सरकार की जन स्वास्थ्य नीति क्या है इस पर कभी चर्चा नहीं होती और अगर होती भी है तो बहुत कम उस चर्चा का जिक्र हमारी मीडिया में होता है। 2017 में प्रधानमंत्री का एक भाषण सोशल मीडिया पर तैर रहा है, जिसमें श्मशान और कब्रिस्तान की तुलना की गई है। किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा दिये गए इस भाषण को, अब तक के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण भाषणों में, स्थान दिया जाना चाहिए। वीडियो पुराना है और 2017 के यूपी चुनाव का है। पर यह वीडियो सरकार की प्राथमिकता तो स्पष्ट कर ही दे रहा है। प्रधानमंत्री महोदय कह रहे हैं, “गांव में कब्रिस्तान बनता है तो गांव में श्मशान भी बनना चाहिए।”
पीएम क्या यह बात जानते थे कि कोरोना वायरस के बदले स्ट्रेन की दूसरी लहर, गांव-गांव, श्मशान बनाने वाली है।
सारी चेतना, जब घृणा, विद्रूपता भरे श्रेष्ठतावाद और निकम्मेपन से सम्पुटित हो जाये तो, मस्तिष्क में यही दो शब्द सूझते हैं। आखिर प्रधानमंत्री जी, यह भी तो कह सकते थे कि गांव-गांव में स्कूल और अस्पताल बनना चाहिए। पर जब वे स्कूल, कॉलेज, और अस्पतालों पर फोकस करेंगे तो इलेक्टोरल बांड में चंदा देने वाले पूंजीपतियों का क्या होगा, जिनके लिये निजी अस्पताल और स्कूल कॉलेज, मोटी कमाई के उद्योग हैं, न कि कोई समाज कल्याण के कार्य! कुछ मित्र इसे चुनावी प्रहार कह रहे हैं। यहीं यह सवाल उठता है कि यह कैसा प्रहार कि प्रधानमंत्री स्कूल-कॉलेज अस्पताल की बात न करे और इस तरह की अनर्गल बात करे। यह बात क्यों कही गयी थी। हर आदमी यह बात समझता है कि यह बात केवल हिन्दू-मुस्लिम को आपस में लड़ाने के लिये कही गयी थी। जो यह संघी गिरोह बराबर करता रहता है।
अगर यह मान लिया जाये कि समाजवादी पार्टी ने कब्रिस्तान की बाउंड्री, अपने मुस्लिम वोट बैंक को तुष्ट करने के लिए बनवा रही थी, तो क्या प्रधानमंत्री के दिमाग में, अपने वोट बैंक को तुष्ट करने के लिये श्मशान का ही नायाब आइडिया आया कि वे गांव-गांव श्मशान बनाने की बात करने लगे? वे यह भी तो कह सकते थे कि कब्रिस्तान की बाउंड्री बनाने से बेहतर है गांव-गांव स्कूल कॉलेज बने। अस्पताल बने। पर वे बजाय इसकी निंदा करने के उन्ही के नक़्शे कदम पर उतर गए। लगे श्मशान बनवाने। मुसलमान को भी कब्र में जाने के पहले रोटी कपड़ा मकान शिक्षा स्वास्थ्य तो चाहिए ही। मुर्दे अपनी बाउंड्री देखने के लिए तो उठते नहीं हैं।
प्रधानमंत्री की एक गरिमा है। अगर उन्हें लगता है कि कब्रिस्तान की बाउंड्री सरकार के धन के दुरुपयोग से बनी है तो क्या बाद में आयी भाजपा सरकार ने वे सारी बाउंडरियां तुड़वा दीं? वे तो जस की तस हैं। उल्टे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्कूल कॉलेज, अस्पताल का मुद्दा तो पीछे रह गया। उन्होंने लोगों के सामने यह तस्वीर रखी कि वे कब्रिस्तान बना रहे हैं हम श्मशान बनाएंगे।
