जोशीमठ के विनाश की कहानी में हिमाचल देख रहा अपना दर्दनाक भविष्य!


खाए, पीए अघाए पर्यटकों के नए साल के जश्न की खुमारी अभी उतरी भी नहीं थी कि उत्तराखंड के जोशीमठ से जमीन धंसने की खबरें सोशल मीडिया पर धीरे-धीरे वायरल होने लगी। बेशर्म और गैर जिम्मेदार पर्यटक वहां से अपनी-अपनी गाड़ियों में लद कर भाग गये। पीछे रह गया रोता, बिलखता, धंसता जोशीमठ। हिंदुत्व की ठेकेदार केंद्र और राज्य सरकारों को और उसके गोदी मीडिया ने बहुत गोल मोल सी बातें कर खबरों को भटकाना चाहा। वह इसको प्राकृतिक आपदा घोषित करने के लिए मानो तैयार बैठा था। जबकि जोशीमठ का हिंदू धर्म में बहुत महत्व माना जाता है। 56 इंच की छाती पता नहीं कौन सा पहाड़ दिल पर लिये बैठी है कि उसकी चुप्पी कभी टूटती नहीं है।

एक स्थानीय प्रोफेसर सहाब ने कुछ दिन पहले जब इसरो-विसरो की रिपोर्ट तक नहीं आई थी, बता दिया था कि जोशीमठ को धंसने से कोई ताकत नहीं बचा सकती। जोशीमठ धंसेगा। जोशी मठ उजड़ेगा। जोशीमठ तबाह होगा। इसका तांडव क्या पूरा देश हाथ बांध कर देखता रहेगा? क्या जोशमठ के धंसने के लिए जिम्मेदारों को अपराधी ठहराया जाएगा? कौन है जोशीमठ की बर्बादी के अपराधी? हमारी क्या जिम्मेदारी बनती है जोशीमठ के लोगों के प्रति? हिमालयी राज्यों को क्या सीखना है जोशीमठ से? क्या हमारा हिमाचल जोशीमठ से कम है? क्या जोशीमठ के लिए कोई कैंडल जुलूस, मंदिरों में प्रार्थनाओं, मस्जिदों में दुआओं, गुरुद्वारों में अरदासों और चर्चों में प्रेयर की तैयारी कर रहे हैं कि दो आंसू बहकर लोग अपने-अपने कामों में लग जाएंगे? सवाल लोगों है, इस देश की सरकार से है। अपने जमीर से है।

जोशीमठ में क्या हो रहा है?

एक आम आदमी के लिए उसका घर उसके सबसे करीबी सपनों में से एक होता है, जिसमें एक कमरा खड़ा करने में लोगों की जिंदगी भर कमाई गई पूंजी लग जाती है। और पहाड़ पर घर बनाने वाले को पता है कि उसने एक-एक पत्थर कहां से लाया और लगाया है। उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ के घरों में आई दरारें, वहां रोती हुई महिलाओं की पुकारें और शहर के धंसने की खबरें टीवी पर उतर आई हैं। 4,677 वर्ग किमी में फैले इलाके से करीब 600 परिवारों को निकालने का काम चल रहा है, बाकी बचे 3000 परिवारों को भी वहां से निकलना ही पड़ेगा। करीब 5 हजार लोग दहशत में हैं। उन्हें डर है कि उनका घर कभी भी ढह सकता है।

उत्तराखंड का जोशीमठ चारों ओर से नदियों से घिरी पहाड़ी के बीच में बसा हुआ है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां 4,000 मकानों में तकरीबन 20,000 लोग रहते हैं। यहां 100 से अधिक होटल, रिजॉर्ट और होम स्टे हैं। 1890 मीटर की ऊंचाई पर बसे हुए जोशीमठ के बारे में पढ़ते वक्त किसी भी हिमाचल निवासी को ऐसा लग सकता है कि जोशीमठ की कहानी उनके ही घर, गांव, घाटी में घट रही है। जोशीमठ की आंखों के सामने घटती व्यथा हिमाचल की सरकार के लिए कड़े सवाल और चेतावनी बनकर सामने आई है।

एक दैनिक समाचार पत्र के अनुसार जोशीमठ में भू-धंसाव के मामले दिसंबर से ही आने शुरू हो गए थे। पिछले महीने क्षेत्र में कई जगहों पर भू-धंसाव की घटनाएं आई थीं। शहर के मनोहर बाग वार्ड, गांधी वार्ड और सिंधार वार्ड में लोगों ने घरों में दरार आने की बातें कही थीं। नगर क्षेत्र में भू-धंसाव से मकानों के साथ कृषि भूमि के भी प्रभावित होने की घटनाएं आईं। यहां खेतों में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ी और कई जगहों पर तो खेतों की दरारें एक फीट तक चौड़ी हो गईं।

धंसाव का सिलसिला सोमवार रात सामने आया जब कई मकानों में अचानक बड़ी दरारें आ गईं। इसके बाद तो पूरे नगर में खौफ फैल गया। मारवाड़ी वार्ड में स्थित जेपी कंपनी की आवासी कॉलोनी के कई मकानों में दरारें आईं। कॉलोनी के पीछे पहाड़ी से रात को ही अचानक मटमैले पानी का रिसाव भी शुरू हो गया। दरार आने से कॉलोनी का एक पुश्ता भी ढह गया। साथ ही बदरीनाथ हाईवे पर भी मोटी दरारें आईं। वहीं, तहसील के आवासीय भवनों में भी हल्की दरारें दिखीं। भू-धंसाव से ज्योतेश्वर मंदिर और मंदिर परिसर में दरारें आ गई।

जोशीमठ में भू-धंसाव की स्थिति मंगलवार को और खराब हुई। स्थानीय लोगों ने मंगलवार को जोशीमठ रॉक से पानी रिसता देखा। जमीन से निकल रहा पानी खेतों की दरारों में घुस रहा है इससे खतरा और भी बढ़ गया। मंगलवार को नगर के सभी नौ वार्डों में किसी न किसी मकान में दरारें आई। यहां से प्रशासन ने पांच प्रभावित परिवारों को मंगलवार को शिफ्ट किया, जबकि कई प्रभावित घर छोड़कर चले गए।

कौन है जिम्मेदार?

