नई दिल्ली। ”चुनावों में इतनी ज़ोर का बटन दबाना कि करंट शाहीन बाग़ में लगे”, ”देश के गद्दारों को गोली मारो….. ” साल 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान इस तरह के चुनावी नारे ख़ूब चर्चा में रहे।
दरअसल एक तरफ 2019 के आख़िर में ओखला विधानसभा में आने वाले शाहीन बाग़ इलाक़े में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में मुस्लिम महिलाओं की अगुवाई में शांतिपूर्वक धरना-प्रदर्शन चल रहा था वहीं दूसरी तरफ 2020 के चुनाव के लिए ज़ोर-शोर से प्रचार चल रहा था। और उसी दौरान बीजेपी के बड़े नेता इस तरह के नारे लगा रहे थे हालांकि नतीजा उलट रहा।
क्यों दिए जाते हैं नफ़रती बयान?
लेकिन सवाल है कि चुनाव में तुष्टिकरण, ध्रुवीकरण और एक मज़हब के ख़िलाफ डर दिखाकर इस तरह से बयान क्यों दिए जाते हैं?
- क्या चुनावी वादों पर यक़ीन नहीं रहता?
- या फिर इस तरह के ज़हर बुझे बयान ज़्यादा असर करते हैं?
ये सवाल हम देश के उन तमाम मतदाताओं पर ही छोड़ देते हैं जिन्हें ”मदर ऑफ डेमोक्रेसी” में अपना भविष्य चुनने का अधिकार होता है।
लेकिन दिल्ली के चुनावी माहौल में गर्माहट बढ़ा रही राजनीतिक पार्टियों के भव्य और फैंसी रोड शो, चुनावी रैली और जनसभा के बीच हमें एक बुजुर्ग दिखते हैं जो देश के किसी भी राज्य के चुनाव होने पर वहां पहुंचने की कोशिश करते हैं।
ये हैं दिल्ली आईआईटी से रिटायर प्रोफेसर विपिन कुमार त्रिपाठी जो चुनाव से पहले आम लोगों (मतदाताओं) के बीच पर्चों को बांटकर असल मुद्दों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं।
हमने उनके साथ चलकर समझने की कोशिश की कि काग़ज़ के टुकड़े पर लिखी काम की इन बातों का लोगों पर क्या असर होता है?
शाहीन बाग़ बस स्टैंड के पीछे नीचे की ओर जाती सड़क के किनारे खाने-पीने की तमाम दुकानें अभी खुल ही रही थी, मुस्लिम घेटो (Ghetto) में तब्दील हो रहा ये इलाका दिल्ली में नए फूड हब (ख़ासकर नॉनवेज के शौकीन लोगों के लिए) के तौर पर उभरा है।

घनी आबादी वाले इस इलाके में सड़कें (गली नुमा) तंग हैं जबकि आसमान कुछ और सिमटा हुआ दिखता है। हमने ज़रा नज़र उठाई तो यहां के आसमान में जैसे किसी ने चुनावी प्रचार की झंडियां टांक दी थी। कुछ नीली और पीली थीं तो कुछ हरी।
जबकि खुदी हुई कुछ सड़कें कीचड़ के पहाड़ में तब्दील हो चुकी थी लोग उस कीचड़ के दरिया को पार कर अपनी-अपनी मंजिल की जानिब बढ़ रहे थे। सड़क पर बहता नाला जी ख़राब कर रहा था ये माहौल देखकर साफ तौर पर कहा जा सकता था कि मुसलमानों का ये इलाका योजनाओं और बुनियादी सुविधाओं के मामले में ज़रूर भेदभाव से गुज़र रहा है।

