बनारस। बनारस के खोजवां इलाके में 67 साल के शिवपूजन जायसवाल की आंखों में अब वो चमक नहीं जो कभी नरम पत्थरों पर जालीदार कलाकृतियां बनाते वक्त हुआ करती थी। वो एक दौर था, जब उनके कारखाने की मशीनें पत्थरों को जिंदा कर देती थीं, और आज, वही मशीनें जंग खा रही हैं।
शिवपूजन की आवाज़ में एक थकी हुई उदासी है। वो कहते हैं, “हमने ज़िंदगी के सबसे सुनहरे साल इस कला को दिए। आज इस कला से पेट पालना मुश्किल हो गया है। कोई रिक्शा खींच रहा है, कोई सब्जी बेच रहा है। शिल्पी कार्ड तो है, लेकिन फायदा कोई नहीं। ना इलाज होता है, ना दवा मिलती है।”
शिवपूजन बताते हैं कि उनके कारखाने में कभी 70 लोग काम करते थे। सबके हाथ व्यस्त रहते, और दिल गर्व से भरा रहता। आज उनके पास न तो काम है, न उम्मीद। “हमने अपने बच्चों से कह दिया है कि इस काम में मत पड़ना। दान-दक्षिणा से किसी तरह मंदिर में काम करके गुजर-बसर हो रही है।”

सरकार की नीतियों पर उनका गुस्सा साफ झलकता है। वो कहते हैं, “पहला झटका तब लगा जब सॉफ्ट स्टोन की खदानें बंद हो गईं। काफी जद्दोजहद के बाद बारी-बारी से एक खदानों को चालू कराया गया। डीजल के बढ़ते दाम और कच्चे माल की कमी ने हमारी कमर तोड़ दी।”
बनारस के 90% स्टोन कार्विंग कारखाने बंद हो चुके हैं। कुछ गिने-चुने कलाकार बचे हैं, लेकिन उनकी हालत भी बहुत खराब है।
खोजवां के लक्ष्मी मंदिर में अब शिवपूजन दर्शन-पूजन कराते हैं, लेकिन दिल अभी भी पत्थरों पर अपनी कला उकेरने को तड़पता है। वो बताते हैं कि खोरई की खदान से मिलने वाला सॉफ्ट स्टोन अब नहीं मिलता। सरकार ने वादा किया था कि बनारस में सॉफ्ट स्टोन के लिए डिपो खोला जाएगा, लेकिन हुआ कुछ भी नहीं।

शिल्पकार गुरु प्रसाद, बबलू और अशोक जैसे नामी कलाकार भी इस काम को छोड़ चुके हैं। शिवपूजन दुखी मन से कहते हैं, “अब बनारस की यह कला वेंटिलेटर पर है। अगर सरकार ने कुछ नहीं किया, तो यह जल्द ही दम तोड़ देगी।”
शिल्पकार एएन वर्मा बताते हैं, “सरकार बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन हालत खराब होते चले गए। इसके चलते तमाम शिल्पकार पलायन कर रहे हैं। शिल्पकारों का कहना है कि स्टोन कार्विंग से ज्यादा कमाई ई-रिक्शा चलाने से हो जाती है।”
“जीएसटी और कच्चे माल की कमी ने इस कला की रीढ़ तोड़ दी है। “हमने सरकार से बार-बार कहा कि सस्ती बिजली नहीं दे सकते तो सोलर पैनल ही दे दो, लेकिन हमारी सुनवाई नहीं होती। यूपी सरकार ने जो टूल किट दिए थे, वो किसी काम के नहीं। शिल्पकार बेबस हो चुके हैं।”

बनारस, जो कभी पत्थरों में जान डालने के लिए दुनिया भर में मशहूर था, अब अपनी पहचान के लिए जूझ रहा है। यह सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि बनारस की आत्मा है, जो धीरे-धीरे खो रही है। इस कला को बचाने के लिए ठोस कदम उठाना जरूरी है, वरना बनारस की यह अनमोल विरासत बस कहानियों में ही रह जाएगी।
टूट रही फनकारों की आस
बनारस की गलियों में कभी गूंजने वाली पत्थरों पर हथौड़े की ठक-ठक अब सुनाई नहीं देती। वो पत्थर, जिन पर कारीगर अपनी रूह फूंकते थे, अब गुमनामी में धूल खा रहे हैं। रामनगर, लक्सा, खोजवां, छित्तूपुर, मंडुआडीह, हरहुआ जैसे इलाकों में जहां कभी शिल्पियों के हुनर का बोलबाला था, अब वहां गिने-चुने लोग इस कला को किसी तरह जिंदा रखे हुए हैं।