जोशीमठ के लोगों का दावा है कि नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) कंपनी ने विष्णुगढ़ हाइ़ड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट में एक सुरंग तैयार करने के लिए ‘ब्लास्ट’ करवाए जिसके कारण धरती के भीतर मौजूद कोई प्राकृतिक जलस्रोत फट गया। जिसके बाद शहर के एक हिस्से से बेहद तेज कीचड़ वाला पानी लगातार बह रहा है और शहर तेजी से धंसने लगा है। 12 किलोमीटर लंबी सुरंग नदी का पानी पन-बिजली स्टेशन के टरबाइन तक ले जाएगी। शहरियों के दावे के अनुसार इस सुरंग के कुछ हिस्से जोशीमठ की ज़मीन के भीतर से गुजर रहे हैं। और जब ये लेख लिखा जा रहा है तब तक भी सुरंग बनाने के लिए धमाके रुक नहीं रहे हैं, भारी मशीनें काम पर लगी हुई हैं। वहीं दूसरी तरफ बीआरओ जैसी एजेंसियां और अन्य निजी कंपनियां रोड बनाने का काम कर रही हैं जिसके अंदर ब्लास्ट और भारी मशीनों का इस्तेमाल हो रहा है।

24 दिसंबर 2009 में धरती के नीचे मेट्रो ट्रेन के लिए चुपचाप सुरंग खोद देने वाली एक बड़ी टनल बोरिंग मशीन (TBM) अचानक फंस गई। सामने से हजारों लीटर साफ पानी बहने लगा। महीनों बीत गए, लेकिन काबिल से काबिल इंजीनियर न इस पानी को रोक सके और न TBM चालू हुई। दरअसल, इंसानों की बनाई इस मशीन ने प्रकृति के बनाए एक बड़े जल भंडार में छेद कर दिया था। लंबे समय तक रोज 6 से 7 करोड़ लीटर पानी बहता रहता है। धीरे-धीरे ये जल भंडार खाली हो गया। यह जल भंडार जोशीमठ के ऊपर पास ही बहने वाली अलकनंदा नदी के बाएं किनारे पर खड़े पहाड़ के 3 किलोमीटर अंदर था। TBM मशीन से ये सुरंग गढ़वाल के पास जोशीमठ में बन रहे विष्णुगढ़ हाइ़ड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के लिए खोदी जा रही थी। यह नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन यानी NTPC का प्रोजेक्ट है।

दरअसल यह काम एक भारतीय कंस्ट्रक्शन कंपनी लार्सन एंड ट्रुब्रो (एलएंडटी) और एक आस्ट्रेलियाई कंपनी एल्पाइन मेरेडर बाउ कर रही थी। लेकिन 2014 में आई भौगोलिक अड़चनों के बाद यह समझौता तोड़ दिया गया। एलएंडटी और एलपाइन मेरेडर बाउ के बीच एनटीपीसी की इस टनल के लिए समझौता नवंबर 2006 में हुआ था। यह समझौता 456 करोड़ रुपये का था। इस कंपनी को 11.5 किलोमीटर की टनल का निर्माण करना था। इसके अलावा अगले काम के लिए अक्टूबर 2007 में ठेका मिला हुआ था पटेल इंजीनियरिंग कंपनी को। इस ठेके की रकम इससे अधिक यानी 107 मिलियन अमेरिकी डालर थी, जबकि पहली कंपनियों को 102 मिलियन डालर का ठेका मिला था।

पटेल इंजीनियरिंग कंपनी को इसके लिए प्रेसर शाफ्ट, पेन-स्टाक, टेल रेस टनल, स्विच यार्ड और पावर हाउस बनाना था। 2010 में जब टनल से पानी रिसना शुरू हुआ तो स्थानीय लोगों ने विरोध किया। लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। परियोजना जोशी मठ से मात्र डेढ़ किलोमीटर दूरी पर चल रही है। एबबी कंपनी को ट्रांसफार्मर सप्लाई का ठेका मिला। रित्विक प्रोजेक्ट्स को बैराज बनाने का ठेका मिला। Geoconsult नामक कंपनी को कंसलटेशन की जिम्मेदारी मिली और इसका मुख्य वित्त पोषक बना एशियन डेवलपमेंट बैंक यानी एडीबी। वर्तमान में हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी इस टनल पर काम कर रही है जिसको 96 मिलियन डालर का ठेका मिला हुआ है।

समय समय पर अलग अलग विशेषज्ञों ने इस तरह के घटनाक्रम होने की चेतावनियां दी थीं। 2003 से ही सामाजिक कार्यकर्ताओं, छोटे-छोटे आंदोलनों ने दोनों ही राज्यों में इस तरह के घटनाक्रमों को सरकार के दरवाजे तक पहुंचाने की लगातार कोशिश की है। जोशीमठ की स्थिति की चेतावनी तो 46 साल पहले 1976 में ही 18 सदस्यों वाली एमसी मिश्रा समिति ने अपनी रिपोर्ट में दे दी थी। रिपोर्ट के अनुसार जोशीमठ पुराने लैंडस्लाइड जोन पर बसा है, जिसके नीचे चट्टान नहीं, बल्कि रेत और पथर हैं। अलकनंदा नदी और धौलीगंगा के बहाव से नदी और पहाड़ के किनारों पर लैंडस्लाइड होती रही है। रिपोर्ट का कहना था कि ज्यादा कन्स्ट्रक्शन ऐक्टिविटी और बढ़ती आबादी से लैंडस्लाइड और ज्यादा बढ़ेंगे ही। रिपोर्ट ने सीधे शब्दों में सड़क कि मरम्मत, हेवी कन्स्ट्रक्शन, पहाड़ खोदने और ब्लास्टिंग पर सख्त रोक के लिए सुझाव दिया था।