इन्हीं तंग गलियों से गुज़रते हुए बुजुर्ग प्रोफेसर वीके त्रिपाठी लोगों को पर्चे बांट रहे थे, लोगों से हाथ मिलाते हुए उनसे मिलने पर मुद्दों को बाद में बताते थे पहले उन्हें नफ़रत से दूर रहने और आपसी भाईचारे का संदेश दे रहे थे। बहुत से लोग पर्चों को लेते और समेट कर जेब में रख लेते, कोई एक नज़ऱ डालता, तो कोई बाद में पढ़ने की बात कह कर आगे बढ़ जाता।
जिस उम्र में हमारे घरों के बुजुर्ग सर्दी में सूरज की बदलती चाल के साथ धूप का पीछा करते हुए अपनी कुर्सी एक जगह से दूसरी जगह पर शिफ्ट करते रहते हैं वहीं प्रोफेसर त्रिपाठी पैदल चलते हुए लोगों के बीच देश के आपसी भाईचारा को बचाने की जुगत में नज़र आते हैं।
कभी किसी ठेले वाले को समझाते, तो कभी किसी जूते ठीक करने वाले को, तो कभी किसी ढाबे पर रोटी बेलते मज़दूर से अपील करते कि ”नफ़रत से दूर रहना भाई।”
एक पर्चे से ख़ास प्रचार !
जिस पर्चे को वो लोगों के बीच बांट रहे थे उसका उनवान था ”छात्रों और आमजन के सरोकार” इस पर्चे में मुख्य तौर पर जिन मुद्दों को उठाया गया है उनमें सबसे अहम है ‘बच्चों के भविष्य का सवाल’ जिसके तहत वो ध्यान खींचते हुए लिखते हैं ”अच्छे मार्क्स से 12वीं पास करने के बाद भी बच्चों को दिल्ली के कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता।
दिल्ली में हर साल 3.25 लाख बच्चे 12वीं पास करते हैं। उनमें से आधे ज़रूर कॉलेज जाना चाहते हैं। अन्य राज्यों से भी 50 लाख बच्चों को कॉलेज में दाखिला चाहिए। मगर दिल्ली की सभी यूनिवर्सिटी, कॉलेजों और प्रोफेशनल कॉलेजों में 1 लाख से कम सीटें हैं। इसलिए ऐसी सरकार लाएं जो अगले 5 सालों में हर तरह के कॉलेजों में सीटें दोगुनी करें।
कमजोर और पिछड़े तबके के छात्रों को भी दाखिला मिल सके। फीस कम हो। सोच की आज़ादी हो। जाति या धार्मिक नफरत का वातावरण ना हो। शीर्ष पर नफ़रती संगठनों से जुड़े लोगों को ना बैठाया जाए”

वे अपने पर्चे में आगे लिखते हैं ”दिल्ली में बड़ी आबादी मज़दूरों, स्वरोज़गार करने वालों और ठेकेदारों, दुकानदारों और कारोबारियों के यहां काम करने वालों की है। ये लोग ज़्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों और ग़रीब बस्तियों में रहते हैं। 12 घंटे काम करते हैं। सरकार उनके श्रम कानूनों को लागू करे। उनकी बस्तियों को नियमित करें और बुनियादी सुविधाएं दें। शराब को प्रोत्साहन न दे।”
और आख़िर में इस पर्चे में अपील की गई है कि ”ऐसी सरकार लाएं जो कॉरपोर्ट-मुखी ना हो, जनमुखी हो, रोज़गार बढ़ाए, नफ़रत मिटाए और प्यार बढ़ाए”।
मैं उम्मीद पर काम करता हूं
हमने प्रोफेसर त्रिपाठी से पूछा कि उनकी इस कोशिश का लोगों पर क्या असर होता है? और क्या उन्हें लगता है कि लोग उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों को ध्यान में रख कर वोट करते हैं? इसपर उनका कहना था ” मान लीजिए मैंने चार हज़ार पर्चे बांटे तो अगर 10 फीसदी लोगों यानि 400 लोगों ने भी अगर इस बात पर ग़ौर किया कि ये मुद्दे सही हैं और उस हिसाब से उन्होंने वोट किया तो मुझे सुकून है क्योंकि ये 400 लोग आगे चलकर मुझे उम्मीद है कि प्रो एक्टिव बन जाएंगे और इन लोगों में से एक-एक आदमी आगे चार-चार सौ तक पहुंचेगा मैं इस उम्मीद में काम करता हूं।”