मज़े की बात, कितने ऐसे श्मशान हैं जहां इलेक्ट्रिक शवदाह गृह बन गए। सस्ती दर पर लोगों को लकड़ियां मिलने लगीं। शवों की संख्या के अनुसार नए चिता स्थलों को बना दिया गया। परिजनों को वहां बैठने और अस्थि चुनने की बेहतर सुविधा दी गयी। यह काम भी नहीं हुआ। पर यह हुआ कि दोनों लड़ते रहो और हमको समझते रहो। मेरा यह कहना है कि सरकार जिस काम के लिये बनी है उसे क्यों नही करती है। अपने-अपने वोट बैंक की माली हालत और सामाजिक दशा ही सुधार दो। वे मुस्लिमों के लिये कब्रिस्तान दिखा रहे थे, तो ये श्मशान दिखाने लगे।
अब एक पुरानी खबर पर नज़र डालें। पर यह खबर, उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के सत्तासीन होने के बाद की है। 2018 में द इकोनॉमिक टाइम्स ने एक खबर छापी कि अयोध्या में राम की 100 मीटर ऊंची प्रतिमा बनवाने के लिये सरकार सीएसआर फ़ंड से प्राप्त धन का उपयोग करेगी। यह खबर यह तथ्य स्पष्ट कर दे रही है की सरकार की प्राथमिकता क्या रही है और क्या है। आज जब श्मशान घाट पर टोकन बंट कर शव के दाह संस्कार सम्पन्न हो रहे हैं तो यह खबर आज प्रासंगिक हो गयी। आज लखनऊ की हालत बहुत खराब है। यह बात सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा हूँ, यह बात सरकार के एक कैबिनेट मंत्री ने, मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर कहा है। तमाम अखबार कह रहे हैं। प्रशासनिक विफलता का यह आलम है कि 14 अप्रैल के भारत समाचार न्यूज चैनल के 8 बजे के डिबेट से पता चला कि देश की राजधानी में कोई नियमित, कलेक्टर और डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट तक नियुक्त नहीं है। एलडीए के वीसी और लखनऊ के डीएम का दायित्व एक ही अधिकारी पर है। क्या यह प्रशासनिक लापरवाही नहीं है?
2018 में सरकार ने सीएसआर फ़ंड का धन, 100 मीटर ऊंची भगवान राम की प्रतिमा के लिये, व्यय करने की बात कही थी। यह प्रतिमा सरयू तट पर अयोध्या में बन रही है। यह राम मंदिर से अलग प्रोजेक्ट है। पर इस प्रोजेक्ट के लिये सीएसआर फ़ंड का उपयोग क्यों किया जाये? दानदाताओं से कहा जाये कि वे दान दें, यदि देना चाहें तो। सीएसआर फ़ंड समाज के कल्याण और उसके लाभ के लिये बनाया गया है। कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर का मतलब कंपनियों को यह बताना है कि उन्होंने अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन किन गतिविधियों में किया। इन गतिविधियों के बारे में सरकार फैसला लेती है। भारत में CSR के नियम एक अप्रैल 2014 से लागू हैं। राम की प्रतिमा बने, इस पर किसे आपत्ति है। पर आपत्ति है कि उसमें उस धन का उपयोग क्यों हो जो समाज और जनता की बेहतरी के लिये रखा गया है?
कोरोना तो 30 जनवरी 2020 को ही आ गया था। सरकार ने 24 मार्च से ताली-थाली बजाना, दीया-बाती जलाने के वायरस निर्मूलिकरण प्रोग्राम के साथ लॉक डाउन लगा भी दिया था, और उसी के साथ 20 लाख करोड़ का कोरोना राहत पैकेज की घोषणा भी कर दी थी और पीएम केयर्स के नाम पर एक फ़ंड भी बना दिया था। अब सवाल उठता है कि क्या बजट 2020-21 में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए किया गया आवंटन काफी है?
