Friday, March 29, 2024

‘गुलामगिरी’: शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति का दस्तावेज

1 जून यानी आज 2020 को ‘गुलामगिरी’ पुस्तक के 147 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यह महात्मा ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890) की प्रमुख रचना है। ‘गुलामगिरी’ अंधविश्वास, पाखंड, छल-कपट पर आधारित ब्राह्मणी ग्रंथों एवं ब्राह्मणी विचारधारा की गुलामी से शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति का दस्तावेज है। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ब्राह्मणों ने ईश्वर, धर्म और दैवीय ग्रंथों की रचना की थी, जिसको तार्किक ढंग से बेनकाब करने का कार्य इस पुस्तक में किया गया है। ज्योतिबा फुले बताते हैं कि शूद्रों-अतिशूद्रों को गुलाम बनाने के लिए ब्राह्मणों ने भयानक साजिशें रचीं एवं उनकी धन-संपदा को लूट कर उन्हें सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दिया। ‘गुलामगिरी’ संवाद शैली में लिखी गयी है। इसमें दो पात्र- स्वयं ज्योतिबा और दूसरा धोंडीराव है। 

पहला परिच्छेद ब्रह्मा की व्युत्पत्ति, सरस्वती और ईरानी या आर्य लोगों के संबंध में है। ज्योतिबा फुले ने मनु स्मृति में रचे ब्रह्मा की व्युत्पत्ति के सिद्धांत को तथ्यहीन एवं निराधार बताया है- “यदि ब्रह्मा के सचमुच में चार मुंह होते तो उसी हिसाब से उसे आठ बर्तन, चार नाभियां, चार योनियां और चार मलद्वार होने चाहिए। किन्तु इस बारे में सही जानकारी देने वाला कोई लिखित प्रमाण नहीं मिल पाया है।… ब्राह्मण का मुंह, बांहें, जांघें और पांव- इन चार अंगों की योनि, माहवार (रजस्वला) के कारण, उसको कुल मिलाकर सोलह दिन अशुद्ध होकर दूर-दूर रहना पड़ता होगा। फिर सवाल उठता है कि उसके घर का काम-धंधा कौन करता होगा?…’’ ज्योतिबा ने ब्रह्मा को दुराचारी भी बतलाया है जिसने अपनी बेटी सरस्वती से दुराचार किया था। यही कारण है कि इन्हें कहीं भी पूज्य नहीं माना जाता है। ज्योतिबा ब्राह्मणों को ईरानी एवं आर्य कहते हैं। इन लोगों ने यहां के आदिपूर्वजों पर बर्बर हमले कर उन्हें गुलाम बना लिया, मनुस्मृति ग्रंथ की रचना कर यहां के मूलनिवासियों को शूद्र-अतिशूद्र बना दिया।

दूसरा परिच्छेद ‘मत्स्य और शंखासुर’ है। ज्योतिबा फुले ब्राह्मण इतिहासकारों द्वारा कही गयी इस बात का खंडन करते हैं कि ‘आर्य लोगों का मुखिया मत्स्य से पैदा हुआ है’। वे कहते हैं कि मनुष्य और मछली की इंद्रियों में, आहार में, निद्रा में, मैथुन में और पैदा होने वाली प्रक्रिया में कोई साम्य नहीं है।… नारी स्वाभाविक रूप से एक बच्चे को जन्म देती है, कुछ दिनों बाद मछली उन अंडों को फोड़ कर उसमें से अपने बच्चों को निकालती है।… यह मिथक वाहियात और अतार्किक है। जबकि सच्चाई यह है कि पश्चिम के समुद्र तट पर जलमार्ग से आए जत्थों का सामना वहां के क्षेत्रपति शंखासुर से हुआ था। शंखासुर युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया। उसके राज्य पर मत्स्य कबीले का अधिकार हो गया। बाद में शंखासुर के लोगों ने अपना राज्य वापस लेने के लिए भंयकर हमला कर मत्स्य कबीले को खदेड़ कर अपना राज्य पुन: स्थापित कर लिया। मत्स्य कबीले के लोगों ने पहाड़ियों पर जाकर शरण ली।