इसके बाद वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी समेत कई अन्य बड़े संस्थानों ने लगातार चेतावनियां दीं। हालांकि, सरकार या प्रशासन ने उन्हें कितना सुना या माना ये आज सबके सामने है। साल 2006 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने ‘जोशीमठ लोकलाइज्ड सब्सिडेंस एंड एक्टिव इरोजन ऑफ द एटी वाला’ नाम से रिपोर्ट तैयार की थी। इसमें साफ बताया गया था कि जोशीमठ शहर और आस-पास के इलाके जैसे रविग्राम वार्ड, कामेट और सेमा हर साल एक सेंटीमीटर खिसक रहे हैं। इसके बाद साल 2020 में जियोलॉजिस्ट और उत्तराखंड स्पेस एप्लिकेशन सेंटर के निदेशक प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट और पीयूष रौतेला ने भी जोशीमठ इलाके पर एक स्टडी की थी, जो ‘करेंट साइंस’ में छपी थी। इसमें कहा गया था कि जोशीमठ और तपोवन इलाके भूगोल, पर्यावरण के हिसाब से संवेदनशील है। इसके बावजूद इस पूरे इलाके के आसपास हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है।

विष्णुगढ़ भी ऐसी ही एक परियोजना है। धंसाव से कुछ दिन पहले रोपड़ आईआईटी के वैज्ञानिक भी निरक्षण के लिए आए थे उन्होंने भी कहा था यहां पूरे शहर को खतरा है लेकिन प्रशासन ने पहले से कोई इंतजाम नहीं किये हैं।

पहली नजर में ही जोशीमठ आपराधिक कृत्य के लिए जिम्मेदार केंद्र और राज्य सरकारें हैं जिन्होंने ऐसे परियोजनाओं को मंजूरी दी और इसके बाद वह कंपनियां, कंपनियों के अधिकारी, यूनिवर्सिटियों के प्रोफेसर और उनके चेले जिन्होंने कंपनियों के हितों में पर्यावरण प्रभाव और सामाजिक प्रभाव जैसी रिपोर्टें तैयार की।

वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत अपने लेख में लिखते हैं कि ,”पन बिजली संयंत्रों, आल वेदर रोड आदि के नाम पर सुरंग आधारित परियोजनाओं के निर्माण से इस हिमालयी राज्य में ऐसी स्थितियों पैदा की जा रही हैं जो यहां के जंगल, जमीन की नमी को तो बर्बाद करेगी ही, बर्फ भी नहीं टिक पाएगी और नदियां सूख जाएंगी। जल स्रोतों का सूखना भावी आपदा का संकेत दे ही रहे हैं। उस स्थिति में जबकि राज्य में तकरीबन सैकड़ों सुरंग आधारित परियोजनाओं पर काम जारी है। 600 से अधिक सुरंग आधारित बांध प्रस्तावित हैं, जिसके लिए हजारों किलोमीटर लम्बी सुरंगें बनेंगी। इसके चलते तकरीबन 500 से ज्यादा गांव तबाह हो जाएंगे। बांधों के लिए किए जाने वाले विस्फोटों से जहां पहाड़ अंग-भंग होंगे, वहीं उनका मलबा नदियों में जाएगा, जो बाढ़ की भयावहता में बढ़ोतरी करेगा।”

हिमाचल के लिए जोशीमठ के मायने
जल विद्युत परियोजना के चलते जब सारा देश जोशीमठ की तबाही देख रहा था और देख रहा है उस समय देश के प्रधानमंत्री ने 4 जनवरी 2023 को 2614.51 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से एसजेवीएन लिमिटेड द्वारा हिमाचल प्रदेश में 382 मेगावाट सुन्नी बांध जल विद्युत परियोजना को स्वीकृति दे दी। इसमें बुनियादी ढांचे को सक्षम बनाने के लिए भारत सरकार की बजटीय सहायता के रूप में 13.80 करोड़ रुपये के निवेश को भी स्वीकृति दी गई है। जनवरी, 2022 तक कुल 246 करोड़ रुपये के संचयी व्यय के लिए कार्योत्तर स्वीकृति भी दी गई है।

यह वही बांध परियोजना है जिसका विरोध लंबे समय से स्थानीय नागरिक कर रहे थे। इसके लिए मंडी जिला, तहसील करसोग के कोटलू से लेकर शिमला जिले के सुन्नी तक 38 किलोमीटर लंबी सुरंग प्रस्तावित थी। सामाजिक कार्यकर्ता श्याम सिंह चौहान और लोक कृषि वैज्ञानिक नेकराम शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय में केस डाला और इस परियोजना को रुकवा दिया था। लेकिन पुनः सरकारी व कंपनी के अधिकारियों ने इस परियोजना को तीन चरणों में बांट दिया। लुहरी एक, लुहरी दो और सुन्नी बांध परियोजना। और इसकी फिर से सरकार ने मंजूरी दे दी। जबकि नांज गांव में हुई जनसुनवाई में लोगों ने इसे खारिज कर दिया था। इस परियोजना के बनने से लेकर आखिर तक केवल 4000 लोगों को रोजगार मिलना है। लेकिन कुछ सालों में हजारों लोगों को इसके नतीजे भुगतने होंगे।

पिछले दिनों ही किन्नौर के पांगी में काशांग विद्युत परियोजना के पास पांगी क्षेत्र का पहाड़ भयंकर रूप से दरक कर गिरा जिसके चलते पांगी गाँव के बगीचे नष्ट हुए और एक मजदूर की मौत भी हो गयी। यह वही पहाड़ है जिसमें चार चरणों में एकीकृत 243 मेगावाट की काशांग बिजली परियोजना बन रही है। इसका 65 MW का पहला चरण कमीशन हो चुका है और 3 चरण का निर्माण अभी बाकी है।

