वाराणसी, उत्तर प्रदेश। जनपद वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के लोकार्पण के बाद से शहर का मूड ही एकदम से बदल सा गया है। शहर को आगे बढ़ाने के लिए राज्य और केंद्र दोनों ने खजाना खोल रखा है। पीएम मोदी जब भी आते हैं, वाराणसी जनपद के लिए करोड़ों की सौगातें दे जाते हैं। सूबे के सीएम योगी आदित्यनाथ भी काशी से अपना प्यार कम नहीं होने देते और महीने में एक या दो दौरे जरूर कर जाते हैं। योगी का ताजा दौरा तीन जून को था। मीटिंग-मॉनिटरिंग कर योजनाओं को समय पर पूरा करने के निर्देश भी देते हैं। हो भी क्यों न, भारतीय जनता पार्टी के लिए वाराणसी ही एक ऐसी राजनीतिक पिच है, जहां से वह पूर्वांचल, यूपी, बिहार, सीमावर्ती बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में ‘प्री-प्लान’ बैटिंग करती है।
चूंकि, तीर्थ नगरी काशी अब यूपी में पर्यटकों की पहली पसंद बन गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट श्री काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर के लोकार्पण के बाद बड़ी संख्या में पर्यटक काशी आ रहे हैं। अगस्त 2022 में मंदिर प्रशासन की ओर से जारी आकड़ों के मुताबिक बीते छः महीने में काशी में 1.5 करोड़ से ज्यादा पर्यटक सिर्फ बाबा धाम पहुंचे, जबकि इसी वाराणसी में प्राचीन और सुविख्यात सारनाथ बौद्ध विहार व मठ, गंगा नदी, भारत माता मंदिर, कबीरदास स्थली कबीरचौरा, संत रैदास स्थली सीर गोवर्धन, कीनाराम मठ, घाट, रेत, दुर्गाकुंड, किला, धर्म, व्यापार, रोजगार, दर्शन, अध्यात्म और लोक जीवन को देखने-समझने हर महीने करोड़ों लोग और भी आते हैं। तब के कमिश्नर दीपक अग्रवाल ने बताया था कि मई, जून, जुलाई का ये महीना बनारस में पर्यटन के हिसाब से ऑफ सीजन में आता है, बावजूद इसके इस ऑफ सीजन में भी यहां बड़ी संख्या में पर्यटक आए और बाबा के दर्शन किये।
अब मुद्दे की बात…
बनारस, खासकर शहरी हिस्से में समाज के अंतिम पायदान पर रहने वाले लोगों के स्थाई-अस्थाई आवास और रहवास विकास की भेंट चढ़ गए हैं। जिसमें वरुणापार इलाके में दलित बस्ती, सारनाथ के सुहेलदेव तिराहे के पास सफाई कर्मियों की बस्ती, चौकाघाट पुल से लेकर कोनिया तक सड़क के किनारे रहने वाले तमाम दलितों के अस्थायी आवास, सूजाबाद, बजरडीहा, छित्तूपुर, दशाश्मेध घाट से सटे ऐतिहासिक चितरंजन पार्क के किनारे रखी सिंधी परिवारों की गुमटियां, राजघाट और अब राजघाट स्थित किला कोहना की बस्ती को बनारस प्रशासन ने बुलडोजर के दम पर एक झटके में ध्वस्त कर दिया। जो कुछ घंटे पहले तक दुकान-मकान के रूप में भौतिक रूप से मौजूद थी वो ईंट के टुकड़े, लिंटर, सरिया, पत्थर और मलबे से ढेर से तब्दील हैं। कुछ ही दिनों पहले 30 मार्च 2023 को सारनाथ में जी-20 की तैयारियों को लेकर नगर निगम द्वारा हटाए जा रहे अतिक्रमण के दौरान धक्का लगाने से ठेले पर फल बेचने वाली वृद्ध महिला की मौत हो गई थी।
