चंदौली, उत्तर प्रदेश। मध्य भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में खरीफ सीजन की तैयार हो चुकी मुख्य फसल धान की कटाई जोरों पर हैं। जहां एक ओर किसानों को चिंता है कि जल्दी से जल्दी धान की कटाई करा कर रबी की मुख्य फसल गेहूं की बुआई समय से कर दी जाए।
वहीं, लगभग तीन महीने से बेरोजगार बैठे इन प्रदेशों के धान कटइया मजदूर इस कोशिश में हैं कि अधिक से अधिक फसलों को कटाकर मजदूरी के एवज में मिलने वाले अनाज को सहेज लें, ताकि आगामी डेढ-दो महीने के लिए भोजन की व्यवस्था हो जाए।
मसलन, कर्ज, बीमारी और बेकारी से घिरे धान कटइया मजदूरों को न तो उनके श्रम का मूल्य मिल पाता है और न ही बुझ पाती है पेट की आग।
धान कटइया मजदूर अधिकांशः भूमिहीन और सामाजिक-आर्थिक रूप से हासिए पर पड़े हैं। सत्ता के गलियारों में इनकी आवाज या मुद्दा गुम है तो वहीं, जमीनी स्तर पर धान कटइया मजदूरों के आर्थिक-सामाजिक उन्नयन का प्रयास दिखता ही नहीं है।
लिहाजा, इनका जीवन रबी और खरीफ की पकी फसल को काटकर खलिहान तक पहुंचना है। धूप और गर्द-गुबार में हाड़तोड़ खटने के बाद पारिश्रमिक के तौर पर कई दशकों से चली आ रही निर्धारित मजदूर (अनाज) और पुआल (चारा-भूसा) हाथ लगता है।
काम की परिस्थितियों और बेहिसाब श्रम को जोड़ा जाए तो धान कटइया मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी नाकाफी है। लेकिन, बेरोजगारी और अन्य रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होने से लाखों-करोड़ों मजदूर पेट की आग बुझाने के लिए खेतों में उतर जाते हैं।
ये सिलसिला साल दर साल चलता रहता है। अब तो देश में बढ़ते मशीनीकरण से धान कटइया मजदूरों को धान की कटाई का काम भी कम और खत्म होने का डर सत्ता रहा है।
उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद स्थित बरहनी विकासखंड के तेजोपुर की पचपन वर्षीय पापुइ देवी गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर खेत में धान की कटाई में जुटी हुई थी। तकरीबन एक एकड़ में पककर तैयार हो चुकी धान की फसल कटाई में उनकी दो किशोरवय बेटियां भी आज सहयोग करने पहुंची थी।
वे सुबह ग्यारह बजे से धान की कटाई करते करते शाम को चार बज गए हैं। सूरज ढलने पर उनकी मां घर चलने को कहती हैं, लेकिन वे बातों को अनसुनी कर थोड़ी शेष फसल को काटना चाहती हैं।
पापुइ देवी “जनचौक” से बताती हैं “ काश्तकार के एक एकड़ में लगी फसल को काटने में मैं और पति (लल्लन) दो दिन से जुटे हुए थे। रविवार की चार-पांच घंटे की कटाई के बाद हमलोग घर पहुंचे, तो पति का बदन बुखार से तपने लगा और दर्द से कराहने लगे।
रात में जैसे-तैसे कर डॉक्टर के पास ले गए, दवा दिया। आज वे आराम कर रहे हैं। इधर कटाई का काम भी निकला जा रहा है। ले-दे के एक हफ्ते-दस दिन की कटाई और हैं। इधर मेरे पति बीमार पड़ गए, परिवार बड़ा है। मेरी सात बेटियां और दो बेटे हैं। जिसमें से पांच बेटियों और एक बेटे की शादी कर दी हूं।