9 जुलाई 2007 को किन्नौर जिले के नाथपा गांव के ऊपर शिल्ती और रिते पहाड़ियां अचानक दरकने लग गई थीं। चट्टानों की चपेट में आने से चार लोगों की मौत हो गई थी, जबकि प्रशासन ने सुरक्षा के लिहाज से नाथपा गांव में रह रही आबादी को खाली कर दूसरी जगह सार्क कंडे में बसाया। 21 जुलाई 2007 को भू वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट में नाथपा गांव को असुरक्षित घोषित कर दिया गया था। गांव से करीब 82 परिवार विस्थापित हो गए और सार्क कंडे में बसने चलने गए। सार्क कंडे में मूलभूत सुविधाएं न मिलने से विस्थापित 80 फीसदी आबादी फिर से नाथपा गांव में बस गई है।

इसके अलावा हर मानसून में इन परियोजनाओं के चलते जो तबाही हो रही है वह सबने देखी है। इस बार 500 से अधिक लोग भुस्खलनों, बादल फटने, घर गिरने की घटनाओं में मारे गये और 2000 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ। किन्नौर, चंबा और कुल्लू में इन परियोजनाओं से सैकड़ों घरों में पहले ही दरारें आ चुकी हैं।

ताजा घटनाक्रम से जोशीमठ में लोगों की चिंताएं बढ़ गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जोशीमठ और हिमाचल के लोगों की कहानी के घटनाक्रम, पात्र और अंत एक ही है। दरअसल हिमाचल में अभी तक आने वाली अधिकांश योजनाएं जलवायु की दृष्टि से कमजोर और पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में हैं| उच्च सतलुज घाटी में स्थित किन्नौर और स्पीति के हिमालयी क्षेत्र और चंद्रभागा जो चेनाब के नाम से भी जाना जाता है में स्थित लाहौल, यहाँ के जन जातीय समुदाय इन परियोजनाओं का जम कर विरोध कर रहे हैं। ये भूगर्भीय रूप से अस्थिर इलाक़े हैं जो भूकंप और हिमस्खलन की चपेट में आते हैं।

हिमालय की इस तरह कि परिस्थिति के बावजूद भी पेरिस समझौते के तहत भारत 2022 तक स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के विकास पर ध्यान देने के लिए प्रतिबद्ध है। मोदी सरकार ने 2015 में घोषणा की थी कि 2022 तक भारत 175 गीगावट के स्वच्छ ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल कर लेगा, जिसमें 100 गीगावाट सौर ऊर्जा, 60 गीगावट पवन ऊर्जा और 15 गिगावाट अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत शामिल हैं। इससे भारत में जलविद्युत क्षेत्र को बढ़ावा मिल सकता है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत की कुल जल विद्युत क्षमता 1,48,704 मेगावाट है जिसका 84 प्रतिशत हिमालय के क्षेत्र में संकेंद्रित है। पश्चिम हिमालय में बिना किसी रूकावट के 118000 मेगावाट क्षमता की बड़ी, मध्यम और छोटी जल विद्युत परियोजनाओं स्थापित हो रही है।

इसके बाद कोप 26 ग्लासगो सम्मेलन में मोदी सरकार द्वारा दबाव में जो बड़े-बड़े वायदे किये गये उसने तो पूरे हिमालय की बर्बादी की कहानी लिख डाली है। 25 मेगावाट की क्षमता के 27 से अधिक जल विद्युत संयत्रों के साथ हिमाचल प्रदेश देश का अग्रणी राज्य है। सितंबर 2018 के अनुसार प्रदेश में 9765 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन हुआ। प्रदेश में 1855 मेगावाट की 8 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं जबकि 5218 मेगावाट क्षमता की 18 परियोजनाएं निर्माण योजनाओं की विभिन्न मंजिलों में हैं। 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण के तहत कुल 10547.17 मेगावाट बिजली का दोहन किया गया।

एनटीपीसी ने हिमाचल प्रदेश सरकार के साथ 520 मेगावाट क्षमता के दो नए हाईड्रो प्रोजेक्ट्स के लिए एमओयू साइन किए हैं। सैली प्रोजेक्ट 400 मेगावाट और मियार 120 मेगावाट के लिए ये एमओयू हुए हैं जो कि लाहौल स्पिति जिला के चिनाब बेसिन में स्थित है। इस से पहले एनटीपीसी 800 मेगावाट की कोलडेम परियोजना का 2015 से संचालन कर रही है।

प्रदेश की अन्य बड़ी कंपनी सतलुज जल विद्युत निगम नाथपा झाकरी में 1500 मेगावट और रामपुर में 412 मेगावाट का प्रोजेक्ट संचालित कर रही है। इसके अलावा इसी कंपनी को प्रदेश सरकार ने 780 मेगावाट की जंगी थापन परियोजना, 210 मेगावाट की लूहरी स्टेज 1, 172 मेगावाट लूहरी स्टेज 2 और 382 मेगावाट की सुन्नी बांध परियोजना आवंटित की है। इस परियोजना के खिलाफ स्थानीय जनता ने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ा था। पहले ये एक ही परियोजना थी, कोर्ट के आदेश के बाद इसको तीन भागों में बांट कर लोगों को भरमाया जा रहा है। इसके तहत 38 किलोमीटर की टनल बननी है। इसके अलावा इसी कंपनी ने अरुणाचल प्रदेश में 15000 मेगावाट जल विद्युत उत्पादन के लिए भारत सरकार के समक्ष प्रस्ताव रखा था।

