ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी के ‘क्योटो’ की हकीकत, जहां कब्रिस्तान में कराह रहीं फटेहाल जिंदगियां !

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वाराणसी। 52 वर्षीय बिंदर मुसहर की ज़िंदगी एक ऐसी कहानी है, जहां उम्मीदों का कोई रंग नज़र नहीं आता। न उनके पास रहने के लिए एक छत है, न शौचालय, और न पीने के लिए साफ पानी।

उनका पूरा परिवार फुलवरिया इलाके के एक कब्रिस्तान में गुजर-बसर कर रहा था, जहां से खदेड़कर उन्हें दूसरे कब्रिस्तान में में ठेल दिया गया। इनके पास न रहने का छत है, न पीने का साफ पानी, न स्वास्थ्य सुविधाएं। चूहे, सुतही और घोंघा पकड़कर जैसे-तैसे अपनी जिंदगी की गाड़ी खींचते-खींचते बिंदर का कुनबा आज भी समाज के हाशिये पर खड़ा है।

फुलवरिया के कब्रिस्तान के बीच सिसकती जिंदगियां। मुसहर समुदाय के लोगों को यहां से भी खदेड़ दिया गया

बनारस के फुलवरिया इलाके के जिस कब्रिस्तान पर बिंदर का परिवार रहता था, वह मुसलमानों का नहीं, बल्कि कबीर पंथ से जुड़े लोगों के अंतिम संस्कार के लिए बनाया गया है। इस कब्रिस्तान में कई पक्की और कच्ची मजारें हैं। इन्हीं मजारों के बीच बिंदर अपने चार बेटों, उनकी पत्नियों और बच्चों के साथ रहते थे।

हर परिवार ने अपनी झोपड़ियां बना रखी थी, जो बारिश में टपकती थी और आंधियों में उड़ जाया करती थीं। कब्रिस्तान में रहने वालों पर आते-जाते लोगों की नजर पड़ी तो मीडिया की सुर्खियां बनीं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर नगर निगम ने इनके लिए चार आवास मंजूर किए, लेकिन जब निर्माण की बारी आई तो उन्हें फुलवरिया गांव में वरुणा नदी के किनारे एक दूसरे कब्रिस्तान में ठेल दिया गया। इनके आवास नहीं बनने दिए गए। मकान बनाने के लिए खरीदी गई ईंट, छड़ और बालू-बजरी खुर्द-बुर्द हो गई।

आवास के लिए खरीदी गई ईंटें खुर्द-बुर्द की जा रही हैं

बिंदर बताते हैं, “पहले हम रेलवे फाटक संख्या-5 के पास रहते थे, लेकिन दो साल पहले एक दबंग ने हमें वहां से खदेड़ दिया। मजबूर होकर हमने कब्रिस्तान में आकर झोपड़ियां डाल लीं। सरकार के वादे और योजनाएं हमारे पास कभी नहीं पहुंचीं। जब पहुंची तो हमारा आवास नहीं बनने दिया गया। आधार कार्ड और बैंक खाते न होने की वजह से हमें मनरेगा का काम तक नहीं मिलता।”

कब्र खोदने की मजबूरी

बिंदर का कहना है कि उनका पारंपरिक पेशा दोना-पत्तल बनाना था, लेकिन कब्रिस्तान में रहने की वजह से अब उन्हें कब्र खोदने का काम करना पड़ता है। बिंदर कहते हैं, “यह काम बहुत मुश्किल है। हर दिन मौत का सामना करना पड़ता है।

जब लोगों के अपने मर जाते हैं, तो कई बार उन्हें कब्र में उतारने की भी हिम्मत नहीं होती। तब मैं उनकी मदद करता हूं। मैं समझता हूं कि मौत की सच्चाई क्या है, क्योंकि मैं इसे हर पल देखता हूं। लोग अपनी व्यस्त जिंदगी में मौत को भूल जाते हैं, लेकिन मेरी जिंदगी में यह हमेशा बनी रहती है।”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में बनारस को जापान के क्योटो जैसा बनाने का वादा किया था। लेकिन बिंदर और उनके जैसे सैकड़ों लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, “प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि बनारस अब नए रंग-रूप में सज गया है। लेकिन यह सजावट सिर्फ गोदौलिया और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर तक सीमित है। फुलवरिया का कब्रिस्तान और यहां रहने वाले लोगों का दर्द किसी को दिखाई नहीं देता।”

