ग्राउंड रिपोर्टः बनारस में मायूसी बिखेर रही फूलों की महक, मंदी की मार से मुरझा गए बागबानों के चेहरे !

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वाराणसी। गेंदे और गुलाब के फूल, जो कभी मंदिरों, त्योहारों, और खुशियों के प्रतीक माने जाते थे, अब किसानों के लिए दुःख और चिंता का सबब बन चुके हैं। फूलों की खेती कभी बनारस के किसानों की आमदनी का एक बड़ा स्रोत हुआ करती थी, लेकिन अब यह खेती संकट में घिरी हुई है।

बाजार की मंदी, खराब मौसम, और बढ़ती लागत ने फूल उत्पादक किसानों की उम्मीदों को चूर-चूर कर दिया है। नवरात्र जैसे बड़े त्योहार पर भी फूलों की मांग कम रही और जो थोड़ी-बहुत बिक्री हुई, उसमें किसानों को लागत भी नहीं मिल पाई।

कुंद की कली

26 वर्षीय सावित्री अपने पिता त्रिलोकी राजभर के साथ दीनापुर गांव में फूलों की खेती करती हैं। सावित्री के जीवन में संघर्षों की कभी कमी नहीं रही। कुछ साल पहले उनके पिता त्रिलोकी, जो बनारस में फूल बेचने जा रहे थे, एक दुर्घटना का शिकार हो गए।

रास्ते में उन्हें मिर्गी का दौरा पड़ा, और वे सड़क पर गिर पड़े। एक वाहन ने उनके दोनों पैरों को कुचल दिया, और उनकी जान बचाने के लिए डॉक्टरों को उनके पैर काटने पड़े। यह हादसा परिवार के लिए एक बड़ा धक्का था। दो साल पहले सावित्री की मां का भी निधन हो गया, और तब से उन्होंने अपने पिता का पूरा जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया है।

त्रिलोकी राजभर

सावित्री अब अपने ससुराल खरगीपुर से वापस आकर अपने पिता के साथ खेती में हाथ बंटा रही हैं। फूलों की खेती में उनका दर्द साफ झलकता है। वह कहती हैं, “फूलों के बगीचे में खुशबू नहीं, अब बस खामोशी और मायूसी है। फूल देखने में जितने सुंदर लगते हैं, उतने ही हमारे लिए कष्टकारी हो गए हैं।

इस बार नवरात्र से उम्मीद थी, लेकिन ऐसा लगा जैसे त्योहार फीका ही गुज़र गया। बाजार में मंदी है और हमारी फूलों की कीमत तो जैसे मिट्टी के भाव बिक रही है। हमें इस त्योहार से एक भी पैसा सही तरीके से नहीं मिल पाया।”

बेला के बाग में एक किसान

सावित्री के शब्दों में उदासी की गहराई महसूस की जा सकती है। वह यह भी कहती हैं, “खेतों में गेंदा, गुड़हल, और कुंद के फूल खिलते हैं, लेकिन पिछले दो सालों से मंदी ने इस खेती को लगभग खत्म कर दिया है। सितंबर की बारिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी, जब फूलों पर रोग लग गए और ज़्यादातर फूल काले पड़ गए।

सावित्री कहती हैं, “कई बार तो हमें मंडी में फूलों की माला फेंककर वापस लौटना पड़ता है, क्योंकि खरीदार ही नहीं मिलते। मेरे पिता ने 20 हजार रुपये में खेत लीज पर लिया था और उस पर खाद-बीज और कीटनाशकों का खर्च भी हो चुका है, लेकिन अब लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है।”

त्रिलोकी के दुखों का अंत नहीं

सावित्री के पिता त्रिलोकी की आंखों में भी संघर्ष की कहानी साफ झलकती है। जीवन के इतने बड़े हादसे के बावजूद उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी, लेकिन फूलों की खेती ने उनकी उम्मीदों को धुंधला कर दिया है।

वे बताते हैं, “पहले मंदिरों में फूलों की इतनी मांग होती थी कि हमारी फूलों की खेप पूरी नहीं पड़ती थी, लेकिन अब बनारस के बांसफाटक और मलदहिया की मंडियों में फूल बेमोल बिकते हैं। मंदिरों में भी फूलों की मांग घट गई है, और किसानों को उनकी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा है।”

फूलों की खेती अब आर्थिक तंगी और बाजार की बेरुखी का प्रतीक बन चुकी है। बनारस के हजारों मंदिर, जो कभी किसानों के फूलों की सबसे बड़ी खपत थे, अब उनमें भी फूलों की मांग नहीं बची है। सावित्री की तरह कई किसान अब सोचने पर मजबूर हैं कि क्या वे इस खेती को जारी रख सकेंगे।

