किसान कल्याण का खोखला दावा 

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किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल की जारी भूख हड़ताल और उस पर सुप्रीम कोर्ट के अजीब रुख के बीच केंद्र सरकार ने नए साल के पहले दिन “किसानों के हक” में कुछ फैसले किए। कैबिनेट की बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- “सरकार ने नए साल का पहला फैसला किसानों के हित में लिया है। हमारी सरकार किसानों के कल्याण के लिए आगे बढ़ते रहने के लिए प्रतिबद्ध है।” 

इसके पहले कि सरकार की इस “प्रतिबद्धता” को समझने का प्रयास करें, दल्लेवाल के अनशन पर सुप्रीम कोर्ट के रुख की चर्चा उचित होगी। इस सिलसिले में पहले यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि खुद को अराजनीतिक कहने वाले संयुक्त किसान मोर्चा के दल्लेवाल गुट की मांगें सीधे केंद्र सरकार से हैं।

दरअसल, वे मांगे किसी राज्य सरकार के दायरे में नहीं आती। राज्य सरकारें चाहें, तब भी इस सिलसिले में कुछ ज्यादा नहीं कर सकतीं।

इसके बावजूद दल्लेवाल के मामले पर सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट का सारा आक्रोश पंजाब सरकार के प्रति दिखा है। उसने पंजाब सरकार के अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर रखी है। इस बीच गुरुवार को कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसने सुनवाई के दौरान कभी यह नहीं कहा कि दल्लेवाल की भूख हड़ताल तुड़वाई जाए।

वह सिर्फ यह चाहता है कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाए। पंजाब सरकार की दलील है कि दल्लेवाल के अनशन स्थल पर किसानों का जैसा जमावड़ा है, उसके बीच किसी जोर-जबरदस्ती से वहां हिंसा का अंदेशा है। इस दलील में दम है।

मुद्दा यह भी है कि अगर दल्लेवाल को अस्पताल में भर्ती करवा भी दिया गया, तो उससे उनकी जान कैसे बच जाएगी, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट चाहता है? शरीर को भोजन ना मिलने का जो बुरा असर है, उससे दल्लेवाल अस्पताल में भी प्रभावित रहेंगे।

जिन मांगों का संबंध राजनीतिक-अर्थव्यवस्था से हो, उन्हें मनवाने के लिए भूख हड़ताल का तरीका कितना उचित या कारगर है, यह अलग बहस का मामला है। वैसे इस तरह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दखल का भी क्या आधार है, यह सवाल भी इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण होगा। 

किसानों की प्रमुख मांग है कि उनकी फसलों का स्वामीनाथन फॉर्मूले के मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिले, इसे सुनिश्चित करने का कानून बनाया जाए। नरेंद्र मोदी सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। उसके रुख से साफ है कि अभी एमएसपी की जो दरें हैं और उनके भुगतान की जो व्यवस्था है, उसे वह पर्याप्त मानती है।

इसके आगे देने के लिए उसके पास कुछ नहीं है। केंद्र सरकार की निगाह में एमएसपी के मसले को वह हल कर चुकी है। जबकि किसान संगठनों के मुताबिक अभी जो एमएसपी दिया जा रहा है, वह स्वामीनाथन फॉर्मूले के मुताबिक नहीं है। और यही केंद्र एवं किसान संगठनों के बीच टकराव का प्रमुख मुद्दा है। 

साल 2025 के पहले दिन सरकार के फैसलों के बाद प्रधानमंत्री ने किसान कल्याण के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता का जो दावा किया, उसे भी इसी टकराव के संदर्भ में देखा जाएगा। तो पहले देखते हैं कि सरकार ने निर्णय क्या लिएः 

  • केंद्र की घोषणा के मुताबिक मोदी मंत्रिमंडल ने दो महत्त्वपूर्ण फैसले लिए। 
  • सरकार ने डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) के आयात के लिए प्रति टन 3,500 रुपये की विशेष सब्सिडी की अवधि बढ़ाने का निर्णय लिया। 
  • साथ ही दो फसल बीमा योजनाओं में तकनीक के उपयोग के लिए 824.77 करोड़ रुपये मंजूर किए। 
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अब 2025-26 में भी जारी रहेगी। ये फैसला नहीं होता, तो इस योजना के लिए सरकारी सब्सिडी की अवधि अगले मार्च में समाप्त हो जाती। इसके लिए 2021-22 से 2024-25 तक के लिए 66,515 करोड़ रुपये मंजूर हुए थे। अब 3,045 करोड़ रुपये और आवंटित किए गए हैं। यानी लगभग तीन हजार करोड़ रुपये की और सब्सिडी दी गई है।