अब दो बेटियां, छोटा बेटा, बड़ा बेटा और उसकी पत्नी व हमलोग पति-पत्नी कुल मिलकर सात लोगों का परिवार है। हमलोगों के पास घर को छोड़कर एक इंच जमीन\भूमि नहीं है। पति व बड़ा बेटा मजदूरी कर परिवार चलाते हैं।”
“मैं कई महीनों तक खाली हाथ बैठी थी। जब धान की फसल तैयार हुई तो, काफी खोजबीन के बाद धान कटाई का काम मिला। जिसे मैं और मेरे पति कर ही रहे थे कि पति दूसरे दिन बीमार पड़ गए। जवान बेटियों को लेकर धान की कटाई कर रही हूं। बड़ा परिवार है।
मिलने वाले अजान के भरोसे रहेंगे तो परिवार भूखों मर जायेगा। मवेशी क्या खाएंगे ? बेटियों ने आज सुबह से शाम तक खेतों में जीतोड़ परिश्रम किया। श्रम योजना में पंजीकरण कराया है, लेकिन कोई सुविधा आज तक नहीं मिली। कोई अधिकारी-कर्मचारी हाल लेने नहीं आता कि “हमलोग जिन्दा हैं या मर गए”।
एक एकड़ खेत में इतनी मेहनत के बाद बमुश्किल से डेढ से दो क्विंटल अनाज मिलेगा और इतना ही पशु चारा। जो दो महीने ही परिवार के लिए पर्याप्त होगा। कल सुबह से धान कटाई के लिए दूसरे काश्तकार से खेत ढूंढने होंगे।”
पापुइ देवी आगे बताती हैं “अक्सर मेरी तबियत ठीक नहीं रहती है। तीन साल पहले सीढ़ी से गिर गई थी। सिर में चोट लग गई थी। तब से इसका इलाज कमलापति जिला चिकित्सालय में करा रही हूं। 300-350 रुपए में एक महीने की दवा आती है। मेरे पास पैसे नहीं होते। नहीं तो कहीं अच्छे डॉक्टर को दिखाकर इलाज कराती।
बेटी की शादी और अपने इलाज में कुल मिलाकर 50 से 60 हजार रुपए का कर्ज ले चुकी हूं। हमलोग गरीब आदमी है। धान और गेहूं की कटाई ही अनाज और कमाई का एक स्रोत है, लेकिन इसमें भी काम कम होता जा रहा है।”
जमे पानी में फसल काटती सोनम और लक्ष्मीना पापुइ की बेटियां हैं। सोनम ने बताया कि “हमलोग पढ़-लिखकर कुछ करना चाहते हैं, लेकिन परिवार की दशा की वजह से धान कटइया के लिए खेतों में आना पड़ रहा है। मेरे गांव की मेरी हमउम्र सैकड़ों लड़कियां धान कटइया का काम करती हैं।
गरीबी और आर्थिक परेशानी की वजह से कई लड़कियों की पढ़ाई बीच में छूट जाती है। पढ़ी -लिखी न होने की वजह से वे शादी के बाद कृषि कार्यों में बहुत ही कम पैसों पर मजदूरी करने लगती हैं। अब हम ही दोनों बहनों का देख लीजिये। काम की परिस्थितियां बहुत कठिन है, लेकिन करना पड़ रहा है।
धान कटइया मजदूरों को कोई सुविधा या सहायता नहीं मिलती है। खेतों में कई प्रकार के जहरीले जंतु मिलते हैं। हसिये से हाथ जख्मी होने का खतरा रहता है। टॉयलेट-बाथरूम की भी दिक्कत। परिश्रम के मुकाबले मजदूरी कम मिलती है।”
जनगणना में बढ़ते जा रहे खेतिहर श्रमिक
वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों की तुलना 2001 की जनगणना के आंकड़ों से करने पर देखा गया है कि खेतिहरों की संख्या में गिरावट आ रही है, तो वहीं खेतिहर मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई। खेतिहर मजदूरों की संख्या में 35 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
