बनारस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में हर घर तिरंगा अभियान और तिरंगे की सेल्फी का जोर है, लेकिन इसी शहर में उन औरतों के संघर्ष और उनके इतिहास को मिटा दिया गया, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया था। वो औरतें और कोई नहीं, वो तवायफें थीं जिनके चौक, दालमंडी और मणिकर्णिका घाट पर कोठे हुआ करते थे।
ये कोठे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत में बाग़ियों की पनाहगाह बन गए थे। उन्हीं में से एक कोठा विद्याधरी बाई का भी था, जिनके संघर्षों को सिरे से भुला दिया गया है, लेकिन उनकी संघर्षगाथा आज भी हमें प्रेरणा देती है। इस गुमनाम योद्धा को जमाने ने भले ही भुला दिया, लेकिन जसुरी में इनकी यादें अभी जिंदा हैं।
जसुरी कोई मामूली गांव नहीं है। चंदौली जिला मुख्यालय के दक्षिणी छोर पर बसे इस गांव ने सुरों की कई मल्लिकाओं को जन्म दिया था। दीगर बात है कि इस गांव के लोग अब न विद्याधरी को जानते हैं, न चंदा बाई को। लोग यह भी नहीं जानते कि इंदौर घराने की सुविख्यात नृत्यांगना कैसर बाई भी जसुरी की थीं। बिहार के अमावा स्टेट की सुविख्यात गायिका लक्ष्मी बाई की जन्मभूमि भी जसुरी थी।
इन सभी कला साधकों ने आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया, लेकिन इनके संघर्षों की कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हो सकीं। विद्याधरी बाई समेत जसुरी के कला साधकों ने अपने जीवन का सांध्यकाल इसी गांव में बिताया। जसुरी में अब गीत-संगीत की महफिल नहीं सजती है। चंदौली ही नहीं, जसुरी के लोग भी न इन महान हस्तियों को जानते हैं और न ही इनकी कुर्बानियों को।
विद्याधरी बाई, इनकी आवाज में ऐसी खनक थी कि राहगीरों के पांव खुद-व-खुद रुक जाते थे। यह वही विद्याधरी बाई हैं जिन्होंने संगीत के जरिये आजादी की अलख जगाई थी। हिन्दुस्तान में देशभक्ति का पहला मुजरा भी विद्याधरी ने ही गाया था। वो आजादी के लिए लड़ने वाले रणबाकुंरों को साजिंदा बनाकर अपने यहां छिपाती भी थी।
साल 1930 में आजादी के आंदोलन में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई थीं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से विदेशी वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। ओजपूर्ण राष्ट्रीय गीतों को अपने कार्यक्रमों में निर्भीकता से गाकर आजादी के रणबांकुरों को प्रेरणा देती थीं। वह दुनिया भर में गाना गाने जाती थीं।
दौलत लेकर लौटती थीं तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाले रणबाकुरों के हवाले कर देती थीं। साल 2017 में अप्रैल महीने में सिने स्टार अन्नू कपूर बनारस आए तो उन्होंने खुद इस बात को खुद तस्दीक किया था। साथ ही विद्याधरी बाई का वह ऐतिहासिक मुजरा भी सुनाया था, जो क्रांतिकारियों में जोश भरने के लिए वह गाया करती थीं।
नहीं संजोई गई विद्याधरी की यादें
चंदौली के ब्लाक प्रमुख संजय सिंह जसरी गांव के निवासी हैं। वह बताते हैं, “विद्याधरी बाई गांव भर की बुआ थीं। जीवन के अंतिम काल में वह अपने छोटे भाई सरयू राय और भतीजे भगवती राय के परिवार के साथ रहीं। उस समय जसुरी में विद्याधरी का इकलौता तिमंजिला मकान था, जिसमें बेल्जियम के झूमर लटकते थे।
