अभी भारत के राजनीतिक वातावरण में कई तरह की प्रतिध्वनियां सुनाई दे रही हैं। इन प्रतिध्वनियों का संबंध भारत के इतिहास के अनसुलझे सवालों, अनसुनी आवाजों के टकरावों से तो है ही, सुलझाये जा चुके सवालों को वर्तमान में फिर से उलझाने, सम्मानजनक तरीके से समायोजित आवाजों में नई उग्रता भरने से भी कम नहीं है। इन आवाजों से सामाजिक जीवन में भीतरी उथल-पुथल मच रही है। इस उथल-पुथल का कोहराम सतह पर भी जब-न-तब दिख जाता है।
आज खड़ी की जा रही कई समस्याओं की गुत्थियों को खोलने की कोशिश से इन आवाजों में पैदा की गई अतिरिक्त संवेदनशीलता के राजनीतिक मर्म को समझा जा सकता है। कई आवाजों में एक आवाज हिंदू-मुसलमान से संबंधित है, एक आवाज वर्ण-व्यवस्था से संबंधित है, एक आवाज भारत-राज्य के संघात्मक ढांचा से संबंधित है। ‘इंडियन नेशन’ और ‘इंडियन स्टेट’ के फर्क को मिटा देने या एक का दूसरे का एवजी बनाने और बताये जाने का दुर्निवार बुरा असर संघात्मक ढांचा पर पड़ना अनिवार्य है। जाहिर है कि भारत सुलझे हुए सवालों के उलझावों के नये षड़यंत्र में फंसकर अपनी ऊर्जा का अधिकांश बर्बाद कर रहा है।
भारत में एक और अनेक का द्वंद्व बहुत पुराना है। दुनिया भर के तर्क-वितर्क के बाद भी एक देववाद या अद्वैतवाद दार्शनिक रूप से सिद्ध और मान्य हो जाने के बाद भी व्यवहार में बहुदेववाद की ही प्रतिष्ठा कायम रही है। भारत की संस्कृति, जीवनयापन शैली, प्रकृति आदि में विविधता का स्वाभाविक विन्यास रहा है। यहां राजनीतिक रूप से अनेकता में एकता की बात तो, बहुत की जाती है। एकता में अनेकता के सम्मान की बात इन दिनों थोड़ी कम ही की जाती है।
मूल बात यह है कि ‘एकता’ की रक्षा के लिए ही अनेकता में एकता के तत्वों की तलाश की जा सकती है। एकता का मकसद अनेकता को समाप्त करना नहीं हो सकता है; ऐसा मकसद होने की आशंका मात्र से भारत की अनेकता भारत की एकता के विरुद्ध हो सकती है। कहने का आशय यह है कि अनेकता की स्वीकृति एकता की शर्त है। अनेकता को खंडित करने की कोई भी दृष्टि भारत की एक को ही खंडित करने की स्वीकृति की तरफ ले जाती है।
यह ठीक है कि आधुनिक भारत का गठन ‘नेशन स्टेट’ के रूप में हुआ है, फिर भी ‘नेशन’ और ‘स्टेट’ यानी ‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ के वास्तविक फर्क को भुलाया नहीं जा सकता है। माना जा सकता है कि राष्ट्र में भी बहुत सारे राजनीतिक तत्व घुल-मिल गये हैं, और राज्य में भी बहुत सारे सांस्कृतिक तत्व घुल-मिल गये हैं। इस घुलने-मिलने से कुछ सकारात्मक तत्व भी हासिल होते हैं, तो कुछ तत्व नकारात्मक भी होते हैं।
घुलने-मिलने के सकारात्मक तत्वों के सक्रिय होने से ही भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की धार फूटती है। यह तब होता है जब घुलने-मिलने की यह प्रक्रिया स्वचालित और स्वाभाविक ढंग से चलती रहती है। इस में किसी भी तरह से राजकीय हस्तक्षेप होने लगे तो सहमिलानी गंगा-जमुनी संस्कृति में संकट के निकट होने का लक्षण दिखने लगता है; कोई लक्षण दिख रहा क्या! नहीं दिख रहा! दिखता है क्या!