वित्तमंत्री ने 2020-21 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट में 10 फीसदी की वृद्धि ज़रूर की है, लेकिन तब भी विशेषज्ञों ने इस वृद्धि पर सवाल उठाया था और अब जब कोरोना के कारण हमारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा रहा है, तब भी सवाल उठा रहे हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वस्थ्य मिशन (एनआरएचएम) को इस साल बजट में मिला फंड पिछले साल के बजट के बराबर तो है पर अगर हम पिछले साल किये गए आवंटन के रिवाइज हुए आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि आवंटन कम ही हुए हैं। आंकड़े एक खूबसूरत तिलिस्म की तरह होते हैं, सच जानने के लिये उन्हें तोड़ना पड़ता है।
एनआरएचएम को पिछले साल बजट में 27,039 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था। हालांकि नए आंकड़े बताते हैं कि असल में आवंटन इससे कुछ ज्यादा था। यह 27,833.60 करोड़ रुपये था, लेकिन इस साल का आवंटन पिछले साल के बजट में किये गए 27039.00 करोड़ रुपये के आवंटन के बराबर है। विशेषज्ञों के एक समूह द्वारा पंद्रहवें वित्त कमीशन को सौंपी गयी एक रिपोर्ट समेत कई अन्य रिपोर्ट्स ने यह बताया है कि ग्रामीण आबादी को उपचार मुहैया कराने वाली प्राथमिक चिकित्सा में ज्यादा फंडिंग की जरूरत है। एनएचआरएम का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ग्रामीण स्वास्थ्य की यह एक धुरी है। समस्या, अपोलो, मैक्स, मेदांता में इलाज कराने वाले तबके के सामने नहीं है, समस्या उस तबके के सामने है जो कंधे, चारपाई और साइकिल पर कई किलोमीटर दूर से मरीज लेकर सरकारी अस्पतालों में पहुंचता है और फिर वहां सुविधाओं और डॉक्टरों के अभाव में धक्के खाता है।
इस साल बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र का कुल 69,000 करोड़ रुपये का है जो पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी बढ़ा हुआ है। अब अगर इसको मुद्रास्फीति दर के समानुपातिक लाएं तो दिसंबर में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में सालाना आधार पर मुद्रास्फीति दर (इंफ्लेशन रेट) 7.5% ठहरता है। भारतीय स्वास्थ्य संगठन के सचिव अशोक केवी ने मीडिया को बताया, “बढ़े हुए आवंटन में से आधे से ज्यादा महंगाई दर को रोकने में ही चला जाएगा। इससे सरकार को क्या हासिल होगा। हम किसी भी तरीके से स्वास्थ्य को जीडीपी का 2.5 फीसदी आवंटन करने के 2011 के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएंगे।”
2011 में सरकार ने कहा था कि स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 2.5% होना चाहिए। पर यह हो न सका। अब तो फिलहाल जीडीपी की बात ही न की जाये, क्योंकि वह माइनस 23.9% पर तक आ चुकी है। अब ज़रूर थोड़ा बढ़ी है, पर इस समय चल रही कोरोना की दूसरी लहर का क्या प्रभाव पड़ता है, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है।
निजीकरण और सब कुछ बेच दो के वायरस से संक्रमित सरकार की वित्त मंत्री ने, जिला अस्पताल को, पीपीपी मोड पर मेडिकल कॉलेजों से जोड़ने के नीति आयोग के प्रस्ताव पर सहमति दे दी है। पीपीपी मॉडल भी निजीकरण का एक शिष्ट रूप है, पर उसकी भी गति सर्वग्रासी कॉरपोरेट के निवाले के रूप में ही होती है। कभी-कभी मुझे लगता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या देश का नीति आयोग है जो हर योजना में पीपीपी का मॉडल घुसेड़ देता है, जो सीधे-सीधे निजीकरण या सब कुछ कॉरपोरेट को सौंप देने की एक साजिश है। सरकार ने अभी इस स्कीम की डिटेल्स तय नहीं की है। जब विस्तृत शर्ते सामने आ जाएं तभी कुछ इस बिंदु पर कहा जा सकता है। सरकार को चाहिए कि वह इस प्रस्ताव को खारिज कर दे और स्वास्थ्य नीति की घोषणा करे।