गांव के उत्तरी छोर पर बड़ा सा बगीचा भी था। आम, लीची, बेर, आंवला, खजूर और नारियल के पेड़ों के झुरमुटों के बीच संगीत के शौकीनों के ठहरने के लिए आलीशान कमरे थे। इन्हीं कमरों में आजादी के रणबांकुरे भी टिकते थे। बगीचे में पक्का कुआं था। तिमंजिले मकान में दो बड़े हाल थे। वह रियाज जसुरी में अपने बंगले में ही करती थीं। विद्याधरी बाई ने अपने बगीचे को सींचने के लिए जो कुआं बनवाया था, वह अब नहीं है।”
“विद्याधरी बाई भजन गाती थीं, लेकिन खयाल, टप्पा, तराना, सरगम और ठुमरी में इनका कोई शानी नहीं था। अति शालीन, व्यवहार कुशल, सौम्य, शिष्ट, धार्मिक स्वभाव की विद्याधरी को समूची दुनिया जानती थी। वह हिन्दी ही नहीं, उर्दू, गुजराती, मराठी और बांग्ला में भी गाती थीं। वह कुछ भी गाती थीं, तो महफिल लूट लेती थीं। जयदेव कृत गीत गोविंद की अनुपम गायिका के रूप में इन्हें देश भर की प्रमुख रियासतों में अपार धन, आदर, कीर्ति हासिल हुई।”
बुझावन राय की बेटी विद्याधरी बाई का जन्म साल 1881 में जसुरी में हुआ था। वह जीवन भर अविवाहित रहीं। इनकी मां मुट्ठी देवी और दादा परसोत्तम राय भी महान संगीत साधक थे। विद्याधरी के दो भाई थे नन्हें राय और सरयू राय जो खेती-किसानी किया करते थे।
वह बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। उन्हें जीवन ज्योति की दीपशिखा बुझने का आभास हो गया था। मृत्यु के एक दिन पहले बैशाख शुक्ल चतुर्दशी को वह जसुरी से बनारस के मिश्र पोखरा स्थित मुक्ति भवन आईं। 103 साल की उम्र में 10 मई 1971 के दिन सोमवार को पूर्वांह्न तीन बजे उनका निधन हो गया।
विद्याधरी बाई के कुनबे में उनके भाई सरयू राय के पुत्र भगवती प्रसाद की बेटी बीना देवी के पति सर्वनाथ राय मैजूदा समय में जसुरी रहते हैं। सर्वनाथ राय की तीन बेटियां सावित्री, संगीता और गीता की शादी हो चुकी है। इनके इकलौटे बेट संजय राय सर्वनाथ के साथ रहते हैं। संजय रेहन पर जमीन लेकर खेती-किसानी करते हैं।
सर्वनाथ राय की माली हालत बेहद दयनीय है। पुराने जमाने का इनका घर ढहने की कगार पर है। जिस कंठ कोकिला ने देश को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई, आज उनके कुनबे के लोगों को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाना कठिन हो गया है।
घर में टूटी-फूटी चारपाई, खपरैल का मकान और हैंडपंप व शौचालय है। इनकी कुल संपत्ति इतनी ही है। विद्याधरी बाई के पास पहले अकूत संपत्ति हुआ करती थी, जिसे उन्होंने आजादी के रणबांकुरों के हवाले कर दिया था। गांव के बाहर उनका पांच बीघे का बगीचा था, जिसे उनके भतीजे भगवती प्रसाद ने बेच दिया था।
विद्याधरी के कुनबे से जुड़े सर्वनाथ राय के पास उनकी कई यादगार वस्तुएं आज भी मौजूद हैं। उन्होंने अपने घर में एक मेज पर विद्याधरी और उनके भाई सरयू राय की तस्वीरें सजा रखी हैं। घर की धरन टूटने लगी तो उनकी आखिरी निशानी बेल्जियम के वो झूमर उतार कर जमीन पर रख दिए गए, जो उन्हें राजशाही घरानों ने तोहफे में दिए थे।
सर्वनाथ राय कहते हैं, “हमारी पूर्वज विद्याधरी देवी का नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में जुड़ जाए और उनकी यादें संजो दी जाएं, यही हमारे लिए काफी होगा। बड़ी बात यह है कि हमारे गांव के कुछ ही फासले पर कलेक्ट्रेट है और चंदौली के डीएम वहीं बैठते हैं, लेकिन शायद वो भी विद्याधरी देवी के नाम से अनजान ही होंगे।”
धुंधला हो गया इतिहास
अपने युग की सौंदर्यवती और कोकिल कंठी गायिका विद्याधरी ने बनारस के सुविख्यात सारंगी वादक राम सुमेरू मिश्र, दरभंगा के उस्ताद नसीर खां-बशीर खां और आखिर में मूर्धन्य संगीतकार दरगाही मिश्र से संगीत सीखी थी। इस वीरांगना की दिलचस्प कहानी का जिक्र किसी भी पाठ्यपुस्तक में नहीं मिलता है।