समझना जाना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी राष्ट्र और राज्य के तत्वों के घुलने-मिलने की स्वचालित और स्वाभाविक प्रक्रिया में बार-बार राजकीय हस्तक्षेप की कोशिश कर रहे हैं। इस हस्तक्षेप से घुलने-मिलने का नकारात्मक तत्व अधिक सक्रिय हो जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजकीय कोशिश से भारत-राज्य में संस्कृति के तत्वों के लिए जगह बनाई जा रही है और भारत-राष्ट्र में राजनीति के तत्वों के लिए जगह बनाई जा रही है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बहु-सांस्कृतिक प्रयासों से नहीं, राजनीतिक शक्ति के हस्तक्षेप के माध्यम से हासिल करने की कोशिश है। यह कोशिश भारत के संविधान के अनुकूल नहीं है। यह वही संविधान है जिस में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के विचार-पुरुषों ने कुछ भी भारतीय नहीं पाया था और जिस के सामने नरेंद्र मोदी आज सिर झुकाते हुए जब-न-तब दिख जाते हैं! संविधान के सामने सिर झुकाने में कितना सम्मान है, कितनी रणनीति है, इस पर कुछ भी कहना मुश्किल है!
यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्र मूलतः प्रकृति के साहचर्य और सहमेल में बनी नृवंशीय संरचना होता है। इस संरचना में जीवंत और मृत दोनों तत्व होते हैं। राष्ट्र और राज्य के आंतरिक संबंध को समझने में विक्रम-बेताल का रूपक बहुत कारगर हो सकता है। इस रूपक में जीवित-तत्व पर मृत-तत्व लदा हुआ रहता है। न्याय का सवाल मृत-तत्व के पास होता है और जवाब जीवित-तत्व को देना होता है। जीवित-तत्व के जवाब से संतुष्ट होकर मृत-तत्व फिर से नृवंशीय वृक्ष पर। रूपक का इस्तेमाल सिर्फ समझने-समझाने के लिए ही किया जाता है, उसे किसी भी अर्थ में हूबहू और एक ही नहीं माना जा सकता है। इस से समझने में मदद मिलती है, बस इतना ही।
राष्ट्र की आंतरिक शक्ति का मूल स्रोत इतिहास और इतिहास के प्रति लिखित-अलिखित जन-धारणा में होता है। राज्य का संबंध इतिहास से नहीं भविष्य की काल्पनिकताओं और योजनाओं से होता है। जिस प्रकार से इतिहास का मृत-तत्व वर्तमान को बहुत परेशान करता है, उसी तरह से भविष्य की काल्पनिकताओं का निष्फल-तत्व भी बहुत परेशान करता है। परेशानी इतिहास से जुड़ी हो या भविष्य से, उस का निश्चित संबंध किसी-न-किसी प्रकार के भ्रम से जरूर होता है।
इस भ्रम को अधिक घनीभूत करने के लिए इतिहास को भविष्य की तरह से और भविष्य को इतिहास की तरह से पेश किया जाता है। राष्ट्र और राज्य को विक्रम-बेताल के रूपक के माध्यम से थोड़ा-सा ठहरकर ठीक-ठीक समझ लेने के बाद, यह भी माना जा सकता है कि लदे होने के बावजूद विक्रम और बेताल का फर्क बना रहता है। विक्रम को बेताल और बेताल को विक्रम नहीं माना जा सकता है। जाहिर है कि राष्ट्र और राज्य को एक नहीं माना जा सकता है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी राष्ट्र और राज्य को एक ही मानकर अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ाती रहती है। वर्ण-व्यवस्था हिंदू ‘समाज-बोध’ का अनिवार्य हिस्सा है। हिंदुत्व की राजनीति वर्ण-व्यवस्था को जस-का-तस बनाये रखना चाहती है। वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति में रोकथाम को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राजनीतिक और कानूनी मामला मानते हैं, जाहिर है कि इस के लिए राज्य को जवाबदेह मानते हैं।
महात्मा गांधी वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति को धार्मिक मामला मानते हुए, इस में सुधार रोकथाम रोकथाम के लिए उन्हीं लोगों पर भरोसा करने की गलती करते हैं, जिनका हित वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति से जुड़ा है। माना जा सकता है कि महात्मा गांधी सुधार और समन्वय के लिए हितों के टकराव के प्रभाव को कम करके आंक रहे थे। इस का सीधा, सरल और सुनिश्चित मतलब है आग से शीतल व्यवहार की उम्मीद।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी दोनों से असहमत होकर, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति को न धार्मिक मानता है न राजनीतिक, बल्कि सामाजिक परंपरा का मामला मानता है। जाहिर है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ इस भेद-भाव की प्रवृत्ति में सुधार और समन्वय या रोकथाम के लिए धार्मिक और राजनीतिक हस्तक्षेप या किसी राजकीय नीति की जरूरत से इनकार करता रहा है।
