Thursday, April 25, 2024

कुल्हड़िया मेले से ग्राउंड रिपोर्ट: ‘पहले एक दिन में डेढ़ से दो हजार की हो जाती थी बिक्री, अब तीन-चार सौ की होती है कमाई’

कुल्हड़िया, चंदौली। देश में मेले का काफी पुराना और समृद्ध इतिहास है। विशेषकर ग्रामीण परिवेश में लोग उत्सव, दंगल और मनोरंजन के साथ गृहस्थी, खेतीबाड़ी समेत अन्य जरूरी वस्तुओं की खरीदारी लिए मेले में जाते हैं। मेले में झूले वाले; खिलौने वाले; हार-बिंदी और गुब्बारे वाले; खाट के पार्ट्स और चलनी-सूप बेचने वाले; ओखली, चक्की और बर्तन बेचने वाले; छोटे-मोटे कारीगर; फेरीवाले, बहरुपिये, खोमचे वाले; मिठाई और शरबत वाले अपनी दुकानें लगाते हैं। लोग बाग अपने बच्चों और परिवार के साथ यहां पहुंचते हैं।

कुल्हड़िया मेले में अपने जवानी के दिनों में कुश्ती लड़े सुखराम ने जनचौक से अपनी यादें साझा करते हुए कहा कि “कोरोना में मेला टूट गया है। इसी मेले में कुछ साल पहले तक लगातार पंद्रह दिनों सुबह से शाम तक जनपद-जवार के पहलवान अपनी मांसल रान पर ताल ठोंकते थे। दांव-पेंच और जवानी की जोर आजमाइश में अखाड़े की धूल बारूद सरीखी भड़कती थी। वह दृश्य देखने भर से दर्शकों में जोश भर जाता था। दर्शक अपने पसंद के पहलवानों को दीर्घा से चिल्लाते और कहते, दांव काटिये, बाजू पकड़िए, संभल के, आंख बचाके, कमर पर दांव लगावा आदि-आदि शब्दों से जोश बढ़ाते थे।”

रबर रिंग और झूले पर मस्ती करते बच्चे

सुखराम आगे कहते हैं कि “जब पलक झपकते एक पहलवान अपने विरोधी को हवा में लहराते हुए मिट्टी पर धम्म से पटकता। यह नजारा देखते ही लोगों की आवाज से कई किलोमीटर में फैला मेला परिसर गूंज जाता था। यह आवाज सुनकर दंगल देखने के लिए एक-एक इंच जगह बनाना आसान नहीं होता था और कुश्ती कर रहे पहलवानों की एक नजर पाने की होड़ मची रहती थी। तब कुश्ती का जमाना था, अब ये दंगल कहां देखने को मिलते हैं? कोरोना ने मेले को चारों खाने चित कर दिया है।” सुखराम अब मेले में आर्टिफिशियल गहने और खिलौने की दुकान लगाए हैं।

मेले का अपना कौतूहल होता है। मेले की यही सबसे बड़ी खूबी और आकर्षण होता है। लेकिन हाल के तीन सालों में कोरोना ने मेले की तस्वीर ही बदल कर रख दी है। कोरोना से पहले के मेलों में सर्कस, हाथी, घोड़ों की दौड़, आसमान छूती चरखी, मौत का कुआं, जादूगर, बहरूपिये, नौटंकी आदि को देखकर लोगों लगता था कि जैसे वो पुराने ज़माने में लौट गए हैं। लेकिन अब छोटे-मोटे फेरी-पटरी वालों को छोड़कर सब कुछ नदारद है। कह सकते हैं कि करीब डेढ़ सौ साल से सजते आ रहे कुल्हड़िया मेला कोरोना की भेंट चढ़ गया है।

कड़ाही और बर्तन की दुकान।

कोरोना काल के बाद साल 2023 में कायदे से मेला लगा लेकिन सभी दुकानदारों के चेहरे पर उदासी पसरी हुई है। कुल्हड़िया मेला रामनवमी के दिन से पूरे एक महीने चलता है। मेले में यूपी-बिहार के चार दर्जन से अधिक गांवों के नागरिक पहुंचते हैं। इसके साथ ही रबी सीजन में तमाम फसलों की कटाई-मड़ाई और भंडारण का काम हो चुका होता है। लोगों के पास मजदूरी का पैसा भी होता है। ऐसे में छोटे किसान और मजदूरों के आनंदित और उल्लासित कदम मेले का रुख करते हैं। जनचौक की टीम भी मंगलवार को मेला देखने पहुंची। पेश है रिपोर्ट….

