जनता को ईवीएम से बदल दिया गया तो अब लोकतंत्र का आसरा बैलेट पेपर

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अब कांग्रेस और इंडिया अलायंस बैलेट पेपर की मांग कर रही है। इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। इसी से लोकतंत्र की वास्तव समस्या का कोई समाधान निकल आये, क्या पता! वैसे धन और धर्म का जैसा इस्तेमाल चुनावों में होने लगा है इस का भारत की संवैधानिक आकांक्षा से छत्तीस का संबंध है। इन दिनों जिस तरह से संविधान की प्रस्तावना में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गये ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ को लेकर जैसा शोर मचाया जाता रहा है उसे सुप्रीम कोर्ट के फैसला के बाद अब थम जाना चाहिए। कल्याणकरी राज्य के चरित्र के रूप में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता संविधान की बुनियाद है। लेकिन चिंता की बात भी तो यही है कि किसी-न-किसी बहाने से संविधान की बुनियाद पर चोट करने की राजनीतिक प्रवृत्ति पिछले दिनों बहुत ज्यादा सक्रिय रही है।

ब्रतोल्त ब्रेख्त ने अपनी कविता में लिखा कि सरकार का विश्वास जनता पर से उठ गया है, इस जनता को बदल दिया जाना चाहिए। फासीवाद के माहौल में लिखी इस कविता में फासीवाद का मनोवैज्ञानिक पहलू उभरा है। सामान्य रूप से यह मान्यता है कि सरकार पर विश्वास न रह जाने पर जनता सरकार को बदल देना चाहती है, बदल भी देती है। यह लोकतंत्र का सामान्य नियम है। लेकिन फासीवाद की मूल प्रवृत्ति जनता को ही बदल देने की होती है।

यह ठीक है कि अभी भारत में फासीवाद के सिर्फ पांव दिखे हैं और लेकिन यह प्रवृत्ति बहुत तेजी से सक्रिय हो गई है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के शासन में जनता को बदल देने की इच्छा की उत्कटता शुरू में ही साफ-साफ दिखने लगी थी। कहना न होगा कि कम-से-कम इस संदर्भ में जनता को बदलने का मतलब जनता की जीवन-स्थितियों को बदल कर सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की स्थिति बहाल करना नहीं है।

जनता को बदलने में सरकार बनाने के लिए विभिन्न दलों से जुड़े उम्मीदवार को चुनने की प्रवृत्ति को राजनीतिक आवारगी करार देकर अपने पक्ष में सदा के लिए अपने पक्ष में कर लेने का मनोभाव होता है। इस मनोभाव में जनता की इच्छा पर सरकार के सरकार न रहने की संभावनाओं को समाप्त करना और सरकार की इच्छा पर जनता के जनता बने रहने की राजनीतिक स्थितियों को बहाल करने का इरादा है। जो लोग सरकार की निकृष्ट इच्छा के अनुकूल नहीं होते हैं उन्हें सीधे घुसपैठिया घोषित कर दिया जाता है। सरकार की कार्रवाइयों के साथ असहमत जनता को समेट लेने का मनोभाव इस इरादा में सक्रिय रहता है।

हर जगह, जहां वे अंगुली रखते हैं, उन्हें मंदिर और घुसपैठिया के होने का भारी विश्वास हो जाता है। जो उनके स्थाई समर्थक नहीं, वे सब घुसपैठिये हैं। हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव बनाकर मुसलमानों को तो किसी झिझक के बिना सीधे घुसपैठिया घोषित कर दिया जाता है। बाकी लोग जो उन के साथ नहीं होते हैं उन्हें सीधे घुसपैठिया नहीं भी तो ‘देश द्रोही’ जरूर करार दिया जाता है। निश्चित ही घुसपैठिया समस्या है और पूरी दुनिया में है। अभी डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के ‘महामहिम राष्ट्रपति’ चुने जाने के साथ ही उन्होंने सब से पहले घुसपैठिया समस्या की भी चर्चा की। उन की इस चर्चा की ‘कर्कश प्रतिध्वनियां’ पूरी दुनिया में गूंजने लगी, अनुगूंज भारत में भी सुनाई दी।

लेकिन भारत की सरकार जिस अमानवीय तेवर, मिथ्या तथ्य और बेतरतीब तरीके से स्थाई बहुमत के जुगाड़ की अपनी राजनीतिक परियोजना के तहत घुसपैठिया समस्या उठाती रहती है, वह बहुत आपत्तिजनक है। भारत की घुसपैठिया समस्या के पीछे की कहानियां देश विभाजन की पीड़ा से जुड़ी हुई हैं। अपने ही देश के विभाजित हिस्से की आबादी को स्थाई दुश्मन की तरह से पेश करना न सिर्फ आपत्तिजनक है बल्कि प्रगति-रोधी और भयानक भी है।