तीसरे परिच्छेद के अनुसार कच्छ नाम के आर्यों के मुखिया ने मत्स्य कबीले के लोगों (मूल निवासियों) को हराकर मुक्त कराया और उस क्षेत्र का भूदेव या भूपति बन गया। बंदरगाह के पहाड़ी क्षेत्र के दूसरी ओर मूलनिवासियों के क्षेत्रपति कश्यप राजा का अधिकार था। उसने मत्स्य कबीले से अपने भू-भाग की वापसी के लिए कई युद्ध किए किन्तु सफल नहीं हो सका।

चौथा और पांचवा परिच्छेद आर्य राजा वराह और नरसिंह तथा  मूलनिवासियों के राजा हिरण्यगर्भ और हिरण्यकश्यप के विषय में है। कच्छ के मरने के बाद आर्यों का सेनापति या राजा ‘वराह’ बना। उसकी प्रवृत्तियां झपट्टा मारने वाले जंगली सुअर के समान थीं। इसी प्रवृत्ति के कारण महाप्रतापी हिरण्यगर्भ उसे सुअर यानी वराह कहते थे। वराह के बार-बार के हमलों से हिरण्यगर्भ मारा गया और कुछ दिनों बाद वराह भी खत्म हो गया। वराह के मरने के बाद द्विज लोगों का मुखिया नरसिंह बना। नरसिंह ने यहां के मूलनिवासियों के राजा हिरण्यकश्यप के राज्य हड़पने हेतु षड्यंत्र किया। उसने हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का शिक्षक बनकर उसे अपने पिता के धर्म और सिद्धांतों के विरुद्ध भड़का कर हत्या करने के लिए उकसाया।

लेकिन प्रहलाद की हिम्मत नहीं हुई। तब नरसिंह ने हिरण्यकश्यप के शयनकक्ष में छिप कर, जब दिन भर के शासन-भार से थके हिरण्यकश्यप पलंग पर लेटे ही थे कि नरसिंह ने वाघनख से हमला कर उनकी जघन्य हत्या कर दी। किन्तु हत्या के बाद उसे डर था कि द्विजों पर हमले होंगे, इसलिए सभी द्विजों को वहां से लेकर भाग गया। क्षत्रियों को नरसिंह के इस अमानवीय कृत्य का पता चला तो उन्होंने आर्य लोगों को द्विज कहना छोड़ दिया और उनको विप्रिय (बाद में विप्र)- जो प्रिय न हो, कहा जाने लगा। पिता की हत्या के बाद प्रह्लाद की भी आंखें खुलीं और उसने विप्रों पर भरोसा करना छोड़ दिया। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन और विरोचन के पुत्र बलि राजा हुए जो बहुत बड़े योद्धा थे। 

छठवें परिच्छेद में वामन और बलि राजा के बीच संग्राम का वर्णन है। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। दोनों तरफ के सैनिक युद्ध में मारे गये उनके मरने की तिथियों को ध्यान में रखते हुए भाद्रपद मास में उस तिथि को श्राद्ध करने की परंपरा पड़ गयी होगी। युद्धरत राजा बलि के महल में न पहुंच पाने के कारण बलि रानी विंध्यावली अपने हिजड़े पं सेवक की सहायता से गड्ढा खुदवा कर उसमें जलाव लकड़ियों में छिपकर आठ दिन और आठ रात भूखे-प्यासे बैठी रहीं। आश्विन मास की अष्टमी की रात को बलि राजा के युद्ध में मारे जाने की खबर पाकर, उन्होंने खुद को आग में झोंक दिया होगा।