मंदी की इस मार ने न सिर्फ उनकी जेबें खाली की हैं, बल्कि उनके सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है। अब जब दिवाली की तैयारी चल रही है, फूलों के किसानों के चेहरे पर चिंता की लकीरें और गहरी होती जा रही हैं। सावित्री कहती हैं, “इस बार दिवाली से भी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है।

हमारे फूलों की जो कीमत पहले मिलती थी, वह अब नाम मात्र की रह गई है। अगर यही हाल रहा, तो हमें खेती छोड़ने पर मजबूर होना पड़ेगा।” सावित्री जैसे हजारों किसान जो फूलों की खेती में अपने जीवन की उम्मीदें बो रहे थे, अब असमंजस में हैं कि उनका भविष्य क्या होगा?

वंदना पर जिम्मेदारियों का पहाड़

महज़ 19 साल की उम्र में, जब ज्यादातर लड़कियां अपनी पढ़ाई और भविष्य के सपने संजो रही होती हैं, बनारस की वंदना अपने परिवार की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाए हुए है। एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखने वाली वंदना के पिता का निधन बीमारी के चलते हुआ, और उसके बाद से परिवार की आजीविका चलाने का भार इस लड़की पर आ गया।

पंचकोसी रोड के पास एक वीरान सी बस्ती में रहने वाली यह यह छात्रा अब न सिर्फ अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है, बल्कि अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई का भी खर्च उठा रही है।

अपने कुंद के खेत में वंदना

वंदना के परिवार में उसकी मां, दो छोटी बहनें और एक भाई हैं। पिता के गुजरने के बाद, घर की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। कोई और चारा न देखकर, वंदना ने फूलों की खेती में अपना भविष्य तलाशा। उसने थोड़ी बहुत पूंजी का इंतजाम किया और दीनापुर गांव में 11 हज़ार रुपये में लीज पर ज़मीन ले ली।

इस ज़मीन में पहले से ही कुंद के फूल लगे थे। लेकिन खेती करने का कोई अनुभव न होने के बावजूद, वंदना ने हार नहीं मानी।

वंदना कहती है, “मुझे शुरुआत में कुछ समझ नहीं आया कि कैसे खेती करूं? लेकिन मैंने धीरे-धीरे फूलों की खेती का गुर खुद सीख लिया।” हर सुबह, वह अपनी साइकिल पर सवार होकर कुंद के फूलों के बगीचे में पहुंच जाती है। खेत में पहुंचते ही वह पूरे जोश के साथ फूलों की तोड़ाई, दवाइयों का छिड़काव, और सिंचाई में जुट जाती है।

तीन-चार घंटे खेत में मेहनत करने के बाद, वंदना घर लौटती है और अपनी पढ़ाई में लग जाती है। वंदना की मां भी उसकी इस कठिन यात्रा में उसका साथ दे रही हैं। वे घर में बैठकर फूलों की माला बनाती हैं और पड़ोसियों के जरिये इन मालाओं को इंग्लिशिया लाइन की मंडी में भेजती हैं।

मंडी तक पहुंचाने का सफर आसान नहीं है, क्योंकि खरीददार अब कम हो गए हैं और मुनाफा नाममात्र का हो रहा है।

वंदना के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जो फूल वह और उसकी मां इतनी मेहनत से तैयार करती हैं, उन्हें बाजार में उनकी सही कीमत नहीं मिल पाती। वंदना कहती है, “हर दिन उम्मीद रहती है कि शायद आज कुछ अच्छा हो, लेकिन मंडी में खरीददार ही नहीं मिलते। कई बार मालाओं को औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है, जिससे लागत भी नहीं निकल पाती।”

गेंदे के खेत

इतनी कम उम्र में, जीवन की कठोर वास्तविकताओं का सामना करने वाली वंदना अब भी हिम्मत नहीं हार रही है। वह कहती है, “मुझे पता है कि हालात बहुत मुश्किल हैं, लेकिन मैंने ठान लिया है कि मैं अपने परिवार के लिए कुछ करूंगी। अगर मैंने हार मान ली, तो मेरे छोटे भाई-बहनों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।”

फूलों की खेती के संघर्ष

फूलों की महक भले ही बाजार में कम हो, लेकिन वंदना और सावित्री की मेहनत और संघर्ष की खुशबू दूर तक फैलेगी, और वह न सिर्फ अपने परिवार बल्कि अपने समाज के लिए भी एक मिसाल बनेगी। वंदना पांडेय कहती हैं, “कुंद की माला आमतौर पर 130 रुपये सैकड़ा बिकती है।

दिसंबर महीने में शादी-विवाह का सीजन शुरू होता है, तब जयमाल बनाने के लिए कुंद की मांग बढ़ जाया करती है। उस समय शायद हमारे फूलों की डिमांड भी बढ़ेगी। फिलहाल हम मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, लेकिन हार नहीं मानेंगे।”