इतना बड़ा और विविधताओं से भरा देश है तो इस में जटिलताओं और समस्याओं की क्या कमी है! इस की स्वाभाविक जटिलताओं और समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ बरतने के बदले इसे राजनीतिक आयुध के रूप में इस्तेमाल करना न सिर्फ देश की एकता के लिए खतरनाक है बल्कि देश में स्थाई रूप से नफरती माहौल, आशंकाओं, पारस्परिक अविश्वास में लोगों को फंसाये रखने जैसा है।

मुख्य धारा की मीडिया के संचालकों और संयोजकों का कहना है कि मीडिया विपक्ष का काम नहीं कर सकता है। न्याय-पालिका भी मानना है कि वह विपक्ष का काम नहीं कर सकती है। नौकरशाही भी यही मानना है कि वह विपक्ष का काम नहीं कर सकती है। व्यावसायिक घराने क्यों विपक्ष का काम करें भला! तो विपक्ष का काम कौन करे! या यह भी कि जब विपक्ष का काम अकेले विपक्ष ही क्यों करे और कैसे करे? इस तरह की मनोवृत्ति बहुसंख्यकवादी सोच से निकलती है और उसी को मजबूत करती है।

लोकतंत्र में ‘एक-मतवाद’ के खिलाफ ‘बहुमतवाद’ की मान्यता तो होती है, लेकिन बहुसंख्यकवाद की मान्यता नहीं होती है। बहुसंख्यकवाद प्रथमतः और अंततः सर्वसत्तावाद और फासीवाद का ही रास्ता पकड़ लेता है। बहुसंख्यकवाद, सर्वसत्तावाद और फासीवाद एक ही निर्मिति के तीन आयाम हैं। मीडिया, न्याय-पालिका, नौकरशाही विपक्ष का काम न करे यह तो ठीक है लेकिन वह संविधान और संसद का भी ‘काम’ न करे तो क्या कहा जाये! मीडिया, न्याय-पालिका, नौकरशाही आदि कम-से-कम यह तो सुनिश्चित करें कि संविधान और संसद ठीक से काम कर सके।

नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट मंत्री की हैसियत संविधान देता है। इस का मतलब तो यही हो सकता है कि नेता प्रतिपक्ष भी एक तरह से सरकार का हिस्सा होता है। यह ठीक है कि नेता प्रतिपक्ष का नजरिया भिन्न और वैकल्पिक होता है। भिन्न और वैकल्पिक को विरुद्ध नहीं माना जा सकता है। लेकिन जहां सरकार भिन्न और विकल्प के प्रति दुश्मनी का भाव रखती है वहां यह सब सोचना निरर्थक है। वैसे, कायदे से कैबिनेट मंत्री की हैसियत होने के कारण नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट की बैठक में भी शामिल किया जाना चाहिए। क्या यह बिल्कुल बेकार की बात है! शायद हां।

क्या उम्मीद की जाये जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो खुद विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों को जनता के द्वारा अस्वीकार्य और ‘मुट्ठी भर लोग’ बताते हैं। ये जनता के द्वारा अस्वीकार्य होने पर जन-प्रतिनिधि कैसे बनते! और जन-प्रतिनिधि नहीं होते तो संसद में कैसे बैठते! असल में सत्ता पक्ष के जन-प्रतिनिधियों के द्वारा अस्वीकार्य को वे जनता के द्वारा अस्वीकार्य बताते हैं। विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों को अस्वीकार्य बताने पर मीडिया और खासकर मुख्य धारा की मीडिया के द्वारा आपत्तिजनक न मानना किसी अचरज में अब नहीं डालता है।

अनुमान, बस अनुमान किया जा सकता है कि वे बेहतर जानते होंगे कि संसद में जन-प्रतिनिधि नहीं, जन-प्रतिनिधि के रूप में अब ईवीएम-प्रतिनिधि बैठते हैं। जन-प्रतिनिधियों के अधिकार को खारिज करना उन्हें चुननेवाली जनता को खारिज करने के अलावा और क्या हो सकता है! मान-हानि मामले में दो साल की इरादतन सजा किये जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देते हुए इस के पीछे के इरादा को समझ लिया था। न सिर्फ समझ लिया था, बल्कि उजागर भी कर दिया था।