त्रिकोणीय या चार कोणीय मुक़ाबले में जनता किस ओर?
दिल्ली के 70 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से एक ओखला में इस बार बताया जा रहा है मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है। मुस्लिम बहुल इस इलाक़े में आम आदमी पार्टी ने मौजूदा विधायक अमानतुल्लाह ख़ान पर ही एक बार फिर दांव लगाया है देखना होगा कि वो इस बार हैट्रिक लगा पाते हैं कि नहीं।
वहीं बीजेपी ने मनीष चौधरी को उम्मीदवार बनाया है, जबकि असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने शिफ़ा-उर-रहमान को मैदान में उतारा है। जिन पर UAPA लगा हुआ है और वो जेल में हैं । (हालांकि चुनाव प्रचार के लिए उन्हें कस्टडी पैरोल मिल गई है।)
ख़ुद ओवैसी उनके लिए प्रचार में रोड शो कर रहे हैं। गौरतलब है कि शिफा उर रहमान जामिया एलुमनाई के प्रेसिडेंट रहे हैं और उन्होंने शाहीन बाग़ के सीएए-एनआरसी के विरोध में हुए धरना-प्रदर्शन में लोगों का साथ दिया था।
कांग्रेस ने युवा महिला अरीबा ख़ान को टिकट दिया है। वे ओखला के अबुल फ़ज़ल एन्क्लेव वार्ड से पार्षद (काउंसलर) हैं। अरीबा एक ऐसे परिवार से आती हैं जिनका राजनीति से पुराना नाता रहा है।
कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और AIMIM ने मुस्लिम उम्मीदवारों को ही मैदान में उतारा है, स्थानीय लोगों से बातचीत के दौरान कोई कहता है एक तरफा AAP की लहर है जबकि ओवैसी की रैलियों में लोगों की उमड़ी भीड़ बेशक दूसरी पार्टियों के लिए चिंता का विषय बन रहा है वहीं कांग्रेस भी लोगों तक पहुंचने की जुगत में लगी है। कोई कहता है मुकाबला त्रिकोणीय है तो कोई चार कोणीय। ऐसे में जनता किस कोण में आगे के पांच साल में ख़ुद का भविष्य फिट करती है फिलहाल कहना मुश्किल दिखता है।
चुनाव एकतरफा?
शाहीन बाग़ में मिले जावेद बिना किसी पार्टी का नाम लिए आम आदमी पार्टी की जीत को लेकर निश्चिंत दिखते हैं वे कहते हैं कि ”धीरे-धीरे यहां इलेक्शन एकतरफा होता चला जा रहा है, ये तो मुस्लिम बहुत क्षेत्र है यहां कोई और तो है नहीं।”
धर्म के नाम पर वोट मांगने वालों का बहिष्कार!
शाहीन बाग़ में धूप में अपनी दुकान के बाहर बैठी लोगों की एक टोली चुनाव पर ही चर्चा कर रही थी हमने उसने भी बातचीत की उनमें से एक एडवोकेट हसन इक़बाल कहते हैं कि ”हमारे यहां सबसे बड़ा मुद्दा है कि जो धर्म के नाम पर लोगों को बहकाते हैं, धर्म के नाम पर वोट मांगते हैं फिर वो कोई भी हो हिन्दू हो या मुसलमान हम उनका बहिष्कार करेंगे, हम चाहते हैं जो हर जाति, धर्म के लोगों के लिए काम करता है उसको जिताया जाए।”

शिक्षा-बेरोज़गारी पर कोई बात नहीं होती
वहीं एक बेहद नाराज़ शख़्स ने कहा कि ”2014 के बाद से मुल्क में सिर्फ हिन्दू-मुसलमान चल रहा है, शिक्षा पर बेरोज़गारी पर कोई बात ही नहीं होती लोग बेरोज़गार घूम रहे हैं, पढ़े-लिखे नौजवानों के हाथ में एक मोबाइल थमा दिया है जैसे कि बहुत बड़ा काम कर दिया है।”
बुनियादी सुविधाएं अब भी दूर!
यमुना नदी के किनारे दिल्ली-उत्तर-प्रदेश की सीमा पर बसे ओखला विधानसभा में मदनपुर खादर गांव, खिजराबाद गांव, जसोला गांव, आली गांव और तैमूर नगर शामिल है। इस इलाके में तेज़ी से जनसंख्या बढ़ रही है, लेकिन बुनियादी सुविधाएं दम तोड़ती दिखती हैं, सड़कें हमेशा ही खुदी दिखती हैं, गटर खुले पड़े हैं, लोगों के घरों तक पीने के पानी ठेलों पर जाती दिखाई देता है लेकिन बावजूद यहां के लोग धर्म की राजनीति से दूर रह कर वोट करने की बात करते हैं।
ऐसे में चुनाव के दौरान प्रोफेसर त्रिपाठी लोगों तक नफरत के नाम पर वोट ना करने की अपील लेकर पहुंचते हैं और कहते हैं कि ”मुल्क की रगो में जब नफरत चली जाती है तो मुल्क ज़िदा नहीं रहता” इसलिए हमें इस नफरत और नफरत फैलाने वालों से दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।
ख़ुद को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहने वाले देश में पूरे साल ही कहीं ना कहीं चुनाव होते रहते हैं, देश में चुनाव कैसे होते हैं आम जनता अच्छी तरह से जानती है। बीते कुछ सालों में चुनाव के दौरान जिस तरह से एक मज़हब के लोगों के लिए नारे दिए जा रहे हैं, माहौल बनाया जा रहा है बेशक वो चिंता का विषय है लेकिन ऐसे में प्रोफेसर वीके त्रिपाठी जैसे गांधीवादी लोग एक उम्मीद जगाते हैं।
(नजमा खान की रिपोर्ट)
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