एडीबी हिमाचल प्रदेश में एनएसएल रिन्यूएबल पावर प्राइवेट लिमिटेड (एनआरपीपीएल) के 100 मेगावाट के तिडांग डल विद्युत परियोजना के लिए विकास में मदद दे रहा है, जिसने 2013 में 30 मिलियन अमेरिकी डालर के इक्विटी निवेश का वायदा किया था। 2008 में प्रदेश सरकार ने क्लीन एनर्जी डेवेलपमेंट इन्वेस्टमेंट प्रोग्राम नाम का कार्यक्रम शुरू किया, जिसका एडीबी ने अनुमोदन किया। इस स्कीम में एडीबी और जर्मन डेवेलेपमेंट बैंक के KFW ने हिमाचल प्रदेश निगम लिमिटेड की 450 मेगावाट शांगटांग कड़च्छम जल विद्युत परियोजना के लिए और तीन अन्य रन आफ दा रिवर परियोजनाओं के लिए वित्त मुहैया कराया। एडीबी ने भारत के हिमालयी क्षेत्रों खासकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कई विवादित परियोजनाओं में निवेश किया है।

2012 से लेकर 2018 तक विभिन्न जल विद्युत परियोजनाओं में करीब 15 दुर्घटनाएं हुईं जिनसे आम जन जीवन प्रभावित हुआ। इसमें अधिकतर भू-स्खलन और बाढ़ की घटनाएं थीं। इसके कारण लोगों के घर और खेतों को भारी नुकसान पहुंचा। वहीं विस्थापन का शिकार हुए लोगों को अपने गांव-घरों से पलायन करना पड़ा, जिससे उनके सामाजिक और आर्थिक जीवन के ताने बाने को चोट पहुंची।

जियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया का सर्वे बताता है कि हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक इलाके का 97 प्रतिशत क्षेत्र भूकंप संभावित क्षेत्र में आता है। लेकिन हिमाचल प्रदेश सरकार लगातार हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट को मंजूरी देती जा रही है। इन परियोजनाओं से बहुत जगह पर पर्यावरण और जन जीवन की समस्या पैदा हो चुकी है।

बड़े-बड़े देशों द्वारा अपने मुनाफे के लिए तय किये गये क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत भारत को 12वीं पंचवर्षीय परियोजना के तहत 1 लाख 50 हजार मेगावाट पन विद्युत उत्पादन करने वाले प्रोजेक्ट लगाने हैं। हिमाचल प्रदेश में 27 प्रोजेक्ट कार्य कर रहे हैं और 8 परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। 18 प्रोजेक्ट की योजनाएं बनाई जा रही हैं। कुल मिलाकर देखें तो हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों को अंदर से खोखला करने की पूरी योजना चल रही है।

किरतपुर मनाली फोर लेन, शिमला धर्मशाला मटोर फोर लेन, कालका शिमला फोर लेन, भानुपल्ली-मनाली रेलवे लाईन, कोल बांध, पंडोह बांध, लारजी बांध, सुरंदरनगर झील, भाखड़ा बांध, नंगल बांध, रणनजीत सागर, प्रस्तावित सबसे बड़ा रेणुका बांध इसके अलावा सैकड़ों छोटी-बड़ी जल विद्युत योजनाएं ये सब हिमाचल को तबाह कर देगी और एक समय सारा हिमाचल मैदानों में भागने को मजबूर होगा। वहीं आने वाले दिनों में मैदानी इलाकों को बाढ़ के गंभीर संकट का सामना करना पड़ेगा।

रोड परियोजनाओं के लिए बड़े-बड़े ब्लास्ट करके सैकड़ों सुरंगें बनाई गयी हैं। ओट टनल, अटल टनल, बिलासपुर से सुंदरनगर जोड़ने वाली निर्माणाधीन टनल, हमीरपुर-उना को जोड़ने वाली प्रस्तावित टनल, मंडी कुल्लू रोड पर बन रही कई सारी टनल से पूरा इलाका खोखला हो चुका है। 1904 में हिमाचल में बहुत बड़ा भूकंप आया था, जिसमें हजारों लोग मारे गये थे। अगर ऐसा दोबारा होता है तो हिमाचल में जो तबाही होगी उसकी भरपाई सदियों तक नहीं हो पाएगी।

हियूंद स्टडी सर्कल की टीम ने किन्नौर, लाहोल स्पिति, बल्ह एयरपोर्ट परियोजना से प्रभावित इलाकों का दौरा किया। जहां टीम ने दर्जनों जगह पर घरों में दरारें, सैकड़ों पानी के स्रोत बंद होना, लोगों के खेत और बगीचे खिसकना, जंगलों का सूखना देखा है। एक व्यक्ति ने बहुत ही दिल दहला देने वाली घटनाएं सुनाईं। उसका कहना था कि हिमाचल में परियोजनाओं के लिए मात्र 8 किलोग्राम विस्फोटक लगाने की अनुमति है, लेकिन कंपनी जल्दी टनल बनाने के लिए 80-100 किलो तक विस्फोटक पदार्थों का इस्तेमाल कर रही हैं।

इतना ही नहीं उन्होंने बताया कि भारत में प्रतिबंधित एक ऐसा कैमिकल भी इस्तेमाल किया जा रहा, जो विस्फोटक की मारक क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है। एक क्विंटल बारूद के साथ जब उसको लगाया जाता है तो आगे का कई मीटर लंबा इलाका कमजोर होकर खोदने योग्य बन जाता है। एक बार हिमाचल में इतना बड़ा धमका हुआ था कि वह कई जिलों में एक साथ सुनाई दिया था। हालांकि उसको सुपरसोनिक घटना कहा गया, लेकिन इन परियोजनाओं से जुड़े अधिकारियों को पता है कि वह क्या था। इस प्रकार प्राकृति के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया जा रहा है। आम लोगों को नहीं पता कि कितनी टनल बीच में रुक गयीं या बंद कर दी गयीं और उनके बराबर नई टनल शुरू कर दी गयी।