अब कुछ हकीकतों पर ध्यान दें-

  • जहां तक डीएपी सब्सिडी का सवाल है, तो असल कहानी डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में भारी गिरावट में छिपी है। डीएपी सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला खाद है, जबकि इसकी उपलब्धता के लिए भारत लगभग पूरी तरह आयात पर निर्भर है। 
  • सरकार ने बाजार में कुछ अन्य उर्वरकों की तरह इसकी भी अधिकतम खुदरा कीमत (एमआरपी) में वृद्धि को फ्रीज कर रखा है। इसलिए रुपये की गिरती कीमत से आयातकों के लिए इसे मंगवाना घाटे का सौदा बन गया है। मीडिया रिपोर्टों में कई आयातकों से बातचीत छपी है, जिनमें उन्होंने आयात ना करने या इसे घटाने की धमकी दी थी।
  • तो सरकार ने ताजा फैसले से इस अंदेशे को टाला है। यानी मौजूदा कीमत पर एक साल और डीएपी किसानों को मिलता रहेगा। इससे स्थिति जैसी थी, बनी रहेगी। इसे अगर ‘किसान कल्याण को आगे बढ़ाना’ माना जाए, तो दीगर बात है।

मौजूदा स्थिति क्या है? सरकारी सब्सिडी के बावजूद मांग के सीजन में डीएपी किल्लत सामने आती रही है। इसको लेकर किसान शिकायत जताते रहे हैं। इसे रेखांकित करने की जरूरत है डीएपी की किल्लत का उपाय ढूंढने के लिए सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है।

ताजा फैसलों के मुताबिक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना साल भर और मौजूदा रूप में ही जारी रहेगी। गौरतलब है कि निजी कंपनियों के जरिए लागू यह योजना सवालों के घेरे में रही है।

इसकी आलोचना है कि इसका असल लाभ किसानों के बजाय बीमा कंपनियों को मिला है। चाहे बीमा कोई भी हो, निजी कंपनियों का क्लेम देने में देर या इनकार करना आम कहानी है। किसान भी इसका शिकार हुए हैं। 

तो इसीलिए किसान संगठन इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि बाजार अर्थव्यवस्था में एमएसपी की बिना कानूनी गारंटी हुए किसान कल्याण नहीं हो सकता। 

आजादी के बाद कृषि में आत्म-निर्भर होने की नीति तय की गई थी। तब कृषि की बुनियाद मजबूत करने को प्राथमिकता दी गई थी। इसके लिए नहरों का निर्माण, उर्वरक कारखानों की स्थापना, बीज एवं मिट्टी संबंधी शोध और मंडियों के जरिए फसलों की खरीद का जाल बिछाने की तरफ कदम उठाए गए।

इसके साथ ही जरूरी खाद्यों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए आम जन को उपलब्ध कराने की नीति अपनाई गई। इस तरह कृषि आत्म-निर्भरता असल में खाद्य आत्म-निर्भरता की नीति बन गई। 

नव-उपनिवेशवाद के दौर में साम्राज्यवादी देशों की सर्वोच्च प्राथमिकता नए आजाद हुए देशों को खाद्य के क्षेत्र में आत्म-निर्भर बनने से रोकना थी। उसके बरक्स जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के शासन काल में भारत ने आत्म-निर्भरता की ठोस बुनियाद खड़ी की।

नव-उदारवादी दौर में, जब भारत बाजार कट्टरपंथ (market fundamentalism) में फंसने लगा, तो उसका सीधा असर आत्म-निर्भरता की नीतियों पर पड़ा। अब बाजारवाद सिर चढ़ कर बोल रहा है, जिसमें हर सेवा का निजीकरण घोषित नीति है। कृषि इससे बुरी तरह प्रभावित हुई है। 

सवाल है कि अगर डीएपी की किल्लत आम कहानी बन गई है, तो देश में, सार्वजनिक क्षेत्र के तहत डीएपी के कारखाने क्यों नहीं लगाए जा सकते? कृषि में बुनियादी निवेश हो, तो किसानों की इनपुट लागत को नियंत्रित किया जा सकता है।

फिर अगर पीडीएस को फिर से यूनिवर्सल बनाया जाए, तो फसल खरीद की सरकारी मंडियां अपने-आप प्रासंगिक हो उठेंगी। तब एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग से इनकार करने का तर्क सरकार को मिल सकता है। 

यह ध्यान में रखना चाहिए कि एमएसपी की मांग असल में बाजार अर्थव्यवस्था के तर्कों से निकली है। सरकारों का इससे इनकार करना किसानों के साथ अन्याय ही माना जाएगा।

इस अन्याय को जारी रखते हुए कोई सरकार “किसान कल्याण के लिए प्रतिबद्ध” होने का दावा नहीं कर सकती। किसान ऐसे दावों को संदेह की निगाह से ही देखेंगे।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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