हालांकि, मध्य प्रदेश (जब कमलनाथ सरकार थी तब) और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने यह पहले ही साफ कर दिया है कि वे इस पीपीपी स्कीम को लागू नहीं करेंगे। आयोग ने इस मॉडल पर और अध्ययन किया था वही इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा, “कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों ने कई टुकड़ों में पीपीपी मॉडल को लागू किया है। लेकिन उसके कोई बेहतर परिणाम नहीं निकले हैं। ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे आप यह अंदाजा लगा सकें कि इन राज्यों का यह प्रयास सफल रहा है, क्योंकि इन राज्यों के बाद कहीं और इस स्कीम को लागू नहीं किया गया। साथ ही अगर निजी मेडिकल कॉलेजों को जिला अस्पतालों से जोड़कर डॉक्टरों की कमी पर ध्यान लाने की कोशिश की जा रही है, तो यह संभव नहीं है।” इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने इस कदम का विरोध किया है और इसे ‘घर का सोना बेचने’ जैसा बताया है।
सरकार का कहना है, “विदेश में हमारे स्वास्थ्य पेशेवरों की भारी डिमांड है, लेकिन उनकी स्किल (योग्यता) वहां की जरूरतों के मुताबिक नहीं हैं।” फिर सरकार बजट में यह प्रस्ताव भी रखती है, “स्वास्थ्य मंत्रालय और कौशल विकास मंत्रालय पेशेवर संस्थाओं के साथ मिल कर ऐसे कोर्स डिजाइन करें, जिससे हमारे स्वास्थ्य कर्मियों की क्षमताएं बढ़ सकें।” हालांकि विशेषज्ञों को ऐसे कोर्सेज की जरूरत नहीं लगती है।
डाउन टू अर्थ नामक एक एनजीओ के अनुसार, “हमारे यहां डॉक्टरों की कमी है। किसी भी सरकार को सबसे पहले भारतीय टैलेंट को यहीं बनाए रखने और उसे जरूरी संसाधन मुहैया कराने पर ध्यान देना चाहिए। आखिर जनता का पैसा ठीक इसका उलटा करने में क्यों ज़ाया किया जाए।”
संक्रामक रोगों के प्रति आवंटन को पिछले साल के 5003 करोड़ रुपये से घटाकर 4459.35 रुपये कर दिया गया है। पिछले साल प्रकाशित हुई नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट में कहा गया था कि सभी बीमारियों में से संक्रामक रोग भारतीयों को सबसे ज्यादा बीमार बनाते हैं। ऐसे में सरकार द्वारा इस मद में आवंटन घटाने की बात समझ नहीं आती है। इन इन्फेक्शंस में मलेरिया, वायरल हेपेटाइटिस/पीलिया, गंभीर डायरिया/पेचिश, डेंगू बुखार, चिकिनगुनिया, मीसल्स, टायफॉयड, हुकवर्म इन्फेक्शन फाइलारियासिस, टीबी व अन्य शामिल हैं। विडंबना देखिये, हम इस साल अब तक के सबसे जटिल और लाइलाज संक्रामक रोग, कोरोना 19 से रूबरू हो रहे हैं। इस संदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है।
एक योजना जिसके आवंटन में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई है, वह है राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना। पिछले साल इस योजना को 156 करोड़ रुपये मिले थे, इस साल यह सिर्फ 29 करोड़ रह गए। यह पिछले बजट के आंकड़े हैं। आयुष्मान भारत के आवंटन में भी कोई वृद्धि नहीं की गयी है, यह भी तब जब इस योजना को बड़े धूमधाम से प्रधानमंत्री जी ने प्रचारित किया था। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक संस्थान को मिलने वाले फंड को भी 360.00 करोड़ रुपये से कम करके 283.71 करोड़ रुपये कर दिया गया है। जन औषधि केंद्रों का सभी जिलों तक विस्तार देने की बात कही गयी है। राज्य सभा में जून, 2019 में दी गई एक जानकारी के अनुसार, यह केंद्र खोलने के लिए केवल 48 जिले ही बाकी रह गए हैं।
