Friday, March 29, 2024

आईआईईडी की रिपोर्ट: पर्यावरण की मार, मनरेगा से आस

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फाॅर एनवाॅयरमेंट एण्ड डेवलपमेंट (आईआईईडी) ने अपने मई, 2023 की ‘ब्रीफिंग’ में एक रिपोर्ट जारी किया है। यह रिपोर्ट किसानों की घटती आय, आत्महत्या, पलायन और बदलते पर्यावरण के असर को चिन्हित करती है। यह रिपोर्ट सूखा प्रभावित पांच राज्यों के 2014-15 से 2020-21 तक के अध्ययनों पर आधारित है। रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तेलंगाना में बारिश की कमी के दौरान किसानों में आत्महत्या की दर में वृद्धि देखी गई। 2021 के क्राइम ब्यूरो का रिकॉर्ड बताता है कि देश में कुल आत्महत्या करने वाले लोगों में 15.08 प्रतिशत किसान थे। इस रिपोर्ट के अनुसार निम्न-मध्य आय वाले देशों में होने वाली कुल आत्महत्याएं विश्व की कुल आत्महत्याओं का 75.5 प्रतिशत है, और इसमें भारत अकेले 26.6 प्रतिशत का हिस्सा बंटाता है। यहां उन्हें किसान माना गया है जो खेती के काम में लगे हुए हैं।

यह रिपोर्ट किसानी के हालात, उसे जटिल बनाने वाली पर्यावरण और इस सबसे बचाने वाली संरक्षणात्मक तत्वों के संबंधों की पड़ताल करती है। इसके अनुसार 85 प्रतिशत किसान छोटे या सीमांत हैं और इनकी अर्थव्यवस्था जीने भर की ही रहती है। नकद खेती के दबाव में ये किसान कपास के उत्पादन में ज्यादा रुचि लेते हैं। इस समय भारत दुनिया का 23 प्रतिशत कपास पैदा कर रहा है। इसमें छोटे किसानों की भागीदारी ज्यादा है। बीटी काॅटन के उत्पादन में कीटनाशक और पानी की जरूरत ज्यादा होती है। उपरोक्त राज्यों में एक तरफ बीटी काॅटन का प्रयोग 93.35 प्रतिशत की दर से बढ़ा है, वहीं 2021-22 में इसकी उत्पादकता विश्व औसत उत्पादन दर से नीचे 60 प्रतिशत ही है।

कपास उत्पादन के लिए जरूरी नकदी की व्यवस्था ज्यादातर खुद की बचत और ऋण से पूरा किया जाता है। पर्यावरण का समर्थन न मिलने से ऋणग्रस्तता बढ़ने के आसार अधिक हो जाते हैं। जैसे-जैसे किसान ऋणग्रस्त होता है, उसके ऊपर अन्य तत्वों का प्रभाव बढ़ता जाता है और आत्महत्या की प्रवृत्तियां मजबूत होने लगती हैं। सामाजिक तत्वों में ड्रग/शराबखोरी, सामाजिक प्रतिष्ठा में हो रही कमी, परिवार के झगड़े और परिवार के सदस्यों का बीमार होना महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन, शिक्षा सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन अपरोक्ष तरीके से भूमिका जरूर निभाती है। खासकर, सरकारी योजनाओं की जानकारी में कमी और अन्य रास्तों को तलाशने में असफलता भी किसान को विकल्पहीनता की ओर ले जाता है और उसे अवसादग्रस्त बना देता है।

2020-22 में देश का दो तिहाई हिस्सा सूखे के प्रभाव में आया है। इसमें महाराष्ट्र, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ का क्रमशः 62, 44 और 76 प्रतिशत हिस्सा सूखा प्रभावित हुआ। यह रिपोर्ट बताती हैं कि उपरोक्त पांच राज्यों में बारिश की घटती के साथ आत्महत्या की दर में बढ़ोत्तरी हुई है। 2016-17 से 2021-22 के बीच बारिश की असामान्य स्थिति और कम बारिश दोनों से ही फसल का एक तिहाई या उससे अधिक का नुकसान हुआ। ऐसे में सीमांत किसानी, ऋणग्रस्तता, खाद्य असुरक्षा, गरीबी का दबाव जैसे तत्व फसल की बर्बादी के साथ प्रभावी हो उठते हैं और इसका असर किसान के व्यक्तिगत जीवन पर पड़ता है जिसमें वह अवसादग्रस्त होने और कई मामलों में आत्महत्या की ओर बढ़ जाता है।

निश्चय ही पर्यावरण का असर खेती को ज्यादा जोखिम भरा बना दिया है, और इसका असर खतरनाक है। इससे बचने के लिए यह रिपोर्ट सामाजिक सहयोग कार्यक्रम चलाने की बात करती है। इसमें भी, इसका खास जोर मनरेगा के 100 दिन के काम की योजना को प्रभावी तरीके से लागू करने पर है। इसके शोधकर्ता अपने शोध अवधि 2014-15 से 2020-21 में आंकड़ों से रोजगार की अवधि और आत्महत्या की दर में एक रिश्ता देखा है। उनके अनुसार रोजगार अवधि बढ़ने से आत्महत्या की दर में कमी दिखती है, और यह इसके उलट भी सही है। उपरोक्त पांच राज्यों में मनरेगा द्वारा रोजगार उपलब्ध कराने की वजह से आत्महत्या में कमी देखी गई है।