इसका उल्लेख साहित्य की कुछ पुस्तकों, ऐतिहासिक रिपोर्टों और शोध कार्यों में मिल जाता है। विद्याधरी के कुनबे के सर्वनाथ राय को इस बात की अफसोस है कि स्वतंत्रता दिवस के दिन भी उन्हें याद नहीं किया जाता है। अफसोस जताते हुए वह कहते हैं, “विद्याधरी देवी के संघर्षों का इतिहास धुंधला हो गया है और उनकी कहानियां इतिहास के पन्नों में कब दर्ज होंगी? इसका हमें सालों से इंतजार है।”
बहुत कम लोग जानते हैं कि जसुरी की विद्याधरी की पहल पर असहयोग आंदोलन के लिए फंड जुटाने के लिए बनारस की तवायफों की टोली ने ‘तवायफ सभा’ बनाई थी। उस समय बनारस में चौक स्थित चित्रा सिनेमा के सामने विद्याधरी का कोठा हुआ करता था।
‘तवायफ सभा’ की ओर से विद्याधरी बाई ने जब विदेशी सामानों का बहिष्कार करने का अनुरोध किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर जुल्म ढाना शुरू कर दिया। जब उन्होंने गहनों के बजाय लोहे के गहने पहनने का ऐलान किया तो अंग्रेजों ने कहर बरपाते हुए उनका कोठा जबरिया बंद करा दिया। बाद में विद्याधरी अपने घर जसुरी आ गईं।
चंदौली में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन का जिलाध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, “विद्याधरी देवी गांधी जी की भक्त थीं। जिस समय ईस्ट इंडिया कंपनी के विरोध में असंतोष बढ़ रहा था, उस समय जिन तवायफ़ों ने पर्दे के पीछे से उस ‘विद्रोह’ में सक्रिय भूमिका निभाई थी, उनमें विद्याधरी देवी सबसे आगे थीं। वह ब्रितानी ग्राहकों की जासूसी करतीं, उन्हें बात करने को तैयार करतीं और उनसे मिली जानकारियों को ‘विद्रोहियों’ तक पहुंचाती भी थीं।
बनारस से लौटने के बाद जसुरी में उनका बगीचा, जिसमें रियाज करने के लिए कुछ कमरे बने थे, वो बाग़ियों के मिलने और छिपने के ठिकाने बन गए थे। विद्याधरी बाई ‘बाग़ियों’ को आर्थिक मदद देती थीं। वह न केवल स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थीं, बल्कि उन्होंने आंदोलन के लिए धन जुटाने के लिए निस्वार्थ भाव से योगदान दिया था।”
आनंद यह भी कहते हैं, “विद्याधरी देवी का नाम उन प्रमुख साजिशकर्ताओं में भी गिना जाता है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन के दौरान महिलाओं और बच्चों की हत्या की घटनाओं के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था। यह उनके भीतर भरे निस्वार्थ देशप्रेम का प्रतीक था।
उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। विद्याधरी देवी की कुछ कहानियां लोककथाओं में तो प्रचलित हैं, लेकिन इतिहास में इन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वे हकदार थीं।”
विद्याधरी बाई ने गीतों के जरिये अंग्रेजों का जमकर प्रतिरोध किया था। असहयोग आंदोलन में उनका संघर्ष इससे भी कहीं बढ़कर था। गदर के वक्त उनका गीत आजादी के सिपाही अक्सर गुनगुनाया करते थे, “यह युग अपने साथ आजादी की पुकार लेकर आया है/कोई नहीं डरता तुम्हारी जेल से, तुम्हारे अत्याचार से/शहादत हमारे लिए बच्चों का खेल बन गई है…।
आज़ाद होने की चाहत से प्रेरित होकर, वह हर उस महफ़िल (संगीत सभा) में इस गीत को गाने पर ज़ोर देती थी, जिसमें उन्हें आमंत्रित किया जाता था। जसुरी गांव के पुरनिया बताते हैं कि, “विद्याधरी मन और कर्म दोनों से आजादी की योद्धा थीं। वो चरखा चलाती थीं। खादी पहनती थीं।