वाराणसी प्रशासन या सिस्टम के अन्य विभागों द्वारा एक के बाद एक गरीबों के आशियाने को बड़ी बेरहमी से ढहाया-गिराया गया। ध्वस्तीकरण की कार्रवाई में इनके मानवीय और संवैधानिक मूल्यों को सिरे से दरकिनार कर किनारे लगा दिया गया। ताजा मामला राजघाट स्थित किला कोहना बस्ती का है। यहां बसे नागरिकों का कहना है कि वे कम से कम चार पीढ़ी से यहां रहते आ रहे थे। अचानक रेलवे ने उन्हें अतिक्रमणकारी बताकर खून-पसीने की कमाई से बनाए गए कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे घर-मकानों को जमींदोज कर दिया।
अपने सांसद मोदी से नहीं मिल पाए पीड़ित
नोटिस छपने के बाद पीड़ित बाशिंदे हर उस आला-अधिकारियों के यहां गए, जहां उन्हें अपने घरौंदे के बचने की आस थी। अफसोस की हर जगह उनकी अर्जी ख़ारिज होती चली गई। चाहकर भी ये लोग अपने सांसद नरेंद्र मोदी से पुनर्वास की अर्जी नहीं लगा पाए। थक-हारकर आशियाने पर जेसीबी चलता देख महिलाएं बिलख पड़ीं। अधिकारियों के सामने आंखों में आंसू लिए दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा कि ‘अब हम अपने परिवार के लेके कहां जाइब ऐ साहेब..’यह कहते हुए वह फफक पड़ीं। अन्य परिवारों का भी यही दर्द था। छोटे-छोटे बच्चों को लेकर और अपनी गृहस्थी का सामान लेकर लोग वहां से निकल पड़े।
राजघाट स्थित किला कोहना बस्ती के डेढ़ हजार से अधिक लोगों के लिए एक साथ अब सुबह-ए-बनारस देखना शायद ही भविष्य में मयस्सर हो। चार पीढ़ी से चले आ रहे पड़ोसियों का गली में बैठकर सुख-दुःख के बंटवारों की बातों का मौका शायद ही मिले। अब इनकी पहचान न राजघाट की बची है, और न ही ये राजघाट पुल, काशी स्टेशन, खिड़किया घाट, भारत सेवा संघ के ठीक सामने और हाल ही में मिले नाम “नमो घाट” का पता फिर कभी दुहरा पाएंगे। आधे से ज्यादा अपने गांव-कस्बों को लौट गए। कुछ ने बनारस में जहां-तहां किराये का कमरा तलाश लिया। अभी कई परिवार पेड़ की छाया और टूटे-बिखरे भवनों की ओट में विपत्ति से संभलने में जुटे हैं। इनको सुबह-ए-बनारस की रत्ती भर फ़िक्र नहीं है।
सपने मलबे में तब्दील, लोग सामान समेटने में जुटे
दिन रविवार। सुबह आठ बजे का समय। राजघाट रोड पर वाहनों का आवागमन शुरू हो गया है। राजघाट के पास काशी रेलवे स्टेशन के उत्तर दिशा में जो भवन, छप्पर और मकान कभी हजारों लोगों के आशियाने थे। इन भवनों के ईंट, पत्थर, सरिया, बीम, टीन, तिरपाल, तार, केबल, सामान, लकड़ियां व बांस के टुकड़े मलबे में तब्दील हो चुके हैं। यहां अब कोई नागरिक नहीं है। दस-पंद्रह लोग मिले जो अपने मकान के मलबे से ईंट और जरूरी सामान चुन रहे हैं। बच्चे, जवान, अधेड़ और महिलाएं बिना समय गंवाए जुटे हुए हैं, जैसे वे किसी मिशन पर हों। कोई ईंट चुन रहा, कोई पटरा-बल्ली, कोई खिड़की-दरवाजा तो कोई गृहस्थी का बचा हुआ सामान चार पहिया मोटर वाहनों पर लाद रहा है। वहीं कुछ खड़े-खड़े मुहल्ले को अपनी स्मृतियों में भर रहा है।