जब वंदना से पूछा गया कि फूलों की खेती का आइडिया कैसे आया, तो वह भावुक हो गईं। “पिता की मौत के बाद हमारे पास कोई काम नहीं था।

मैंने अपनी मां को फूलों की खेती करने की सलाह दी, तो वह हैरान रह गईं। उन्होंने कहा कि तुम लड़की हो, अकेले खेतों में काम कैसे करोगी? लेकिन मैंने जिद की और मां को भरोसा दिलाया कि फूलों की खेती से ही हमारा भविष्य संवर सकता है। अब मैं जो भी कमाती हूं, उससे घर का खर्च चल जाता है। मैं और मेरे भाई-बहन भी पढ़ लेते हैं।”

दीनापुर में बेला के बाग की देखरेख करता एक किसान

बनारस के दीनापुर गांव में जहां अधिसंख्य लोग फूलों की खेती पर निर्भर हैं, वहां आजकल मायूसी का आलम है। कुंद, गुलाब, बेला, गेंदा, और गुड़हल जैसे फूलों की खेती करने वाले किसान बाजार की ठंडक और मंदी की मार झेल रहे हैं।

दीनापुर के एक किसान चंद्रदेव से मुलाकात हुई तो उन्होंने अपनी निराशा व्यक्त की, “हम बेला, गुड़हल और कुंद की खेती करते हैं, लेकिन बाजार काफी नरम है। हमें तो गेंदे की बड़ी माला मात्र चार-पांच रुपये में बेचकर लौटना पड़ रहा है।

कई किसानों को तो अपनी गेंदे की मालाएं फेंकनी पड़ रही हैं। इस बार असमय बारिश के कारण हमने जो फसल लगाई थी, उसमें से कुछ बर्बाद हो गईं। अब तो समझ में नहीं आ रहा है कि किस चीज की खेती करें?”

एसटीपी और किसानों का दर्द

दीनापुर के बागबानों का सबसे बड़ा दुश्मन बना है एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट)। बनारस शहर का मल-जल यहीं शोधन के लिए आता है, और इस प्रक्रिया ने बागबानों की ज़मीन छीन ली है।

लालजी मौर्य, जो वर्षों से फूलों की खेती करते आ रहे हैं, कहते हैं, “पहले हमारे पास ज्यादा जमीन थी, लेकिन एसटीपी बनने के बाद रकबा कम हो गया। मजबूरी में हमें फूलों की खेती करनी पड़ी, क्योंकि यही एकमात्र आजीविका का सहारा बचा था। पर अब बाजार में मंदी, असमय बारिश और सरकार की अनदेखी ने हमें तबाह कर दिया है।”

फूलों के खेत से घास निकालती एक महिला

लालजी बताते हैं, “पहले नवरात्र और दिवाली जैसे त्योहारों पर गुलाब, गेंदा, गुड़हल, गुलदावदी, कुंद, जूही, और बेला के फूलों की मांग चरम पर होती थी। लेकिन इस बार इन नवरात्र पर सन्नाटा छाया रहा। असमय बारिश ने कुंद और गेंदा के फूलों की खेती को भारी नुकसान पहुंचाया है।

दीनापुर के बागबान पहले हर रोज करीब डेढ़ लाख रुपये की कमाई किया करते थे, लेकिन अब फूलों की खेती से सिर्फ घाटा हो रहा है।” किसानों के लिए ये हालात सिर्फ आर्थिक संकट ही नहीं, बल्कि उनके हौसलों पर भी एक गहरा आघात है।

चंद्रदेव और लालजी मौर्य जैसे किसानों के लिए अब यह सोच पाना मुश्किल हो गया है कि किस तरह अपने परिवारों का भरण-पोषण करें और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखें।

मंदी की मार झेल रहे बागबान

बनारस, जिसे मंदिरों का शहर माना जाता है, यहां फूलों की खपत किसी भी अन्य शहर की तुलना में कहीं ज्यादा है। इस जनपद में फूलों की खेती करने वालों में मुख्य रूप से मौर्य, पटेल, माली, राजभर और अन्य ऐसे समुदाय शामिल हैं जो सामाजिक रूप से पिछड़े माने जाते हैं।

दरअसल, यहां की 75 फ़ीसदी आबादी फूलों और सब्जियों की खेती और पशुपालन से ही अपना जीवन यापन कर रही है। गांव-गांव में सैकड़ों किसान हैं जो गुलाब, बेला, चमेली, ग्लेडुलस, रजनीगंधा और जरबेरा जैसी फूलों की खेती कर रहे हैं।