फिर भी निबाहना तो पड़ेगा

दुर्गावती प्रखंड के धनेछा गांव निवासी सूदन राम और उनकी पत्नी चिलचिलाती धूप में हाथ में लोहे की कड़ाही और गृहस्थी का सामान खींचते हुए आगे बढ़ रहे थे। अड़तालीस वर्षीय सूदन जनचौक को बताते हैं कि “हम लोगों का गांव यहां से पांच किलोमीटर की दूरी पर है। बेटी की शादी तय है। उसको गृहस्थी के सामान देने के लिए हम लोगों ने मेले में ढेर सारी खरीदारी की है।”

मेले से बेटी की शादी के लिए बर्तन की खरीदारी कर घर लौटते सूदन दंपति

माथे पर छलके पसीने की बूंदों को मटमैले गमछे से रगड़ते हुए वो कहते हैं कि “मजदूरी करके परिवार का गुजारा होता है। अब बेटी के शादी की जिम्मेदारी इतनी महंगाई में किसी आफत से कम नहीं है। फिर भी निबाहना तो पड़ेगा। मॉल या बाजार से सामान खरीदने की हैसियत तो नहीं है। इसी बीच पता चला कि इस बार कुल्हड़िया का मेला लगेगा। घरवाली के कहने पर यहां आये और जरूरी चीजें ठीक-ठाक दाम पर मोल लिया।”

अगले साल से यह भी ख़त्म हो जाएगा?

बात को आगे बढ़ाते हुए सूदन की घरवाली कहतीं हैं कि “मेरा मायका दुर्गावती प्रखंड के ही एक गांव में है। जब शादी नहीं हुई थी, अर्थात बचपन से ही मैं माई-बाबू के साथ मेला देखने आ रही हूं। बीमारी और जिम्मेदारी में एक-दो साल को छोड़कर मैं यहां हमेशा आती हूं। शादी के बाद से पति और बच्चों के संग। लेकिन अब मेले में पहले वाली बात नहीं रह गई है। पहले मेले में बच्चे और बुजुर्ग लोग खो जाते थे। घंटों खोजबीन और मेला माइक पर एनाउंस कराने के बाद बड़ी मुश्किल से मिलते थे”।

अपने बर्तन की दुकान पर अशरफ और उनकी अम्मी

हाथ से इशारा करते हुए वो कहती हैं कि “आज देखिये, मेले में कदम रखें और चालीस डेग (कदम) चलें, मेला खतम। अब जो मेला बचा है, ऐसा लग रहा है कि अगले साल से यह भी ख़त्म हो जाएगा। हालांकि, मुझे अपनी जरूरत के सामान मिल गए हैं।” मेले में तेज धूप होने की वजह से सूदन दंपति अधिक समय नहीं दे सके।

यूपी के सीमावर्ती गांव दैथा से आकर मेले में भारत रत्न बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, महात्मा बुद्ध, संत रैदास, कबीर, भगवान हनुमान, लक्ष्मी गणेश के पोस्टर-कैलेण्डर, बच्चों के ककहरे की किताबें, मुंह से बजाये जाने वाले प्लास्टिक के भोपू और कई प्रकार के खेल-खिलौने की दुकान सजाए हरिश्चंद्र ग्राहकों का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ 22-25 वर्ष के युवा इनकी दुकान पर पहुंचे और अपनी गर्भवती भाभी के कमरे को सजाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों की तीन आकर्षक तस्वीरें खरीदने के लिए सेलेक्ट कर लिये।

बच्चों के इंतजार में खिलौने की एक दुकान

मेले में हंसी-प्रहसन करती बेरोजगारी

मेले में खरीदारों को एक खास प्रकार की आजादी मिलती है। वे जितने भी समय चाहे, जिस सामान को देखना और परखना चाहें, इत्मीनान से कर सकते हैं। फाइनली सेलेक्ट करने के बाद वस्तु का मोल होता है। हंसते-खेलते बच्चों की तीन बड़े-बड़े पोस्टर का दाम युवा खरीदार ने पूछा। हरिश्चंद्र ने 30 रुपये बताया। भाषा और हाव-भाव से बेरोजगार लग रहे युवाओं ने 20 रुपये देने की पेशकश की। दुकानदार ने बताया कि 20 खरीदी रेट है, 25 देकर ले जाओ। युवक कुछ सोच ही रहा था कि उसके साथ आए एक संगी-साथी ने प्रहसन करते हुए कहा- लगता है कि भाभी को गिफ्ट नहीं दे पाओगे?

