Wednesday, April 24, 2024

इंदिरा जयसिंह का लेख: बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया पर चढ़ा हिंदुत्व का रंग

24 अप्रैल केशवानंद भारती फैसले की 50वीं जयंती थी। बेहद अफ़सोस की बात है कि आज ही बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया  (बीसीआई) ने अपने प्रस्ताव में समलैंगिक जोड़ों की ओर से अपने लिए समान अधिकार एवं स्वतंत्रता के संबंध में दायर की गई याचिकाओं के बारे में फैसला करने की सर्वोच्च न्यायालय की वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि बार काउंसिल का यह प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम सिस्टम पर न्यायिक पुनर्विचार की शक्तियों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वाली केंद्रीय कानून मंत्री की हालिया टिप्पणी से लगभग मेल खाता है।

हम जानते हैं कि कॉलेजियम सिस्टम का उद्देश्य राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त एक निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायपालिका को सुनिश्चित करना है। पहले केंद्रीय कानून मंत्री और अब बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया इस बात को दुहरा रही है कि “लोगों की इच्छा” अनिर्वाचित न्यायपालिका में नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर संसद में निहित है। लेकिन यहां पर बड़ा सवाल यह है कि क्या संसद वास्तव में “लोगों की इच्छा” का प्रतिनिधित्व करती है?

सर्वप्रथम हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि दुनियाभर के सभी लोकतन्त्रों में भारत के समान “फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम” प्रणाली लागू नहीं है। ऐसे अनेकों लोकतंत्र हैं जहां पर संसद आनुपातिक प्रतिनधित्व के आधार पर काम करती है। मतों की संख्या के आधार पर सांसद चुने जाते हैं और राजनीतिक दलों के सांसदों के अनुपात में दृष्टिकोण व्यक्त होते हैं। इतना ही नहीं जनमत का विश्वास खो देने की सूरत में सांसदों की सदस्यता छिन जाने की भी व्यवस्था वहां पर की गई है।

जबकि भारतीय कानून में इस प्रकार का कोई प्रावधान नहीं है। “लोगों की इच्छा” का प्रतिनधित्व करने के बजाय हकीकत तो यह है कि अक्सर ये निर्वाचित सदस्य सत्ता की लालसा में व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से दलबदल करने से भी नहीं चूकते। ऐसे में समझ में नहीं आता कि “लोगों की राय” का क्या मतलब रह जाता है। जिसमें मतदाताओं ने उन्हें किसी खास दल के प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित किया था।

संविधान के प्रारूप को अंतिम स्वरुप देने वाले लोगों को उस समय यह ख्वाब में भी नहीं आया होगा कि एक दिन मौलिक अधिकारों के ऊपर बहुसंख्यक विचारधारा का आधिपत्य हो जायेगा। इसके बजाय भीमराव आंबेडकर ने संविधान को एक व्यक्ति के अधिकारों की ईकाई के रूप में परिकल्पित किया था। सर्वोच्च न्यायालय के पास एक प्रगतिशील संवैधानिक जनादेश हासिल था, और संविधान को कहीं भी संसद या इसके राजनीतिक कार्यकारी के दिशानिर्देशों का पालन करने की आवश्यकता महसूस होती थी। अदालत की वैधता सरकार की हां में हां मिलाने से नहीं बल्कि उन “अलोकप्रिय” फैसलों से मिला करती थी, जिनमें बुनियादी अधिकारों को मान्यता दी जाती थी।

इसलिए आज जब कोर्ट को बहुसंख्यकवाद की चुनौती मिल रही है, तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का यह वाजिब उत्तरदायित्व है कि वह संवैधानिक उपायों की मदद से बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र में मौजूद विसंगतियों को दुरस्त करे। 

यहां पर इस बात को ध्यान में रखना होगा कि सर्वोच्च अदालत मुख्यतया उन्हीं विवादों के उपर फैसला करती है, जिसे भारत की जनता उसके सामने लाती है। वैवाहिक समानता की याचिका भारतीय नागरिकों की ओर से दायर की गई है, जिन्हें लगता है कि उन्हें उनके यौन झुकाव के आधार पर भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है। वे सर्वोच्च अदालत से कोई असाधारण मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, फैसला लेने की स्वायत्तता का अधिकार, निजता का अधिकार सहित सम्मानपूर्ण जीवन जीने के अधिकार जैसी बुनियादी अधिकारों की मांग कर रहे हैं। 

समलैंगिक विवाह के खिलाफ एक तर्क जो बार-बार दिया जा रहा है, जो बीसीआई के प्रस्ताव में भी प्रकट हुआ है वह यह है कि शादी दो विपरीत लिंग के व्यक्तियों का मिलन होता है। इस तर्क के भीतर ही त्रुटि मौजूद है: इसके द्वारा विवाह की परिभाषा दी जा रही। यह परिभाष संवैधानिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए दी जा रही है। लेकिन पारिभाषिक की अड़चनों की आड़ में बीसीआई असल में यह सुझाव देती दिख रही है कि न्यायालय को व्यापक व्याख्या के मानदंड के रूप में संस्कृति को मानक के रूप में अपनाना चाहिए, न कि उसे संवैधानिक सिद्धांतों एवं पूर्व की नजीरों से तय करना चाहिए।