वहां की प्रजा ने शोक प्रकट किया होगा। इस संबंध में धूर्त ब्राह्मण ग्रंथकारों ने मनगढ़ंत कहानियां रची हैं। राजा बलि की मृत्यु के बाद बाणासुर ने एक दिन युद्ध किया। लेकिन उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। युद्ध में विजय से मदमस्त वामन ने राजा बलि की राजधानी में काफी लूटपाट और हत्यायें कीं। जब वामन अपने घर पहुंचा तो उसकी स्त्री ने कनकी (चावल) का बलि राजा का पुतला बना कर दरवाजे पर रख कर कहा- बलि राजा तुमसे फिर से युद्ध करने के लिए तैयार हैं, तो वामन ने उस पुतले को लात मार कर घर में प्रवेश किया। उस दिन से आज तक ब्राह्मणों के घरों में हर साल आश्विन मास में विजयादशमी का त्योहार मनाया जाता है। 

सातवें परिच्छेद के अनुसार वामन की मृत्यु के बाद राज-पाट का भार उपाध्यायों के मुखिया ब्रह्मा को सौंपा गया। वह अकल्पनीय बहादुर था। स्वार्थपूर्ति के लिए झूठ एवं फरेब का सहारा लेने के कारण उसे चौमुंहा कहा जाने लगा था। उसे ताड़वृक्षों पर लिखने वाला एवं जादू-मंत्रों की कहानियां गढ़ने वाला बताया गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में माना जाता है कि उसने ही जादूमंत्र विद्या का प्रादुर्भाव किया। बाणासुर के मरने का समाचार पाकर ब्रह्मा ने उसके परिवार समेत सभी राक्षसों (रक्षक-जो अब्राह्मणों के यहां मूलनिवासियों के रक्षक थे, उन्हें राक्षस कहा गया) का विनाश कर दिया। 

जब-जब यहां के मूलनिवासियों ने ब्राह्मणों के जाल से मुक्ति चाही, उसे नफरत एवं तिरस्कार से देखा गया। ब्राह्मणों ने उनके हाथ का बना भोजन खाना तो दूर पानी पीने से भी इंकार कर दिया। शूद्र द्वारा छुई वस्तु नहीं लेने का ब्राह्मणों में चलन बढ़ा। अतिशूद्र जाति का उद्भव हुआ। ब्राह्मणों ने यहां के शूद्रों-अतिशूद्रों को पढ़ने-लिखने और ज्ञान से वंचित करने के लिए धर्मग्रंथों की रचना कर कठोर सजायें निर्धारित किया। वे शूद्र-अतिशूद्र बच्चों को पक्का राजभक्त बनवाते हैं। शिवाजी जैसे धर्म भोले राजा के बारे में गलत जानकारी फैलाते हैं कि कैसे शिवाजी ने अपने देश को मलेच्छों (मुसलमानों) से मुक्त करवाकर गौ-ब्राह्मणों की रक्षा की। इस तरह अंग्रेजी सरकार के सभी प्रभावशाली पदों पर बड़ी चतुराई से ब्राह्मण लाभार्थी हो गए।  

आठवें परिच्छेद के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के मरने के बाद ब्राह्मणों का मुखिया परशुराम हुआ। वह स्वभाव से दुस्साहसी, उपद्रवी, विनाशकारी, निर्दयी और नीच प्रवृत्ति का था। अपनी माता रेणुका की गर्दन काटते हुए उसे कोई संकोच नहीं हुआ। वह शरीर से मजबूत और कुशल तीरंदाज था। महाअरियों ने ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्ति के लिए परशुराम से 21 बार युद्ध किया। वे इतनी दृढ़ता से युद्ध लड़े कि उन्हें द्वैती (बाद में दैत्य का अपभ्रंश) कहा जाने लगा। परशुराम से पराजित होने पर निराश महाअरियों ने अपने स्नेहीजनों के प्रदेशों में शरण लिया होगा। महाअरियों पर परशुराम ने अनेक सामाजिक प्रतिबंध लगा दिए थे। उन्हें मातंग, महार, शूद्र, अछूत और चांडाल नामों से पुकारे जाने की परंपरा शुरू की। फिर भी महाअरियों ने युद्ध जारी रखा जिसमें ब्राह्मणों के भी बहुत सारे लोग मारे गये थे। इन युद्धों से क्रोधित होकर परशुराम ने महाअरियों-क्षत्रियों के समूल नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम इतना नीच एवं निर्दयी था कि उनकी गर्भवती स्त्रियों एवं विधवा औरतों को भी नहीं छोड़ा।  दुनिया के इतिहास में ऐसी निर्दयता के उदाहरण शायद ही कहीं मिले।  

ज्योतिबा फुले कहते हैं- ऐसा निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति वाला परशुराम ब्राह्मणों का तो भगवान हो सकता है, लेकिन शूद्रों-क्षत्रियों का कदापि नहीं। शिवाजी महाराज पर लिखे पंवाड़े में ज्योतिबा फुले ने सभी ब्राह्मणों को अपने चिरंजीवी और आदिनारायण के अवतार परशुराम को लोगों के सामने बुलाने की चुनौती दिया। लेकिन ब्राह्मण परशुराम को नहीं बुला सके।  

नवें परिच्छेद के अनुसार मंत्र-विद्या, भक्ति का नाटक, जप और तप इत्यादि को ढकोसला बताया गया है। इनका प्रयोग शूद्रों को डरा-धमका कर अमानवीय हालत में रखने, उनके दिमाग को भ्रष्ट करने, आपस में लड़ने एवं ब्राह्मणों के दिमागी गुलाम बने रहने के लिए किया जाता था। उस काल में ब्राह्मणों ने युद्ध में शत्रु क्षेत्रपतियों एवं प्रजा पर मंत्र विद्या का डर दिखाकर अपने हितों को साधने की तिकड़मबाजी की होगी। एक बार भृगु ऋषि ने जब विष्णु भगवान की छाती पर लात मारी तो ऋषि के पांव में तकलीफ हो गयी, यह समझकर विष्णु ने ऋषि के पैर की मालिश करना शुरू किया। वे अपने को आदिनारायण से भी बड़ा समझते थे। ब्राह्मणों ने बड़ी चालाकी से इस उदाहरण के द्वारा शूद्रों को ब्राह्मणों द्वारा लात मारने पर भी सेवा करने के लिए अपरिहार्य बतलाया। ब्राह्मणों ने अपने को ईश्वर से बात करने का ढोंग दिखाकर अनाड़ी और अनपढ़ लोगों को खूब लूटा  और अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए जप, अनुष्ठान, जादूमंत्रों के खेलों से डर बैठाकर इन्हें बिल्कुल पंगु बना दिया।

दसवें परिच्छेद में दलितों के दाता, समर्थक, महापवित्र, सत्यज्ञानी, सत्यवक्ता दूसरे बलि राजा का जिक्र किया गया है। उसने अपने दीन, दुर्बल और शोषित शूद्र-अतिशूद्र लोगों के लिए न्याय पर आधारित राज्य की स्थापना की थी। वे यूरोप के ईसा मसीह की तरह लोकप्रिय होने लगे थे। करोड़ों की संख्या में लोग उनके अनुयायी बन रहे थे। उन्होंने तथागत गौतम बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया एवं ब्राह्मणों के गौमांस भक्षण एवं सुरापान का विरोध किया। जिसके कारण छल-कपट से भरे धर्मग्रंथों द्वारा समाज को तोड़ने वाले धूर्त एवं बहेलिए ब्राह्मणों को दूसरे प्रदेशों में शरण लेनी पड़ी। ब्राह्मणों का साम्राज्य विलुप्त होता देखकर शंकराचार्य नामक कुटिल ब्राह्मण ने धर्मग्रंथों में गौमांस भक्षण एवं सुरा पान वाले मान्यताओं में हेरा-फेरी कर परदेशी मुस्लिम तुर्क क्षत्रियों को अपने में मिलाया।