बिंदर, जिसकी जिदगी मुश्किलों से भरी है

बिंदर मुसहर का परिवार इन दिनों अपनी जिंदगी को जैसे-तैसे काट रहा है। यह बस्ती जो कभी अपनी हरियाली और फूलों की खेती के लिए जानी जाती थी, अब बदहाली और बीमारियों का प्रतीक बन गई है। बिंदर के कुनबे में हर चेहरे पर गरीबी, बेबसी और भूख का गहरा असर देखा जा सकता है। कब्रिस्तान में बनी उनकी झोपड़ियों के बीच जीवन, जैसे किसी पुरानी दास्तान के दर्द भरे पन्नों में कैद हो गया हो।

बिंदर के चार बेटे हैं-चंदन, राजू, सन्नी और डाक्टर। राजू ने जनचौक से कहा, “हमने सपने देखे थे कि हमारा भी घर होगा, बच्चे स्कूल जाएंगे, लेकिन वो सपने टूट गए। पहले हमारे पास दोना-पत्तल बनाने का काम था, जिससे गुजारा हो जाता था।

लेकिन अब वो काम भी खत्म हो गया। मजबूरी में कब्र खोदने का काम करना पड़ रहा है। यदा-कदा गैस सिलेंडर ढोकर किसी तरह घर में चूल्हा जलाते हैं।”

बिंदर मुसहर की पत्नी कांति

बिंदर की पत्नी कांति ने गुस्से और खीझ से भरे स्वर में कहा, “हमारे हालात कभी नहीं सुधरे। नेता लोग हर चुनाव में आते हैं, झूठे वादे करके चले जाते हैं। हमारे पास शौचालय नहीं है, पीने का पानी भी दूषित है। इलाज के लिए डॉक्टर तक नहीं आते। हमारी झोपड़ी बारिश में टूटने लगती है और हम सोचते हैं कि इस बार कैसे बचेंगे? हम जहां भी जाते हैं, वहीं से खदेड़ दिया जाता है।”

चंदन की पत्नी रिंकू कहती हैं, “हमें एक कब्रिस्तान से खदेड़ा गया तो दूसरे कब्रिस्तान पर ठेल दिया गया। अच्छा होता कि हमें वरुणा नदी में ढकेल दिया जाता और हमारा कुनबा खत्म हो जाता। मीडिया की कोशिशों से हमें आवास मिला, लेकिन वो भी बनने नहीं दिया गया। लगता है कि सरकार की नजर में हम इंसान हैं ही नहीं।”

भूख और बीमारी का चक्रव्यूह

बिंदर की एक अन्य बहू राधिका की आंखों में डर और असहायता का मिला-जुला भाव दिखता है। वह बताती हैं कि, “मेरे बेटे की दो साल पहले बीमारी और कुपोषण के कारण मौत हो गई। हमारे बाकी बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं मिला। मिड-डे मील का खाना तो सपने जैसा लगता है। राशन भी पूरा नहीं मिलता।

हम किसी तरह से चूहे, मुर्गे की पांख और सूखी रोटियां खाकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। यह किसी तरह ही हमारा संबल है, जिसके भरोसे एक उम्मीद की आस में हम जी रहे हैं।”

इस बस्ती में अंधविश्वास भी गहराई तक फैला हुआ है। राधिका बताती हैं कि कब्रिस्तान में रहते हुए उन्हें भूतों का डर सताता है। “हम महाबली देवता को छौना चढ़ाते हैं ताकि भूत हमसे दूर रहें। मांस-मछली हमारी पहुंच से बाहर है। चूहों और मुर्गे की पंखों को उबालकर खाने की मजबूरी है।”