जब आप इन फूलों से सजे खेतों को देखते हैं, तो मन बस मोहित हो जाता है। चाहे कोई भी मौसम हो, बनारस में गेंदा और गुलाब की मांग सबसे अधिक रहती है। इसके अलावा, मदार, दौना और तुलसी की मालाओं की भी खासी खपत है।

टेंगरी के फूल

बनारस में फूलों के उत्पादन और बिक्री से जुड़े लोगों की संख्या पांच लाख से भी ज्यादा है। हालांकि, हाल की असमय बारिश ने फूलों की खेती करने वाले किसानों को मुश्किल में डाल दिया है, लेकिन उद्यान विभाग का कहना है कि नुकसान केवल दो-तीन फीसदी ही हुआ है। बनारस के हजारों किसानों की जीवनरेखा अब फूलों पर निर्भर है।

अगर आप चिरईगांव, धन्नीपुर, गोपालपुर या दीनापुर जाएं, तो आपको हर दिशा से फूलों की महक का अहसास होगा। हर कदम पर फूलों की खुशबू आपका स्वागत करती है। इन गांवों की पगडंडियों पर चलते हुए आप महसूस करेंगे कि हर ओर फूल ही फूल हैं। गुड़हल, कुंद, बेला के फूलों की सुगंध आपके दिलों को मादकता भर देती है।

दीनापुर और धन्नीपुर को लोग ‘रोज विलेज’ के नाम से भी जानते हैं। यहां धान और गेहूं की खेती मात्र नाम के लिए होती है। ये गांव ऐसे हैं जहां अधिकतर किसान फूलों की खेती करते हैं।

पीक सीजन में यहां से हर रोज लाखों रुपये के फूल बनारस की फूल मंडियों से होते हुए मंदिरों तक पहुंचते हैं। न सिर्फ पूर्वांचल, बल्कि बिहार और कोलकाता के फूल व्यापारी भी यहीं से रंग-बिरंगे फूल खरीदने आते हैं।

हजारा गेंदा की खेती का गढ़

बनारस में हजारा गेंदा की सर्वाधिक खेती लखीमपुर, सरहरी, मिल्कीपुर, काशीपुर, भद्रकला, कैथी, इंद्रपुर, लोहता और भट्ठी में होती है।

गौराकला के प्रधान राजेश कुमार राजू बताते हैं कि, “चिरईगांव प्रखंड के धन्नीपुर, गोपालपुर, दीनापुर, चिरईगांव, कोची, रमना और गुलरीतर जैसे गांवों के फूल सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, बल्कि बिहार, कोलकाता और नेपाल की राजधानी काठमांडू तक अपनी खुशबू फैलाते हैं।”

राजू कहते हैं, “सर्दियों में समूचा दीनापुर और गौरा कला का घुघुरीपर टोला फूलों का बाग़ बन जाता है। यहां के खेत कभी पीले और नारंगी गेंदे से पटे रहते हैं, तो कभी सफेद बेले, कुंद, गुड़हल और टेंगरी के फूलों से सज जाते हैं।

देसी गुलाब की महक की तो बात ही कुछ और है। खेतों के किनारे खड़ी बड़ी-बड़ी झाड़ियों में सुर्ख लाल गुड़हल के फूल हर किसी को दीवाना बना देते हैं। लेकिन इन सभी खूबसूरत दृश्यों के पीछे है किसानों की मेहनत और संघर्ष। उनकी मेहनत का फल जब मौसम की बेरुखी से खराब होता है, तो उन्हें अपने भविष्य के प्रति चिंता सताने लगती है।

हालात चाहे जैसे हों, लेकिन ये किसान अपनी मेहनत और दृढ़ निश्चय से कभी हार नहीं मानते। फूलों की खुशबू और इनकी मेहनत मिलकर बनारस को एक अनोखा शहर बनाते हैं, जहां हर सुबह नए सपने खिलते हैं और हर शाम एक नई उम्मीद जगाते हैं।”

सुनील राजभर

पुष्प उत्पादक किसान विकास मौर्य, सुनील, राजेश, और रामपति राजभर कहते हैं, “हाड़तोड़ मेहनत का दूसरा नाम है फूलों की खेती। पौधे लगाना, पानी देना और ताज़ीवन उसकी देख-रेख करना आसान काम नहीं है। फूल आने पर उन्हें तोड़ना, उनकी माला बनाना और फिर उसे मंडियों में ले जाकर बेचना हर किसी के बस में नहीं है।”

यह शब्द सिर्फ उनके संघर्ष का प्रतिबिम्ब नहीं, बल्कि पुष्प उत्पादक किसानों की तकलीफों की कहानी सुनाते हैं।

बनारस का चिरईगांव केवल अपने बागों के लिए नहीं, बल्कि फूलों की खेती के लिए भी मशहूर है। यहां की लगभग दस हजार की आबादी में से कई लोगों की आजीविका फूलों पर निर्भर है।

