Wednesday, April 17, 2024

आदिवासियों से जंगलों पर मालिकाना हक छीनने की तैयारी, जलावन समेत दूसरे वनोपजों पर झारखंड सरकार ने लगाया टैक्स

रांची। झारखंड सरकार द्वारा कैबिनेट की बैठक में पिछली 17 जून को 25 फैसलों को मंजूरी दी गई। तमाम फैसलों के बीच एक ऐसा फैसला भी है जो सरकार को कटघरे में खड़ा करता ही नहीं दिख रहा है, बल्कि झारखंड अलग राज्य गठन की अवधारणा को भी ठेंगा दिखा रहा है। 

 कैबिनेट में लिए गए जिन 25 मुख्य फैसलों को मंजूरी दी गयी, उनमें जहां कोरोना वायरस के रोकथाम और टेस्टिंग के लिए राज्य के तीन स्थानों पर कोविड-19 का टेस्ट और करने की योजना को मंजूरी दी गयी तथा यह भी फैसला हुआ कि अब कोर्ट का फीस और स्टांप पेपर की निकासी आन लाइन की जा सकेगी। 

वहीं भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा-41, 42 एवं 76 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए झारखंड में वनों से उत्पादन के सिलसिले में जारी कानून और नियमावली में संशोधन कर झारखंड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली, 2020 पारित कर दिया गया है। जिसे राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षरित अध्यादेश के जरिये लागू भी कर दिया गया है। इसके तहत अब आदिवासियों को जंगलों से जलावन समेत अन्य वनोपज इस्तेमाल करने पर टैक्स का भुगतान करना होगा।

कहना ना होगा कि भारतीय वन अधिनियम 1927 से साफ हो जाता है कि आज़ादी के बाद भी हमारे शासकों की मानसिकता अंग्रेजी हुकूमत के उन्हीं कानूनों के इर्द-गिर्द ही चक्कर काट रही है, जिससे सत्ता और उसके पोषकों को लाभ पहुंचता हो। जबकि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा ‘संताल परगना टेनेंसी एक्ट’ 1872 के तहत संथाल आदिवासियों की स्वायत्त सत्ता स्थापित की गई थी, जिसे आजादी के बाद 1949 में संशोधित कर दिया गया। दूसरी तरफ तमाम आदिवासियों की स्वायत्त सत्ता के लिए 1908 में बना ‘छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट’ का आज तक पालन नहीं हो रहा है, बल्कि उसमें भी समय दर समय पर संशोधन की प्रक्रिया जारी है। इतना ही नहीं भूरिया कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित पेसा कानून 1996 आदिवासियों की स्वायत्त ग्राम सभा को भी दरकिनार कर पंचायती राज लागू किया गया। जाहिर है सत्ता के ये तमाम कदम जंगल के दावेदार आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने की साजिश के तहत उठ रहे हैं। 

डीएएए- एनसीडीएचआर झारखंड, के राज्य समन्वय मिथिलेश कुमार कहते हैं कि ”आदिवासी-मूलवासी की हितैषी झारखण्ड सरकार में अब आदिवासियों को जंगलों से जलावन समेत अन्य वनोपज लाने का भी टैक्स देना पड़ेगा। यह सबसे बड़ा अन्याय है।” वे कहते हैं कि ”जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय का 6 से 7 माह की आजीविका और जरूरत की चीजें तथा पोषक तत्व जंगल से ही मिलते हैं। पूर्वजों से जंगल पर मालिकाना हक रखने वाले आदिवासियों को बेदखल करने वाला सरकार का यह फैसला अन्यायपूर्ण है।” 

बता दें कि सरकार आज तक वनाधिकार कानून के तहत वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को पट्टा दे नहीं पायी, पर वन माफियाओं के अवैध कारोबार और अफसरों की काली कमाई पर पर्दा डालने के लिए ये फरमान जारी कर दी। ये फरमान वन क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की आजीविका को कितना प्रभावित करेगा? कैबिनेट में यह प्रस्ताव आने के बाद सरकार में शामिल मंत्रियों और अफसरों ने इसके नुकसान का आकलन करने की जरूरत तक नहीं समझा है।

पिछली 17 जून को कैबिनेट की बैठक में हेमंत सरकार ने झारखण्ड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली- 2020 को मंजूरी दी। भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 41, 42 और 76 के अधीन राज्य सरकार में निहित शक्तियों का हवाला देते हुए सरकार ने आदिवासियों पर टैक्स का बोझ लाद दिया। इस पर समाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं कि ”जबकि भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 41(3) में राज्य सरकार को शक्ति प्राप्त है कि वो स्थानीय क्षेत्र के निवासियों या उनको हासिल होने वाले वनोपज को इस नियम से बाहर रख सकती है। इसके बावजूद सरकार ने गरीब आदिवासियों की आजीविका को नजरंदाज करते हुए ये नियम लागू कर दिया और कथित ‘झारखंडी मंत्रियों’ तक ने इस पर मौन सहमति दे दी।”

बताना जरूरी होगा कि झारखण्ड के आदिवासी आज भी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जंगल पर निर्भर हैं। जलावन के लिए सूखी लकड़ियाँ और पत्ते चुनकर लाते हैं, पर हरे-भरे पेड़ों को नहीं काटते। खाने के लिए जंगली फल-फूल और साग-सब्जियां, दवाओं के लिए जड़ी-बूटी और रोजगार के लिए लाह, महुआ, करंज, चिरौंजी जैसे वनोपजों की बिक्री कर जीवन-यापन करते हैं। परंतु आदिवासियों ने कभी भी अपने आवश्यकता से अधिक वनोपज का संग्रहण नहीं किया। इन्हीं आदिवासियों की बदौलत आज झारखण्ड में जंगल सुरक्षित हैं और वन क्षेत्र का अनुपात भी पूरे देश से ज्यादा है। इस लिहाज से वनोपज पर पहला हक़ यहाँ के आदिवासियों का बनता है न कि सरकार का। पर, सरकार अपना राजस्व बढ़ाने के लिए गरीब आदिवासियों के पेट पर लात मारने का काम कर रही है।

जाहिर है, इस नियम से गरीब आदिवासियों की आजीविका को बहुत नुकसान होगा। पर इससे सरकार का राजस्व बढ़ेगा, इसकी कोई भी गारंटी नहीं है। विभागीय अफसरों से साठ-गांठ कर वन माफिया अरबों रुपये की इमारती लकड़ियों का अवैध कारोबार करते हैं, पर सरकार को उसका चौथाई हिस्सा भी राजस्व नहीं मिलता है। राजस्व बढ़ाने के लिए सरकार ने बालू, कोयला, खनिज, वनोपज आदि सब पर टैक्स लगा दिया है। पर, इसका फायदा सरकार कम और माफिया ज्यादा उठा रहे हैं। गरीब आदिवासी जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं, पर सरकार एक-एक करके झारखंडियों से सारे अधिकार छीनती जा रही है।

ये कानून आदिवासियों को जंगलों से दूर रखने की साज़िश है, ताकि जंगल माफिया और भ्रष्ट सरकारी अफसर दोनों मिलकर वन संसाधनों को लूट सकें। झारखण्ड में अब एक और उलगुलान और हुल की ज़रूरत है।

(रांची से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।) 

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