कहां है उज्जवला योजना का चूल्हा

लॉकडाउन के बाद से बिंदर मुसहर के परिवार की बदहाली और बढ़ गई है। रिंकू की पत्नी पूनम कहती हैं, “पहले खेतों में काम मिलता था। रोज़ सौ-दो सौ रुपये की मजदूरी हो जाती थी। लेकिन अब महीनों से कोई काम नहीं है। बेरोज़गारी ने हमें तोड़कर रख दिया है। पता नहीं हमारे भाग्य में क्या लिखा है। लगता ही नहीं है कि हमें कभी छत मयस्सर हो पाएगा।”

रिंकू की एक बड़ी शिकायत यह है कि शासन ने आवास बनवाने के लिए 50 हजार रुपये की पहली किश्त भेजी थी। उस समय के ग्राम प्रधान ने उसका आवास बनवाने के लिए उसके खाते से पैसे निकाले और हजम कर गया। पैसा लौटाने में वो हीला-हवाली कर रहा है। हम थाने में शिकायत करने गए, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। अब कचहरी जाकर पुलिस महकमे के बड़े साहब से मिलकर शिकायत करेंगे।

सत्ता को मुंह चिढ़ा रहीं कई बस्तियां

फुलवरिया में बिंदर का कुनबा ही नहीं, ऐसी कई बस्तियां हैं जो आज भी डबल इंजन की सरकार को मुंह चिढ़ाती हैं। बनारस के विकास की चमक-दमक से दूर, इन बस्तियों की जिंदगियां सरकार की तमाम योजनाओं और दावों को ठेंगा दिखाती नजर आती हैं। मुसहर समुदाय की इन बस्तियों में हर दिन एक नई जंग होती है-जिंदा रहने की जंग।

बिंदर परिवार का नया ठिकाना

मुसहर समुदाय, जिसे आमतौर पर ‘चूहा खाने वाले’ के रूप में जाना जाता है, भारत के सबसे पिछड़े और उत्पीड़ित समुदायों में से एक है। इस समुदाय के लोग मुख्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों में रहते हैं। इनकी स्थिति बेहद गरीबी, भेदभाव और उपेक्षा की है।

इस समुदाय के लिए शिक्षा न केवल एक अधिकार है, बल्कि यह उनके जीवन को बेहतर बनाने का एकमात्र रास्ता भी है। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए कई प्रयास हो रहे हैं, लेकिन यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है। मुसहर, जिनका नाम ही ‘चूहे खाने वाले’ से लिया गया है, भारत के सबसे पिछड़े और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं। इनकी ज़िंदगी एक संघर्ष है, जिसमें उत्पीड़न, भेदभाव और तिरस्कार का सामना करना रोज़ का काम बन चुका है।

कागजी हैं सरकारी योजनाएं

फुलवरिया में ट्रांसपोर्ट कंपनियों के तमाम गोदाम हैं। इन्हीं गोदामों के बीच एक ऐसी बस्ती है जो झुग्गियों में सिमटी है। फुलवरिया पेट्रोल पंप के सामने बसे इस इलाके में नंग-धड़ंग बच्चे और अधनंगे पुरुषों की फटेहाली, बनारस के असली हालात की तस्वीर पेश करती है।

इस बस्ती में रहने वाले मुसहर समुदाय के आठ परिवार हैं। फूलचंद, मुंशी, रमेश, संतोष, सुरेश, मुन्नू और राजा के कुल 40 लोग इस बस्ती में सालों से ऐसे ही जीवनयापन कर रहे हैं।

सरकार द्वारा हर घर में बिजली, पानी और शौचालय पहुंचाने के दावे यहां महज कागजों में सिमटकर रह गए हैं। सरकारी सुविधाओं के नाम पर इस बस्ती में केवल एक हैंडपंप है, जो पूरे इलाके की प्यास बुझाने के लिए काफी नहीं। सुरेश के आठ बच्चों में से कोई भी स्कूल नहीं जाता। शिक्षा का अधिकार और स्कूल चलो अभियान यहां के लिए बस एक मजाक हैं।

