अब तक कुंभ नगरी इलाहाबाद (नया नाम प्रयागराज) और आसपास के इलाकों से तीर्थयात्रियों के भगदड़ में या भीड़ भरी सड़कों पर किसी दुर्घटना में मरने की खबरें आ रही थीं। लेकिन 15 फरवरी की रात देश की राजधानी के नयी दिल्ली स्टेशन पर हुई अभूतपूर्व भगदड़ में 18 लोगों के मरने और अनेक लोगों के घायल होने की खबर आई है।
कुछ अखबारी खबरों के मुताबिक मृतकों की संख्या और बढ़ने की आशंका है। उधर इलाहाबाद के मेजा थाना क्षेत्र में बस और कार की टक्कर में छत्तीसगढ़ के कोरबा से कुंभ स्नान के लिए जा रहे 10 तीर्थ यात्रियों की कल तड़के मौत हो गयी। 20 लोग घायल बताये गये हैं। कुंभ के लिए जाते या वहां से लौटते हुए अब तक यूपी और आसपास के इलाके में छोटी-बड़ी कई दुर्घटनाएं हो चुकी हैं।
इससे पहले कुंभ मेले में भगदड़ से पिछले महीने 30 से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी। स्थानीय लोगों और मीडिया के एक हिस्से ने मौतों की संख्या इससे काफी ज्यादा होने की आशंका व्यक्त की। पर शासन ने संख्या 30 बताई और अपनी पहली सूचना के बाद कोई तथ्यपरक अपडेट नहीं दिया। जांच में क्या निकला; इसकी भी जानकारी अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई।
भगदड़ या दुर्घटना में जान गंवाने वाले सभी लोग आम लोग हैं। इनमें गरीब भी हैं और मध्य वर्गीय खाते-पीते परिवारों के भी। सभी ‘श्रद्धालु’ हैं! कुंभ के दौरान संगम पर डुबकी लगाकर पुण्य कमाने या मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने ये मेला क्षेत्र जाते हुए या वहां से लौटते हुए अपनी जान गंवा बैठे।
दूसरी तरफ उसी कुंभ में ‘अति विशिष्ट लोगों’ का आना-जाना लगातार बना हुआ है। बहुत सहजता और सहूलियत से अनेक अति-विशिष्ट लोगों (VIPs) की संगम पर डुबकी लगाती तस्वीरें भी दिखी हैं। इनमें बड़े राजनेता (विभिन्न दलों के) काॅरपोरेट घरानों के लोग, फिल्म-टीवी के कलाकार, बड़े अफसर, उनके परिवार और टीवी चैनलों के कथित पत्रकार भी शामिल हैं।
एक ही धर्म के मानने वाले ‘श्रद्धालुओं’ की ये दो श्रेणियां इस कुंभ के दौरान बहुत प्रमुखता से नजर आई हैं। यानी हमारे समाज में सिर्फ आर्थिक और सामाजिक स्तर पर ही असमानता नहीं है, वह धार्मिक मामलों में भी है। धार्मिक मामलों में जो असमानता है, उसके लिए आर्थिक असमानता ही मूल कारक है।
‘बड़े लोगों’ के लिए बड़ी व्यवस्था और साधारण लोगों के लिए डंडे वाली सामान्य व्यवस्था! रेलवे स्टेशनों और मेले में भी पुलिस को श्रद्धालुओं पर डंडे बरसाते देखा गया है। श्रद्धा और डंडे (हिंसा) का यह द्वन्द्व धार्मिकता की कैसी छवि पेश करता है?