लेकिन हाल के दिनों में मानसून और मौसम की बेरुखी ने इस गांव के बागबानों को बुरी तरह तोड़ दिया है। गेंदा और देसी-विदेशी गुलाब की खेती करने वाले किसान इस बार काफी परेशान हैं।

गेंदे पर टिकी आजीविका

जिला उद्यान अधिकारी सुभाष कुमार कहते हैं, “बनारस जिले में करीब 565.75 हेक्टेयर कृषि भूमि में फूलों की खेती होती है। सभी फूलों में गेंदा, सबसे अधिक खेती की जाने वाली फसल है। फूल की उत्पादकता करीब 12,500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।”

वह बताते हैं कि बनारस शहर से सटे काशी विद्यापीठ, हरहुआ, अराजीलाइन और चिरईगांव ब्लाक क्षेत्र के कई गांव फूलों की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं।” एक हेक्टेयर फूलों की खेती से करीब पांच से दस किसानों के परिवार जुड़े हैं। जब बागबानों का पूरा परिवार फूलों की खेती में जुटता है तभी इनकी आजीविका चल पाती है।”

बनारस के हजारों फूल उत्पादक इन दिनों मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। गेंदा, टेंगरी, बेला और कुंद के बाग वीरान पड़े हैं। असमय बारिश के चलते फूलों में बड़े पैमाने पर कीड़े लग गए हैं। एक तरफ गेंदे के मुरझाए फूलों के खेतों में कीटों का हमला है, तो दूसरी ओर बाजार में बागबानों को मंदी का सामना करना पड़ा है।

उन्हें उम्मीद थी कि इस बार दिवाली में अच्छी कमाई होगी, लेकिन सितंबर महीने में कई दिनों तक हुई बारिश ने हजारा गेंदा के फूलों के रंग फीके कर दिए। दौना और तुलसी की पत्तियां काली पड़ गईं, जिससे फूलों की खेती करने वाले बागबानों के सारे सपने टूट गए।

मुन्नी देवी और उनका संघर्ष

कोची गांव की 55 वर्षीया मुन्नी देवी और उनके पति पांचू ने अपनी पूरी जिंदगी फूलों की खेती में गुज़ार दी। हाल के दिनों की बारिश और कीटों के हमले ने इनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। रही-सही कसर मंदी की मार की भेंट चढ़ गई। खेतों में जो फूल खिल रहे हैं, उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं है।

फूलों के खेतों में काम कर रहीं मुन्नी देवी कहती हैं, “फूलों की खेती से परिवार चला पाना मुश्किल है। अबकी गेंदे की फसल बच गई, लेकिन जिंदगी मुश्किल से कट रही है।”

बबलू राजभर

पास खड़े इनके पुत्र बबलू कुमार कहते हैं, “चुनाव आता था, तो हम लोगों को बस यही फ़ायदा होता था कि फूलों की डिमांड बढ़ जाती है। हाल-फिलहाल कोई चुनाव भी नहीं है। इस बार नवरात्र का त्योहार फीका रहा। दो साल पहले तक फूलों की खेती से अच्छा मुनाफा मिलता था।

गेंदे की माला 50 से 55 रुपये में बिक जाया करती थी, लेकिन इस बार तो पांच-छह रुपये मिल पाना मुश्किल हो गया। पिछले साल भी मंदी झेलनी पड़ी और इस बार तो मंडी तक माला पहुंचाना ही घाटे का सौदा साबित हो रहा है।

लगता है कि इस बार भी दिवाली भी बेरंग रहेगी। दशहरे का सीजन निकल ही गया। अब समझ में नहीं आ रहा कि हम अपने फूलों का क्या करेंगे?”

टूट रही बागबानों की आस!

कोची गांव के सुनील राजभर की आंखों का सूनापन बता रहा था कि फूलों की खेती ने उनकी जिंदगी में खुशहाली का रंग नहीं भरा है। वह कहते हैं, “कोची, रमना, पचरांव समेत आसपास के कई गांवों में हजारा गेंदे की खेती होती है, लेकिन असमय बारिश के बाद कीटों के हमलों से बागबानी चौपट हो गई है।

एक बीघा गेंदा लगाने पर खर्च 15 से 20 हज़ार रुपये आता है। इस बार लागत निकल पाने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है।”

धन्नीपुर के बागबान मोतीलाल मौर्य ने अपने उन खेतों को दिखाया जिसमें उन्होंने गेंदे की खेती कर रखी है। खेतों में गेंदे के पौधे तो लहलहा रहे हैं, लेकिन फूलों की कलियां मुरझा सी गई हैं, क्योंकि अंदर कीड़े घुस गए हैं।