विकास के नाम पर मुसहर बस्ती के नसीब में इकलौता हैंडपंप

फुलवरिया बस्ती के भूरे की डेढ़ साल पहले बीमारी से मौत हो गई। उसकी पत्नी, गरीबी और बीमारी के बीच, रवि नामक युवक के संपर्क में आई। पांच महीने की गर्भावस्था में रवि ने उसे छोड़ दिया। 15 मई 2022 को उसने एक बच्ची को जन्म दिया, लेकिन इलाज के अभाव में मां की मौत हो गई और बच्ची अनाथ हो गई। एक विधवा महिला उस बच्ची को पाल रही है।

फूलचंद, जो पहले मेहनतकश था, अब बीमारी और गरीबी के चलते अपना मानसिक संतुलन खो चुका है। उसका शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है। यहां के बच्चों के पिचके गाल और कमजोर कद-काठी इस बात की गवाही देते हैं कि कुपोषण मुसहर बस्तियों का स्थायी साथी है।

बद से बदतर जिंदगी

मुसहर समुदाय, जिन्हें दलितों में भी महादलित कहा जाता है, यूपी में तकरीबन 9.50 लाख की आबादी में फैले हैं। यह समुदाय पूर्वांचल के कुशीनगर, महाराजगंज, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, बलिया, जौनपुर, चंदौली, प्रतापगढ़, सोनभद्र, मीरजापुर और इलाहाबाद जैसे जिलों में बसे हुए हैं।

इनकी जिंदगी बद से बदतर है। भूमिहीन मुसहर परिवार दशकों से शिक्षा, पोषण, और पक्के घर जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। चाहे प्रधानमंत्री आवास योजना हो, मिड-डे मील हो, या रोजगार गारंटी योजना-इन बस्तियों तक कोई भी योजना नहीं पहुंच पाई है। बस्ती की महिलाएं और बच्चे खाली पेट सोने को मजबूर हैं।

ऐसे कटती है रातें

फुलवरिया और ऐसी अन्य बस्तियां सत्ता के वादों और योजनाओं की असलियत को उजागर करती हैं। यहां के लोग हर दिन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन उनकी आवाजें सत्ता के गलियारों तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।

मुसहर समुदाय की बस्तियों में जाकर यह समझा जा सकता है कि उज्ज्वला योजना की रसोई गैस, शौचालय निर्माण, या प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजनाएं इन तक क्यों नहीं पहुंच पा रही हैं।

बनारस की कोईरीपुर, दल्लीपुर, रमईपट्टी, औराब, सरैया, कठिरांव, असवारी, हमीरापुर, मारूडीह और अन्य मुसहर बस्तियों में रहने वाले हजारों वनवासी जीवन जीने के लिए रोजाना संघर्ष करते हैं।

इनकी जिंदगी गरीबी, भुखमरी और असुरक्षित आवासों के बीच सिमटी हुई है। इन बस्तियों में शायद ही कोई घर ऐसा हो जहां पक्की दीवार हो। बारिश में झोपड़ियां टपकने लगती हैं, ठंड में ठिठुरन और गर्मियों में आग बरसती है।

मुसहर समुदाय के लिए उज्ज्वला योजना के तहत रसोई गैस की कल्पना तक करना मुश्किल है। इन बस्तियों में चूल्हे की धुंआती आग ही उनका खाना पकाने का साधन है। बच्चों के पास न खाना है, न पढ़ाई, और न ही खेल का मैदान। उनकी जिंदगी बस रोजाना की जीविका जुटाने में खत्म हो जाती है।

चूहों के छेद से अनाज तक का सफर

मुसहरों का पारंपरिक पेशा चूहों को खेतों में दफनाकर उनके छेद से अनाज निकालना था। सूखे और अकाल के समय यही चूहे उनके जीवन का सहारा बनते थे।

लेकिन अब इस काम की जरूरत न होने के कारण उनकी हालत और भी खराब हो गई है। मशीनीकरण और लॉकडाउन के बाद से उनकी रोजी-रोटी छिन गई। अब ज्यादातर मुसहर परिवार ईंट भट्टों या कालीन कारखानों में बंधुआ मजदूरी करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार शिवदास बताते हैं कि “ज्यादातर मुसहर बस्तियों में सरकारी विकास से पहले शराब का ठेका पहुंचता है। गरीबी और बेरोजगारी के कारण ये लोग शराब के नशे में डूब जाते हैं, जिससे उनकी स्थिति और खराब होती जाती है।”

