ग्राउंड रिपोर्ट: झारखंड में मजदूरों को नहीं मिलती न्यूनतम मजदूरी, घर चलाना भी मुश्किल

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रामगढ़। झारखंड के रामगढ़ जिले के अन्तर्गत आता है मांडू प्रखंड जिसका एक गांव है कंजी। यहां बसते हैं आदिवासी समुदाय की बेदिया जनजाति के लोग। जिनका मुख्य पेशा मजदूरी है। कुछ लोग खेती-बाड़ी भी करते हैं। बावजूद इसके ये लोग मजदूरी को प्राथमिकता इसलिए देते हैं क्योंकि रामगढ़ जिला कारखानों का हब माना जाता है। रामगढ़ जिले में लगभग 100 से अधिक फैक्ट्रि‌यां हैं। यहां इफ्को ही एकमात्र सरकारी उपक्रम का कारखाना है। यहां ‘जनचौक’ निकला यह जानने के लिए कि इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति क्या है?

दिन के दो बजे थे। रास्ते में मिल गए बेदिया (बदला हुआ नाम) जो कंजी गांव के निवासी हैं। वो पहली शिफ्ट का काम करके घर लौट रहे थे। साइकिल का पायडल मारते वे जल्द से जल्द घर लौटने के लिए चले जा रहे थे। बेदिया को मैंने रोका और बताया कि मैं पत्रकार हूं और यहां फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति जानने निकला हूं।

वो रूके तो लेकिन जैसे ही मैंने कैमरे का रूख उनकी तरफ किया तो कहने लगे “देखिए मेरा फोटो अगर छपेगा तो हो सकता है कंपनी हमे काम से निकाल दे। क्योंकि 4 साल चार पहले ऐसे ही किसी ने हम लोगों से हमारी परेशानी पूछी और हमने बताया, खबर छपी, कम्पनी से पूछताछ हुई। उसके बाद कंपनी ने मेरे सहित करीब 15 लोगों को नौकरी से निकालने की धमकी दी। किसी तरह हम लोगों को फिर से रख लिया”।

उन्होंने काफी देर बाद किसी तरह बताया कि उन्हें 334 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है। यह पूछे जाने पर कि इतने में आपके पूरे परिवार का भरण-पोषण हो जाता है? वे बोले- “होता तो नहीं हैं लेकिन किसी तरह काम चलाना पड़ता है। एक बेटा बाहर काम करता है। एक बेटी की शादी हो गई है। हम अभी घर में तीन लोग हैं। लगभग 50 वर्ष की पत्नी घर के काम-काज के साथ इधर-उधर का भी काम कर लेती है।”

रामगढ़ की फाउंड्री फैक्ट्री

बेदी बिहार फाउंड्री में काम करते हैं। बिहार फाउंड्री रामगढ़ जिले के मरार इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित है। यह इफ्को के दूसरी तरफ है। बिहार फाउंड्री में लगभग 1200 सौ मजदूर काम करते हैं। यहां झारखंड सरकार द्वारा निर्धारित दैनिक मजदूरी ही लागू है। वहीं इफ्को में लगभग 600 मजदूर काम करते हैं। जिसमें 150 स्थाई मजदूर हैं। बाकी ठेका मजदूर हैं। छोटी-छोटी दो-तीन फैक्ट्रियां और हैं, जिनमें कुल मिला कर 2 दर्जन अस्थायी मजदूर हैं।

और आगे बढ़ने पर रास्ते में एक व्यक्ति साइ‌किल से आते हुए दिखते हैं। हम उन्हें रोकते हुए पूछते हैं आप कहां से आ रहे हैं? वह अपना परिचय देते हुए बताते हैं कि वह नई सराय के सीसीएल के अस्पताल में साफ-सफाई का काम करते हैं और अभी काम से घर लौट रहे हैं। नाम फूलेश्वर मुंडा है। वह बताते हैं कि रामगढ़ जिले के मांडू प्रखंड के बुमरी गांव के रहने वाले हैं और सीसीएल अस्पताल की साफ-सफाई का ठेकेदार के अंडर काम करते हैं।

फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर किस्टो वेदिया

उन्हें 280 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है। फुलेश्वर आदिवासी है और उसके दो बच्चे हैं। एक लड़‌का जो इंटर करने बाद पढ़ाई छोड़ काम की तलाश में भटक रहा है। लड़की मैट्रिक कर चुकी है। 280 रुपये में घर का काम चल पाता है पूछने पर फुलेश्वर बताते हैं कि “कैसे काम चलेगा इतनी महंगाई में। पत्नी भी घर के काम से फुर्सत निकाल कर इधर-उधर का काम कर लेती है और कुछ पैसे का जुगाड़ कर लेती है।”