विद्याधरी अकेली नहीं थीं। उनके साथ कई , कुशल गायिका और नर्तकियां देश को आजाद कराने के लिए लड़ रही थीं। 1920 के दशक में गांधी के उदय और नैतिकता पर उनके रुख़ के साथ, तवायफ़ों और उनके प्रतिरोध को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। उन्हें अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है, क्योंकि राष्ट्रवादी उनके होने से असहज थे।
जब असहयोग आंदोलन सामाजिक बुराइयों को दूर करने तक पहुंच गया, तो तवायफ़ों ने खुद को बाहर पाया, उनकी आवाज़ें दबा दी गईं। ठुमरी की साम्राज्ञी बेगम अख्तर ने भी आजादी की मुहिम में अपनी आवाज दी थी। उन्होंने एक संगीत कार्यक्रम आयोजित किया और इतना अच्छा गाया कि सरोजिनी नायडू ने उन्हें एक खद्दर की साड़ी भेजी।
तवायफ़ों का प्रभाव
आज जो चंदौली है, वह पहले बनारस का हिस्सा हुआ करता था। ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार-आतंक के चलते बनारस में उस दौर की सभी तवायफों के मन में गहरी नाराजगी और गुस्सा था। अंग्रेजों के खिलाफ विद्याधरी देवी ने साल 1930 में ही आंदोलन छेड़ दिया था।
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, “ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहली आवाज बनारस से ही उठी थी, जब अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भागना पड़ा था। वह किसी राजा-रजवाड़ों के खौफ से नहीं, बल्कि बनारस की जनता उनके खिलाफ खड़ी हुई थी, जिनमें बनारस की तवायफों का रोल बहुत अहम था। अंग्रेजों के खिलाफ बनारसे के कोठों से ही सबसे ज्यादा हवा मिली।”
“राजा चेत सिंह के खिलाफ जब अंग्रेजों का शिकंजा कस रहा था, उस दौरान बनारस के कोठों पर ही इसकी चर्चा तेज हुई और वहीं से गुस्से का गुबार बनना शुरू हुआ। बाद में कई अंग्रेजों को जान गंवानी पड़ी और उन्हें अपनी पल्टन लेकर भागना पड़ा। उस दौर में तवायफों ने जो गाना गाया, ” हाथी पर हौदा, घोड़े पर जीन, ऐसे भागा वारेन हेस्टिंग…वो काफी मशहूर हुआ था।”
प्रदीप कहते हैं, “आजादी के आंदोलन में बनारस की तवायफों का मुकम्मल इतिहास भले ही नहीं लिखा गया, लेकिन साहित्य की किताबों में इनकी दिलेरी के किस्से दर्ज हैं। वो किस्से भी दर्ज है कि तवायफों के कोठों पर सिर्फ घुंघरू ही नहीं गूंजते थे, बल्कि उनसे आजादी की जंग के तराने निकला करते थे।
कई कोठे क्रांतिकारियों की पनाहगार बने थे। विद्याधरी के साथ रसूलनबाई और जद्दन बाई ने तो खुलकर क्रांति में सहयोग दिया। यही कारण है कि वे अंग्रेजों की नजर में आईं और उनके कोठे खाली करवा लिए गए। उनके अलावा कई और भी तवायफें थीं जो फुटपाथ पर आ गईं।”
दरअसल, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन के लिए स्वराज फंड में भागीदारी निभाने के लिए बनारस की तवायफों से संपर्क किया था। लेकिन तवायफें इस शर्त पर चंदा जमा करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करने को तैयार हुईं कि गांधी जी उनके कार्यक्रम को देखने आएंगे। उस कार्यक्रम में गांधी नहीं आ सके, लेकिन बनारस की तवायफ गौहर जान ने कुल जुटाए गए 24 हज़ार में से 12 हज़ार रुपये उन्हें भेजे थे।
बनारस की तवायफों ने महिलाओं का एक ऐसा समूह तैयार किया था, जो निडर होकर सिपाहियों का समर्थन करने के लिए तैयार थी। उन्होंने बनारस के चौक में विद्याधरी बाई के कोठे का मुख्यालय बना रखा था।
विद्याधरी के साथ रसूलनबाई और जद्दन बाई का नाम उन प्रमुख साजिशकर्ताओं में भी गिना जाता है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वह न केवल स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थीं, बल्कि फंड जुटाने में बड़ा योगदान दिया था।
दरअसल, पूर्वी भारत में बनारस शहर 19वीं सदी में संगीतज्ञों का महातीर्थ बन कर उभरा था। कजरी, दादरा और ठुमरी की शानदार बंदिशें तैयार करने वाली बड़ी मैनाबाई, हुस्ना जान को राजा प्रभु नारायण सिंह के दरबार में जगह मिली थी।
तवायफ़ों को दौलत, ताक़त, इज़्ज़त और राजनैतिक पहुंच हासिल थी और उन्हें संस्कृति पर अथॉरिटी समझा जाता था। शरीफ़ ख़ानदान के लोग अपने बेटों को तहज़ीब, अदब और बोलने की कला सीखने के लिए उनके पास भेजा करते थे।
बनारस की ज़द्दनबाई (नरगिस की मां), मेनकाबाई (शोभा गुर्टू की मां ) और सिद्धेश्वरी देवी (सविता देवी की मां) ने अपने वक्त में बड़ा नाम कमाया और उनके बाद उनकी प्रतिभाशाली बेटे-बेटियों ने। लेकिन फनकारों की तरह सभी तवायफें भाग्यवान नहीं रहीं। आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली अनगिनत तवायफों को गौरवशाली इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिल पाई जिसकी वे हकदार थीं।
खासतौर पर बनारस की वो तवायफ़ें जो उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विरासत का अटूट हिस्सा थीं, जिनका उनकी कला को, फ़ारसी और उर्दू साहित्य और शायरी के लिहाज से बहुत सम्मान किया जाता था।
कौन लिखेगा तवायफों के संघर्ष का इतिहास?
पूर्व मंत्री शतरुद्र प्रकाश, बनारस के कोठों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मुहिम चलने वाली तवायफों के संघर्ष को इतिहास के पन्नों में दर्ज करने की वकालत करते हैं। वह कहते हैं, “बनारस की तमाम तवायफें वीरांगाना थीं। जब अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ तो साहित्य और संगीत के क्षेत्र में काम करने वाले तबके ने भी क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
वे कहते हैं, “जब कोई क्रांति होती है तो आजादी की बात हर आदमी के दिमाग में बैठ जाती है और हर तबका संघर्ष में शामिल हो जाया करता है। उस दौर की तवायफें भी समाज से अलग नहीं थीं। उनके घुंघुरुओं में संगीत बोलता था, तो आजादी की छटपटाहट भी निकलती थी।”
शतरुद्र यह कहते हैं, “आजादी की लड़ाई में बहुत कुछ तबाह हुआ। एक दौर तबाह हुआ और एक संस्कृति नष्ट हो गई। कथक नृत्यांगना और शास्त्रीय गायिकाओं को अंग्रेज़ी हुकूमत ने ‘नाच गर्ल्स’ बना दिया। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाली बनारस की तवायफें दौलत और रुतबे वाली औरतें थीं”।
“कलाकारों की श्रेणी में उनका स्थान शीर्ष पर था। यह एक ऐसा वर्ग था जो गलियों में कला दिखाने और देह व्यापार से अलग था। उनके मकान, बाग़, कारख़ाने, खाने-पीने और सुख-सुविधा के साधन ब्रितानी शासकों ने साल 1857 में विद्रोह में संलिप्त होने के कारण ज़ब्त कर लिए थे।”
“बनारस की तवायफों का सटीक इतिहास ही नहीं, बल्कि उनके बारे में जनश्रुतियों और कहानियों को भी दर्ज करने की जरूरत है। तवायफों के योगदान की अवज्ञा नहीं की जानी चाहिए। जाहिर है कि इतिहास जो लिखा जाता है तो बहुत से अनछुए पहलू रह जाते हैं। यह उजागर करना और समाज के सामने लाना बहुत बड़े साहस का काम है। इस तरफ तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। इनका इतिहास जुटाना बहुत बड़ी बात है।”