एक सत्रह-अठारह साल का किशोर गाड़ी के डाले में ईंट लाद रहा है। टोकते ही वह हाथ में लिए ईंट को गाड़ी के डाले में फेंककर पास आकर खड़ा हो गया और अपना नाम रितेश बताया। जनचौक से बातचीत में वह कहते हैं कि “घर-मकान तो गिर गया। तीन-चार दिन से किराये का कमरा खोज रहे थे। शहर में कमरे की कीमत चार से पांच हजार रुपये से भी अधिक है। यहां हम लोगों के महीने की कमाई सात से आठ हजार रुपये है। कल शाम (शनिवार) को मिला है। सड़क पर पड़े कुछ सामान को कल ही शिफ्ट कर दिया। आज सुबह आ गया। अभी नौ बज रहे हैं। थोड़ी ही देर में 10-11 बज जाएगा। लू और धूप के मारे यहां पलभर खड़ा रहना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए सभी लोग जल्दी-जल्दी सामान समेटने में जुटे हैं।”
रितेश आगे बताते हैं कि “एक व्यापारी से बात हुई है। सीमेंट लगी ईंट का मलबा वह लेगा तो ठीक वरना मुफ्त में ही दे देंगे। किराये के मकान में कैसे गुजारा होगा और हम लोग क्या करेंगे? कुछ पता नहीं है। शहर को चमकाने के नाम पर गरीबों पर जबरिया अत्याचार किया जा रहा है। जिला प्रशासन से लेकर मंत्री तक अपनी बात रखे, लेकिन कोई हल नहीं निकला। अब मुझे पता चला सभी नेता सिर्फ गरीबों के वोट के भूखे हैं। हमारे अधिकार, हक़, पुनर्वास और सुविधा की मांग को कोई गंभीरता से नहीं लेता है, क्या हम इस देश के नागरिक नहीं है?।”
आर्थिक असमानता बढ़ी, कैसे जिएंगे गरीब?
बहरहाल, देश की आर्थिक स्थिति पर गौर करें तो, जब से भारत में मोदी सरकार सत्तानशीं है। उसके नौ वर्ष के लंबे शासनकाल में गरीबी मिटाओ और इनके कल्याण के किए गए प्रयास बहुत सतही और समाज में असंतुलन पैदा करने वाले मालूम पड़ते हैं। आंकड़ों में देखें तो साल 2013-14 में भारत की प्रति व्यक्ति आमदनी 78 हजार रुपये सालाना थी। साल 2022-23 में 47 फीसदी का इजाफा होकर प्रति व्यक्ति आय एक लाख पंद्रह हजार रुपये सालाना हो चुकी है। काबिल-ए-गौर है कि वर्ष 2004 से 2014 तक अवधि में प्रति व्यक्ति आय में 145 फीसदी का इजाफा हुआ था। वहीं, हाल के नौ सालों में महज 47 फीसदी हुआ है।
आंकड़े बताते हैं कि एक महीने में भारत के प्रति व्यक्ति की आमदनी दस हजार रुपये से भी कम है। इसमें आर्थिक असमानता के आंकड़ों को जोड़ दिया जाए तो देश के प्रति नागरिक की आय आठ हजार रुपये मासिक भी नहीं मिल पाएगी। वैश्विक पटल पर भारत की स्थिति का जायजा लेते हैं- प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया के 197 देशों में 144 वें पायदान पर खड़ा है हमारा देश भारत।
दूसरी सबसे जरूरी बात, साल 2014 से पहले देश के गरीबी के आंकड़ें सार्वजनिक करने का काम सरकारों की प्राथमिकता में था। तब से लेकर यानी साल 2011-12 के बाद से अब तक सरकारी संस्थाओं द्वारा गरीबी के आंकड़े पेश नहीं किये गए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि मोदी सरकार आंकड़ों को छिपा इसलिए रही है कि ताकि उनकी आर्थिक और कल्याणकारी नीतियों की पोल खुल जाएगी। अब सोचिये जब सरकार के पास गरीबों के आंकड़े ही नहीं हैं तो उनका सुनियोजित तरीके से कैसे विकास किया जाएगा।
खैर… उत्तर प्रदेश के वाराणसी से गुजरात के नरेंद्र मोदी सांसद हैं और लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं। ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘गंगा ने बुलाया है’, ‘मैं नेता नहीं सेवक हूं और मैं गरीब का बेटा हूं’ वैगरह-वगैरह।
अब क्या होगा हमारा भविष्य?
रितेश आगे कहते हैं कि “अभी मैं स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र हूं। अब बेघर भी। यहां तकरीबन डेढ़ हजार से अधिक लोग रहते थे। इनमें से कितनों के बच्चे बीए, बीएसी, कॉमर्स या और अच्छी पढ़ाई पढ़ते होंगे। ऐसे पढ़ने वाले सिर्फ दस-बारह थे। सभी के मां-बाप मजदूर, ठेला, पटरी और छोटे-मोटे दुकानदार रहे। अब हम लोगों का भविष्य क्या होगा? तेजी से बदल रही दुनिया में हम वहीं धकेल दिए गए जहां से चले थे।”
वो कहते हैं कि “हम मानते है कि सरकारी जमीन में बसे थे, लेकिन ‘सबका साथ-सबका विकास’ करने वाली सरकार मुआवजा या वैज्ञानिक पुर्नवास तो करा ही सकती थी। अब भी कई ऐसे हैं, जिनका घर ढहाए जाने के बाद किराए का कमरा ढूढ़ने की हैसियत नहीं है। खुले आसमान के नीचे, परित्यक्त भवनों के ओसारे, पेड़ की छांव और सड़क के किनारे गृहस्थी के सामान और परिवार के साथ पड़े हैं।”
‘अब न हम किसी के हैं और न कोई हमारा’
150 मकानों में से सत्तर साल की बंसराजी देवी का भी घर रेलवे ने बुलडोजर से तुड़वा दिया। वह एक सरकारी भवन के ओसारे में कंबल बिछाकर बैठी हैं, और अपने घर के मलबे को एकटक निहार रही हैं। एक तकिया, दवाई के पैकेट और कुछ बर्तनों में पका हुआ भोजन पास में रखा हुआ है। वह बताती हैं कि “अपने ससुर के समय मैं यहां आई। यहां रहते कई दशक गुजर गए। पति के निधन के बाद पिछले बरस बेटे की कोरोना में अकाल मौत हो गई। (मलबे की ओर हाथ से इशारा करते हुए) एक बेटी है, जो किसी तरह से घरों में साफ़-सफाई कर खर्च चलाती है। अब तो घर भी नहीं बचा। मेरी तबियत भी ठीक नहीं है। बेहताशा गर्मी में दिन और रात इस ओसारे में होने से बेचैनी और सांस लेने में दिक्कत होती है। बेटी ने दवा दिलवाया है।”
बंसराजी आगे कहती हैं कि “हम लोग कई पीढ़ियों से हैं। रेलवे को जमीन लेना था, ले लिया होता। बस हम लोगों का पुनर्वास हो जाता तो इतनी बड़ी दिक्कत नहीं होती है। हम लोग खुले आसमान के नीचे आ गए हैं। अब न हम किसी के हैं और न ही कोई हमारा हमदर्द बचा है। यहां से उजड़ कर कोई अपने रिश्तेदारी में, कोई किराये के मकान में और कुछ लोग सड़क पर आ गए हैं। शायद हमारी यही नियति है। जीवन के आखिरी पड़ाव पर मैं छत को तरस जाऊंगी, कभी बुरे सपने में भी नहीं सोचा था।”
विकास के नाम पर चढ़ाई जा रही गरीबों की बलि
वाराणसी स्थित कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता वैभव कुमार त्रिपाठी कहते हैं कि “तीर्थ के मूल्य को टूरिज्म में बेतरतीब ढंग से बदल दिया गया है। काशी के हर माहात्म्य को कैश करने की मनहूस कोशिश जारी है। हाल के सालों में जो लोग बनारस आ रहे हैं, वे श्रद्धालु कम, सैलानी अधिक रहे हैं। शहर में कुकुरमुत्ते की तरह स्पॉ, मसाज पार्लर और हाईफाई सैलून में खुलेआम देह व्यापार चलाया जा रहा है। किसी कॉलगर्ल की हत्या होती है तो प्रशासन की नींद खुलती है। स्मार्ट सिटी के नाम पर शहर को बोर्ड बैनर से पाट दिया गया है। सैलानियों के आने-जाने वाले रास्तों में बसी गरीबों की बस्तियों को सिर्फ फायदे के लिए उजाड़ दिया जा रहा है।”