मनरेगा और जॉब कार्ड के बारे में उनका कहना था कि “जॉब कार्ड नहीं है, कभी-कभी ठेकेदारों द्वारा दूसरे लोगों के नाम पर काम करवाने के लिए ले जाया जाता है, लेकिन पैसा समय पर नहीं मिलता है। एक सप्ताह काम कराने के बाद 300-400 रुपये दे देते हैं। कभी-कभी तो वह भी नहीं देते हैं। इसलिए मनरेगा का काम नहीं करते हैं।” फूलेश्वर कहते हैं उनके पास मनरेगा के लिए दो बैंक खाता है, लेकिन उसमें भी पैसा नही भेजा जाता है।

हम इन्डस्ट्रियल एरिया पहुंचते हैं मगर वहां फैक्ट्रियों से निकलता धुंआ और गाड़ियों के चलने से उड़ने वाले धूल-कण के प्रदूषण हमें इन फैक्ट्रियों के आसपास भी रूकने की इजाजत नहीं दे रहे थे। मजबूरन हम दूसरे रास्ते से आगे बढ़ते हैं।

इन फैक्ट्रियों से कुछ ही कदम की दूरी पर बस्तियों की शक्ल में मकानों की कतार मिलती हैं। उन्हीं कुछ मकानों में छोटे छोटे होटल, राशन की दुकानें खुली हुई हैं। इतने प्रदूषित वातावरण में भी लोग मजे से रह रहे थे।

फैक्ट्री से निकलता प्रदूषित धुंआ

हम एक राशन की दुकान पर खड़े होते हैं। फैक्ट्रियों के प्रदूषण से होने वाली परेशानियों पर दुकानदार बताने लगते हैं “जी, गांव के बगल में फैक्ट्रियां नहीं बल्कि फैक्ट्रियों के बगल में गांव बस गया है। फैक्ट्रियां बहुत पहले से यहां हैं और हम लोग बाद में आकर यहां बसे हैं। अब इस प्रदूषण से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। वहां कुछ देर रुकने के बाद हम आगे बढ़ जाते हैं। और सीधे मुख्य सड़क पर बिंझार आते हैं। वहां विनोद कुमार बेदिया मिलते हैं।

विनोद कुमार बेदिया पहले तो कुछ भी बताने से इंकार करते हैं, लेकिन थोड़ी औपचारिक बातचीत के बाद वे अपनी समस्या बताने को तैयार हो जाते हैं। बिनोद रामगढ़ जिले के ही हेसला गांव के निवासी हैं। हेसला रामगढ़ जिला परिषद के अन्तर्गत आता है। वे बताते हैं कि वे इफ्को में ठेकेदार के अंदर काम करते हैं। उन्हें 330 रुपये दैनिक मजदूरी के तौर पर मिलते हैं। पति-पत्नी के अलावा उनके तीन बच्चे हैं। खर्चा नहीं चल पाता है।

पांच लोगों का भोजन ही बड़ी मुश्किल से चलता है। वे बताते हैं कि उन्हें पार्ट टाइम किसी न किसी दुकान में काम करना पड़ता है। उन्हें थोड़े बहुत इलेक्ट्रोनिक का ज्ञान है इसलिए इलेक्ट्रोनिक की किसी दुकान में काम कर लेते हैं, कुछ पैसा मिल जाता है, तो किसी तरह काम चल जाता है। फिर भी इस महंगाई में काफी परेशानी से घर चलता है।

फाउंड्री फैक्ट्री में कार्य करने वाले विनोद वेदिया

बातचीत के क्रम में वहीं पर एटक से जुड़े एक मजदूर किस्टो बेदिया मिलते हैं। किस्टो बिहार फाउंड्री के कुशल मजदूर हैं, और रामगढ़ जिले के फूलसराय के निवासी हैं। किस्टो बताते हैं कि “कंपनी में तीन स्तर की मजदूरी है। कंपनी झारखंड सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के तहत अकुशल मज़दूर को 400 रुपये, अर्ध कुशल मजदूर को 420 रुपये और कुशल मजदूर को 558 रुपये दैनिक मजदूरी देती है।”

वो कहते हैं कि “इतना कम में घर चलाना मुश्किल है। मुझे कुशल मजदूर की मजदूरी मिलती है फिर भी घर चलाना मुश्किल हो जाता है। महंगाई को देखते हुए मजदूरी बढ़‌नी चाहिए।”

किस्टो बेदिया की माने तो यहां की कंपनियां भले ही झारखंड सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी देने का राग अलापती हों लेकिन मजदूरों से बातचीत के बाद जो मामला उभर कर सामने आया है वह मजदूरों के शोषण का खुला दस्तावेज है। सवाल यह है कि इस महंगाई में मजदूर कैसे जिएं और करें तो क्या करें?

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)

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