विदेशी वित्तीय पूंजी का खेल- हिमालय की बर्बादी

क्लीन एनर्जी, ग्रीन एनर्जी, नवीकरणीय, ग्लोबल वार्मिंग, कार्बन क्रेडिट, ग्रीन इनवेस्टमेंट, पर्यावरण बचाओ, ग्रीन एनर्जी विकास परियोजना जैसे नारों, शब्दों के साथ जो खेल विदेशी वित्तीय पूंजी हिमाचल और हिमालयी राज्यों में खेल रही है, इसकी तरफ बहुत ही कम ध्यान दिया जा रहा है। दरअसल अंग्रेजों के समय से ही हिमालयी राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों और पेड़ों को साम्राज्यवादी जरूरतों के लिए दोहन करने का सिलसिला शुरू हो चुका था। यहां की रियासतों के राजा, जमींदार, ठेकेदार, नंबरदार उनके दलाल बनकर बेहद सस्ते ठेकों में यहां के जंगल उनको बेच देते थे। इसके अलावा हिमालय का अंग्रेजों के लिए रणनीतिक महत्व भी रहा है। रूस का मुकाबला करने के लिए हिमालय उनके लिए बफर जोन था।

ग्रेट गेम के दौरान हिमालय पर अंग्रेजों ने अपना कब्जा जमाया। यहां की रियासतों के राजाओं को अपने साथ मिलाकर उन्होंने यहां के संसाधनों का दोहन किया, कई राजाओं के साथ मिलकर उन्होंने विद्युत परियोजनाएं लगाई। इसके रणनीतिक महत्व के चलते शिमला, डलहौजी, मैक्डोलगंज जैसे शहर बसाए और यहां पर अपनी सैनिक छावनी बनाई। उनकी जरूरतों के लिए रेल लाईन और बिजली परियोजनाएं स्थापित की। सड़कों का जाल बिछाया। 1947 के बाद भी यह सिलसिला नहीं रुका। पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान ही विदेशी वित्तीय पूंजी के जरिए भारी-भरकम कर्ज के साथ बिलासपुर के राजा के साथ समझौता कर भाखड़ा बांध की शुरुआत की गई।

विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियन डेवलपमेंट बैंक, जापान इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन, जर्मन इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन जैसी एजेंसियां लंबे समय से हिमाचल व हिमालयी राज्यों को विकास के नाम पर लाखों करोड़ रुपये कर्ज के दे चुकी हैं। दरअसल विदेशी कंपनियों को कारोबार करने के लिए बड़ी मात्रा में धन की जरूरत होती है। ऐसे में विकास के नाम पर बने ये विनाशकारी बैंक भारी मात्रा में छोटे देशों की सरकारों को कर्ज देते हैं, फिर ये कंपनियां उन देशों की कंपनियों के साथ मिलकर संयुक्त उपक्रम बनाती हैं और वह कर्ज इन कंपनियों को मिल जाता है। फिर ये कंपनियां उस कर्ज के जरिए कहीं बिजली परियोजना, कहीं सिंचाई परियोजना, कहीं रोड परियोजना तो कहीं कृषि परियोजनाएं चलाती हैं।

फिर ये कंपनियां जहां परियोजना लागू होनी है वहां की राजनीतिक पार्टियों, ठेकेदारों, सरपंचों और ऐसे व्यक्तियों को खरीदती हैं जिसकी चलती हो। वह ऐसे गैर सरकारी, सरकारी, सामाजिक संगठनों को भी खरीद लेती हैं जो बाद में इन परियोजनाओं को लागू करवाने में सहायता करते हैं। वह परियोजना का विरोध करने वाले लोगों को इस तरह से भटकाते हैं कि उनको पता ही नहीं चलता कब वह कंपनियों के साथ मिल गये। ये लोग कहते हैं कि हमें चार गुना मुआवजा दो, यहां अस्पताल खोलो, कॉलेज खोलो, यहां सड़क बनाओ, यहां आंगनवाड़ी में ये दो, पंचायत में ये दो, संस्कृति बचाने के लिए ड्रेस बांटो। धीरे धीरे परियोजना का विरोध उनके समर्थन में बदल जाता है। ये मुआवजेबाज आम लोगों के साथ गद्दारी करते हैं।

हिमाचल के अंदर 2019 में हुई इनवेस्टर मीट के तहत जो 95 हजार करोड़ के मेमरोंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) हुए हैं अगर यह लागू हो जाए तो कितने जंगल का नाश होगा इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इतना ही नहीं सरकार हाईड्रो प्रोजेक्ट, मंडी के बल्ह, नांज, तत्तापानी जैसे इलाकों की उपजाऊ भूमि को भी बड़ी परियोजानाओं के लिए दे रही है।

हिमधारा समूह ने अपनी रिपोर्ट में पाया है कि वन अधिकार कानून के तहत अब तक प्रदेश के 41 वन प्रभागों में 1959 मूलभूत विकास परियोजनाओं (सड़क, स्कूल, आंगनवाड़ी, महिला मंडल) के लिए 887 वन भूमि का हस्तांतरण हुआ है जिसके लिए 17 हजार 327 पेड़ों की कटाई करनी पड़ी। वीपी मोहन कमेटी इन परियोजनाओं और बड़ी परियोजनाओं के लिए वन हस्तांतरण को एक तराजू में तौल रही है जो कि सही नहीं है।

हिमधारा ने बताया है कि कौल डेम के लिए 50 हजार पेड़ काटे गए, रेणूका बांध के लिए 1 लाख 50 हजार पेड़ काटे जाएंगे, धर्मशाला में केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए 54 हजार पेड़ काटे जाएंगे, अभी तक फोरलेन निर्माण में 80 हजार पेड़ों की बलि दी जा चुकी। इससे साफ होता है कि जनता के विकास के लिए जरूरी परियोजनाओं की बारी आती है तो सरकार को जंगल बचाने की याद आ जाती है और जब बड़ी परियोजनाओं के लिए जंगल या पेड़ काटने की बारी आती है तो वह खुशी-खुशी बड़े-बड़े आयोजन कर सरकार दावतें देती है।