साल 2001 की जनगणना के समय इनकी संख्या 10.6 करोड़ थी, जो कि बढ़कर 2011 की जनगणना के समय 14.3 करोड़ हो जाती है। वर्ष 1951 की जनगणना के समय कुल श्रमबल में खेतिहर मजदूरों का अनुपात 19 प्रतिशत था, जो कि 2011 की जनगणना तक आते-आते बढ़कर 30 प्रतिशत हो जाता है।
मानिकपुर सानी गांव में धान की कटाई में जुटे रामनिवास तीस हजार रुपए से अधिक के कर्ज में डूबे हैं। वे कहते हैं कि “धान की कटाई में बहुत फायदा नहीं है। तीन-चार महीने के बेगारी के बाद धान की कटाई से बेरोजगारी के बादल छंटते हैं। लिहाजा, इस काम को करने आ जाते हैं। धान की कटाई का काम बहुत श्रमशील होता है।
पहले सुबह, दोपहर और शाम में धूप-ठंड में कटाई। फिर धान के बोझ को सिर पर उठाकर खलिहान तक पहुंचना होता है। कटाई के दौरान धान के पौधों से नाना प्रकार के सूक्ष्मजीव और गर्द उड़ता है। इससे सांस लेने में तकलीफ होती है। कई बार तो ऐसा खांसी-बुखार आता है कि महीनों दवाई करानी पड़ती है।
खेत मालिक और न ही कृषि विभाग दस्ताना, मास्क और पेयजल की व्यवस्था करता है। कार्य स्थल पर हुई दुर्घटना के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। धान कटइया से दो-तीन महीने का अनाज हमलोग जुटा लेते हैं। मवेशियों के लिए कुछ भूसा-चारे का भी बंदोबस्त हो जाता है।”
देश में छिपी हुई बेरोजगारी को दूर कर जीडीपी में अहम् योगदान देने वाली प्राथमिक सेक्टर कृषि में बढ़ते मशीनीकरण से कटैया मजदूरों रोजगार पर संकट मंडरा रहा है। जहां एक दशक पहले तक कटाई (धान-गेहूं) मजदूर अपने परिवार के सदस्यों के साथ दिन-रात खेत-खलिहानों में खटकर लगभग छह महीनों का अनाज और मवेशियों के लिए चारा भूसा जुटा लेता था।
अब साल-दर साल खेतों में मशीनों की दस्तक (रोपाई, बुआई, मड़ाई यहां तक की अब धान और गेहूं की कटाई भी बड़े पैमाने पर मशीनों से होने लगी है) से काम की कमी, रबी और खरीफ सीजन के करोड़ों कटैया मजदूर काम व मिल रहे कम दिनों के काम से परेशान हैं।
मसलन, फसलों के कटाई का काम नहीं मिलने व जीतोड़ परिश्रम का उचित मूल्य न मिलने और श्रमिकों परिवारों के भरण-पोषण में दिक्कत आ रही है। तो वहीं मवेशियों के लिए चारे-भूसे का संकट खड़ा हो गया है।
पैंतालीस वर्षीय बासमती बचपन से धान कटइया मजदूरी का काम करती है। वह बताती हैं “भइया हमें क्या मिलता है ? पैदा हुए तब से मेहनत-मजूरी कर रहें। न पेट भर पा रहा है और ना ही उचित मजदूरी मिल पा रही है। मेरे दो बेटे भी मजदूर बन गए। वे भी गांव में काम खोजकर मजदूरी और धान कटइया का काम करते हैं।
सरकार या जनप्रतिनिधि कोई भी धान कटइया मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रहा है, लिहाजा, देहात में गेहूं-धान की कटइया करने वालों मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है।
मेरा कहीं कोई पंजीकरण नहीं हुआ है। सरकार से धन कटइया मजदूरों को कोई सुविधा नहीं मिलती है। इस वजह से हमलोगों का जीवन बहुत परेशानी से कट रहा है।”
धान कटइया मजदूरों की परेशानियों पर एक नजर –
महंगाई के सापेक्ष कम मजदूरी