यह वही कला है जिसने बनारस को दुनिया भर में पहचान दिलाई। नरम पत्थरों पर जालीदार नक्काशी का ऐसा कमाल कि देखने वाले देखते रह जाएं। देवी-देवताओं की मूर्तियां, हाथी, उल्लू, और जालीदार लैंप जैसी कृतियां बनाना शिल्पकारों की रोज़मर्रा थी।
लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। शिल्पी पसीना बहाते हैं, मेहनत करते हैं, पर बदले में उन्हें चंद रुपये मिलते हैं। बड़े कारोबारी इस कला के नाम पर लाखों कमा रहे हैं, और शिल्पकार दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे हैं।

रामनगर के पप्पू बघेल, जो कभी पत्थरों पर जादू किया करते थे, अब खेतों में फसल उगाते हैं। पप्पू की आंखों में दर्द है, वो कहते हैं, “हमारी बनाई जालियां कभी विश्वनाथ गली की दुकानों पर शोभा बढ़ाती थीं। लोग हमारी कला के दीवाने थे। अब वो सब कुछ अतीत हो चुका है।”
साल 1994-95 में पप्पू ने स्टोन कार्विंग का काम शुरू किया था। लेकिन धीरे-धीरे कच्चे माल की कमी, बाजार की दुर्गति और नौकरशाही की बेरुखी ने इस काम को इतना तोड़ा कि 2015 में उन्होंने हार मान ली। वो कहते हैं, “हमारी कलाकृतियां अब अजायबघरों तक सिमट गई हैं। न बाजार है, न कद्रदान।”
पुराने दिन, नई मुश्किलें
बनारस की यह कला सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि अमेरिका, जापान, जर्मनी और थाईलैंड तक मशहूर थी। यहां के पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियां विदेशों में भी धूम मचाती थीं। इटली के एलाबस्टर पत्थरों पर बनारसी कारीगरों की जाली कटिंग का कमाल देखकर लोग दंग रह जाते थे।
यहां तक कि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भी इस कला की तारीफ कर चुके हैं। लेकिन अब वो रौनक गायब हो चुकी है।

कई शिल्पी तो अपनी कला छोड़कर ई-रिक्शा चलाने लगे हैं या खेतों में मेहनत कर रहे हैं। जो बचे हैं, वो भी अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं उतारना चाहते। शिल्पियों का दर्द सिर्फ बाजार की कमी नहीं, बल्कि सरकार और नौकरशाही की अनदेखी भी है।
पप्पू बताते हैं, “कोरोना ने रही-सही कमर तोड़ दी। कुछ दिनों के लिए उम्मीद बंधी थी कि सरकार मदद करेगी, लेकिन वही पुरानी दिक्कतें सामने आ गईं।”
कुछ साल पहले सरकार ने सॉफ्ट स्टोन की खदानें बंद कर दीं। काफी जद्दोजहद के बाद सरकार ने खदानें चालू कराईं। महंगे डीजल और बिजली ने काम और मुश्किल कर दिया। शिल्पियों ने कई बार सस्ती बिजली और बेहतर टूल किट की मांग की, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।
गोरे पत्थरों में जान फूंकने वाले फनकारों की स्थिति यह है कि उनकी जिंदगी लगातार छोटी होती जा रही है। दरअसल, नक्काशी करते समय शिल्पकार पत्थरों से निकलने वाला गर्द फांकते रहते हैं, जो उनके फेफड़ों से होकर शरीर की धमनियों में जम जाता है। बाद में शिल्पकार बीमारियों से घिर जाते हैं और कम उम्र में उनकी मौत हो जाया करती है।
जुनून से जिंदा है कला
