बढ़ते वैश्विक आर्थिक संकट ने दुनिया भर में भयानक बदहाली और आर्थिक संकट पैदा कर दिया है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की हालत तो और भी बुरी है। यही कारण है कि यहाँ से भारी पैमाने पर कुशल-अकुशल मज़दूर वैध-अवैध रूप से रोज़गार की तलाश में अमेरिका, कनाडा, जर्मनी और इटली जैसे देशों में जा रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इसमें बड़ी संख्या भारत के विकसित माने जाने वाले देश गुजरात और पंजाब की है, चूँकि ये विकसित देश आज खुद ही आर्थिक संकट और बेरोज़गारी से ग्रस्त हैं। यही कारण है कि इन प्रवासी मज़दूरों का भयानक रूप से आर्थिक शोषण हो रहा है। उनसे कम मज़दूरी पर बहुत ज़्यादा काम करवाया जा रहा है, व्यापक रूप से उनके मानवाधिकारों का भी हनन हो रहा है, इसी संदर्भ में 19 जून 2024 को पंजाब के मोगा जिले के 31 वर्षीय सतनाम सिंह की भयानक मौत ने सभी को दहलाकर रख दिया है।
पिछले दो साल से सतनाम सिंह इटली में रह रहे थे। वे और उनकी पत्नी एक फॉर्म में काम करते थे। खेतों में भारी मशीनरी पर काम करते हुए सतनाम सिंह का शरीर मशीन में आ गया। उनकी बाज़ू कट गई और टाँग पर चोटें लगीं। सतनाम सिंह के मालिक ने अमानवीय शोषक व्यवहार करते हुए गाड़ी में डालकर उसके घर के सामने सड़क पर फेंक दिया। उसकी पत्नी और साथ काम करने वाले मज़दूरों ने उसे डेढ़ घंटे बाद अस्पताल पहुंचाया। अस्पताल लेकर जाने में हुई देरी के कारण सतनाम सिंह की मौत हो गई। इटली के मज़दूरों और पंजाबी लोगों द्वारा सतनाम सिंह को न्याय दिलाने के लिए 25 जून को बड़ा धरना प्रदर्शन भी किया गया था।
इस घटना ने इटली के शासकों को भी मुँह खोलने पर मजबूर किया। वहाँ की धुर दक्षिणपंथी पार्टी की नेता जॉर्जिया मैलोनी; जो ख़ुद सत्ता में प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ नफ़रती प्रचार करके कुर्सी पर बैठी है,को भी जनता के दबाव में इस घटना पर बोलना पड़ा और मालिक पर क़ानूनी कार्यवाही का आदेश देना पड़ा है। यह कोई पहली घटना नहीं है और ना ही कोई आख़िरी घटना है,जिसने प्रवासी मज़दूरों की काम की जगहों पर भयानक हालतों, उनके साथ होते घटिया व्यवहार, कम वेतन आदि की पोल खोली है।
इटली में करीब 1 लाख 80 हज़ार भारतीय मज़दूर प्रवास करके गए हुए हैं। इसके अलावा अन्य पिछड़े देशों से भी मेहनतकश लोग इटली में आकर बसे हुए हैं। इटली में ये प्रवासी मज़दूर क़ानून और ग़ैर-क़ानूनी दोनों तरीक़ों से गए हुए हैं। समय-समय पर रिपोर्टें बाहर आती हैं, जो क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों के जीवन और कम वेतन आदि के बारे में ब्यौरा मुहैया कराती हैं। इस घटना के साथ ये सभी मुद्दे भी चर्चा में हैं।
इटली सब्जियों और फलों के उत्पादन के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इटली में खेतीबाड़ी बहुत बड़े पैमाने पर होती है। यहाँ खेतीबाड़ी करने के लिए आधे से ज़्यादा खेतिहर मज़दूर दूसरे देशों से आते हैं। उन्हें काम के बेहद बुरे हालात में लगातार 10 से 12 घंटे तक काम करना पड़ता है। इन मज़दूरों को प्रति घंटा केवल चार या पाँच यूरो का भुगतान किया जाता है। उन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती। ना रहने के लिए कोई ढंग की रिहायशी सुविधा है। यहाँ तक कि छुट्टी की सुविधा भी नहीं दी जाती।