सरकार हर योजना में पीपीपी मॉडल लाकर उनका निजीकरण करने की सोचती है। निजी क्षेत्रों में अस्पताल हैं और उनमें से कुछ बेहद अच्छे भी हैं। ऐसे अस्पतालों को सरकार रियायती दर पर ज़मीन देती है पर ये अस्पताल गरीब वर्ग की चिकित्सा में रुचि नही दिखाते हैं। हालांकि अदालतों के ऐसे आदेश भी हैं कि ऐसे अस्पताल, गरीब वर्ग के लिये कुछ प्रतिशत बेड सुरक्षित करें। सन् 2000 ई में न्यायाधीश एएस कुरैशी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी, जिसका उद्देश्य निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए निशुल्क उपचार से संबंधित दिशा-निर्देश तय करना था। इस कमेटी ने सिफारिश की कि रियायती दरों में जमीन हासिल करने वाले निजी अस्पतालों में इन-पेशेंट विभाग में 10 फीसदी और आउट पेशेंट विभाग में 25 फीसदी बेड गरीबों के लिए आरक्षित रखने होंगे. लेकिन यह धरातल पर नहीं हो रहा है।
कोविड-19 महामारी जन्य स्वास्थ्य आपातकाल से बहुत पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस (दुर्बल आय वर्ग) के मरीजों की पहुंच निजी स्वास्थ्य सेवाओं तक हो सके, इसलिए उनके हक़ में, एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। जुलाई 2018 के उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उन निजी अस्पतालों को, जो सरकारी रियायती दरों पर भूमि प्राप्त कर बने हैं को, आदेश दिया था कि वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मरीजों को निशुल्क उपचार मुहैया कराएं। अदालत के अनुसार, “अगर अस्पताल इस आदेश का अनुपालन नहीं करेंगे तो उनकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी।”
अब सवाल उठता है कि अदालत के इन निर्देशों का पालन हो रहा है या नहीं इसे कौन सुनिश्चित करेगा? उत्तर है सरकार। पर सरकार क्या इसे मॉनिटर कर रही है? क्या सरकार ने ऐसा कोई तंत्र विकसित किया है जो नियमित इन सबकी पड़ताल कर रहा है।
कोरोना ने जिंदगी जीने का तरीका बदल दिया है। बदले हालात में सरकारी से लेकर निजी चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा सेवा की सेहत और चाल बदलने लगी है। इससे देश भर में स्वास्थ्य सेवाओं और डॉक्टरों सहित स्वास्थ्यकर्मियों पर मानसिक, शारीरिक और प्रोफेशनल रूप से असर पड़ा है। शुरू में पीपीई किट, अस्पतालों में दवा, वेंटिलेटर के अभाव, बेड की अनुपलब्धता और जांच की समस्या तथा कोरोना से जुड़े भय ने, स्वास्थ सेवाओ को लगभग बेपटरी कर दिया है। अधिकतर चिकित्सक कोरोना के अतिरिक्त अन्य मरीजों को भी ठीक से न तो देख पा रहे थे और न ही उनका नियमित इलाज कर पा रहे है।
कई ऐसे भी चिकित्सक हैं जिन्होंने कोरोना के डर से अपने क्लिनिक बंद कर दिये तो कई चिकित्सक ऐसे भी हैं, जो चिकित्सा को सेवा भावना के समकक्ष रख मरीजों का इलाज करने में जुटे हैं। अधिकतर निजी अस्पताल प्रबंधन कह रहे हैं कि कोरोना से निपटने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने के लिए वृहत पैमाने पर कार्ययोजना बनानी होगी। किसी भी तंत्र की परख और परीक्षा संकट काल में ही होती है, और कोरोना के इस संकट, आफत और आपातकाल ने हमारी स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर और सरकारों की उनके प्रति नीयत तथा उदासीनता को उधेड़ कर रख दिया है।