एक सुझाव यह भी दिया जा रहा है कि विवाह का मकसद वंश वृद्धि होता है। भारतीय कानून के तहत विवाह सिर्फ उन जोड़ों तक के लिए सीमित नहीं है जो वंश वृद्धि करने में सक्षम हैं या इसका इरादा रखते हैं। यदि इसे ही पूर्वशर्त मान लें तो यदि शादी से पहले हर जोड़े को प्रजनन शक्ति परीक्षण से गुजरना पड़े या इसे विवाह की पूर्व शर्त बना दिया जाये तो यह सीधा संविधान प्रदत्त निजता, निर्णय लेने की स्वायत्तता और गरिमा का उल्लंघन होगा।

निःसंतान रहना एक चुनाव हो सकता है और शादीशुदा युगल पर बच्चा पैदा करने को लेकर कोई बाध्यता नहीं है। इसके अलावा, धर्म और संस्कृति में रची-बसी विवाह की प्रतिगामी विचारों को लागू करने के लिए संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। विशेषकर स्पेशल मैरिज एक्ट के संदर्भ में यह विशेष रूप से लागू होती है, जिसका अर्थ है एक विशेष (धर्मनिरपेक्ष) प्रारूप में विवाह, जिसमें धर्म, जाति, सांस्कृतिक विचार, सोच और मान्यता का स्थान नहीं होगा ।

बार काउंसिल के इस प्रस्ताव से एक बात स्पष्ट रूप से परिलिक्षित होती है कि हाल के वर्षों में लीगल प्रोफेशन में व्यापक बदलाव हुआ है। सत्तारूढ़ दल की हिंदुत्व के एजेंडे के चलते भारतीय समाज के भीतर जो ध्रुवीकरण हम देख रहे हैं, वह क़ानून के पेशे में भी पेवश्त हो चुकी है। वकीलों के संगठन, जो अक्सर सत्ताधारी पार्टी के द्वारा समर्थित या संरक्षण पाते हैं, के माध्यम से अक्सर राजनीति से प्रेरित याचिकाओं जैसे माध्यमों से न्यायिक प्रणाली की अवमानना के जरिये अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने का काम करते हैं।

ये याचिकायें अक्सर बहुसंख्यकवाद के हित साधन का काम करती हैं, जिसका मुख्य जोर न्यायपालिका के बजाय संसद की शक्तियों और कार्यप्रणाली की महत्ता पर जोर देने का रहता है। शायद ही कभी संसद के बजाय नयायपालिका की शक्तियों और कार्यों के पक्ष में इसका रुख रहता है। हालांकि न्यायिक बहस-मुबाहिसे में विचारधारा की वैधानिक भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन क़ानूनी परिधि को हर हाल में संविधानवाद को परिलिक्षित करना होगा। पेशेवर रुख के बगैर विचारधारा प्रचार के स्तर पर पतित हो जाती है।

एक पहरेदार के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के उपर यह जिम्मेदारी है कि वह संसद के कानूनों को संवैधानिक मूल्यों, नैतिकता एवं सिद्धांतों की कसौटी पर कसे, न कि “संस्कृति” की पूर्व धारणा को अपना आधार बनाये। कोई भी न्यायिक कार्य यदि इसमें चूकता है तो वह संविधानवाद के उपर “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” को प्रतिष्ठापित करने का काम करेगा, जैसा कि केशवानन्द भारती मामले में अर्थ लगाया गया। आज इसकी सबसे बड़ी जरूरत है।   

आखिर में जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह यह है कि किसी को भी इस बात पर अचंभा होना चाहिए कि कानून के किस अधिकार के तहत बार काउंसिल ने सर्वोच्च न्यायालय को वैवाहिक समानता के मामले को संसद के हाल पर छोड़ देने का दबाव बनाने के लिए प्रस्ताव पारित कर दिया। बीसीआई एडवोकेट एक्ट के तहत एक वैधानिक संस्था है, जो कानून के अनुपालन को सुनिश्चित करना है, और गुणवत्तापूर्ण वैधानिक शिक्षा को बढ़ावा देना है।

बीसीआई की प्राथमिक जिम्मेदारियों में से एक है कानून और न्यायिक सुधार को बढ़ावा देना और समर्थन करना है, न कि उसकी राह में बाधक बनना। बीसीआई को हर हाल में अपने सच्चे उद्देश्य और वजूद के बारे में सचेत रहना चाहिए, और जितना जल्द से जल्द बार काउंसिल अपने प्रस्ताव को वापस ले लेती है, उतना ही यह हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के हित में होगा। किसी भी सूरत में, यदि इसे दो टूक शब्दों में कहें तो विवाह में बीसीआई किसी अवांछित मेहमान की तरह है। 

(इंदिरा जयसिंह देश की वरिष्ठतम वकील के साथ-साथ पूर्व एडिशनल सोलिसिटर जनरल हैं। द इंडियन एक्सप्रेस में 26 अप्रैल को प्रकाशित लेख का साभार अनुवाद। अनुवाद रविंद्र पटवाल।)

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