तस्वीरें खरीद रहे युवा को यह व्यंग मानो चुभ गया, उसने तपाक से पलटवार करते हुए कहा ये महंगा दे रहे हैं, हम बाजार से अच्छा खरीद कर लगाएंगे। यह कहते हुए उसने अपने साथियों को इशारा करते हुए आगे बढ़ने को कहा। दुकान से जाते हुए उनकी टोली के एक युवक के हंसी-ठिठोली के कुछ शब्द इस प्रकार हवा के साथ आकर दुकान के तंबू से टकराये, “लगता है भाभी, बच्चे को जन्म भी दे देंगी और तुम पोस्टर नहीं खरीद पाओगे?” ग्रामीण परिवेश में लोगों का आपसी जुड़ाव बहुत गहरा होता है। लिहाजा, इस तरह के हंसी-मजाक आम बात होती है।

बेलन, चौकी, गिलास, झोले समते तमाम गृहस्थी के समान की दुकान

अब तीन-चार सौ की बिक्री हो जाए बड़ी बात

बहरहाल, एक सवाल के जवाब में बारहवीं तक पढ़े तस्वीर विक्रेता हरिश्चंद्र ने कहा कि “मैं भला नाराज क्यों होऊ और बुरा क्यों लगेगा? इन दिनों बेरोजगारी बहुत बढ़ गई है। नौकरी मिलना आसान नहीं रह गया है। फौज का ऐसा नियम हो गया है कि गांव के बच्चे अब उतनी रुचि नहीं दिखाते हैं। पहले तो सुबह-शाम तैयारी भी करते थे। अब गांव-बाजार में घूमकर समय काटते हैं। हो सकता है इनके पास भी पैसे नहीं रहे हों।”

हरिश्चंद्र आगे कहते हैं कि “यह मेला है। यहां कई तरह की घटनाएं होती रहती हैं। हम लोग सब कुछ देखते हैं। मेले में आने वाले समाज पर भी दृष्टि रहती है। पहले मेले और मेले में आने वालों की स्थिति कुछ हद तक ठीक रहती थी, लेकिन कोरोना काल के बाद हालात अच्छे नहीं हैं। पहले के सालों में मैं एक दिन में डेढ़ से दो हजार की तस्वीरें और खिलौने बेच लेता था। अब तीन-चार सौ की बिक्री हो जाए तो बड़ी बात है।”

झरना और सूप की दुकान पर कारीगर

उन्हें इंतजार है…

मेले में एक छोर पर बाली-बिंदी, आर्टिफिशियल हार बेचने वाले सत्तर वर्षीय सुखराम और 65 वर्षीय पार्वती ग्राहकों को जोहते बैठे हैं। वो मेले में अपने मां-बाप के साथ आए बच्चों की शरारतों और झूले पर झूलते बच्चों को ख़ुशी से इतराते देख समय गुजार रहे थे। सुखराम कहते हैं कि “मेले का विस्तार इतना था कि पहले आदमी मेले में खो जाते थे। हाथी, सर्कस, बड़ी चरखी, नौटंकी, जादूगरी, घोड़ों की दौड़, पशुओं की बिक्री और न जाने, क्या क्या।”

पार्वती और सुखराम

सुखराम आगे कहते हैं कि “चौकी-दरवाजे की दुकानें कई बीघे में लगती थीं, जिन पर दिनभर भीड़ मची रहती थी। कोरोना मेला को ले डूबा।” पार्वती को सुबह से अब तक (दोपहर तीन बजे तक) सिर्फ तीन ग्राहक ही मिल सके हैं। लेकिन उन्हें इंतजार है कि देर शाम तक अच्छी बिक्री हो जाएगी।

यह ओखली नहीं, माई-दीदी की यादें हैं

नौबतपुर के मोहित और उनकी मंडली ने मेले से ओखली ख़रीदी और घर जाने की तैयारी में थे। वे कहते हैं “मेरी माई (मां) को मेले का कई महीनों से इंतजार था। उसे चलने-फिरने में दिक्कत होती है। उसकी इच्छा थी कि कुल्हड़िया के मेले से ओखली खरीद कर दीदी के यहां पहुंचा दिया जाए। मैंने मां से कहा कि वह तो बाजार से भी मिल जाएगी। लेकिन उसने कुल्हड़िया के मेले से खरीदने की बात कही। ओखली विक्रेता ने 1300 रुपये मांगे थे। 1050 रुपये में ओखली का सौदा पटा है। घर ले जा रहे हैं। एक अच्छी बात यह है इस ओखली से माई, दीदी, मेरी और मेरे दोस्तों की यादें बनी रहेंगी।”