बनारस की गलियों और मोहल्लों में कभी पत्थरों पर हथौड़े की ठक-ठक गूंजती थी। यह आवाज़ सिर्फ पत्थरों की नहीं, बल्कि उन शिल्पकारों की मेहनत की गवाही देती थी जो उन्हें तराशकर खूबसूरत कलाकृतियों में बदल देते थे। पर अब यह आवाज़ धीरे-धीरे खामोश हो रही है।
रामनगर के हुनरमंद कमलेश कन्नौजिया ने भी पत्थरों पर नक्काशी का काम छोड़ दिया है। अब वो बिजली वायरिंग करके किसी तरह गुजारा कर रहे हैं।

जो शिल्पी बचे हैं, वो अपनी कला को मरने नहीं देना चाहते। वो आज भी पत्थरों पर जान फूंक रहे हैं। लेकिन उनकी मेहनत का सही दाम नहीं मिल रहा। उनका कहना है कि अगर हालात नहीं बदले तो बनारस की यह अनमोल कला इतिहास के पन्नों में दफ्न हो जाएगी।
बनारस की गलियां, जो कभी पत्थरों की नक्काशी से सजी होती थीं, आज खामोश हैं। ये खामोशी सिर्फ उन पत्थरों की नहीं, बल्कि उन फनकारों की है, जिनकी जिंदगी इस कला के साथ खत्म हो रही है।
कमलेश कहते हैं, “दिन-रात मेहनत करने के बाद भी इतना नहीं कमा पाते थे कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और अच्छी परवरिश कर सकें। इस कला में अब उतना दम नहीं बचा कि मेहनत का सही दाम मिले। आंखों की रोशनी भी जाती रही और उम्मीद भी।”
उनकी बातों में झलकता दर्द उन तमाम शिल्पकारों की कहानी कहता है, जो कभी बनारस की पहचान थे। राज सोनी अब टैंपो चला रहे हैं। विजय सेठ और रवि सेठ ने आभूषण की दुकान खोल ली है। रुपेश कुमार ठेला लगाने पर मजबूर हो गए हैं। कमलेश कहते हैं, “पहले पत्थरों पर नक्काशी से जो कमाई होती थी, अब उससे पूरा माल बिकता है। ऐसे में पेट पालना भी मुश्किल हो गया है।”
संकट में फंसी एक कला
रामनगर के राजेश यादव और लक्सा के संदीप मौर्य जैसे शिल्पकार अब भी इस कला को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यह उनके लिए किसी जंग से कम नहीं। वो कहते हैं, “हमारा हाल मत पूछिए। रोजी-रोटी का इंतज़ाम करना भारी पड़ता है।
कोरोना के बाद से तो हालात और बिगड़ गए। मेहनत का सही दाम नहीं मिलता, लेकिन काम छोड़ भी नहीं सकते। बच्चों को इस काम में नहीं डालेंगे। दिहाड़ी मजदूरी इससे बेहतर है।”
द्वारिका प्रसाद, जिन्होंने अपने जीवन के कई दशक पत्थरों में जान फूंकने में बिता दिए, कहते हैं कि यह हुनर उन्हें विरासत में मिला है। “हम पत्थरों को ऐसी शक्ल देते थे कि लोग देखते ही फिदा हो जाते थे। बुद्ध की मूर्तियों से लेकर छड़ी, फूलदान, और लैंप तक, हर चीज़ हमारे हाथों की मेहनत की गवाही देती थी।”
लेकिन अब हालत यह है कि बनारस के गिने-चुने शिल्पकार ही इस काम में लगे हैं। बाज़ार में माल नहीं बिकता, कच्चा माल मिलता नहीं, और जो मिलता है वो इतना महंगा है कि काम करना मुश्किल हो गया है।
द्वारिका प्रसाद को उम्मीद है कि मोदी और योगी सरकार इस कला को बचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाएगी। वो कहते हैं, “बुनकरों को सस्ती बिजली मिलती है, तो शिल्पकारों को क्यों नहीं? हमारे उत्पादों पर 12% जीएसटी लगा दिया गया है। हमारी मुश्किलों पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया, तो यह कला इतिहास के पन्नों में ही रह जाएगी।”
नई पीढ़ी क्यों नहीं जुड़ती?