मजदूरी और आय: भारत में कृषि मजदूरी और कृषि श्रमिकों के परिवार की आय बहुत कम है। हरित क्रान्ति के आगमन के साथ, नगद मजदूरी की दरों में वृद्धि होना शुरू हो गई। हालांकि, वस्तुओं की कीमतों में काफी वृद्धि हुई है, वास्तविक मजदूरी की दरों में उस हिसाब से वृद्धि नहीं हुई।
रोजगार और काम की परिस्थितियां
धान कटइया मजदूर और खेतिहर मजदूरों को बेरोजगारी और ठेके की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साल के ज्यादातर समय में उन्हें बेरोजगार रहना पड़ता है क्योंकि खेतों पर कोई काम नहीं होता है और रोज़गार के वैकल्पिक स्रोत भी मौजूद नहीं होते हैं।
कर्ज के भंवर में फंसे धान कटइया मजदूर
ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग प्रणाली और वाणिज्यिक बैंकों द्वारा स्वीकृति की जांच प्रक्रिया के अभाव में, किसान गैर संस्थागत स्रोत जैसे साहूकारों, ज़मींदारों से काफी उच्च दरों पर कर्ज लेते\लेने को विवश हैं। इस तरह से बहुत अधिक दर के कारण किसान कर्ज के दुष्चक्र में फंसते चले जाते हैं। तेजोपुर की पापुइ देवी और रामनिवास इसके ताजा उदहारण हैं।
कृषि मजदूरों का हाशिए पर जाना
वर्ष 1951 में कृषकों और कृषि मजदूरों की संख्या लगभग 97.2 मिलियन थी। और वर्ष 1991 में यह बढ़कर 185.2 मिलियन हो गई। वर्ष 1951 से 1991 के बीच यह संख्या 27.3 मिलियन से बढ़कर 74.6 मिलियन हो गई।
इसलिए, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वर्ष 1951 से वर्ष 1991 तक मजदूरों की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई। और वर्ष 1951 से वर्ष 1991 तक प्रतिशत वृद्धि 28 प्रतिशत से 40 प्रतिशत थी।
इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि भारत में श्रमिकों का अस्थायीकरण तेजी से बढ़ता रहा। भूमि के हिस्से और कृषि गतिविधियों की लागत भी पिछले कुछ वर्षों में कम होती जा रही है।
असंगठित और बिखरे हुए हैं कृषि मजदूर
कृषि मजदूरों का पुनर्गठन: भारत में कृषि मजदूर असंगठित और बिखरे हुए हैं। वे अज्ञानी और अनपढ़ हैं। नतीजतन, कृषि मजदूरों के पास अपने दैनिक किराए के लिए मोल-भाव करने और लड़ने की क्षमता नहीं है। भारत में मजदूरों की मजदूरी और परिवार की आय बहुत कम है।
नकद मजदूरी की दरें बढ़ने लगीं, लेकिन मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ी। आज की तारीख में मजदूरों को प्रतिदिन केवल 150 रुपये ही मिल रहे हैं। यह राशि एक परिवार के जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं है।
रोजगार और काम करने की स्थिति
खेतिहर मजदूरों को अल्परोजगार और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे साल के कुछ समय के लिए ही काम करते हैं और बाकी समय वे बेकार रहते हैं क्योंकि खेत पर कोई काम नहीं होता या उनके लिए कोई वैकल्पिक काम उपलब्ध नहीं होता।
कृषि क्षेत्र में महिलाओं के लिए कम मज़दूरी, बालश्रम भी अधिक