मुसहर समुदाय को न केवल सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, बल्कि पुलिसिया दमन भी उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। जब भी जमीन की कीमत बढ़ती है, दबंग उन्हें उनके आवास से बेदखल करने की कोशिश करते हैं। जौनपुर के मुंगराबादशाहपुर इलाके के गरियाव गांव में ऐसी ही घटनाएं सामने आई हैं, जहां मुसहरों को गांव से खदेड़ने के लिए अन्य दलित जातियों को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया गया।

मुसहर बस्तियों में शिक्षा की स्थिति भी बेहद खराब है। स्कूल चलो अभियान इन बस्तियों में एक मजाक बनकर रह गया है। बच्चे या तो काम पर चले जाते हैं या कुपोषण का शिकार होकर जीवन खत्म कर देते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं का यहां नाममात्र का ही अस्तित्व है। गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोगों को या तो इलाज नहीं मिलता, या वे बीच रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी, चंदौली और कुशीनगर के मुसहर समुदाय की स्थिति को समझने के लिए यह जानना पर्याप्त है कि इन इलाकों से ‘भूख से मौत’ की खबरें आना आम बात हो चुकी है। इस समुदाय की दुर्दशा और उनकी समस्याओं पर प्रशासन की उदासीनता का एक दुखद पहलू बार-बार उजागर होता है।

मुसहर समुदाय मुख्यतः खेतिहर मजदूर के रूप में काम करता है। फसल न होने पर ये लोग चूहे, घोंघे और अन्य जंगली भोजन पर निर्भर रहते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता नीलम पटेल बताती हैं कि, “मुसहर समुदाय इतना पिछड़ा है कि सरकारी आंकड़ों में भी यह दर्ज नहीं है कि इनकी संख्या कितनी है। हालांकि, पूरे देश में इस समुदाय के लगभग 80 लाख लोग हैं, जिनमें से लाखों पूर्वांचल में रहते हैं।”

भूख और कुपोषण से प्रशासन का इनकार

साल 2019 में कुशीनगर में पांच मुसहरों की मौत के मामले ने प्रशासन और सरकार को कटघरे में खड़ा किया। मानवाधिकार कार्यकर्ता मंगला राजभर बताते हैं, “प्रशासन ने उनकी मौत का कारण ‘बीमारी’ बता दिया और भूख से मौत की संभावना को खारिज कर दिया। हालांकि, भाजपा विधायक गंगा सिंह कुशवाहा ने ‘कुपोषण और दवाओं की कमी’ को मौत का कारण माना।” इसी प्रकार, 2016 में भी दो मुसहरों की मौत भूख के कारण हुई, लेकिन प्रशासन ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।

मानवाधिकार आयोग का पत्र

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2018 में सोनभद्र के मुसहर टोले में जाकर घोषणा की थी कि इस समुदाय को घर, राशन और अन्य सरकारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। लेकिन पांच साल बाद भी मुसहरों की स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ।

वाराणसी के करसड़ा मुसहर बस्ती पर बुलडोजर चलाए जाने की घटना ने उनकी दयनीय स्थिति को और उजागर किया। योगी सरकार ने 2022 में बजट में 508 करोड़ रुपये का प्रावधान किया, लेकिन धरातल पर इसका कोई प्रभाव नहीं दिखा। मुसहर, नट और डोम समुदाय ने घोसी इलाके में धरना-प्रदर्शन करते हुए अपनी आवाज बुलंद की।

एक्शन में प्रशासन

बनारस के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. लेनिन के अनुसार, “शोषण और उत्पीड़न की कहानियां तो बहुत हैं, लेकिन राजनीतिक ताकत की कमी के कारण उनकी आवाज दब जाती है। मुसहर बस्तियां राजनीतिक पार्टियों के लिए महज वोट बैंक बनकर रह गई हैं।