द्वारिका बताते हैं कि स्टोन कार्विंग में सिर्फ मेहनत नहीं, बल्कि धैर्य भी चाहिए। नई पीढ़ी इतनी मेहनत और कमाई के बीच तालमेल बिठाने को तैयार नहीं। “हम चाहते हैं कि सरकार हमें बिजली और कच्चे माल की सुविधा दे। यह हमारी धरोहर है। इसे बचाना सरकार का भी फर्ज़ है।”
बनारस की वह गलियां, जहां पत्थरों पर तराशने वाले हाथ चलते थे, अब खामोश हैं। शिल्पकारों के दिल में एक डर है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो यह कला जल्द ही इतिहास बन जाएगी।
बनारस के पत्थरों पर अपनी रूह फूंकने वाले शिल्पकारों की हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। हर कोई चिंतित है, लेकिन हालात बदलने का नाम नहीं ले रहे। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, “डबल इंजन की सरकारें बस नारे गढ़ना जानती हैं।
‘वोकल फॉर लोकल’ का जो सपना दिखाया गया था, वो ज़मीन पर आते-आते दम तोड़ गया। बनारस की स्टोन कार्विंग कला, जो कभी काशी की पहचान हुआ करती थी, आज खत्म होने के कगार पर है।”
विनय का कहना है कि विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण ने भी शिल्पकारों को दरकिनार कर दिया। “कॉरिडोर बन गया, लेकिन बनारस के शिल्पकारों को कोई काम नहीं मिला। सारे ठेके बाहर के लोगों को दिए गए।
कॉरिडोर की दीवारों में बनारस की झलक कहीं नहीं दिखती। यह बड़ा मौका था हमारी कला को दुनिया के सामने लाने का, लेकिन सरकार ने इसे गंवा दिया।”
जीएसटी ने छीना रोज़गार
इन तमाम परेशानियों के बीच कुछ शिल्पकार आज भी अपनी कला को जिंदा रखने की कोशिश में जुटे हुए हैं। बनारस के अनिल कुमार आर्य, जो लक्सा में विश्वनाथ मूर्ति भंडार चलाते हैं, इस कला को लेकर अब भी उम्मीद बनाए हुए हैं।
अनिल बताते हैं, “विश्वनाथ धाम बनने के बाद शिवलिंग और नंदी की मांग बढ़ी है, खासकर दक्षिण भारत में। हम हाथी, घोड़े, कछुए, चेस गेम, अरोमा लैंप, और पत्थर के बर्तन जैसे कई सामान बनाते हैं।”

अनिल का दावा है कि बनारस की स्टोन कार्विंग कभी खत्म नहीं होगी। “मेरे दादा लक्ष्मण प्रसाद आर्य ने इस कला को शुरू किया था। करीब सौ साल से यह परंपरा चल रही है। बनारस की विधवाएं पत्थर के बर्तनों में खाना खाती थीं और पूजा-पाठ में भी इन्हीं का इस्तेमाल होता था। आज भी बंगाल में इन बर्तनों का चलन है। हमारी कोशिश है कि यह कला जीवित रहे।”
अनिल ने बताया कि बनारसी कारीगर ओरिजिनल स्टोन से कृतियां बनाते हैं, जबकि चीन सस्ते मटीरियल से नकली सामान बनाकर बाजार पर कब्जा कर रहा है। “उनके सामान दिखने में अच्छे लगते हैं, लेकिन टिकाऊ नहीं होते। हमारे उत्पाद हाथ से बनाए जाते हैं, इसलिए उनकी अलग ही पहचान है।”
कश्मीरीगंज के शिल्पकार अशोक सिंह पिछले 40 साल से इस कला से जुड़े हुए हैं। उनकी संस्था शिल्पांचल कुटीर उद्योग में तैयार की गई कृतियां देश और विदेश में जाती हैं। लेकिन उनकी शिकायत है कि जीएसटी ने उनके काम पर भारी असर डाला है।