शतरुद्र कहते हैं, “तवायफों के कुनबे के लोग बनारस के तमाम गांवों में बिखरे हुए हैं, जो नौकरी और पहचान दोनों के लिए मोहताज हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि मौजूदा दौर में कर्महीन विद्वानों (घरों में बैठ कर लिखने वाले) की बड़ी जमात खड़ी हो गई है। तथाकथित इन्हीं विद्वानों ने ढोंग और पाखंड को बढ़ाया है और तवायफों की जिंदगी को मर्दों के बनाए हुए समाज में गलत ढंग से पेश किया है।”
कोठे से मंडी तक
मौजूदा समय में तवायफ शब्द इतना क्लासी लगता है, जिसे सुनकर आंखों के सामने लाइटिंग जगमगाने लगती है। खूबसूरत कोठियां दिखाई देती हैं, झालर, झुमके, कांच से सजे हुए जालीदार पर्दे नजर आते हैं। कल्पनाओं में तैरती खूबसूरत काली आंखें, गोरा चेहरा, पतली कमर और घुंघरू बांधकर सुर-ताल पर कदमताल करते पैर, कानों में घुलता संगीत और चारों ओर से आती वाह….वाह की आवाज का रोमांटिक एहसास होता है। लेकिन यह सीन फिल्मों का है।
19वीं सदी के पहले तक तवायफें बदनाम नहीं थीं। बल्कि वे मजहब, शराफत और तालीम का वो घरौंदा थीं, जहां बड़े-बड़े नवाब अपने बच्चों को तहजीब सीखने भेजा करते थे। तवायफों की हस्ती तब मिटने लगी जब अंग्रेज आए और उन्होंने ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू किया।
ब्रिटिश हुकूमत ने तवायफों को वेश्याओं की कटेगरी में खड़ा कर दिया। उनकी महफिलों पर अश्लीलता फैलाने का तमगा लगाकर बदनाम करना शुरू कर दिया। बाद में उनके कोठों को गैरकानूनी करार दे दिया गया। गोरे अंग्रेजों ने ब्रिटिश काल की अदालतों ने यहां तक कहा कि नाच-गाना नाम का है, वहां असल में जिस्मफरोशी होती है।
उस दौर में राजशाही जा रही थी और खजाने खाली हो रहे थे। अंग्रेजों का डर हावी हो रहा था। नतीजा, महफिलें सजनी कम होने लगीं। राजे-रजवाड़ों और महलों ने तवायफों से तौबा कर ली। संगीत के जो कद्रदान और रईस कोठों पर जाते थे, वो भी उनसे मुंह फेरने लगे।
अंग्रेजों के दमन का नतीजा यह रहा कि तमाम तवायफें और उनके साजिंदे गांवों में जाकर खानाबदोश की जिंदगी गुजारने लगे। बनारसी तवायफों के कुनबे के लोग अपनी जाति गंधर्व बताते हैं, लेकिन सरकारी रिकार्ड में इनकी उप-जाति भाट के रूप में दर्ज है। इनका गोत्र गंधर्व है।
जनचौक टीम ने विद्याधरी बाई के कुनबे के सर्वनाथ राय के पुत्र संजय राय से बात की तो उनका कहना था कि यह मत लिखिए ही हमारी असल बिरादरी क्या है? लोग क्या कहेंगे, हमारा मान-सम्मान ही चला जाएगा। अभी हम अपर कास्ट में गिने जाते हैं। बाद हमें क्या बना दिया जाएगा, कह नहीं सकते।
वह कहते हैं, “चंदौली के चक सहदवारे गांव मूल निवासी रही देश की मशहूर गायिका गिरजा देवी हमारी ही बिरादरी की थीं। हमने सरकारी अभिलेखों में अपनी जाति भाट नहीं लिखी है। हम हर जगह गंधर्व को ही अपनी जाति बताते हैं। सरकारी रिकार्ड में हमें सामान्य जाति में रखा गया है, इसलिए कोई सुविधा नहीं मिल पाती है।”
भाट समुदाय की जिंदगी बेरंग
यह कहानी एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है, जब भारत ने अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करके खुद को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराया था। देश में आजादी की पहली लड़ाई 1857 में लड़ी गई थी, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। इसी संघर्ष ने आज़ादी के सपने को साकार किया। हम उस आंदोलन से परचित हैं, जिसकी शुरुआत आजादी के रणबांकुरों ने लड़ी थी और वो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया।