राजनीतिक पार्टियों के राजनेता, सत्ताधारी पार्टियों के नेता, सरकारी अधिकारी और सरकारी बुद्धिजीवी वर्ग पूरी तरह से इन परियोजनाओं का गुणगान करता है क्योंकि इनको मिलने वाले कर्ज के पीछे बहुत सारे समझौते होते हैं। इन लोगों की छोटी कंपनियों को छोटे-मोटे ठेके मिलते हैं। इनकी मशीनें लगती हैं, इनके जरिये लोगों को रोजगार मिलता है और उस रोजगार के बदले इनको रिश्वत लेने का मौका मिलता है। यह बहुत बड़ा आपराधिक षड्यंत्र होता है।

विदेश पूंजी का खेल

विदेशी वित्तीय पूंजी और विदेशी कंपनियां भारी मात्रा में इस इलाके में निवेश कर रही हैं और सरकारें इसको विकास के नाम पर आमंत्रित कर रही हैं। हिमाचल पर इसके चलते 75 हजार करोड़ के करीब कर्जा चढ़ चुका है। इस पर अलग से शोध करने की जरूरत है कि हिमालयी क्षेत्रों में कितना विदेशी पैसा लगा है और इससे कितनी तबाही हुई है।

24 मई 2022 को जलवायु अनुकूल हरित विकास के एजेंडे पर चर्चा की गई। राज्य सरकार के अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया कि हाल ही में ग्लासगो शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा निर्धारित नए स्वच्छ विकास एजेंडे के दृष्टिगत जीवाश्म ईंधन स्रोतों से गैर-प्रदूषणकारी नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में परिवर्तन में देश की सहायता करने के लिए प्रदेश की एक विशेष भूमिका है। हाइड्रो सेक्टर अपने डिजाइन के कारण ग्रिड स्थिरता के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है, जो ग्रिड में रुक-रुक कर और परिवर्तनशील सौर और पवन ऊर्जा के बढ़ते अन्तःक्षेप के कारण चिंता का एक नया क्षेत्र बन गया है। राज्य की ओर से प्रदेश के पंप भंडारण, सौर और जल विद्युत क्षेत्रों में निवेश और ज्ञान सहायता के लिए विश्व बैंक से आग्रह किया गया।

विश्व बैंक के पास हिमाचल में निवेश का पर्याप्त पोर्टफोलियो है और आज विभिन्न परियोजनाओं के रूप में राज्य को कुल 3,160 करोड़ रुपये प्राप्त हो रहे हैं। यह परियोजनाएं सड़क, जल आपूर्ति, बागवानी, वन और वित्तीय प्रबंधन क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं। विश्व बैंक के क्षेत्रीय उपाध्यक्ष ने 15 मार्च को शिमला जल प्रबंधन निगम लिमिटेड (एसजेपीएनएल) के कार्यालय का भी दौरा किया और विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित शिमला जल आपूर्ति परियोजना को कार्यान्वित करने के लिए स्थापित स्पेशल पर्पज व्हीकल (एसपीवी) के कार्यों की समीक्षा की।

2022 अगस्त में मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने बताया कि भारत सरकार हिमाचल प्रदेश विद्युत क्षेत्र विकास कार्यक्रम के लिए विश्व बैंक के माध्यम से लगभग 1600 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान करेगी। राज्य की हिस्सेदारी के साथ कुल कार्यक्रम लागत लगभग 2000 करोड़ रुपये होगी। कार्यक्रम की अवधि वर्ष 2023 से 2028 तक पांच साल की होगी।

22 मार्च 2022 को भारत सरकार, हिमाचल प्रदेश सरकार और विश्व बैंक ने 80 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। कहा जा रहा है कि इस परियोजना का करीब 4 लाख से अधिक छोटे किसानों, महिलाओं और देहाती समुदायों को लाभ होगा।

एशियन विकास बैंक (एडीबी) द्वारा 2011 तक हिमाचल स्वच्छ ऊर्जा विकास निवेश योजना के तहत 800 मिलियन अमेरिकी डालर का कर्जा दिया गया था। एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और भारत सरकार ने राज्य और राष्ट्रीय ग्रिड में जलविद्युत की बढ़ी हुई आपूर्ति हेतु हिमाचल प्रदेश में पारेषण प्रणाली उन्नयन के लिए वित्त पोषण जारी रखने करने के लिए 105 मिलियन डॉलर के ऋण पर हस्ताक्षर किए। ऋण का यह तीसरा भाग हिमाचल प्रदेश स्वच्छ ऊर्जा ट्रांसमिशन निवेश कार्यक्रम के लिए 350 मिलियन बहु-किस्त वित्त पोषण सुविधा (एमएफएफ) का हिस्सा है जिसे सितंबर 2011 में एडीबी बोर्ड द्वारा अनुमोदित किया गया था।

एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और भारत सरकार ने हिमाचल प्रदेश में स्वच्छ पेयजल की सुविधा प्रदान करने तथा जल आपूर्ति एवं स्वच्छता से जुड़ी सेवाओं को बेहतर बनाने के लिये 96.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किये।

31 दिसंबर, 2019 तक ADB के पाँच सबसे बड़े शेयरधारकों में जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका (प्रत्येक कुल शेयरों के 15.6% के साथ), पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (6.4%), भारत (6.3%) और ऑस्ट्रेलिया (5.8%) शामिल हैं।