मुसहर समुदाय की समस्याओं को हल करने के लिए ठोस कदम उठाना आवश्यक है। जमीन के पट्टों का उचित वितरण, रोजगार के अवसर, और शिक्षा की सुविधा से इनकी स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। साथ ही, प्रशासन और समाज को मिलकर उनकी आवाज़ सुनने और उनकी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में ठोस प्रयास करने होंगे।”

यहां अधिकतर लोग फूस की झोपड़ियों में रहते हैं तो कुछ लोग प्लास्टिक की तिरपाल से बने अस्थायी शरण स्थलों में। जिनका भाग्य थोड़ा अच्छा है, वे आधी-अधूरी सरकारी योजनाओं के तहत बने जर्जर मकानों में रहते हैं। यहां की आधी से ज्यादा आबादी के पास कोई स्थिर रोजगार नहीं है और वे अनियमित मजदूरी पर निर्भर हैं।

इस समुदाय के लिए, आधार कार्ड, राशन कार्ड, और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के तहत जॉब कार्ड जैसे शब्द अनजान हैं। ऐसे में उनकी शिक्षा दर का नगण्य या शून्य होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फुलवरिया बस्ती के कुछ बच्चे प्राथमिक स्कूल जाने उम्मीद की छोटी किरणें हैं।

चुनौतीपूर्ण है शिक्षा का रास्ता

मुसाहर समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा का रास्ता बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। इनमें से अधिकतर बच्चे शिक्षा से वंचित रहते हैं, और जो कुछ बच्चे स्कूल तक पहुंच पाते हैं, उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकतर मुसहर परिवारों के पास बुनियादी दस्तावेज़ों की कमी होती है जैसे कि जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड, और राशन कार्ड। ये दस्तावेज़ सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए जरूरी होते हैं, और इनकी कमी के कारण बच्चों का स्कूल में दाखिला रुक जाता है।

वाराणसी की स्वैच्छिक संस्था पीवीसीएचआर (PVCHR) ने वाराणसी जिले में 6-14 आयु वर्ग के करीब पांच हजार से अधिक बच्चों को सरकारी और निजी स्कूलों में दाखिला कराया है। संस्था की ट्रस्टी श्रुति नागवंशी कहती हैं, “मुसहर समुदाय के कई छात्र बीच में स्कूल छोड़ देते हैं, और हमें इन्हें फिर से ट्रैक करना पड़ता है ताकि वे अपनी शिक्षा जारी रख सकें।

यह स्थिति न केवल बच्चों के लिए, बल्कि उनके परिवारों के लिए भी निराशाजनक होती है, क्योंकि यदि एक बार बच्चा स्कूल छोड़ता है, तो वह अक्सर अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाता।”

तमाम जद्दोजहद के बावजूद फुलवरिया में बिंदर मुसहर का कुनबा आज भी अपने सपनों को कब्र में दफन कर हर दिन एक नई चुनौती से लड़ रहा है। उनके जीवन की यह तस्वीर इस बात की ओर इशारा करती है कि सरकारी योजनाओं का लाभ आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने के दावों की सच्चाई क्या है?

बनारस का हर प्रबुद्ध तबका यह सवाल उठा रहा है कि क्या इस शहर का विकास सिर्फ मंदिरों और मुख्य इलाकों तक ही सीमित रहेगा? क्या फुलवरिया जैसे इलाकों में रहने वाले मुसहर और दलित समुदाय के लोगों को भी कभी बेहतर जिंदगी मिलेगी?

बिंदर मुसहर और उनके जैसे कई परिवारों की दुर्दशा यह सवाल उठाती है कि विकास का असली मतलब क्या है? कब्रिस्तान में जिंदगी बिताने वाले इन परिवारों की दुश्वारियां समाज और सरकार दोनों के लिए सोचने का विषय हैं।

काशी की इस अनदेखी सच्चाई को सामने लाने के लिए क्या कोई पहल होगी, यह देखना बाकी है।

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस के फुलवरिया से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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