भारत जैसे देश में, पुरुष प्रधान व्यवस्था अभी भी हावी है। महिलाओं को खेतों और ज़मीनों पर बहुत मेहनत करने की अनुमति है, लेकिन उन्हें अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है।
भारत में बाल श्रम की दर बहुत अधिक है। एक सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकला है कि बाल श्रमिकों की संख्या 17.5 मिलियन से 44 मिलियन के बीच है, जो बहुत अधिक है। एशिया में लगभग एक तिहाई बाल श्रमिक भारत में हैं।
किसान -मजदूरों के अधिकारों पर मुखरता से बात रखने वाले किसान नेता रामविलास मौर्य के अनुसार “ कृषि श्रम को असंगठित क्षेत्र की श्रेणी में गिना जाता है। अतः इनकी आय भी तय नहीं होती है। इसलिए वे मात्र 150 रूपए प्रति दिन की दिहाड़ी की पूर्ण अनिश्चितता के साथ एक असुरक्षित और वंचित जीवन जी रहे हैं।
धान या गेहूं के कटाई का काम अधिकतर 15 दिनों का होता है। इस समय जनपद में धान कटाई का काम पीक पर हैं। देखा जाए तो एक स्वस्थ्य धान कटइया श्रमिक एक दिन में (चार-पांच घंटा काम कर) आधा बीघा (10 विस्वा) में लगी फसल की कटाई कर लेता है।
इस तरह से पूरे कटाई सीजन (लगभग 15 दिन) में वह 7 से 8 बीघा की कटाई कर लेता है। जिसके एवज में उसे 2.5 से 3 क्विंटल अनाज मिल जाता है। इतनी मात्रा में पुआल (पशुचारा) भी मिलता है।”
रामविलास मौर्य आगे कहते हैं “ चूकि, कटाई का समय सिमित है, इसलिए मजदूर अपने परिवार (लड़के, लड़कियां) के साथ धान की कटाई में जुट जाता है। औसतन एक धान कटइया मजदूर का परिवार 2 से 3 क्विंटल अनाज जुटा लेता है। मसलन, जीवन के लिए अनाज और रोजगार जीवन की एक अनिवार्य जरूरत है।
इसलिए जिन परिवार के बच्चे पढ़ते हैं और उनको कम उम्र में मजदूरी की आदत लग जाती है, इससे वे भविष्य में आर्थिक तंगी झेल नहीं पाते हैं और मजदूरी में उतर जाते हैं। इससे एक ताजा और उम्मीदों भरा भविष्य ख़त्म हो जाता है। धान कटइया मजदूर असंगठित क्षेत्र में आते हैं।
“देश में इनकी संख्या करोड़ों में हैं। ये लोग छिपी बेरोजगारी के शिकार हैं। धान कटइया मजदूरों में अधिक तादात महिला श्रमिकों की हैं। कार्यस्थल पर जोखिम से सुरक्षा और मेहनत के वाजिब भुगतान के लिए संघर्षरत हैं”।
“मेरी केंद्र और राज्य सरकार से मांग है कि धान कटइया मजदूरों विकास और आगे बढ़ाने के लिए पॉलिसी (योजना) बनाए, जिससे धान कटइया मजदूर मुख्यधारा में जुड़ सके।”
चंदौली जनपद के जिला श्रम अधिकारी मोहम्मद नजरे आलम ने “जनचौक” से बताया कि “धान कटइया श्रमिकों के लिए कोई योजना नहीं है। हमारे विभाग में भवन निर्माण\कंस्ट्रक्शन, बढ़ई, राजगीर, कुआं-गड्ढा खोदने वाले (कुल 40 प्रकार के कार्य वर्ग) आदि में काम करने वाले मजदूरों (स्त्री-पुरुष) को पंजीकरण के बाद शासन से चलाई जा रही योजनाओं का लाभ दिया जाता है।
धान कटइया मजदूरों को विभागीय रूप से कोई सहायता या योजना का लाभ नहीं दिया जाता है।”
(पवन कुमार मौर्य पत्रकार हैं। यूपी के चंदौली से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट।)
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