वह कहते हैं, “फूलों की खेती के लिए जून, जुलाई और अगस्त महीने की बारिश काफी मुफीद मानी जाती है। जब बारिश की जरूरत थी, तब हुई नहीं। सितंबर में हुई बारिश का गेंदे के फूलों की खेती पर बहुत बुरा असर पड़ा है। हजारा गेंदे की जो माला पहले 10 हज़ार रुपये प्रति सैकड़ा बिक जाया करती थी, उन्हें अबकी चार-पांच सौ रुपये में बेचना मुहाल हो गया।

खेती का खर्च निकाल पाना मुश्किल हो गया है। बागबानों की असल कमाई का वक्त दशहरा और दिवाली में ही होती है। अबकी फूलों की खेती चौपट होने से लगता है दोनों त्योहार यूं ही बीत जाएंगे।”

गेंदे की माला बनाती महिला

इन्हीं के पास बैठे धन्नीपुर के रामनारायण मधुकर कहते हैं, “पहले नवरात्र के वक्त जाफरी गेंदे की डिमांड बहुत ज़्यादा रहती थी। अबकी हाल ठीक नहीं रहा। भारी घाटा उठाना पड़ा। इस बार बनारस की बांसफाटक मंडी में हजारा और जाफरी गेंदे का दाम बढ़ा ही नहीं।”

गेंदे की खेती करने वाले बागबान धर्मेंद्र कहते हैं, ” सुबह फूलों को तोड़ने से लेकर निराई, गुड़ाई, सिंचाई और बाद में माला बनाने में पूरा परिवार जुटता है, तब दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती है। नीलगाय का प्रकोप पहले से था और अब छुट्टा पशुओं के चलते फूलों की खेती आसान नहीं रह गई है।

दिन-रात पहरेदारी करनी पड़ती है। इस काम में कोई फ़ायदा नहीं है, लेकिन हम सबकी मुश्किल ये है कि हमने कोई दूसरा काम नहीं सीखा। देखिए, मरना हो, जीना हो, नेता बने, अफ़सर बने, जीवन का कोई भी फ़ंक्शन हो, सबके लिए फूल चाहिए।

लेकिन वो फूल पैदा कैसे होता है, कौन उसे पैदा करता है, इससे किसी को मतलब नहीं। चुनाव आता है, लेकिन कोई नेता तभी हमसे मिलने आता है, जब उसे वोट चाहिए। इसी से समझ लीजिए हमारी क़ीमत क्या है?”

क़र्ज़ में डूबे किसान

चिरईगांव इलाके की बागबान बबिता देवी कहती हैं, “हमारे पति बीमार हुए तो उन्हें इलाज के लिए सरकारी अस्पताल में ले गए, लेकिन वह नहीं बच सके। पति की मौत के बाद मेरे ऊपर मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा। चार बच्चों की परवरिश करने के लिए फूल की खेती शुरू की।” फ़िलहाल वह खेत पट्टे पर लेकर खेती कर रही हैं।

वह बताती हैं, “मुसीबत के वक्त यही काम करने का मन बनाया। फूलों की खेती शुरू की तो आषाढ़ में वो पानी में डूब गए। एक रुपया भी कमाई नहीं हुई, उल्टे कर्ज़दार हो गए। लगता है कि यह काम भी हमसे छूट जाएगा।”

पुष्प उत्पादक मनोज मौर्य

गौराकला की चमेली देवी, मनोज कुमार मौर्य, नरेंद्र नारायण शर्मा, सत्यानारायण मौर्य, फूलपुर के बागबान शिवपूजन चौहान, गुलाब चौहान, काजू, विजय चौहान, विजय मौर्य, गोपालपुर के बबलू प्रसाद मौर्य, अजय प्रसाद मौर्य, विद्यानंद मौर्य और राजेश मौर्य की मुश्किलें एक जैसी ही हैं।

गेंदा और गुलाब के फूलों की खेती करने वाले धन्नीपुर के किसान बाबूलाल मौर्य कहते हैं, “किसी भी दूसरी फसल की तुलना में फूलों की खेती में खाद और दवा ज़्यादा पड़ती है। आदमी को उतनी दवा नहीं मिलती होगी, जितनी फूलों को डालते हैं। इस फसल को हर हफ़्ते दवा चाहिए।

तीन माह के अंदर फसल तैयार होने के बाद 52 फूलों की एक ‘लड़ी’ तैयार की जाती है। ये ‘लड़ी’ फूल किसान ख़ुद ट्रेन, बस या दूसरी सवारी से बनारस की मंडी में ले जाकर बेचते हैं। यह बहुत कच्चा बिज़नेस है। हमें बहुत कम समय में फूल व्यापारी को बेचना है।

इसलिए हम लोग ख़ुद प्रति सैकड़ा माला पर 10-20 रुपये का फ़ायदा लेकर बेच देते हैं। सस्ते में नहीं बेचेंगे, तो फूल बेकार हो जाएंगे और फिर ऐसे ही फेंक देने के अलावा कोई विकल्प नहीं। बागबान भला मानसून से क्या शिकायत करेंगे? हम सभी की शिकायत तो जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों से है। कोई सुनता ही नहीं। कहां और किसकी शिकायत करें?”