लेकिन इस कहानी का एक पहलू और भी है जिसे लोग नहीं जानते। ये वो हैं बनारस की तवायफें। उनके संघर्ष की बदौलत हमने गोरे अंग्रेजों को भारत से भगाया था। उन्होंने अपने स्वार्थ को त्यागकर अपने देश को अहमियत दी। लेकिन इनके संघर्षों भुला दिया गया अथवा इनकी कहानियां इतिहास के पन्नों में धुंधली हो गईं। उनमें से कुछ की तो यादें भी मिट गई हैं।
पूर्वांचल में तवायफों के कुनबे आंचलिक इलाकों में जहां-तहां बिखरे हैं। ये भाट समुदाय से ताल्लुक रखती थीं। इनकी तादाद कम नहीं है। बनारस, चंदौली और गाजीपुर के तमाम गांवों में भाट जातियों को लोग अपने पारंपरिक धंधे को छोड़कर दूसरे कामों में जुट गए हैं।
बनारस के चौबेपुर इलाके के बर्थरा कला, सृष्टि के अलावा चंदौली के बैराठ और रामगढ़ में भाट जाति की आबादी बहुतायत में है। इसके अलावा चंदौली के चुरमुली, उरगांव, चक सोहदवार, फगुइयां, सेवखर, शिवगढ़, पौरा, सकलडीहा, रमरेपुर, नरौली, बसगांवां, तोरवां, जगदीश सराय, मद्धुपुर और गाजीपुर के विश्रामपुर, देवकली में भाट जाति के लोग अपने वजूद को किसी तरह से जिंदा किए हुए हैं। इस समुदाय के लोगों की जिंदगी में कोई रंग नहीं है।
विकिपीडिया के मुताबिक, “भाट (संस्कृत भट्ट से व्युत्पन्न शब्द) भी काव्यरचना से संबंधित हैं, लेकिन इनके विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। भाट शब्द भी भाट जाति का अवबोधक है। उत्तर प्रदेश में भी इनकी श्रेणियां हैं, लेकिन थोड़े बहुत ये सभी उत्तर भारत में पाए जाते हैं। नेस्फील्ड के अनुसार, ये ब्राह्मण कुल से जुड़े थे, जो बहुधा राजदरबारों में रहते, रणभूमि के वीरों की शौर्यगाथा जनता को सुनाते और उनका वंशानुचरित बखानते थे। वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था।”
खुद को शिव का वंशज मानते हैं भाट
वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय कहते हैं, “पूर्वांचल के सांस्कृतिक संरक्षण में भाट जाति का अपना विशिष्ट योगदान है। यह पेशेवर गायन-वादन करने वाली जाति रही है। ये जाति खुद को भगवान शिव का वंशज मानती है। इन्हें गंधर्व भी कहा जाता है।
इनका मानना है कि संगीत की शिक्षा इन्हें स्वयं भगवान महादेव ने दी थी। उन्हीं के आदेश पर वे लोक में सामवेद की इस विधा का प्रचार करते रहे हैं। सिनेमा के व्यापक प्रचार-प्रसार के चलते जब गीत-गंवनई का तौर-तरीका बदलने लगा तो भाट जाति के लोगों ने खेती-किसानी शुरू कर दी।”
“पहले इनका व्यवसाय ही लोकगीतों, लोकनाट्यों, नृत्यों आदि के जरिये लोगों का मनोरंजन करना था। ये लोग जन्मजात और अनुवांशिक रूप से गीत और कविता की सहज प्रतिभा से लैस होते थे। इनमें लोक के सामाजिक एवं ऐतिहासिक घटनाक्रमों को गीत-संगीत में पिरो देने की अद्भुत प्रतिभा हुआ करती है।
ये प्रतिभाशाली आशुकवि समाज के अच्छे-बुरे सामाजिक घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखते थे और ढोलक की थाप व घुंघरुओं की झनकार में इनका रोचक प्रस्तुतीकरण करते थे।”
विजय कहते हैं, “त्योहार, उत्सवों से लेकर शादी-ब्याह के मौके पर ये अपने नृत्य से उल्लास का वातावरण बना देते थे। ये सौन्दर्य की धनी कलाप्रेमी हुआ करते थे। संगीत इनका व्यवसाय ही नहीं जीवन और, जीवन का सारतत्व हुआ करता था। पूर्वांचल के आंचलिक इलाकों में ये अपनी वृत्तियों में घूमा करते थे।
