Tuesday, April 16, 2024

कोरोना में श्रृंग्वेरपुर घाट का हाल, मुन्नू पंडा की जुबानी

60 वर्षीय मुन्नू पंडा प्रयागराज के श्रृंगवेरपुर घाट के पंडा हैं। इस घाट पर वो पिछली कई पीढ़ियों से पंडा का काम करते आ रहे हैं। और हजारों लोग कई पीढ़ियों से उनके जजमान हैं। गौरतलब है कि गंगा किनारे लोग अपने परिजनों का दाह संस्कार करने और गंगा नहाने का उद्देश्य लेकर उनके घाट पर आते हैं। गंगा घाट पर मृतक के दाह संस्कार से लेकर मरने के ग्यारहवें दिन जजमान के घर जाकर ‘शुद्ध’ (एकोदशाह) का पिंडदान करवाने तक अंतिम संस्कार से जुड़ी सारी क्रियायें पंडा ही संपन्न करवाते हैं। घाट पर रहने वाले पंडों के जीवन का एक पहलू ये भी है कि मृतक से जुड़े संस्कार कराने के चलते ये लोग ब्राह्मण समाज में ‘अछूत’ की तरह व्यवहारे जाते हैं। इन्हें किसी मांगलिक काज में नहीं बुलाया जाता है। इतना ही नहीं घाट के पंडों का दरवाजे पर आना भी अपशकुन समझा जाता है। क्योंकि इन्हें सिर्फ़ किसी के मरने पर ही पिंडदान के लिये बुलाया जाता है। जनचौक के संवाददाता सुशील मानव ने मुन्नू पंडा का साक्षात्कार किया है। पेश है उसका संपादित अंश-

प्रश्न: 09 मई को हम अपने नाना की लाश लेकर श्रृंग्वेरपुर घाट पर आये तो पता लगा कि उनके जजमान आप हैं। आपके सिवाय कोई और पंडा उनका दाह संस्कार नहीं करवा सकता। कई बार मैंने घाट पर दो पंडों को किसी जजमान पर अपनी दावेदारी को लेकर लड़ते देखा है। तो क्या आप लोग अपने सभी जजमानों का कोई रजिस्टर बनाकर रखते हैं?

मुन्नू पंडा: अमूमन जजमानों को अपने पंडा के बारे में पता होता है। तो जो नहाने, मेला घूमने या लाश लेकर आते हैं वो अपना पंडा ढूँढते हैं उन्हीं के पास जाते हैं। मेरे अधिकांश जजमान क्षेत्रीय लोग ही होते हैं। तो उनके साथ एक सामाजिक रिश्ता भी होता है और उनसे जान पहचान रहती है। ऐसे में उनका अलग से रजिस्टर बनाने की ज़रूरत नहीं होती लेकिन जो दूर–दराज के होते हैं उनका पूरा ब्यौरा बनाकर रखा जाता है। जैसे कि गया के पंडा, बाबा बैजनाथ या कड़ा धाम के पंडा बनाकर रखते हैं वैसे ही। साल में एक बार हम लोग जजमानों के यहां जाते हैं। और वहां से कुछ सीधा पिसान जो भी जजमान देते हैं वो ले आते हैं।

प्रश्न: अमूमन किस जाति के लोग आपके जजमान होते हैं?

मुन्नू पंडा- हमारे जजमानों में मुख्यतः ब्राह्मण, ठाकुर बनिया होते हैं।

प्रश्न: दलित और पिछड़ी जातियों के लोग आपके जजमान नहीं होते?

मुन्नू पंडा: नहीं। दलित पिछड़ी जातियों के यहां क्रिया कर्म नहीं होता। उनके यहां हम खाना नहीं खाते। पिछड़ी जातियों में कुर्मी, गड़ेरिया आदि जातियां कर्मकांड नहीं करतीं। अहिर करते हैं, लेकिन बहुत जुजबी (थोड़े से लोग)। नयी पीढ़ी के चमार, पासी, सरोज जातियों के कुछ लोगों ने पैसे कमाये हैं तो उनमें भी अब कुछ लोग क्रिया कर्म के लिये बुलाते हैं लेकिन हम नहीं जाते। क्योंकि इन जातियों में हमारा खाना वर्जित है, हम उनके घर नहीं खाते।

प्रश्न : ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया लाशों को जलाते हैं फिर कौन से लोग लाश दफ़नाते हैं?