इटली में बड़े फ़ार्मों के लिए सस्ते कृषि मज़दूर उपलब्ध कराने की प्रणाली को ‘एग्रोमाफ़िया’ और ‘कैप्रोली’ जैसे नाम दिए गए हैं। इस प्रणाली के तहत स्थानीय फ़ार्मर मालिकों को मज़दूर उपलब्ध कराए जाते हैं। इन मज़दूरों से सभी क़ानूनी दस्तावेज़ ले लिए जाते हैं और बिना किसी लिखित समझौते के सस्ते वेतन पर 10 से 12 घंटे के लिए काम पर लगा दिया जाता है।
‘एग्रोमाफ़िया’ के संचालक, मज़दूरों से मज़दूरी का हिस्सा भी लेते हैं और कभी-कभी तो उनके भोजन का भी हिस्सा लेते हैं। इन मज़दूरों को काम के दौरान दुर्घटना होने पर ना तो कोई मुआवज़ा मिलता है और ना ही कोई अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं। यहाँ तक कि छुट्टी भी नहीं दी जाती। इसमें क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी दोनों प्रकार के प्रवासी मज़दूर होते हैं। ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूर को तो और भी कम वेतन दिया जाता है।
वर्ष 2017 में बलबीर सिंह नाम के मज़दूर का मामला सामने आया था,जब उसने सोशल मीडिया के ज़रिए मदद की गुहार लगाई थी। बलबीर सिंह पशुओं की देखभाल का काम प्रतिदिन 12 से 13 घंटे करता था। उसे कोई छुट्टी नहीं दी जाती थी, खाने को भी मालिक का बचा हुआ जूठा भोजन दिया जाता था। उसके लिए ना तो बिजली का प्रबंध था और ना ही गरम पानी और रहने की उचित व्यवस्था की गई थी।
बलबीर सिंह को हर महीने 100 से 150 यूरो वेतन दिया जाता था, जो 50 सेंट प्रति घंटा से भी कम बनता है। 17 मार्च 2017 को ट्रेड यूनियन के ज़रिए बलबीर सिंह को बचा लिया गया, लेकिन वहाँ अनेकों ही सतनाम सिंह, बलबीर सिंह आदि हैं, जिनका जीवन नरक बना हुआ है। ग़ैर-क़ानूनी तौर पर आए हुए मज़दूर ऐसे इलाक़े में रहते हैं, जहाँ ना अस्पताल है,ना स्कूल की सुविधा। ये मज़दूर अँधेरे घरों में रहने के लिए मज़बूर हैं। पुलिस द्वारा पकड़े जाने के डर से बिना सुरक्षा उपकरण के कम वेतन पर काम करने को मजबूर होते हैं।
2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार तीन क्विंटल टमाटर को कंटेनर में भरने के लिए इन मज़दूरों को प्रति घंटा पाँच यूरो मिलते हैं,उसमें से भी एग्रोमाफ़िया दो यूरो हड़प लेता है और मज़दूर के पास केवल तीन यूरो बचते हैं। बड़े-बड़े निजी फ़ार्मों के मालिक मुनाफ़े के लिए इतने बर्बर हो गए हैं कि वे अपने मज़दूरों को पानी पीने तक का समय नहीं देते। अगर मज़दूर काम के दौरान पानी पीने या खाना खाने के लिए रुकते हैं,तो उन्हें नौकरी से निकाले जाने का डर रहता है। ऐसी भयानक परिस्थितियों में प्रवासी मज़दूर काम करने को मजबूर हैं। 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2 लाख 30 हज़ार मज़दूर बिना किसी लिखित समझौते के खेतों में काम कर रहे थे।
इटली दुनिया-भर में अच्छी गुणवत्ता वाले फलों और सब्जि़यों के बड़े पैमाने के उत्पादन के कारण प्रसिद्धि प्राप्त कर रहा है, लेकिन इस प्रसिद्धि के पीछे लाखों मज़दूरों की ज़िंदगी, उनकी लूट, यहाँ तक कि उनका ख़ून भी शामिल है। वर्ष 2024 के पहले चार महीनों के दौरान खेतों में काम करते हुए दुर्घटनाओं के 268 मामले सामने आए थे। मशीन में हाथ फँस जाना, हाथ कट जाना, दिल का दौरा पड़ना, अंगूरों की बेलें बाँधते समय ऊपर से गिरकर हड्डियाँ टूट जाने से लेकर मौत हो जाने जैसी दुर्घटनाएँ इन बड़े फ़ार्मों में होती रहती हैं। इस सबसे इटली के शासकों और पूँजीपतियों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये प्रवासी मज़दूर इन शासकों के लिए सस्ते श्रम का एक प्रमुख स्रोत हैं। ये मालिक इसी स्रोत से बड़े पैमाने पर मुनाफ़ा कमाते हैं।
सरकारी नीतियों के तहत ग़ैर-क़ानूनी प्रवासी मज़दूरों को उनके नागरिक अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। उनके मानवाधिकारों के लिए कोई थोड़े-बहुत क़ानून भी नहीं बनाए जाते। क़ानूनी तौर पर गए प्रवासी मज़दूरों को लूटने का भी पूरा प्रबंध किया जाता है, उन्हें बहुत ही सीमित अधिकार दिए जाते हैं। यह सब कुछ सरकार द्वारा पूँजीपति शासकों की सेवा के लिए क़ानून बनाकर ही किया जाता है।
दूसरा, हुक्मरानों द्वारा मज़दूरों को स्थानीय और प्रवासियों के आधार पर बाँटने की कोशिश होती है और इसे अपनी शोषणकारी राजनीति के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आर्थिक मंदी के दौरान बढ़ती बेरोज़गारी, बढ़ती महँगाई के समय स्थानीय मज़दूरों को गुमराह करने के लिए सारी समस्या की जड़ के तौर पर प्रवासी मज़दूरों को पेश किया जाता है। नस्लीय भेदभाव, स्थानीय और प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा शासकों के लिए वोट बटोरने से लेकर कुर्सी तक पहुँचने का ज़रिया बनाया जाता है।
रोज़ी-रोटी के लिए बेहतर जीवन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करना युगों पुरानी परिघटना है। जब मानव समाज अभी वर्गों में विभाजित नहीं हुआ था, तब भी इंसानी आबादी मैदानों, उपजाऊ ज़मीन, चरागाहों और अधिक सहनीय जलवायु वाले क्षेत्रों की तलाश में इधर-उधर अपने ठिकाने बदलती रहती थी,लेकिन जब समाज वर्गों में विभाजित हो गया,तो वर्ग उत्पीड़न लोगों के प्रवास का मुख्य कारण बन गया। आज हम पूँजीवादी समाज में रह रहे हैं, जहाँ हम बड़े पैमाने पर हो रहे प्रवास के गवाह बन रहे हैं। यह प्रवास एक देश के भीतर हो रहा है, एक देश से दूसरे देश में भी हो रहा है। अगर हम भारत का उदाहरण लें तो यहाँ मज़दूर आबादी रोज़गार की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर प्रवास करती रहती है।
इस पूँजीवादी ढाँचे में असमान आर्थिक विकास एक ढाँचागत नियम है,जहाँ पूँजी निवेश के लिए अच्छी परिस्थितियाँ,कच्चा माल,संचार के साधन और बाज़ार आदि होते हैं,वहाँ पूँजीपति अधिक निवेश करते हैं। इससे कुछ क्षेत्रों में अधिक विकास होता है और दूसरे क्षेत्र श्रम शक्ति की आपूर्ति के केंद्र बन जाते हैं, इसलिए इस ढाँचे में कहीं अधिक विकास होता है, तो कहीं कम होता है। यह नियम एक देश के भीतर भी होता है, दुनिया-भर के अलग-अलग देशों में भी होता है।
विश्व स्तर पर देखें, तो यह असमान विकास हमें एक ओर विकसित पूँजीवादी साम्राज्यवादी देशों और दूसरी ओर पिछड़े देशों के रूप में दिखाई देता है। ये पिछड़े देश विकसित पूँजीवादी देशों के लिए सस्ते श्रम का स्रोत बनते हैं। पिछड़े पूँजीवादी देश–एशिया,अफ़्रीका,लैटिन अमेरिका आदि के देशों से मज़दूर विकसित पूँजीवादी देशों की ओर प्रवास करते हैं। इन मज़दूरों की संख्या करोड़ों में है। क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी दोनों तरीक़े अपनाकर मज़दूर प्रवास करते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रवास की परिघटना प्रगतिशील क़दम है। मज़दूरों का प्रवास विभिन्न भाषाओं,जातियों,धर्मों,संस्कृतियों और राष्ट्रों के मज़दूरों को एक साथ इकट्ठा करता है। प्रवास उनमें भाषाई, सांस्कृतिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय विभाजन आदि को तोड़कर उनके बीच वर्ग आधारित साझापन पैदा करता है। जब पिछड़े क्षेत्रों से मज़दूर उन्नत क्षेत्रों की ओर प्रवास करते हैं, तो उनकी चेतना का स्तर बढ़ जाता है। वे अपने अधिकारों के बारे में, जीवन के तरीक़े के बारे में पूँजीवादी ढाँचे की खामियों के बारे में अधिक चेतना प्राप्त करते हैं।
जब मज़दूर आंदोलन कमज़ोर होता है, तब पूँजीवादी शासक नस्ल, जाति, भाषा और धर्म आदि के आधार पर विभाजन करने में सफल होते हैं, लेकिन पूँजीवाद अपने नियम के कारण छोटे मालिकों को संपत्तिहीन कर उन्हें मज़दूर बनाता जाता है। उन सभी के लिए जीने के बद से बदतर हालात पैदा करता रहता है, जिसके कारण बड़ी संख्या में मज़दूरों में साझापन पैदा होता है। उनके सामने शासक शोषण करते हुए दिखाई देते हैं और शोषित होते हुए वे ख़ुद और उनके अपने मज़दूर साथी दिखाई देते हैं।
यही वर्गीय साझापन उन्हें शोषण समाप्त करने के कार्यभार को अंजाम देने के लिए एकजुट करता है। इटली के मज़दूरों ने और प्रवासी मज़दूरों ने मिलकर सतनाम सिंह को न्याय दिलाने के लिए बड़ा विरोध प्रदर्शन किया, जिसके चलते सतनाम सिंह की पत्नी को मुआवज़ा भी मिला है और मालिक को गिरफ़्तार भी किया गया है।
वास्तव में इन विकसित देशों में आज बड़े पैमाने पर अवैध रूप से भारतीय मज़दूर जा रहे हैं,जिनके ऊपर कोई श्रम कानून लागू नहीं होता,इस कारण से उन्हें कम मज़दूरी पर अधिक काम करना पड़ता है तथा मुँह खोलने पर जेल भेजने की धमकी का सामना करना पड़ता है, लेकिन प्रवासी मज़दूर वैध हो या अवैध हो, इटली जैसे यूरोपीय देशों में कम से कम वहाँ की राजनीतिक पार्टियाँ तथा मीडिया इन जैसे मामलों को प्रकाश में लाती हैं, परन्तु भारत जैसे देशों की स्थिति तो इससे भी बुरी है। यहाँ पर मज़दूरों का शोषण और श्रम कानूनों के उल्लंघन पर मीडिया तथा शासकवर्ग के सभी घटक शर्मनाक रूप से चुप्पी साध लेते हैं, इनका भारतीय प्रवासी मज़दूरों के पक्ष में बोलना तो बहुत दूर की बात है।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)