इनके खुद के स्थायी निवास भी नहीं हुआ करते थे। फसल पैदा होने पर इन्हें इनका हिस्सा दे दिया जाता था। राजाओं-महाराजाओं के दौर में ये जातियां सामंतों का मनोरंजन किया करती थीं और अपने नायकों का स्तुति गान करते हुए इतिहास संजोने का काम काम भी करती थी।
बाद में उनकी श्रुति-कथाओं को धरोहर के रूप में इतिहास में दर्ज तो किया गया, लेकिन आजादी की लड़ाई में इतिहाकारों ने कोई तवज्जो़ नहीं दी।
“यह कहानी एक सदी से पुरानी है, जब भारत ने अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करके खुद को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराया था। हम सभी उस आंदोलन से परिचित हैं, लेकिन गंदर्व समुदाय (भाट) से जुड़ी उप-जातियों के शानदार इतिहास को न सिर्फ भुलाया गया है, बल्कि इस भूल को सुधारने की जरूरत आज तक नहीं समझी गई।
यही वजह है कि भाट समुदाय को हमेशा हिकारत की दृष्टि से देखा गया और इन्हें कभी इनके हिस्से का सामाजिक सम्मान नहीं मिल पाया।”
कोर्ट से जवाब तलब
बदलते परिवेश में भाट जाति का परंपरागत व्यवसाय लुप्त होने की ओर है। भाट जाति की नई पीढ़ी की अपने पुश्तैनी काम में कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि इससे इन्हें सम्मानजनक व सुविधाजनक जीवन नहीं मिल पाता है। सालों से इनके द्वारा वंशागत तौर पर संजोई गई कई संस्कृतिक धरोहर भी खात्मे की तरफ बढ़ रही है।
इनके पास मौजूद संस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने की सरकार के पास न कोई योजना है और न ही कोई भी ठोस प्रयास दिखाई दे रहा है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से भाट समुदाय को अनुसूचित जन-जाति में शामिल करने की मांग में दाखिल जनहित याचिका पर जवाब मांगा है। जुलाई 2024 में यह आदेश न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य अखिल भारतीय भाट समाज एकता और उसके अध्यक्ष पवनेंद्र कुमार की जनहित याचिका पर दिया है।
याचिका में कहा गया है कि भाट समुदाय को डी-नोटिफाइड जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार को सार्वजनिक रोजगार में भाट समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में आरक्षण प्रदान करने का निर्देश दिया जाए।
जनहित याचिका में यह भी कहा गया है कि राज्य के कुछ जिलों में बसी विमुक्त जनजाति के भाट समुदाय को एक मई 1961 के शासनादेश द्वारा विशेष दर्जा दिया गया था। यह दर्जा शिक्षा, शैक्षणिक कार्य और सामाजिक कल्याण योजनाओं के प्रयोजनों के लिए था। भारत के विभिन्न राज्यों में सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के लिए विमुक्त जनजातियों को अनुसूचित जनजाति माना जाना चाहिए।
याचिका में कहा गया कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में व्यवस्थित जीवन जीने और राज्य की सामाजिक कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होने के बावजूद उन्हें सार्वजनिक रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नहीं दिया गया है, जिसके वे हकदार हैं।
जनहित याचिका में आगे कहा गया है कि जून 2013 में राज्य सरकार ने सभी डीएम और कमिश्नर को एक आदेश जारी किया था, जिसमें जाति प्रमाण-पत्र के लिए पात्र विमुक्त जनजातियों को विमुक्त जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। लेकिन भाट समुदाय को अनुसूचित जनजाति के उपरोक्त लाभों से वंचित किया गया है जो भेदभाव और कानून का उल्लंघन है।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)