मुन्नू पंडित: दलित और पिछड़ी जातियों के लोग ज़्यादातर लाशों को दफ़नाते हैं। कुछ गरीब ब्राह्मण लोग भी लाशों को दफ़नाते हैं। इधर हम लोगों ने घाट पर दफनायी गयी लाशों की जो दुर्गति देखी है। मन दु:खी हो गया है। दलित पिछड़ी जातियों के पास गांव में ज़मीन नहीं है कि वो लाशों को वहीं दफ़ना सकें। इसलिये वो गंगा के घांटों पर लाशों को दफ़नाते हैं। इधर प्रशासन की सख्ती के बाद लाश नहीं दफनायी जा रही है ऐसे में गरीब तबके के लोग उधार लेकर या चंदा जुटाकर लकड़ी खरीद रहे हैं और लाशों को जला रहे रहे हैं।

मेरे एक रिश्तेदार कानपुर में रहते हैं। वो बता रहे थे कि उनके यहाँ प्रशासन लकड़ी देता है। आप पत्रकार लोग प्रयागराज प्रशासन और सरकार से कहिये कि वो प्रयागराज में भी गरीबों को मुफ़्त लकड़ी मुहैया करवाये। ताकि गरीब लोगों की कुछ मदद हो सके।

प्रश्न:  क्या दफ़नायी जाने वाली लाशों का भी क्रिया-कर्म करवाते हैं आप?   

मुन्नू पंडा- हां बुला लेते हैं कुछ लोग तो क्रिया कर्म करवा देते हैं। लेकिन सब नहीं बुलाते बस कुछ लोग बुलाते हैं।

प्रश्न: क्या कोरोना का असर गंगा घाटों पर पड़ा है?

मुन्नू पंडा: पिछले डेढ़ दो महीने में बेतहाशा लाशें आयी हैं। इतनी लाशें मैंने अपनी जिंदग़ी में पहले कभी नहीं देखा। जिधर से देखो उधर से चार कंधों पर सवार लाशें चली आ रही थीं। पिछले महीने हालत ये था कि एक-एक दिन में तो सौ-डेढ़ सौ मिट्टी (लाश) आ जाती थी। मुन्नू पंडा बताते हैं कि इसका एक कारण ये भी है कि फाफामऊ घाट को प्रशासन ने कोरोना से मरने वालों का घाट बना दिया तो इस कारण से भी श्रृंग्वेरपुर घाट पर लाशों की संख्या बढ़ी है। कोरोना महामारी से बहुत लोग मरे हैं।

प्रश्न: क्या कोरोना पीड़ितों की लाशें भी आयी हैं घाट पर?  

मुन्नू पंडित: प्रशासन द्वारा कोरोना पीड़ित लाशों के लिये फाफामऊ का घाट घोषित किया गया था। बावजूद इसके अप्रैल मई महीने में श्रृंग्वेरपुर घाट पर जितनी लाशें आयी हैं, निःसंदेह उसमें कोरोना पीड़ितों की लाशें भी रही होंगी। बुखार होने और कोरोना के लक्षण होने के बावजूद गांव में बहुत से लोग अस्पताल नहीं गये, बीमारी छुपाकर रखा और मर गये। ऐसी बहुत सी लाशें घाट पर आयी होंगी। बहुत सी जवान लोगों की लाशें आयी हैं। लोग बताते नहीं, छुपाते हैं। लेकिन हम सतर्क रहते हैं। मास्क लगाकर रखते हैं। बार-बार हाथ सैनिटाइज करते हैं। लगातार काढ़ा पीते हैं। घाट से घर लौटने पर कपड़े-लत्ते धोते हैं, नहाते हैं। पूरी सावधानी बरतते हैं।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles