खबर आ रही है कि बीएचयू के चर्चित गैंगरेप कांड के खिलाफ आंदोलन करने वाले 13 छात्रों को निलंबित कर दिया गया है। बताया जा रहा है कि इनमें से दो छात्र घटनास्थल पर थे ही नहीं।
प्रशासन के बयान में कहा गया है कि ये छात्र आदतन अपराधी और अशिष्ट हैं और इन्होंने विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को धूमिल किया है।
दूसरी ओर भाजपा आईटी सेल से जुड़े आरोपियों को सीसीटीवी कैमरों से पहचान हो जाने के बाद भी MP चुनाव प्रचार से लौटने पर दो महीने बाद गिरफ्तार किया गया।
आए दिन जनता के हित में संघर्ष करने वालों की जुबान बंद की जा रही है, जिला बदर से लेकर गिरफ्तारियां तक हो रही हैं।
भारत दरअसल एक बहुसंख्यकवादी पुलिस राज बनता जा रहा है। पिछले दिनों हुई एनकाउंटर हत्याओं का पूरे देश में जो पैटर्न है, वह दिखाता है कि कानून के राज की परवाह खुद कानून के रक्षक ही नहीं कर रहे हैं।
ऐसा लग रहा है कि वे समाज को यह दिखाना भी चाहते हैं कि कानूनी पचड़ों में पड़ने की बजाय वे फटाफट इंसाफ कर दे रहे हैं। वे कानूनी प्रक्रिया में अत्यधिक समय लगने से उपजी जनता की नाराजगी को भी भुना रहे हैं कि कानूनी रास्ते से तो न्याय बहुत देर में होगा और तमाम loopholes का फायदा उठाते हुए गुनहगार बच भी जाते हैं।
यह भी गौरतलब है कि भले ही यह UP, छत्तीसगढ़, असम जैसे भाजपा शासित राज्यों में सबसे ज्यादा हो रहा हो, लेकिन यह एक पार्टी या एक राज्य का मामला नहीं रह गया है, बल्कि तमाम सरकारों का पसंदीदा मॉडल बन गया है।
दरअसल धीरे-धीरे इसे न्यू-नॉर्मल बनाया जा रहा है। यह भी दिख रहा है कि ये घटनाएं पूरे देश में चर्चा का विषय बन रही हैं और लोग यह मान कर चल रहे हैं कि एनकाउंटर फर्जी है, लेकिन यह बात लोगों के दिल-दिमाग में बैठाई जा रही है कि न्याय का यही सबसे कारगर तरीका है।
अकेले उत्तरप्रदेश में 200 एनकाउंटर हत्याएं हो चुकी हैं और 6000 से अधिक लंगड़ा इनकाउंटर हो चुका है। यह न्यायशास्त्र में UP पुलिस का अभिनव योगदान है, जिसमें आरोपी को पैर में गोली मारकर लंगड़ा कर दिया जाता है।
विडंबना यह है कि जिस कानून व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर यह सब किया जा रहा है, उसके सूचकांकों में UP फिसड्डी बना हुआ है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि तमाम किस्म के अपराध के मामलों में UP अव्वल बना हुआ है।
इसके बावजूद इन कार्रवाइयों से समाज का एक तबका बेहद प्रभावित होता है और वह बिलकुल आश्वस्त है कि इनसे प्रदेश में कानून व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई है। एक तरह से सरकार का, स्वयं योगी जी का जो दावा है, उसे वह अक्षरशः सही मानने को तैयार है।
संभवतः इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि इसकी चपेट में आम तौर पर मुस्लिम या हाशिए के तबके के लोग आते हैं, जिनके खिलाफ पहले से ही लोगों के दिलों में नफरत भर दी गई है। इनके खिलाफ होने वाली कोई भी दमनात्मक कार्रवाई ऐसे लोगों को नॉर्मल और जस्टीफाइड लगने लगी है।
ठीक इसी तरह अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके सालों-साल से जेल में रखा गया है। और अनेक लोगों के सर पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है।
ये सारी गिरफ्तारियां षड़यंत्र का एक बड़ा मामला गढ़ करके की जाती हैं, जिससे लोगों में यह धारणा बने कि सचमुच कोई बहुत बड़ी साजिश रची जा रही थी, इसलिए यह कार्रवाई जरूरी थी।
एक तरह से गिरफ्तारी को ही अपराध सिद्धि मान लिया जाता है और फिर इस पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता कि आखिर इन लोगों पर पुलिस द्वारा लगाया गया आरोप अभी सिद्ध होना बाकी है।