शंकराचार्य के बहकावे में आकर इन तुर्कों ने बलि के न्याय के राज्य को तहस-नहस कर दिया। बौद्ध धर्म के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों एवं शिक्षा विहारों को नष्ट कर शंकाराचार्य ने वेदांत की विचारधारा को पुनर्जीवित किया। अपने ग्रंथों में इन तुर्कों को म्लेच्छ भी घोषित किया। बलि राजा की तरह शूद्रों-अतिशूद्रों को न्यायी अंग्रेजी राज मिला। उनके ईसाई मिशनरियों ने अंधविश्वास, पाखंड, छल-कपट पर आधारित ब्राह्मणी ग्रंथों की जगह स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे के उपदेशों एवं शिक्षाओं से शूद्रों को गुलामी से मुक्त किया। इससे ब्राह्मण चिढ़ गये और शूद्रों को ईसाई मिशनरियों के खिलाफ भड़काया। साथ ही ब्राह्मणों का दोगलापन देखने लायक है कि उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करके अंग्रेजी सरकार में क्लर्क, बाबू, पटवारी जैसे पदों पर अपना कब्जा जमा लिया था।

ग्यारहवें परिच्छेद के अनुसार ब्राह्मण सार्वजनिक स्थानों पर बने हनुमान मंदिरों में बैठकर वेद, पुराण आदि ग्रंथों की दकियानूसी बातों से शूद्रों के दिमाग को भ्रष्ट कर अपना गुलाम बनाते थे। वे अंग्रेजों के विरुद्ध नफरतों के बीज बोते थे। 1857 के अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व भी ब्राह्मण ही कर रहे थे, चाहे वे पेशवा नाना साहब हों या तात्या टोपे। विद्रोह के कारण अंग्रेजी सरकार को जो नुकसान उठाना पड़ा, उसकी भरपाई करने के लिए उन्होंने जनता पर नये लगान और करों का बोझ बढ़ा दिया और उसे वसूलने की जिम्मेदारी कुलकर्णी ब्राह्मणों को सौंप दिया। इन्होंने अपनी कलम की नोंक पर शूद्रों और किसानों की गर्दनें काटीं एवं मुस्लिम राजाओं से भी ज्यादा अत्याचार किए, जिससे इन्हें ‘कलमकसाई’ कहा जाता था।

बारहवें परिच्छेद के अनुसार सरकारी पटवारी का काम ब्राह्मण कुलकर्णी संभालते थे जो अत्यंत जालसाज होते थे। वे शूद्रों और किसानों के अनपढ़ होने के कारण उनकी जमीनों के गलत नक्शे दिखाकर, गलत शर्तों वाले कागजों पर अंगूठा लगाकर उनकी जमीन-जायदाद हड़पने का कार्य करते थे। कई कागजों में जानबूझ कर गलती कर ब्रिटिश सरकार को गलत जानकारियां देते थे। जब दयालु यूरोपियन कलेक्टरों को उनके जालसाजी के बारे में पता चला तो इन्हें सरकारी नियम-कानूनों में बांधने की कोशिश की। लेकिन इन कलमकसाइयों का कुछ बिगड़ नहीं पाया। क्योंकि सभी सरकारी दफ्तरों में ऊपर से नीचे ब्राह्मण कर्मचारियों का आधिपत्य था, जिसके कारण शूद्रों की हिम्मत नहीं हो पाती थी कि वे उनके खिलाफ अंग्रेजी सरकार से शिकायत कर पायें। 

अतः ज्योतिबा फुले ने अंग्रेजी सरकार से शूद्रों को सरकारी नौकरियों में लेने एवं उनकी शिक्षा हेतु यूरोपियन उपदेशकों और शिक्षकों की नियुक्ति का समर्थन किया। 

तेरहवें परिच्छेद के अनुसार तहसीलदार, कलेक्टर, रेवेन्यू अधिकारी, जज और इंजीनियरिंग विभाग में ब्राह्मण कर्मचारियों के अमानवीय एवं शोषणकारी प्रवृत्ति ने भ्रष्टाचार को अत्यधिक बढ़ा दिया था। अंग्रेजी सरकार की नजर में भी ये अपराधी सिद्ध हुए थे। पूना जैसे शहर में ब्राह्मण मामलेदार कुलकर्णी से लिखवाकर लाई हुई लायकी दिखाए बगैर बड़े से बड़े साहूकारों को भी जमानत स्वीकार नहीं की जाती थी। पूना शहर में म्युनिसिपैलिटी किसी मकान मालिक को नये मकान बनाने की अनुमति नहीं देती थी जब तक कि ब्राह्मण मामलेदार और नगर कुलकर्णी को चढ़ावा न दिया गया हो। 