आजादी के समय राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस को निर्णायक महत्व प्राप्त था, जो स्वाभाविक रूप से संविधान सभा में भी था। उस समय हमारे दूर-दृष्टि संपन्न पुरखों ने विपक्ष के महत्व को काफी गहराई से समझ लिया था। संसदीय व्यवस्था में वोट देनेवाले और नहीं देनेवाले समस्त जनता की तरफ से काम करने का जनादेश सरकार को प्राप्त होता है। उसी तरह से वोट देनेवाले और न देनेवाले की तरफ से काम करने का जनादेश प्रतिपक्ष को भी प्राप्त होता है।

सरकार, प्रतिपक्ष, न्याय-पालिका, संवैधानिक संस्थाएं, मीडिया सभी को संविधान और संसद की भावनाओं की पारस्परिक अनुकूलता में काम करना चाहिए। पारस्परिक अनुकूलता बंधुतापूर्ण भाव से संभव होता है, शत्रुतापूर्ण भाव से नहीं। बंधुतापूर्ण भाव शांति-पूर्ण माहौल में संभव होता है। इस बीच जिस प्रकार का शत्रुतापूर्ण भाव विकसित हो गया है या जान-बूझकर विकसित किया गया है उस में शांति-पूर्ण माहौल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वैसे भी कुछ लोगों में शांति के फूल से अधिक अशांति के कांटों का आकर्षण होता है।

अब जाकर कांग्रेस और इंडिया अलायंस ने ईवीएम (Electronic Voting Machines) से चुनाव के बदले बैलेट पेपर से चुनाव की मांग पर जोर देना अब शुरू किया है। इस की उम्मीद कम ही है कि सहज ही यह मां मान ली जाये, मांग न माने जाने पर धरना-प्रदर्शन-आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ जायेगा। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने संविधान दिवस के अवसर पर घोषणा की।

हालांकि इस के पहले नागरिक समाज और संगठनों से बैलेट पेपर पर चुनाव की मांग होती रही है। ईवीएम (Electronic Voting Machines) को कांग्रेस के शासन-काल में ही लगाया था, तब भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने न केवल विरोध किया था, बल्कि जीवीएल नरसिम्हा राव ने ईवीएम पर अविश्वास करते हुए लोकतंत्र खतरे में जैसी किताब भी लिखी थी, जिस की प्रस्तावना भारतीय जनता पार्टी के महत्वपूर्ण नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी।

तब उन्हें क्या पता था कि एक दिन भारतीय जनता पार्टी इस के बल पर इतरायेगी और जी-जान से इसे चुनाव प्रक्रिया से जोड़कर राजनीति में कमल खिलाने का कमाल करेगी और कांग्रेस इस से मुक्ति पाने के लिए छटपटायेगी! इसे कहते हैं, विडंबना! भारतीय जनता पार्टी के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईवीएम (Electronic Voting Machines) के माध्यम से जनता को बदल दिया अब ईवीएम ही जनता है।

अब कांग्रेस और इंडिया अलायंस ने बैलेट पेपर चुनाव का मन बना लिया है तो नागरिक समाज और संगठनों को भी इस का समर्थन करना चाहिए। ईवीएम के सही या गलत होने की बहस के उलझाव में पड़े बिना अब इसे व्यवहार से बाहर कर दिया जाना चाहिए। सवाल सही-गलत से अधिक विश्वसनीयता का है। लोकतंत्र में ‘तंत्र’ पर ‘लोक’ का विश्वास न हो तो, बुरा हाल होता है।

लोकतंत्र में सापेक्षिक समानता, सहकारिता, सहिष्णुता और पारस्परिक सहयोग, सह-अस्तित्व की भावना और बंधुतापूर्ण व्यवहार का बड़ा महत्व है। इन सब का आधार विश्वास है। गलत इरादों से किया जानेवाला सांठ-गांठ, मिलीभगत जीवन सब से बड़ा विश्वास-भंजक सहमिलानी संस्कृति में विष की तरह होता है। यह ठीक है कि कोई भी सरकार आदर्श नहीं होती है लेकिन जीवनयापन की कुछ तो परवाह करे सरकार! ऐसा भी नहीं है कि बैलेट पेपर से चुनाव होने पर सब अपने-आप ठीक हो जायेगा लेकिन वह विश्वास तो लौटेगा जो कि उठ गया है।

बैलेट पेपर के लौटने पर क्या फर्क पड़ता है, देखा जाना चाहिए। पहले तो यह कि बैलेट पेपर लौटे! समस्याएं और भी हैं लेकिन ईवीएम के कारण उत्पन्न विश्वास-हीनता की समस्या का समाधान तत्काल जरूरी है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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