बाइक पर ओखली लादकर घर जाने की तैयारी में मोहित

आप देखेंगे तो पाएंगे कि मेले में आये हर व्यक्ति का जुड़ाव और किरदार ग्रमीण परिवेश की एक अमूल्य धरोहर है, जो अपने मानकों पर चलती है। जीवन के खटराग और तेजी से बदलती दुनिया में इनके धागे को आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता है।

बन सकती है बात अगर…

बिहार के छपरा जिले से करीब तीन दशकों से मेले में आ रहे 45 वर्षीय भगवान लोहार का तंबू खाट की पाटी (लकड़ी के खांचे) और गोड़ा (खाट के पैर) से पटा हुआ है। लोहार ‘जनचौक’ को बताते हैं कि “इसी मेले में मैं पहले चार ट्रक माल बेचता था। इस बार सिर्फ एक पिकअप माल लाया हूं। मेले के महीने भर गुजरने में चार-पांच दिन और शेष है, लेकिन अब तक यह भी खप नहीं सका है। मेले परिसर में बहुत अव्यवस्थाएं भी हैं, जैसे रात में पुलिस गस्त नहीं करती है, साफ पेयजल और शौचालय की व्यवस्था नहीं है, सूरज के ढलते ही मेले में अंधेरा पसर जाता है, लाइट की व्यवस्था नहीं है।”

ग्राहक के इंतजार में छपरा के भगवान लोहार

भगवान लोहार कहते हैं कि “मुझे लगता है कि मेले की व्यवस्था, निगरानी और सुरक्षा आदि का प्रबंध प्रशासन को करना चाहिए। ताकि, जब यह बात लोगों के बीच जायेगी तो उन्हें एहसास होगा कि मेले को नए तरीके से व्यवस्थित करके लगाया जा रहा है। इससे हजारों की संख्या में लोग मेले देखने तो आएंगे ही पहले की तरह सर्कस, जादूगर, मौत का कुआं, चरखी, नौटंकी और अन्य विधाओं से जुड़े छोटे-बड़े व्यापारी भी मेले का रुख करेंगे। इन प्रयासों से शायद मेले में पहले वाली रौनक और आकर्षण लौट आये।”

कितना बताएं, आप कितना सुनेंगे?

मुराहु जायसवाल एक उम्मीद लिए मेले में शरबत की दुकान लगाए हैं। वह बताते हैं कि “दिनभर में मैं 200 रुपये तक का शरबत बेच लेता हूं। पहले के सालों में अधिक कमाई होती थी। अब तो परिवार का गुजरा भी मुश्किल से होता है। मैं सोचता हूं घर बैठे क्या करूंगा, मेले में शायद कुछ बिक्री हो जाए।”

शरबत की दुकान समेटते मुराहु

मेले में बचपन से बांसुरी बेच रहे कलीमुद्दीन की उम्र अब 68 तक जा पहुंची है। बांसुरी बजाकर बच्चों को लुभाते-लुभाते थक जाने के बाद एक कुर्सी पर गड़े हैं। कलीमुद्दीन बताते हैं कि “साल भर मैं जहां रहूं, रामनवमी के एक महीने के मेले में आये बिना मेरी रूह को चैन नहीं मिलता है। दिनभर में दस-पंद्रह बांसुरी बेच देता हूं। सच कहूं तो बांसुरी बेचना अब बहाना हो गया है। बचपन से आते-जाते मेला के परिवेश का आदती हो गया हूं। बहुत बातें हैं… बाबू, कितना बताएं, आप कितना सुनेंगे?

मेले में घूमकर बांसुरी बेचकर थके कलीमुद्दीन आराम करते हुए

बहरहाल, मेले में दुकान लगाने वाले और देखने पहुंचे लोगों का कहना है कि मेले को बसने, व्यवस्थित करने, दुकान लगवाने, सुरक्षा व्यवस्था, शौचालय, पेयजल की व्यवस्था, दूर-दराज के कलाकारों, सर्कस और अन्य कौतूहल कारकों को निमंत्रण देकर मेले को बचाया जा सकता है। इनके जुटान से मेले का पुराना वैभव लौट आएगा। इससे लोगों के लोक उत्सव का ठीहा हर साल जमेगा।

(यूपी-बिहार के बॉर्डर पर लगने वाले कुल्हड़िया मेले से पवन कुमार मौर्य की रिपोर्ट)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles