महाकुंभ आयोजन के पहले दिन से ही मेला भ्रमण कर रहा हूं। करीब दो हफ्तों में सौ किलोमीटर पैदल चल चुका हूं। मेले के आरंभ से पूर्व सरकार और मीडिया ने जिस तरह से प्रचार-प्रसार किया था, जमीनी हकीकत उतनी ठीक नहीं थी। इन्फ्लूएंसर्स हाथों में कैमरा लिए, गले में मीडिया पास टांगे ऐसी भागदौड़ कर रहे थे जैसे उन्हें किसी बड़े मिशन की कमान सौंप दी गई थी।
कुछ युवकों से बातचीत करने पर पता चला कि उन्हें मेले की भव्यता और दिव्यता को फिल्माने तथा उसे विभिन्न सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का काम मिला था, इसके लिए सरकार की ओर से उन्हें कितना पैसा दिया जा रहा उसका जिक्र करना मैं जरूरी नहीं समझता।
अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि पिछले कुंभ की तुलना में इस बार के महाकुंभ का बजट काफी अधिक है और फिर इस बार का कुंभ दिव्य और भव्य होने के साथ-साथ डिजिटल भी है। हालांकि डिजिटल के नाम पर सिर्फ सरकार खासकर योगी और मोदी को डिजिटल स्क्रीन पर डिस्प्ले किया जा रहा है। भाजपा शासित प्रदेशों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ , गुजरात के अपने-अपने बड़े-बड़े पंडाल बने हैं जिनमें सरकारी योजनाओं का जी जान लगाकर प्रचार किया जा रहा है।
हालांकि इन प्रदेशों से आई जनता रुकने और आराम पाने के ठिकानों के लिए परेशान होती ही दिखी। सरकार प्रिंटिंग मैटेरियल के जरिए कैलेंडर, बुकलेट और पर्चे बंटवा रही है। गांव देहात से आई जनता इन दृश्यों को देखकर अचंभित है। असल में यही इस कुंभ की भव्यता और दिव्यता है।
करोड़ों की भीड़ को चलते, सुस्ताते और फिर उठकर चलते देख कैलाश गौतम की कालजई रचना ‘अमौसा का मेला’ लगातार मन में चल रही थी। अमावस का स्नान करने जाती हुई जनता के जोश को देखकर ग्रामीण और लोकजन की आस्था की सुंदर छवि मन में बनी।
मगर यह छवि ज्यादा देर नहीं टिक पाई। आधी रात अमावस की काली रात में भीड़ ने आपा खो दिया। दूसरे दिन की सुबह मीडिया खासकर छोटी मीडिया ने इस घटना को सोशल मीडिया पर पोस्ट करना शुरू किया। कुछ ही घंटों में मौत के आंकड़े सामने आने लगे और अब भगदड़ को लेकर सियासी घमासान मच गया है।
सरकार और आला अफसरों की बयानबाजियों के बीच कथावाचक और शंकराचार्य भी भगदड़ की घटना पर बयान देने में पीछे नहीं हैं। मेले की भव्यता में मशगूल कुछ मीडिया का भी दायित्वबोध जगा और वो इस घटना के तह में जाने लगे। घटना की चीरफाड़ करने पर पता चला कि भगदड़ एक जगह नहीं बल्कि हादसे की घटनाएं कई जगह पर हुई थीं।
अब मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़े कुछ भी बताएं मगर जिस तरह के दृश्य सोशल मीडिया में दिखाई दे रहे हैं उससे पता लगाया जा सकता है कि जान-माल का काफी नुकसान हुआ है।
अमौसा का मेला सूना हो गया। भीड़ रातों-रात वापसी करने लगी। मोदी ने अपना दौरा भी रद्द कर दिया। मेला प्रशासन पर सवाल पर सवाल उठने लगे। मगर इस बीच यह जानने और समझने की आवश्यकता है कि आखिर यह घटना घटी कैसे? कोई कह रहा नागा साधुओं के आने की आहट से भीड़ अस्त-व्यस्त हुई तो कोई कह रहा कि कई पीपा पुल सिर्फ़ इसलिए बंद कर दिए गए कि खास लोगों की आवाजाही होने वाली थी। जांच कमेटी भी बन चुकी है और जांच शुरू हो चुकी। देखना यह है कि जांच कमेटी की जांच, आम जांच कमेटियों जैसे सालों साल चलती हैं या फिर घटना घटने के मूल कारण का पता चल पाएगा।
यह मेला डिजिटल है ऐसे में सवाल ही नहीं उठता कि अपनों से बिछड़ गए लोगों की सूचना खोया-पाया केंद्रों पर न मिले। जगह-जगह पर पुलिस बूथ बने हैं। सुरक्षा बलों की तादाद काफी है। फिर जो अपने परिजनों से बिछड़ गए वो कहां गए। जिन शवों की पुष्टि प्रशासन किया है वो शव जिन अस्पतालों में रखे गए हैं वहां मीडियाकर्मियों को या तो जाने नहीं दिया जा रहा या उनसे हाथापाई की जा रही। एक चैनल के पत्रकार के साथ ऐसी ही एक घटना लगातार चर्चा में बनी हुई है।
खोया-पाया केंद्रों पर लोग इस आस में बैठे हैं कि शायद इनका बिछड़ा परिवार उनसे मिल जाए। यह अमावस का नहावन इस बार लोगों के लिए दुखों का पहाड़ बनकर टूटा है। कुछ कथावाचकों के बेतुके बयानों से ऐसा लग रहा कि वो अपना तर्क और विवेक खो चुके हैं। धर्म के नाम पर मौत को जायज ठहराने वाले ऐसे बयानबाजों से देश की दशा किस दिशा को प्राप्त करेगा यह आने वाला समय ही बताएगा।
किसी की गठरी पड़ी है, किसी का बोरा पड़ा है, किसी की चप्पल तो किसी की धोती। दृश्य देखकर ऐसा लग रहा है कि अमावस के नहावन का जो मेला गंगा मैया का गीत गाते लोकमंगल की कामना करते हुए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नापते हुए संगम की रेती तक आ पहुंचा था, उसके सपनों पर पानी फिर गया।
वीआईपी कल्चर ने आम जनमानस को निगल कर रख दिया है। यह सिर्फ मेले की बात नहीं है बल्कि पूरे देश में ऐसी स्थितियां बनती जा रही हैं। किसी को पूरे दल बल के साथ स्नान कराया जा रहा और उसकी मेहमाननवाजी में आम जनता को बीस-तीस किलोमीटर पैदल चलाकर समर्पण और आस्था का नाम दिया जा रहा है।
स्थितियां ऐसी हैं कि गुलब्बन की दुल्हिन के मिलने की उम्मीद कम है। चम्पा चमेली की मीठी नोक-झोंक के भाव किसी कोने में निराश बैठ बिछड़ गई बूढ़ी सास के इंतजार में हैं। किसी का चिमटा टूटा पड़ा है तो किसी का पीढ़ा बेलना। ये सब देखकर अमौसा का मेला गाने की इच्छा नहीं हो रही।
कैलाश गौतम होते तो इस मंजर को देख अपनी इस कालजई रचना को अब से विराम दे देते और कुछ नया रचते, जिसमें दिखती शासन प्रशासन की गैरजिम्मेदारी,अव्यवस्थाओं के दृश्य, गंगा मैया की व्यथा, आस्थावान श्रद्धालुओं का दर्द और वीआईपी लोगों की श्रद्धा का ढोंग।
(विवेक रंजन सिंह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के छात्र हैं।)

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