान या खेत मजदूर की खुदकुशी की खबर न आती हो।

कई बार तो एक ही दिन में चार से पांच किसानों और खेत मजदूरों की आत्महत्याओं के समाचार मिलते हैं। साफ है कि सरकार की कृषि नीतियां, जो आमतौर पर आम बजट के जरिए सामने रखी जाती हैं, अंततः खुदकुशी के इस फसल को फैलने से रोकने में सरासर नाकामयाब रहती हैं। इसकी एक सबसे बड़ी वजह है यह है कि किसानों से या उनकी अगुवाई करने वाले भरोसेमंद संगठनों से पूछा तक नहीं जाता कि बजट में उन्हें क्या चाहिए? भारी भरकम बजट बनाने वाली सरकारें चुनावों के समय जरूर उनसे बड़े-बड़े वादे करती हैं पर वे कभी वफ़ा नहीं होते।

लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री किसान योजना को खूब महिमामंडित किया गया था। इसके तहत प्रावधान घोषित किया गया कि प्रति कृषक पहले तीन हजार और बाद में छह हजार रुपये सालाना बैंक खातों में डाले जाएंगे। जहां प्रति किसान लाखों रुपये का सरकारी-गैरसरकारी कर्ज का फंदा हो वहां यह राशि क्या महत्व रखती है, इसका सही जवाब तो नीति निर्धारक ही दे सकते हैं!

नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बने थे। तब से 2019 तक देश के अलग-अलग इलाकों में किसान अपनी मांगों को लेकर लगातार आंदोलनरत रहे। तमिलनाडु के किसान दिल्ली आकर कई महीने तक जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे रहे। पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों ने भी दिल्ली में अनेकों बार धरना प्रदर्शन किए। किसान संगठनों ने हर तरह से कोशिश की, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुलाकात तथा उनकी मुश्किलें रूबरू सुनने का वक्त कभी नहीं निकाला।

अपने अब तक के कार्यकाल में प्रधानमंत्री किसी भी किसान संगठन से नहीं मिले हैं। वह अपने मन की बात जरूर सुनाते हैं, लेकिन किसानों के मन की बात सुनने की चंद पलों की फुर्सत भी उनके पास नहीं है। प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत किसानों के खातों में तय रकम की पहली किस्त कर्नाटक में डालने का विधिवत ‘समारोही उद्घाटन’ नरेंद्र मोदी ने ही किया था। उस मौके पर दिए गए उनके भाषण का सार यह था कि इससे किसानों की समस्याएं खुद-ब-खुद हल हो जाएंगीं। ऐसी कवायद और जलसों से तो भस्मासुर बना कृषि संकट दूर होने से रहा।

किसानों के प्रति केंद्र सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसके पास किसान आत्महत्याओं के 2016 तक के ही आंकड़ें हैं। 2017 से लेकर 2020 तक, यानी आज तक, कितने और किसानों ने खुदकुशी की राह अख्तियार की, इस बाबत राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो ने आंकड़ें अभी फाइलों में सजाकर सरकार के आगे पेश ही नहीं किए। स्पष्ट है कि बड़े स्तर पर मांगे ही नहीं गए होंगे।

गृह मंत्रालय ने किसान आत्महत्याओं की बाबत लोकसभा के पिछले सेशन में एक सवाल के जवाब में बताया कि 2016 में 11,379 किसानों ने खुदकुशी की। यानी हर महीने 948 और प्रतिदिन 31 किसानों ने खुद मौत को गले लगाया। 1995 से लेकर 2016 तक देश में कुल तीन लाख 33 हजार 407 किसान कर्ज से आजिज आकर खुदकुशी कर चुके हैं। इस बीच केंद्र में सरकारें बदलीं, लेकिन किसानों के हालात बद से बदतर होते चले गए। कोई सरकार बढ़ती किसान आत्महत्याओं की रफ्तार को धीमा नहीं कर पाई।

खराब मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ती है। केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी तो फसल बीमा योजना शुरू की गई थी, लेकिन तथ्य बताते हैं कि उस योजना का लाभ किसानों को कम बल्कि बीमा कंपनियों को अधिक हुआ। किसानों को मुनासिब मुआवजे के लिए भी दर-दर भटकना पड़ता है और सरकारी कुर्सियों से फजीहत करवानी पड़ती है। भ्रष्टाचार का डंक अलग से! दशकों से हालात ये हैं कि किसानों को उचित लागत मूल्य भी नहीं मिलता। फसली चक्कर में फंसे किसान ज्यादा संकट में हैं।

कृषि उत्पादन में काम आने वाली जरूरी चीजों अथवा सामान, जिन पर बड़ी-बड़ी एवं मल्टीनेशनल कंपनियों का कबजा है, की लागत आए साल बढ़ती है, लेकिन समर्थन मूल्य को लेकर किसानों को खेत छोड़कर सड़कों पर आकर भूख प्यास के साथ आंदोलन करना पड़ता है। और तो और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को भी सही तरह से लागू नहीं किया गया, जिसके तहत किसानों को उनकी लागत से डेढ़ गुना ज्यादा मूल्य देने की सिफारिश की गई है। इस बात के ढेरों प्रमाण हैं कि किसानों को लागत मूल्य के मुताबिक फायदा नहीं दिया जा रहा।

मुद्दत से देश-विदेश के कृषि अर्थशास्त्री जमीनी हकीकत और पड़ताल के आधार पर कह रहे हैं कि भारत में कृषि घाटे का धंधा बनती जा रही है और आलम यही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत खाद्य के मामले में भी आत्मनिर्भर नहीं रह पाएगा और अनाज तथा दूसरे खाद्य पदार्थ बाहर से मंगवाने पड़ेंगे।

सोचिए, जहां प्याज, टमाटर और लहसुन आदि की किल्लत और बढ़ती कीमतों पर इतना हंगामा होता हो वहां तब क्या होगा। अर्थशास्त्रियों का तो यहां तक कहना है कि देश में इस वक्त जो आर्थिक मंदी दरपेश है उसकी बुनियाद कृषि संकट में है।

सरकार किसानी संकट को गंभीरता से लेती तो बजट से पहले मान्यता प्राप्त किसान संगठनों के नुमाइंदों को बुलाकर बातचीत की जाती और उसके आधार पर आम बजट में प्रावधान रखे जाते। अगर सरकार उद्योगपतियों, बड़े व्यापारियों, विदेशी निवेशकों, उच्च सैनिक अधिकारियों और अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों से बजट-पूर्व विश्लेषण कर सकती है तो किसान प्रतिनिधियों से क्यों नहीं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और जालंधर में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author