वह कहते हैं, “जब वैट था, तब हमारा उत्पाद टैक्स फ्री था। जीएसटी आने के बाद 12 फीसदी टैक्स लग गया। इससे हमारी लागत बढ़ गई और बाजार चीन के हाथ में चला गया। रामनगर में गिनती के शिल्पकार बचे हैं। नई पीढ़ी इस काम को करने के लिए तैयार नहीं है। मेहनत के बाद भी न तो दाम मिलता है, न सम्मान।”
बनारस के बेजान पत्थरों को नई जान देने वाले शिल्पकार आज दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। सरकारें बदल गईं, नारे बदल गए, लेकिन शिल्पकारों के हालात जस के तस हैं। अगर समय रहते इस कला को बचाने की कोशिश नहीं की गई, तो बनारस की यह ऐतिहासिक पहचान हमेशा के लिए खो जाएगी।
बनारस की स्टोन कार्विंग कला, जिसने सालों से इस शहर की पहचान बनाई है, अब एक बार फिर उम्मीद की डोर पकड़ रही है। जीआई टैग मिलने के बाद, इस कला को अंतरराष्ट्रीय बाजार में नई पहचान मिली है। हस्तशिल्पकला के अधिकारी कहते हैं कि सरकार कारीगरों को ट्रेनिंग और ऋण देकर काम बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
लेकिन जागरूकता की कमी के चलते योजनाओं का फायदा कारीगरों तक नहीं पहुंच पा रहा। स्टोन कार्विंग एक असंगठित क्षेत्र है, जहां ज़्यादातर कारीगर दूसरों के लिए काम करते हैं। ऐसे में न्यूनतम मेहनताना तय करना मुश्किल हो जाता है।
हालांकि शिल्पकारों का आयुष्मान कार्ड बनवाया जा रहा है, ताकि उन्हें मुफ़्त इलाज की सुविधा मिल सके। पीएम मोदी का ‘वोकल फॉर लोकल’ नारा इन्हीं विशिष्ट कलाओं को बढ़ावा देने के लिए है, ताकि इन्हें नई पहचान मिले।
जीआई टैग: एक नई राह
जीआई विशेषज्ञ और पद्मश्री डॉ. रजनीकांत कहते हैं, “जीआई टैग मिलने के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बनारस की स्टोन कार्विंग की मांग बढ़ी है। अगर कारीगर अपने उत्पाद मेलों और प्रदर्शनियों में ले जाएं, तो उन्हें बड़ा फायदा हो सकता है। मोदी सरकार ने हस्तशिल्प उत्पादों पर 40 लाख रुपये तक की जीएसटी छूट दी है, जिससे कारीगरों को राहत मिली है।”
डॉ. रजनीकांत बताते हैं कि बनारसी स्टोन कार्विंग की थाईलैंड, जापान, कोरिया, और जर्मनी में जबरदस्त मांग है। यूरोप, खाड़ी देशों और अमेरिका में भी इस कला को लेकर लोगों में दीवानगी बढ़ रही है। “जो भी बनारस आता है, वो इसे अपने साथ याद के तौर पर ले जाना चाहता है।”
थाईलैंड और जापान के बाजारों में बनारसी स्टोन जाली क्राफ्ट का नाम हो रहा है। अब यह सिर्फ एक स्थानीय कला नहीं रही, बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी जगह बना चुकी है। बनारसी कारीगरों की मेहनत और हुनर को दुनिया सलाम कर रही है।
रजनीकांत कहते हैं, “असली चुनौती अभी भी इन कारीगरों तक योजनाओं को पहुंचाने की है। जीआई टैग और सरकार की मदद से जहां कुछ कलाकार अच्छा कमा रहे हैं, वहीं कई अब भी अपने हुनर को पहचान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
अगर सही तरीके से योजनाओं को लागू किया गया, तो बनारस की यह अनमोल कला एक बार फिर से पूरी दुनिया में चमक सकती है।”
(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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