पुष्प उत्पादक किसान चमेली देवी

इस कठिन परिस्थिति में बागबानों का दर्द और भी बढ़ जाता है जब उन्हें अपनी मेहनत का फल नहीं मिलता। रामनारायण मधुकर कहते हैं, “हमारे हाथ में मेहनत है, लेकिन फल नहीं है। मेहनत तो करते हैं, पर उस मेहनत का मूल्य नहीं मिलता। इससे लगता है कि हमारे काम की कोई अहमियत नहीं है।”

घड़रोज व आवारा पशु बने मुसीबत

धन्नीपुर के शिव मुरारी राजभर, राजेंद्र मौर्य, राम सागर मौर्य, चंद्रेश मौर्य, ईश्वरचंद मौर्य, राम बदन मौर्य और विनोद राजभर बनारस में फूलों के प्रसिद्ध उत्पादक हैं।

वह कहते हैं, “बागबानों को छुट्टा पशुओं से ज़्यादा दिक्कत है। जहां देखिए, इनका झुंड घूमते हुए मिल जाएगा। कीट-पतंगों से ज़्यादा फूलों की खेती, छुट्टा पशुओं, वन सुअर और घड़रोजों के चलते चौपट हो रही है। कोरोनाकाल से पहले हम अपने खेतों से 80-85 हज़ार रुपये कमा लेते थे, लेकिन अब खर्च निकाल पाना मुश्किल हो गया है।”

राजातालाब इलाके में फूलों की खेती करने वाले रमेश कुमार वाराणसी के इंग्लिशिया लाइन फूल मंडी के पास अपनी एक छोटी सी दुकान लगाते हैं। वह कहते हैं, “अबकी मौसम ने फूलों की खेती करने वालों का थोड़ा साथ दिया, लेकिन रही-सही कसर मंदी ने पूरी कर दी। पहले जो फूल 30 से 55 रुपये प्रति माला के हिसाब से बेचे जाते थे, वे अबकी चार-पांच रुपये में ही बिक रहे हैं।”

गोपालपुर, फूलपुर, पचरांव, महासी से लेकर दीनापुर के हज़ारों किसान रोजाना लाखों के फूल बनारस की मंडियों में पहुंचाते हैं। जिन बागबानों ने रिस्क लेकर फूल लगाए भी, उन्हें कड़ी मेहनत के बावजूद घाटा उठाना पड़ रहा है।

इंद्रपुर के बागबान राजेंद्र कुमार मौर्य को लगता है कि फूलों की खेती की वजह से ही उनकी ज़मीनें बची हैं। वह कहते हैं कि यह क्या कम है। फूलों की खेती न कर रहे होते तो हमारी जमीनों पर गगनचुंबी इमारतें तन गई होतीं।

बनारस में नहीं स्थायी फूलमंडी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र होने के बावजूद बनारस में कोई सरकारी और स्थायी फूल मंडी नहीं है। यहां विश्वनाथ मंदिर के पास बांसफाटक और इंग्लिशिया लाइन में ज़्यादातर किसान फुटपाथ के किनारे व्यापारियों को फूल बेचते हैं। दोनों स्थानों से फूल और माला पूरे पूर्वांचल और बिहार में भेजी जाती है।

फुटपाथ पर लगने वाली इस मंडी में न तो कोई शौचालय है, न शेड और न ही पीने के पानी की व्यवस्था है। दावा है कि पूर्वांचल की मंडियों में पहले हर रोज 50 लाख के फूल बिक जाया करते थे, लेकिन अब फूलों की आवक घटने से कारोबार सिमटकर एक तिहाई रह गया है।

वाराणसी में फूलों की मांग स्थानीय किसानों के लिए बहुत अधिक है। फूलों को न केवल पड़ोसी जिलों से, बल्कि बिहार और मध्य प्रदेश जैसे विभिन्न राज्यों से भी वाराणसी पहुंचाया जाता है।

बनारस के पूर्व उप निदेशक उद्यान, अनिल सिंह कहते हैं, “यूपी का पूर्वांचल इलाका फूलों की खेती के एक बड़े हब के रूप में विकसित हो रहा है। खासतौर पर बनारस में हज़ारों किसानों की आजीविका फूलों पर टिकी है।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल फूलों की खेती के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे हैं। जरूरत है कि सरकार फूलों की खेती को बढ़ावा दे।