30 मार्च 2022 को हिमाचल प्रदेश और जापान के बीच 800 करोड़ रुपये की परियोजना के समझौते पर हस्ताक्षर हुआ, जिसके तहत राज्य के वन संसाधनों में सुधार किया जाएगा तथा स्थानीय लोगों को आजीविका मुहैया कराई जाएगी। एक अधिकारी ने शुक्रवार को यह जानकारी दी।

सरकार के प्रवक्ता ने आईएएनएस को बताया कि इस परियोजना के कुल खर्च में से 640 करोड़ रुपये कर्ज के रूप में मुहैया कराए जाएंगे। उन्होंने कहा कि राज्य वन मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर और जापान के राजदूत ने गुरुवार को इस परियोजना के समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।

क्या किया जाना चाहिए

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती का कहना है कि,“यह साबित हो गया है कि जोशीमठ के विनाश का जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड परियोजना है। जो कि हम भी वर्षों से कहते आ रहे थे। इन तथ्यों के मद्देनजर अब यह जरूरी हो गया है कि जोशीमठ के विनाश का हर्जाना एनटीपीसी से वसूला जाए।

अतुल सती का कहना है कि ठीक चाईं की तर्ज पर एनटीपीसी हमारे नुकसान की भरपाई करे। उनकी कुल परियोजना लागत का दुगुना वह जोशीमठ वासियों को दे। इस तरह प्रत्येक परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में एक करोड़ रुपया आता है। परियोजना जो कभी 3200 करोड़ की थी अब हजार करोड़ से ज्यादा की हो चुकी है। उन्होंने कहा कि एक ऐतिहासिक सांस्कृतिक मानवता की धरोहर नगरी को नष्ट करने की वैसे तो कोई कीमत नहीं हो सकती लेकिन सभी को प्रति परिवार प्रति व्यक्ति एनटीपीसी एक करोड़ रुपये दे। सरकार इसके लिये एनटीपीसी को निर्देशित करे। केंद्र सरकार हमारे घर के बदले घर व जमीन के बदले जमीन देते हुए नए व अत्याधुनिक जोशीमठ के समयबद्ध नव निर्माण के लिये एक उच्च स्तरीय उच्च अधिकार प्राप्त समिति गठित करे।

अतुल सती ने कहा कि सेना के जनरल व इसरो के वैज्ञानिकों के बयान के बाद अब बहुत कुछ कहने को नहीं है। स्थितियां स्पष्ट हैं। बस वक़्त का इंतजार है। सेना द्वारा अधिग्रहीत व कब्जाई हमारी भूमि का भी तत्काल सरकार हिसाब करे। क्योंकि आपदा के बाद यह सवाल ही फाइलों में दब जाएगा। हमारी बेनाप भूमि जिस पर हम वर्षों से काश्तकारी करते आ रहे हैं और सरकार की लापरवाही के कारण बंदोबस्ती न होने के चलते वह नाम पर नहीं हो पाई है, उसको भी हमारे खातों में दर्ज किया जाए। जिससे भूमि के बदले मिलने वाली भूमि अथवा मूल्य हमें मिल सके।

इसके अलावा समस्त हिमाचल सहित हिमालय में लगाई जाने वाली तमाम विद्युत, सड़क, रेल और बांध परियोजनाओं पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। विदेशी बैंकों, कंपनियों के साथ हो रहे तमाम समझौतों को रद्द किया जाना चाहिए क्योंकि ये विकास के लिए नहीं, विनाश के लिए किये गये हैं। हिमालय का दोहन विदेशी पूंजी के लिए नहीं होना चाहिए।

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति का कहना है कि कर्ज पर आधारित, प्रकृति से खिलवाड़ और लोगों का विस्थापन कर बनाई जाने वाली परियोजनाओं पर आधारित विकास हमें मंजूर नहीं है। हिमाचल की मात्र 70 लाख आबादी के लिए यहां के जंगल और कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की जरूरत है। प्रदेश में 66 प्रतिशत जंगल है जिसका इस्तेमाल जनता की जरूरतों के लिए नहीं हो रहा है। कृषि योग्य भूमि को बढ़ा कर, भूमि सुधार कर, लोगों को खेती योग्य जमीन वितरित कर, बंदरों, जंगली जानवरों की समस्या को हल कर, कृषि उत्पादन को बढ़ा कर यहां पर आत्मनिर्भर विकास संभव है।

इतनी कम जन संख्या के लिए स्थानीय संसाधनों और तकनीक पर आधारित खेती और उस पर आधारित लघु और मध्यम उद्योग से यहां पर विकास संभव है। बहुत सारे जंगल को कृषि योग्य बनाया जा सकता है। स्थानीय अनाजों को उगाया जा सकता है।

हिमाचल की अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग का हिस्सा खत्म होता जा रहा है और सेवा क्षेत्र का बढ़ रहा है। जबकि अधिक जनता कृषि पर निर्भर है। सेवा क्षेत्र का विकास अस्थाई और अनिश्चितता भरा है। कभी भी यह ढह सकता है। सेवा क्षेत्र के तहत आने वाले होटल उद्योग का हाल कोरोना व प्राकृतिक आपदा काल में हमने देखा है। इसके मात्र दो सीजन है एक बर्फ का और एक गर्मी का, बाकी समय किराया निकालना मुश्किल हो जाता है। इसलिए कृषि और लघु, मध्यम उद्योग पर विश्वास करना होगा। ज्यादा से ज्यादा लोगों को स्थानीय बीज और तकनीक पर आधारित वैज्ञानिक कृषि पर निर्भर होते हुए उसका विकास करने की जरूरत है।

हियूंद स्टडी सर्किल, हिमाचल प्रदेश
(यह लेख हियूंद स्टडी सर्किल से जुड़े छात्रों और शोधार्थियों ने मिल कर तैयार किया है। इसमें विभिन्न सरकारी गैर सरकारी और वेबसाइटों से सामग्री ली गयी है।)

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