प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परंपराओं के प्रचलन और अ-प्रत्यक्ष रूप से पुनर्जन्म आधारित कर्म-फल की मान्यताओं के प्रचलन के भरोसे छोड़ देता है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ हिंदुत्व की राजनीति के अंतर्गत वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति की रोकथाम और सुधार और समन्वय में समाज में वर्चस्वशाली लोगों की अवरोधी भूमिका और हितों के टकराव को पूरी तरह से नजर-अंदाज करता है।
संविधान सभा ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की दृष्टि को महत्व दिया और संविधान में इसे स्वीकार कर भारत के लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा बना लिया। जाहिर है कि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार वर्ण-व्यवस्था में निहित भेद-भाव की प्रवृत्ति में रोकथाम का दायित्व धार्मिक या सामाजिक नहीं, बल्कि संविधान-सम्मत राजकीय दायित्व है। महत्वपूर्ण यह कि सिर्फ चालू समय में भेद-भाव की प्रवृत्ति के रोकथाम का ही दायित्व राजकीय नहीं है, बल्कि वर्ण-व्यवस्था की विभेदकारी प्रवृत्ति के चलते आदिकाल से बनी सामाजिक विषमताओं को समानता में बदलने के लिए समकारक उपाय के रूप में आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को ठीक-ठीक से लागू करना भी राजकीय दायित्व है।
आरक्षण सहित सभी समकारक उपायों को अधिक प्रभावी बनाने के लिए जातिवार जनगणना जरूरी है। भारतीय जनता पार्टी हारी हुई ही बाजी को पलटने की निष्फल कोशिश कर रही है। लाख इधर-उधर की बात कर ले राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, लेकिन यह सच है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की दृष्टि के संवैधानिक प्रावधान बन जाने से उस का मतभेद और टकराव संविधान से है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की असहमत दृष्टि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति और संवैधानिक प्रावधानों में टकराव के एक कारण के रूप में सामने आती रहती है।
जिन लोगों का सामुदायिक हित आरक्षण व्यवस्था से जुड़ा हुआ है वे लोग क्रीमी-लेयर को आरक्षण की सुविधा से अलग किये जाने की जायज-सी दिख रही न्यायिक व्यवस्था से शायद ही कभी सहमत हो सकें। क्रीमी-लेयर की न्यायिक व्यवस्था के लागू होने के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता है; क्रीमी-लेयर आर्थिक आधार पर बनता है जबकि आरक्षण सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक सम्मान और स्वीकृति को सुनिश्चित करने का उपाय है।
क्रीमी-लेयर के माध्यम से सामाजिक सम्मान और स्वीकृति की स्थिति की व्याख्या में असंगति दिखती है। वैसे भी, क्रीमी-लेयर अभी भी बहुत पतला है, और तमाम व्यक्तिगत अग्रता के बावजूद सामाजिक-समूह के पिछड़ेपन के हवाले से मिले संवैधानिक अग्राधिकार का बना रहना, स्वाभाविक है। आर्थिक आधार पर निम्न-वर्ग और सामाजिक आधार पर वर्ण-पीड़ित लोगों का ‘कॉमन सेट’ बहुत बड़ा है। मध्य-वर्ग और उच्च-वर्ग में वर्ण-पीड़ितों की संख्या तो बहुत ही कम दिखती है। स्वभावतः क्रीमी-लेयर को आरक्षण व्यवस्था से अलग करने की न्यायिक आकांक्षा का स्वागत नहीं किया जा सकता है।
सामाजिक समकारक उपायों को ठीक से लागू करने के लिए जातिवार जनगणना का महत्व है तो फिर परेशानी का कारण क्या है! जातिवार जनगणना से तथाकथित उच्च-कुल-शील लोग व्यावहारिक रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिकों की श्रेणी में आ जायेंगे। उच्च-कुल-शील लोगों में से अधिकतर ने, कम-से-कम पिछले दस साल के शासन में, अपने बहुसंख्यक होने के जबरदस्त भ्रम में समय बिताया। न सिर्फ समय बिताया बल्कि लोकतांत्रिक बहुमत को राक्षसी (फासीवादी) बहुसंख्यकवाद में बदल देने की भी भरपूर कोशिश की। भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से नरेंद्र मोदी को भारत के मतदाता समाज ने जबरदस्त शक्ति दी।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को थोड़ा सही करते हुए नरेंद्र मोदी ने इस शक्ति का सदाशयतापूर्ण उपयोग किया होता तो कम-से-कम सामाजिक अन्याय और उत्पीड़न की समस्याओं का कुछ-न-कुछ सकारात्मक और कारगर हल मिल गया होता। लेकिन नहीं, सामाजिक अन्याय और उत्पीड़न की घटनाएं कम होने के बजाये बढ़ती ही गई।
वे निरंतर ऊलजलूल प्रसंगों के उलझाव और कौतुक में फंसे रहे शक्ति क्षय और अपव्यय होता चला गया। ‘मैं कर सकता हूं! देखो अभी करके दिखाता हूं!’ के बाद मिलनेवाली ताली और प्रशंसात्मक स्वीकृति तो किसी का भी दिमाग उड़ा ले जाता है। इनका दिमाग तो वैसे भी बहुत ‘भारी’ नहीं रहा है। अब बहुमत भी ‘भारी’ नहीं है! इरादा तो अभी भी वही है, ‘सब कुछ’ के तहस-नहस हो जाने का जोखिम उठाने के मनोभाव में कोई नहीं है। जन-सम्मोहन की शक्ति में भारी कमी, लेकिन आत्म-सम्मोहन तो जस-का-तस बना हुआ है!