सरकारी अस्पताल कभी बजट की कमी से, तो कभी प्रशासनिक लापरवाही से तो कभी भ्रष्टाचार के कारण तो कभी निजी अस्पतालों के साथ सांठ-गांठ से उपेक्षित होते चले गए और एक समय यह भी आया कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ही अपने मरीजों को उचित चिकित्सा के लिये निजी अस्पतालों के नाम बताने लगे और सरकार द्वारा निजी प्रैक्टिस पर रोक और नॉन प्रैक्टिसिंग भत्ता के बाद भी उनका झुकाव निजी अस्पतालों की ओर बना रहा। जिनके पास पैसा है, जिन्होंने मेडिक्लेम करा रखा है या जिनको सरकार और कंपनियों द्वारा चिकित्सा प्रतिपूर्ति की सुविधाएं हैं उन्हें तो कोई बहुत समस्याएं नहीं हुईं पर उन लोगों को जो असंगठित क्षेत्र में हैं और ऐसी किसी सुविधा से वंचित हैं, वे या तो अपनी जमा पूंजी बेचकर निजी अस्पतालों में इलाज कराते हैं या फिर अल्प साधन युक्त सरकारी अस्पताल की शरण में जाते हैं।
लोककल्याणकारी राज्य का पहला उद्देश्य ही है स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा सब नागरिकों को मिले, लेकिन सरकार स्वास्थ्य बीमा की बात करती है, पर बेहतर सरकारी अस्पतालों की बात नहीं करती है। सरकार का कोई भी नियंत्रण निजी अस्पतालों द्वारा लगाए गए शुल्क पर नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह निजी अस्पतालों के चिकित्सा दर को एक उच्चस्तरीय कमेटी बना कर कम से कम ऐसा तो कर ही दे, जिससे लोगों को उनकी आर्थिक क्षमता के अनुरूप स्वास्थ्य सुविधाएं तो मिल सके।
अगर सरकार ने चिकित्सा क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों के प्रति उदासीनता बरतनी शुरू कर दी तो अनाप-शनाप फीस लेने वाले निजी अस्पतालों का एक ऐसा मकड़जाल खड़ा हो जाएगा जो देश की साठ प्रतिशत आबादी को उचित चिकित्सा के अधिकार से वंचित कर देगा। सरकार द्वारा जिला अस्पतालों को पीपीपी मॉडल पर सौंपना, पूरी चिकित्सा सेवा के निजीकरण और सभी अस्पतालों को पूंजीपतियों को बेच देने का एक छुपा पर साथ ही अयां एजेंडा भी है।
यकीन मानिए, सरकार की प्राथमिकता गवर्नेंस कभी रही ही नहीं है। न केवल यूपी सरकार बल्कि भारत सरकार के संदर्भ में भी कह रहा हूँ। आज भी सरकार की प्राथमिकता, गवर्नेंस नहीं है। सरकार की प्राथमिकता में स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, अस्पताल औऱ जनस्वास्थ्य कभी रहे ही नहीं हैं। जैसे ही इनकी बात आप शुरू करेंगे ये शाखामृग मुद्दे को बदलने की जुगत में लग जाएंगे। अपने जनप्रतिनिधियों से बस यह सवाल पूछिये कि उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में कितने पीएचसी, अस्पताल और स्कूलों के लिये धन दिया है। यहां तक कि विधायक निधि और सांसद निधि का ही ब्रेकअप पूछिये और यह सवाल स्वामी भाव से पूछिए न कि याचक की मुद्रा में।
बीजेपी के कद्दावर नेता रहे यशवंत सिन्हा ने करीब दो साल पहले एक इंटरव्यू में कहा था, “नरेंद्र मोदी दावा कर रहे थे कि गुजरात मॉडल पूरे देश पर लागू करेंगे। मैं कह रहा था कि ये असंभव है. लेकिन मोदी ने मुझे गलत साबित कर दिया। गुजरात मॉडल का मतलब ये है कि पूरे राज्य को मुख्यमंत्री का कार्यालय संचालित करेगा और बाकी सारे मंत्री और संस्थाएं लगभग निष्पप्रभावी होंगे। यह व्यक्तिवाद का चरम है।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)
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