दिल्ली दंगे के आरोपी केवल पुलिस के आरोप की वजह से बिना मुकदमा चले ही चार-चार साल से सजा काट रहे हैं।
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल और क्राइम ब्रांच के FIR no 59/2020 में कहा गया है कि दिल्ली दंगों के पीछे गहरी साजिश थी, जिसकी नींव 2019 में CAA, NRC विरोधी प्रदर्शन के दौरान पड़ी थी।
18 में से 6 लोगों को तो जमानत मिल गई थी, लेकिन बाकी लोगों को चार साल से न जमानत मिली, न अब तक मुकदमा शुरू हुआ। जेएनयू के पूर्व छात्रनेता उमर खालिद को पुलिस इस मामले का मास्टर माइंड बताती है।
उनके समेत तमाम मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता जेल में हैं। दरअसल खबरों के अनुसार दिल्ली के कई अन्य नामचीन लोगों का नाम भी शुरुआती तौर पर शामिल किया गया था, लेकिन शायद हिंदू होने और मामले के पूरी तरह अविश्वसनीय हो जाने की आशंका वश उनका नाम हटा लिया गया।
सच्चाई यह है कि दंगा भड़काने की अगर कोई साजिश थी तो वह दक्षिणपंथी ताकतों की ओर से ही थी और उसके वीडियो प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
जहां तक CAA NRC आंदोलन की बात है, वह संविधान की रक्षा के लिए आपातकाल के बाद आजाद भारत में हुआ सबसे बड़ा लोकतांत्रिक शांतिपूर्ण आंदोलन था। उसमें दिल्ली दंगे की साजिश तलाशना कपोल कल्पना से अधिक कुछ नहीं है।
दरअसल दंगा बेशक एक साजिश था, लेकिन वह आंदोलन को कुचलने की साजिश था। बहरहाल UAPA, आईपीसी की दंगा भड़काने की साजिश, आतंकवाद जैसे मामलों में सितम्बर 2020 से लोग जेल में सड़ रहे हैं।
Case अभी शुरू ही नहीं हुआ है। उच्चतम न्यायालय में मामला 14 बार लिस्ट हुआ लेकिन हर बार स्थगित हो जाता है।
दरअसल वे बिना मुकदमा चलाए शायद जेल में इसी वजह से हैं कि मुकदमा शुरू होते ही असलियत सामने आ जाएगी और उन्हें रिहा करना पड़ेगा !
भीमा कोरे गांव षड़यंत्र केस में इसी तरह सीधे प्रधानमंत्री की हत्या साजिश का आरोप लगाकर माओवादी कनेक्शन होने के आरोप में तमाम नामचीन बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की गई।
जिनमें से फादर स्टेन स्वामी की तो जेल में मौत ही हो गई। कुछ लोगों को जमानत मिली है, लेकिन अधिकांश लोग अभी भी जेल में हैं। पुलिस ने आरोप लगाया कि एलगार परिषद के कार्यक्रम में उत्तेजक भाषण दिए गए जिससे हिंसा भड़की और एक आदमी की मौत हो गई।
इस कार्यक्रम को प्रायोजित करने के आरोप में कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नौलखा समेत तमाम असहमत बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
जाहिर है स्थिति बेहद गंभीर है। यह सब कुछ मानवाधिकारों के चरम हनन का मामला है। यह दुःखद है कि वामपंथ को छोड़कर, अन्य विपक्षी दल भी ऐसे मामलों को मुद्दा तभी बनाते हैं, जब गाज उनके मुख्यमंत्रियों या नेताओं पर गिरती है।
अथवा हाई प्रोफाइल मामला हो, जिससे वोट बैंक प्रभावित होने वाला हो। लेकिन जब तक मामला आम लोगों का रहता है, विपक्ष इसे मुद्दा बनाने लायक नहीं समझता।
क्या विपक्ष अपना रवैया बदलेगा ?
सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह बुलडोजर न्याय पर सख्त टिप्पणी की थी, क्या उसी तरह एनकाउंटर हत्याओं पर भी सख्ती दिखायेगा और जो लोग बिना मुकदमा चलाए लम्बे समय से जेल में हैं, उन्हें न्याय दिलाएगा ?
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्दालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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