वैभव आगे कहते हैं कि “ऐसा लगता है कि सरकार गरीबों को दोयम दर्जे का नागरिक मानती है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को योगी आदित्यनाथ भी दुहराते हैं कि बिना उचित पुनर्वास के दलितों और गरीबों को विस्थापित नहीं किया जाए। लेकिन यह स्वयं प्रधानमंत्री के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में कहीं नहीं दिखता है। यहां अमीरों और पैसों को प्राथमिता दी जा रही है। वर्तमान सरकार ने धर्म और संस्कृति को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। देसी बढ़े हैं, लेकिन धार्मिक उन्माद वाले मसले को लेकर विदेशों से आने वाले पर्यटक गिनती के रह गए हैं। गंगा की रेत में टेंट सिटी और गंगा विलास क्रूज का काशी में क्या काम?”
वैभव आगे कहते हैं कि “अभी जो लोग आ रहे हैं, आने वाले सालों में इनकी तादात कम हो जाएगी। यहां विज्ञापन देखकर जो लोग आ रहे हैं, उन्हें आध्यात्मिकता और ऊर्जा नहीं मिल रही, जिसकी तलाश आमतौर पर सभी श्रद्धालुओं और सैलानियों को होती है। मौजूदा सरकार नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की भी बात नहीं सुनना चाहती है। आप आज की तारीख में शहर की मुख्य सड़कों से थोड़ा अंदर जाएंगे तो देखेंगे- स्मार्ट सिटी की कॉलोनियां और बस्तियां अपनी दुश्वारियों की कहानी कह रही हैं। सीवर ओवर फ्लो है, नालियां चोक हैं और कई जगहों पर खुले में शौच की समस्या है। स्मार्ट सिटी और विकास के नाम पर गरीबों की बलि चढ़ाई जा रही है।”
रेलवे की जमीन से हटाया गया अतिक्रमण- एईएन
कैंट स्टेशन के एईएन रेलवे आकाशदीप के नेतृत्व में जेसीबी, ट्रैक्टर के साथ आदमपुर पुलिस फोर्स की मौजूदगी में राजघाट के पास किला कोहना बस्ती को ढहाया गया। आशियाने पर जेसीबी चलता देख कई परिवारों के सदस्य बिलख पड़े, कुछ ने रेल अधिकारियों से कई बार मिन्नतें कीं। कुछ विरोध दर्ज कराने भी पहुंचे, लेकिन पुलिस फोर्स की मुस्तैदी के चलते उनकी एक न चली।
एईएन रेलवे आकाशदीप ने बताया कि “काशी स्टेशन के सौंदर्यीकरण के लिए किला कोहना में 125 मकानों को जमींदोज कर दिया गया है। ये सभी रेलवे की जमीनें थीं। अतिक्रमण की जद में रेलवे के दो ब्लॉक के आठ क्वार्टर भी आए, उन्हें भी ढहा दिया गया। सिर्फ धर्मस्थलों को छोड़ा गया। गुरुवार से मलबा हटाने का काम शुरू होगा।”
(उत्तर प्रदेश के वाराणसी से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)
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