किसानों को थोड़ा भी प्रोत्साहन मिले तो बनारस में फूलों की खेती बरदान साबित हो सकती है। जब तक बनारस के फूल विदेश में निर्यात नहीं होंगे, तब तक बागवानों की माली हालत में सुधार हो पाना आसान नहीं है।”

किसानों की दुर्दशा और संघर्ष

कृषि पत्रिका निर्यातक खेती-बाड़ी के संपादक जगन्नाथ कुशवाहा कहते हैं, “फूलों की खेती करने वाले बागबानों की समस्याएं केवल मौसम और आवारा पशुओं तक सीमित नहीं हैं। सरकारी नीतियों की कमी, उचित मूल्य का न मिलना और महंगाई ने उनकी मुश्किलों को और बढ़ा दिया है।

जैसे-जैसे महंगाई बढ़ रही है, वैसे-वैसे किसानों की आमदनी घटती जा रही है। कर्ज में डूबे किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस कठिनाई के बावजूद, फूलों की खेती का उनका लगाव और मेहनत कम नहीं हो रहा है। वे जानते हैं कि फूल केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह उनके जीवनयापन का साधन भी हैं।”

फूल मंडी में खरीदारों का इंतजार करते किसान

“फूलों की खेती अब किसी स्वर्णिम भविष्य का रास्ता नहीं दिखा रही, बल्कि एक ऐसा कांटा बन गई है, जो उनकी जिंदगी में दर्द का अहसास करवा रहा है। इसके बावजूद किसान अब भी उम्मीद लगाए हुए हैं कि एक दिन उनकी मेहनत का फल जरूर मिलेगा।

वह मानते हैं कि अगर नीतिगत बदलाव होते हैं और सही दिशा में कदम उठाए जाते हैं, तो फूलों की खेती से न केवल उनकी, बल्कि पूरे क्षेत्र की तस्वीर बदल सकती है। उनका सपना है कि बनारस की फूलों की मंडियों का विस्तार हो, उचित मूल्य मिले और उनकी मेहनत रंग लाए। उनके संघर्ष की कहानी केवल उनके लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए एक प्रेरणा बन सकती है।”

कुशवाहा कहते हैं, “भारत में फूलों का उपयोग सभी प्रकार के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक समारोह में किया जाता है। नकदी फसल के रूप में फूलों की फसल की लोकप्रियता बढ़ रही है। विश्व में फूलों का सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका है, जहां हर साल 10 बिलियन डॉलर से अधिक मूल्य के फूलों की खपत होती है।

भारत में भी सदियों से फूलों की खेती की जा रही है। फूलों की फसल उत्पादन के मामले में पश्चिम बंगाल पहले स्थान पर है, जबकि कर्नाटक व महाराष्ट्र क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर है। फूलों की खेती से महक किसानों को आर्थिक रूप से समृद्ध बना रही है, लेकिन यूपी के किसान संकट में है।

इसकी बड़ी वजह यह है कि किसानों का उत्पाद बेचने के लिए सरकार की ओर से कोई इंतजाम नहीं है। कोई सरकारी फूल मंडी तक नहीं है। सरकारी सहायता के नाम पर कुछ किसानों को गेंदे के बीज दिए जाते हैं, लेकिन उसके लिए आवेदन की आनलाइन प्रक्रिया टेढ़ी खीर सरीखी है।”

फूलों के खेत में किसान

“देश के कई राज्यों में फूलों की खेती करने वाले किसानों को ढेरों सुविधाएं और प्रोत्साहन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में पॉली हाउस और ग्रीनहाउस के लिए सरकार अनुदान देती है, लेकिन यूपी में बाकी राज्यों की तरह सुविधाएं मयस्सर नहीं होती हैं।

भारतीय फूल उद्योग में गुलाब, रजनीगंधा, ग्लेड्स, एंथुरियम, कार्नेशन, गेंदा आदि प्रमुख हैं। इन फूलों की खेती से किसानों का भला नहीं हो पा रहा है। जहां पहले त्योहारों पर मुनाफे की उम्मीद होती थी, वहीं अब फूलों की खेती बोझ बन चुकी है।

गेंदा और गुलाब की खेती करने वाले किसान अब अपने जीवन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं, जहां उन्हें न सिर्फ बाजार की मंदी से जूझना पड़ रहा है, बल्कि अपनी आजीविका के लिए रोज नए संघर्ष भी करने पड़ रहे हैं।

हमें लगता है कि जब तक सरकारी प्रयास नहीं होंगे, तब तक किसान मंदी की मार झेलने पर मजबूर होते रहेंगे। जब तक बाजार में सुधार नहीं आता, तब तक फूल उत्पादक ये किसान अपनी मेहनत और संघर्ष की कीमत पाने के लिए तरसते रहेंगे…!”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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