आम श्रद्धालुओं और अतिविशिष्ट तीर्थयात्रियों की बड़े पैमाने पर जैसी श्रेणीबद्धता इस बार दिखी है; वह शायद पहले कभी नहीं दिखी। लोगों का कुंभ में बड़े पैमाने पर आने का आह्वान करने वालों की ये कैसी धार्मिकता है कि भगदड़ या भीड़ बढ़ने से हो रही दुर्घटनाओं में मरने वाले की सही-सही संख्या और वाजिब मुआवजा आदि पर अब भी संदेह और सवाल उठ रहे हैं। अखबारों और वेबसाइटों में मृतकों के परिजनों के ऐसे बयान बार-बार आ रहे हैं।
शासन ने जिस तरह इस कुंभ में लोगों से आने का आह्वान (बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिये) किया, वह भी अभूतपूर्व है। इस बार के कुंभ की ‘धार्मिक विशिष्टता’ को भी खूब विज्ञापित किया गया। श्रद्धालुओं में इस कुंभ के महाकुंभ होने और 144 साल के अंतराल पर लगने के प्रचार का भी काफी असर पड़ा।
अलग-अगल कोने से अपार भीड़ उमड़ पड़ी। पर उस भीड़ के प्रबंधन के लिए इलाहाबाद और आसपास के इलाकों में जरूरी ढांचा और तंत्र नहीं दिखा। जो ढांचे बने, उनका भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया गया।
मेले की शुरुआत से पहले भीड़ के प्रबंधन (Crowd Management) के बड़े-बड़े दावे किये गये थे लेकिन जब भीड़ आई तो वे सारे प्रबंधकीय दावे धराशायी हो गये। एक ही समय, एक ही स्थान पर इतनी बड़ी भीड़ का बेहतर प्रबंधन शायद हमारे लिए संभव भी नहीं था। असीमित संख्या में लोगों के आवागमन और ठहराव की अपनी सीमा होती है। पर शासन ने इस पहलू को पूरी तरह नजरंदाज किया।
अलग-अगल ढंग की प्रभावशाली संस्थाओं और खास लोगों द्वारा आम लोगों के बीच यह संदेश प्रसारित होने दिया गया कि अमुक स्थान पर या अमुक दिन डुबकी लगाने से ‘मोक्ष का मार्ग प्रशस्त’ होगा! यह सब ऐसे समाज में प्रचारित किया गया, जिसके मध्यकालीन संत-महात्मा तक कहा करते थे: ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा!’ पर इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में जोर-शोर से कहा गया कि ‘मोक्ष का मार्ग’ कुंभ आकर प्रशस्त होगा!
हमारे महान संतों की विरासत और आधुनिक संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा का ही नतीजा है कि हमारे समाज में आज आधुनिक शिक्षा के विस्तार के बावजूद लोगों के बड़े हिस्से में मानवीय-धार्मिक सोच और ‘वैज्ञानिक मिजाज’ या दृष्टिकोण जैसे संवैधानिक मूल्य की बहुत कमी है।
इसके लिए शासकीय स्तर पर कोई प्रयास भी नहीं होता। इसका फायदा उठाकर तरह-तरह के लोग अंधविश्वास, तथ्यहीन-अतार्किक बातों और अनर्गल प्रलापों के प्रचार-प्रसार में जुटे दिखते हैं। इस तरह के प्रचार-प्रसार की मानो पूरी ‘इंडस्ट्री’ खड़ी हो गयी है।
हमारे समाज में बहुत सारे लोग ऐसे भ्रामक प्रचार-प्रसार में बह जाते हैं। धर्म और धार्मिक-आस्था की जगह वे अंधविश्वास, संकीर्णता और कर्मकांडी-कूपमंडूकता की तरफ भटक जाते हैं। ऐसा भटकाव दुनिया के किसी भी हिस्से के अलग-अलग धर्मावलंबियों में देखा जा सकता है। ऐसे भटकाव धर्म और समाज दोनों के लिए घातक साबित होते हैं। स्वामी विवेकानंद ने बार-बार हमारे समाज को ऐसे भटकावों के प्रति आगाह किया था।
कुंभ के दौरान कुप्रबंधन के चलते हुई आम लोगों की ये मौतें बेहद दुखद तो हैं ही, ये हमारे लिए गहरी चिंता का विषय भी है कि इक्कीसवीं सदी में हमारे समाज और सत्ता के संचालक मुल्क और अवाम को किधर हांक रहे हैं! निश्चय ही मनुष्यता और धार्मिकता दोनों को आज भगदड़, भीड़तंत्र और भयतंत्र से बचने और बचाने की जरूरत है!
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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