Thursday, March 28, 2024

गुजरात: 20 साल जेल में रहने के बाद 122 सिमी सदस्य बाइज्जत रिहा

अभी पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में फिर से दोहराया है कि चाहे कितने भी पुख्ता आधार वाला शक क्यों न हो, किसी सबूत की जगह नहीं ले सकता है। एक सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि एक आरोपी तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक उसे वाजिब शक से परे दोषी साबित नहीं कर दिया जाता। लेकिन हमारे देश की पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियां बिना पुख्ता सबूत के केवल शक के आधार पर और पूर्वाग्रह के कारण निर्दोष लोगों को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत जेल में डाल दे रही हैं और अदालत में ठोस, विश्वसनीय और संतोषजनक’ साक्ष्य पेश करने में असफल रह जा रही हैं। चूँकि ऐसी कार्रवाई करने वाली जाँच एजेंसियों को दंडित नहीं किया जाता इसलिए लगातार यह प्रवृत्ति जारी है। गुजरात पुलिस 20 साल में भी नहीं ढूंढ पाई 122 कथित सिमी सदस्यों के विरुद्ध ठोस सबूत।

गुजरात की एक अदालत ने शनिवार, 6 मार्च को 122 लोगों को बरी कर दिया। इन पर प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के सदस्य के तौर पर दिसंबर 2001 में सूरत में हुई एक बैठक में शामिल होने का आरोप था। इन सभी को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया था। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ए.एन दवे की अदालत ने आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। 2001 में गिरफ्तार हुए लोगों की संख्या 127 थी। 5 लोगों की मामले की सुनवाई के दौरान ही मौत हो गई। बाकी 122 को अब बरी किया गया है।

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि अभियोजन यह साबित करने के लिए ठोस, विश्वसनीय और संतोषजनक साक्ष्य पेश करने में नाकाम रहा कि आरोपी सिमी से जुड़े हुए थे और प्रतिबंधित संगठन की गतिविधियों को बढ़ाने के लिए एकत्र हुए थे। अदालत ने कहा कि आरोपियों को यूएपीए के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अदालत ने कहा है कि आरोपी शैक्षिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इकट्ठा हुए थे और कोई हथियार नहीं ले गए थे। अभियोजन पक्ष यह भी साबित नहीं कर पाया कि आरोपी सिमी से संबंधित किसी भी गतिविधि के लिए एकत्र हुए थे। यहां तक कि छापे के दौरान मौके से गिरफ्तार 123 में से एक भी सदस्य ने भागने की कोशिश नहीं की, न ही जब्त दस्तावेजों का सिमी से कोई संबंध मिला।जबकि पुलिस ने दावा किया था कि उन्होंने सिमी में शामिल होने वाले फॉर्म, आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की प्रशंसा करने वाले बैनर, किताबें और साहित्य बरामद किए थे। ये भी आरोप लगाया था कि पुलिस को देखते हुए उनमें से कई लोगों ने सबूत नष्ट करने के लिए अपने मोबाइल फोन के सिम कार्ड चबाए थे। बाद में चार और लोगों को हिरासत में ले लिया गया।

सूरत की अठवा लाइंस पुलिस ने 28 दिसंबर 2001 को कम से कम 127 लोगों को सिमी का सदस्य होने के आरोप में UAPA के तहत गिरफ्तार किया था। इन पर शहर के सगरामपुरा के एक हॉल में प्रतिबंधित संगठन की गतिविधियों को विस्तार देने के लिए बैठक करने का आरोप था। केंद्र सरकार ने 27 सितंबर 2001 को अधिसूचना जारी कर सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस मामले के आरोपी गुजरात के विभिन्न भागों के अलावा तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वाले हैं। अपने बचाव में आरोपियों ने कहा कि उनका सिमी से कोई संबंध नहीं है और वे सभी अखिल भारतीय अल्पसंख्यक शिक्षा बोर्ड के बैनर तले हुए कार्यक्रम में शामिल हुए थे।

पुलिस ने उन्हें इस आधार पर सिमी से जोड़ने की कोशिश की थी कि हॉल को एआर कुरैशी और सिमी के राष्ट्रीय सदस्य साजिद मंसूरी के भाई अलिफ माजिद मंसूरी ने बुक किया था।पुलिस ने आरोप लगाया था कि सिमी के कार्यों को पूरा करने के लिए शैक्षिक संगोष्ठी सिर्फ एक दिखावा था।

बीते दिनों उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि चाहे कितने भी पुख्ता आधार वाला शक क्यों नहीं हो, किसी सबूत की जगह नहीं ले सकता है। एक सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि एक आरोपी तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक उसे वाजिब शक से परे दोषी साबित नहीं कर दिया जाता। जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने इस टिप्पणी के साथ हत्या के एक मामले में आरोपियों को बरी करने के ओडिशा हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया।

दरअसल, ओडिशा हाईकोर्ट ने एक होमगार्ड को बिजली का करंट देकर मार डालने के दो आरोपियों को बरी कर दिया था। पीठ ने कहा, ऐसे मामले में सबूतों की पूरी श्रृंखला होनी चाहिए, जो दिखाए कि सभी मानवीय संभावनाओं के तहत आरोपियों ने ही अपराध किया है। इस श्रृंखला में किसी भी ऐसे निष्कर्ष के लिए संदेह नहीं रहना चाहिए, जो आरोपी को निर्दोष मानने की संभावना दिखाता हो।पीठ ने कहा कि इस अदालत के कई न्यायिक फैसलों से यह अच्छी तरह तय किया जा चुका है कि संदेह कितना भी पुख्ता हो, लेकिन वह सबूत का स्थान नहीं ले सकता है। एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसे उचित संदेह से परे दोषी साबित न कर दिया जाए। पीठ ने कहा, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बिजली के झटके से मौत की पुष्टि हुई है, लेकिन इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है कि यह हत्या थी।

 (वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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