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की व्यवस्था की तरफ सरकार कदम बढ़ाना चाहती है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी उन से जुड़े ‘बुद्धिजीवियों’ को भी मालूम है कि यह बहुत आसान नहीं है। फिलहाल तो असंभव ही दिखता है। फिर भी ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का इतना शोर क्यों? इस शोर को समझने के लिए इतिहास से आती और भविष्य की तरफ बढ़ती सुलझी हुई समस्याओं के नये उलझावों की उग्रता को याद कर लेना चाहिए।
चुनाव ‘भारत राज्य’ यानी ‘इंडियन स्टेट’ का विषय है। चुनाव ‘भारत राष्ट्र’ यानी ‘इंडियन नेशन’ का विषय नहीं है। यहां सावधानी बरतने की जरूरत है कि ‘इंडियन स्टेट’ और ‘इंडियन नेशन’ के बीच के बारीक फर्क को समाप्त नहीं किया जा सकता है। लेकिन मंशा तो शायद यही है कि ‘इंडियन स्टेट’ और ‘इंडियन नेशन’ के फर्क को मिटा ही दिया जाये! ‘इंडियन नेशन’ को ‘इंडियन स्टेट’ मान लेने से भारत के संघात्मक ढांचा की अवहेलना होने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रह जायेगा! ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का यही इरादा हो तो क्या अचरज!
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की सोच में भारत अपने विभिन्न राज्यों के एक साथ होने से बना संघ नहीं है, बल्कि इस के विभिन्न राज्य ‘इंडियन नेशन’ के अंग हैं, यानी ‘राष्ट्र प्रथम’! राष्ट्र प्रथम’ यानी, इस के विभिन्न राज्य बाद में! जबकि भारत के संविधान में कहा गया है कि इंडिया, जो भारत है, राज्यों का एक संघ होगा। भारत के राज्य-क्षेत्र में शामिल होंगे (India, that is Bharat, shall be a Union of States. The territory of India shall comprise.)। इसकी व्यापक कानूनी व्याख्या तो सुविज्ञ लोग यथा-समय करेंगे!
ऐसा प्रतीत होता है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लागू करने के बाद भारत संघ और भारत संघ में शामिल में विभिन्न राज्यों की विधायी संरचना पर निश्चित असर पड़ेगा। भारत के संघात्मक ढांचा पर इस असर के नकारात्मक होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
कुल मिलाकर यह कि ‘चुनावों’ को सरकार के सामान्य काम-काज में अवरोधक के रूप में पेश किया जा रहा है। लोकतंत्र की दृष्टि से यह एक खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति है। चुनाव तो लोकतांत्रिक सरकार के बनने का मौलिक प्रसंग है। सही और व्यावहारिक अर्थों में चुनाव के समय ही सत्ता को जनता की थोड़ी-बहुत याद आती है। चुनाव का समय न हो तो लोकतांत्रिक सत्ता को भी जनता की सुधि कहां! चुनाव के प्रसंग को खर्चीला बताने का अर्थ तब समझ में आ सकता है जब जन-प्रतिनिधियों पर होनेवाले खर्चे का मिलान करके देखा जाये।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का कोई मामला शायद ही खर्चा से जुड़ा हो। तो फिर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के करतब के पीछे मुराद क्या है! मुराद है ‘इंडियन स्टेट’ और ‘इंडियन नेशन’ के बीच के बारीक किंतु संवेदनशील फर्क को मिटाने का अभ्यास करना-कराना! याद रहे, स्टेट और नेशन के बारीक और संवेदनशील फर्क का मिटना खतरनाक है।
अभी तो ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर संसद में विचार होना है। माननीय सांसदों के विचार-विमर्श से ‘बहुत कुछ’ सामने आना है। ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ हो या कोई अन्य तरीका हो, किसी भी तरकीब से यदि चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए क्षतिकारी साबित होती है तो इसकी जवाबदेही देश के राजनीतिक दलों को लेनी ही होगी। तो फिर, नागरिक समाज क्या करे!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)