इस रिपोर्ट के अनुसार रोजगार, जीवन जीने का विकल्प खुला रखता है, आय का स्रोत बन जाने से भोजन की समस्या कुछ हद तक हल हो जाती है। दूसरे, यह भी कि मनरेगा के कामों की वजह सिंचाई और जमीन विकास की योजनाएं लागू होने से सूखे का असर भी सामान्य से कम हो जाता है। वह अपने आंकड़ों के आधार पर बताते हैं कि मनरेगा के तहत 5 करोड़ कार्य दिवस से बढ़ाकर 15 करोड़ कार्य दिवस होने से प्रतिवर्ष होने वाली 1800 आत्महत्या गिरकर 398 हो गयी थी। हालांकि रिपोर्ट सरकार से किसानों के जोखिम कम करने वाली अन्य योजनाओं को लागू करने की भी मांग करती है। यह रिपोर्ट फसल बीमा की कमी को भी चिन्हित करती है जिसमें फसल के नुकसान के साथ साथ किसानों की कुल आय में होने वाली कमी और सामाजिक-आर्थिक नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती है।

जाहिर है, किसानों के लिए एक व्यापक योजना जरूरी है। यह रिपोर्ट भारत की मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 को ठीक से लागू करने की भी मांग करती है। गांव इस तरह की स्वास्थ्य सुविधाओं से काफी दूर हैं। इसके लिए वह प्रशिक्षण और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों को तैयार करने की मांग करती है। यह रिपोर्ट बदल रही किसानी के साथ किसानों के सामाजिक सुरक्षा और पर्यावरण से होने वाले नुकसानों के संदर्भ में संसाधनों की संरक्षा पर जोर देती है। खासकर, किसानों के लिए संरचनागत विकास की मांग यह रिपोर्ट करती है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि 2020 में खेती-किसानी से जुड़े 10,677 लोगों ने आत्महत्या किया था। मजदूरों की आत्महत्या में भी तेजी से वृद्धि हो रही है।

इस साल अल नीनो का प्रभाव देखा जा रहा है और इसका असर 2029 तक रहने वाला है। साइंस पत्रिका के अनुसार इसका दुनिया की अर्थव्यवस्था पर 3 ट्रिलियन डाॅलर का असर पड़ेगा। अकेले अमेरीका की अर्थव्यवस्था, उसके सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज होने की संभावना है। भारत का मौसम विभाग बता रहा है कि अल नीनो का मई-जुलाई में असर दिखेगा। उनके अनुसार इसके असर की संभावना 70 प्रतिशत है, और मानसून पर बहुत खराब असर नहीं दिखेगा। भारत के 700 जिले इससे प्रभावित होंगे। मौसम विभाग ने सरकार से इससे निपटने के लिए जरूरी कदम उठाने के लिए सलाह जारी कर दिया है। खरीफ की फसल भारत की कुल वार्षिक खाद्य आपूर्ति में आधे की हिस्सेदारी करता है। खरीफ फसल में उत्पादन में होने वाली कमी से किसान तो प्रभावित होंगे ही, आम लोगों को भी मूल्य-वृद्धि से होने वाले नुकसान को झेलना पड़ेगा।

भारत में आमतौर पर खाद्य पदार्थाें के दाम में वृद्धि एकल नहीं होती है, यह पूरे खाद्य बाजार पर असर डालती है। रिजर्ब बैंक के अनुसार अल नीनो के प्रभाव के चलते 2023-24 में मूल्य-वृद्धि की दर 5.0 से 5.6 प्रतिशत रहने की आशंका है। ऐसे में, जरूरी है कि खाद्य-सुरक्षा, फसल की सुरक्षा, पानी और अन्य संसाधनों की व्यवस्था को दुरुस्त किया जाये। मजदूरों, खासकर खेतिहर मजदूरों, छोटे और सीामांत किसानों के लिए रोजगार की सुविधा उपलब्ध कराई जाये और बढ़ती मंहगाई की दर के अनुपात में मजदूरों की आय और मजदूरी सुनिश्चित किया जाये।

इससे भी अधिक, खेती पर लगातार बड़ी संख्या में निर्भर श्रम को सामूहिक खेती की व्यवस्था में ले जाया जाये। इसके लिए जरूरी है कि खेती की चली आ रही संरचना में बदलाव लाया जाये और सामूहिक खेती के माॅडल को लागू किया जाये। बहरहाल, पिछले आठ सालों से राज कर रही मोदी सरकार किसानों की आय दुगुनी करने का वायदा ही पूरा नहीं कर सकी। यह सरकार किसानों पर लगातार पड़ने वाले विविध दबावों को कम करने की बजाय, किसानों को दबाव से मुक्त करने के लिए कॉरपोरेट खेती का ही दबाव डालने में लग गई। ऐसे में जरूरी है कि किसान इस संदर्भ में अपने संसाधनों को सुरक्षित करते हुए सामूहिक तौर पर पर्यावरण और अंतर्राष्ट्रीय बाजार के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए खुद पहलकदमी करे और नये तरह की किसानी का आगाज करें।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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