चौदहवें परिच्छेद के अनुसार, सरकारी विभागों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। वे लुच्चागिरी में मदमस्त रहते थे जिसके कारण यूरोपियन कलेक्टरों की टेबलों पर काफी काम पेंडिंग रहता था। उन्हें सरकार को शूद्र-अतिशूद्र लोगों के बारे में सही-सही रिपोर्ट करने का समय कहां था? फिर भी कुछ दयालु यूरोपियन कलेक्टर ब्राह्मण जमींदारों से उत्पीड़ित अज्ञानी शूद्रों के पक्ष में प्रतिवादी के रूप में खड़े हुए। उनका ब्राह्मण जमींदारों ने कड़ा विरोध किया। ये जमींदार ऐसे यूरोपियन कलेक्टर एवं सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ शूद्रों को भड़काते थे। 

पंद्रहवें परिच्छेद में ज्योतिबा फुले बताते हैं कि अंग्रेजी सरकार ने शूद्रों को पढ़ाने-लिखाने का कार्य प्रगतिशील ब्राह्मणों को सौंप दिया है। वे अंधविश्वास एवं पाखंडों की पोल खोलने वाली किताबों को नहीं पढ़ाते हैं। उनसे शूद्रों-अतिशूद्रों का कोई फायदा नहीं है। ब्राह्मण शिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन पर जो खर्च होता है वह व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि वे शूद्रों को सही ज्ञान नहीं देते। ज्योतिबा फुले ईसाई मिशनरियों की सराहना करते हैं, जो कम वेतन में शूद्रों को शिक्षा उपलब्ध कराते थे। वे ईसाई मिशनरियों के शिक्षकों को शूद्रों के स्कूलों में नियुक्ति की वकालत करते थे। म्युनिसिपैलिटी में भी ब्राह्मणों के अधिकता के कारण पानी सप्लाई और सफाई व्यवस्था में बहुत भेदभाव किया जाता था। मराठी अखबारों के संपादक भी ब्राह्मण होते थे। वे अपनी जाति के विरुद्ध कोई भी खबर या शिकायत छापने से हाथ खड़े कर देते थे। ब्राह्मण लड़कियों के लिए सरकार ने खूब स्कूल खोले, किन्तु जब अछूतों के लिए स्कूल चलाने में ब्राह्मणों की सहायता ली, तो स्कूल के बंद होने की नौबत आ गयी। 

सोलहवें परिच्छेद में ज्योतिबा फुले ने ब्रह्मराक्षसों की गुलामी से मुक्ति के लिए ब्राह्मणी धर्म और उनके धर्मग्रंथों का निषेध अपरिहार्य बताया है। उन्होंने किसी को नीचा या ऊंचा समझने के बजाए सबको बराबरी का मौका देने एवं व्यवहार करने के लिए कहा। वे कहते हैं- “जो गुलाम (शूद्र, दास और दस्यु) केवल अपने निर्माता को मान कर नीति के अनुसार साफ-सुथरा उद्योग करने का निश्चय कर, उसके अनुसार आचरण कर रहे हैं, इस बात का मुझे पूरा यकीन होने पर, मैं उनको केवल परिवार के भाई की तरह मान कर उनके साथ प्यार से खाना-पीना करूंगा, फिर वह आदमी, वे लोग किसी भी देश के रहने वाले क्यों न हों?“

गुलामगिरी किताब तर्क के आधार पर अतार्किक और असमानता एवं अन्याय का समर्थन करने वाले ब्राह्मणवादी मिथकों, पुराणों और अन्य धर्मग्रंथों  की सच्चाई को उजागर करती है और तर्क, समता एवं न्याय पर आधारित नए भारत के निर्माण का आह्वान करती है।

( लेखक बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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