Friday, March 29, 2024

किताब जो बताती है किसी देश में लोकतंत्र के मरने के लक्षण

‘How democracies Die’ बताती है कि चुने हुए नेता कैसे लोकतंत्र को कुतर-कुतर कर खत्म कर देते हैं। हर देश में उसका एक ही जैसा पैटर्न होता है। दुनिया के अनेक देशों की मिसालें देकर लेखकों ने जो कुछ समझाया है उसका निचोड़, वादे के मुताबिक, कुछ इस तरह है। 

1. ऐसा नेता के शासन में सारे निर्णय राष्ट्रहित में लिए जाते हैं, किसी भी निर्णय का विरोध राष्ट्र का विरोध होता है।

2.मीडिया को खरीद लिया जाता है या डराकर खामोश कर दिया जाता है। मेनस्ट्रीम मीडिया सरकार के प्रचार में लग जाता है। हर असहमत व्यक्ति को निशाना बनाया जाता है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में सक्रिय हो, लेखक-कलाकार और समाज पर असर रखने वाला हर आदमी इसमें शामिल है।

3.जायज़ विपक्ष को देश का दुश्मन बताया जाता है।

4.एक ऐसा समुदाय ढूँढा या बनाया जाता है जिससे लोग नफ़रत कर सकें और उस समुदाय के साथ होने वाली ज़्यादती को लोग नेता की मज़बूती के रूप में सराहते हैं।

5. लोगों को मज़बूत नेता और कठोर फ़ैसलों के फायदे बताए जाते हैं फिर नेता ऐसा मज़बूत होता है कि वह न्यायपालिका, चुनाव आयोग, ऑडिटर जनरल, और संसद ही नहीं बल्कि अपनी कैबिनेट जैसी सभी संस्थाओं को अपनी ज़द में ले लेता है।

6. जजों की नियुक्ति और उन्हें कमज़ोर करने में ऐसे नेता की गहरी दिलचस्पी होती है ताकि सरकार के मनमाने फ़ैसलों को अदालतें न पलटें।

7. ऐसा नेता हमेशा देश को महान बनाने के वादे करता है और देशभक्ति का ज़ोरदार डिस्प्ले करता है, बड़ी मूर्तियाँ और बड़े आयोजनों का उसे खास शौक होता है, मैसेजिंग के मकसद से।

8. लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने के बाद नेता देश को लोकतांत्रिक तरीके से चलाने की जगह ऐसे चलाता है मानो देश पर विदेशी हमला हो गया हो, वह हालत को सामान्य नहीं रहने देता और उसके बाद हालत को काबू में करने के लिए और अधिक अधिकार माँगता है।

9. पुलिस और सेना पर निर्भरता बढ़ने लगती है और समाज में उनकी भूमिका बढ़ती जाती है, पुलिस को कानूनों की मनमानी व्याख्या करने की छूट दी जाती है।

10. ऐसे नेताओं की आर्थिक नीतियों में अंतर हो सकता है, घोर कम्युनिस्ट से अति पूंजीवादी तक लेकिन उनके कुछ अपने व्यापारिक घरानों से याराने होते हैं जो ऐसी सरकार से जुड़े राजनीतिक दल की फंडिंग करते हैं और बदले में अनैतिक और अवैध रियायतें पाते हैं।

11. ऐसे सभी नेता आम तौर पर खुद को पुराने नेताओं से अलग दिखाते हैं, एक अलग तरह की राजनीति की बात करते हैं, वे एक-एक करके परंपराओं को तोड़ते हैं, मर्यादाएं लांघते जाते हैं और लोग इसे पुरानी व्यवस्था का खात्मा समझकर तालियां बजाते हैं।

12. ऐसे सभी नेता प्रचार, प्रोपगंडा, इमेज बिल्डिंग वगैरह पर औसत से अधिक सरकारी पैसा ख़र्च करते हैं, इनका ध्यान काम करने पर कम और यह एहसास दिलाने में अधिक रहता है कि बहुत काम हो रहा है। ये सभी भाषण बहुत जमकर देते हैं।

13.विदेश नीति के मामले में यह अपने से मिलते-जुलते विचार वाले नेताओं के साथ गलबहियाँ करते हैं, वे आपस में एक-दूसरे की तारीफ़ करते हैं और विदेश दौरों का बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया जाता है लेकिन वे विदेश नीति के विवादास्पद मामलों को सुलझाने पर ध्यान नहीं देते।

14. घिर जाने पर सहानुभूति की अपील करते हैं, खुद को कमज़ोर और असहाय बताते हैं, भावनात्मक बातें करते हैं और लोगों को जताते हैं कि यह नेता पर नहीं, उस जनता पर हमला है जो नेता के साथ है। इस तरह, जनता दो पालों में बंट जाती है और स्थायी ध्रुवीकरण हो जाता है। ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि नेता के समर्थक गलती जानते हुए भी या तो समर्थन जारी रखते हैं या चुप्पी लगा जाते हैं।

15.हर विरोध को सख्ती से दबाना, उसका मज़ाक उड़ाना, उसे नज़रअंदाज़ करना इनका ख़ास अंदाज़ है लेकिन विरोधी के साथ विचार-विमर्श, चर्चा या समाधान निकालना या विरोध का सम्मान करते हुए निर्णय पर पुनर्विचार करना इनकी राजनीतिक शैली का हिस्सा नहीं है क्योंकि वे हर हाल में मज़बूत नेता दिखते रहना चाहते हैं।

16. ऐसे नेताओं का उभार तभी होता है जब देश में उसकी भूमिका लंबे समय से तैयार हो गई हो, फिर भ्रष्टाचार, कमज़ोर नेतृत्व, देश का गिरता सम्मान बचाने की दुहाई देते हुए ऐसे नेता सामने आते हैं जो चमत्कारी बदलाव का वादा करके देश को दुनिया के शीर्ष पर ले जाने की बात करते हैं, इसके लिए वे समर्थन माँगते हैं, जो उन्हें मिलता भी है क्योंकि माहौल तैयार रहता है, माहौल बनाया भी जाता है।

17. अंत में सबसे अहम बात, यह सब बहुत टुकड़ों-टुकड़ों में होता, एक-एक करके, लोग लोकतांत्रिक संस्थाओं में हो रहे बदलावों को कड़ी से कड़ी जोड़कर नहीं देख पाते कि दरअसल हो क्या रहा है, जब कुछ लोग आगाह करते हैं तो उन्हें यही सुनने को मिलता है कि आप बेवजह पैनिक कर रहे हैं। लोकतंत्र चुनाव तक सीमित हो जाता है और देश का लोकतांत्रिक तरीके से चलना बंद हो जाता है। फिर चुनाव भी औपचारिकता रह जाते हैं, नेता की मर्ज़ी कराए, न कराए, कब कराए, कैसे कराए और खुद को कितने अंतर से विजेता बताए। ऐसा दुनिया के पचासों में देशों में हुआ है, और ठीक ऐसे ही हुआ है।

( पत्रकार राजेश प्रियदर्शी की इस टिप्पणी को उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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