‘पराधीनता से अच्छी है मौत’ यह कोई फिल्मी डायलॉग नहीं है, बल्कि यह आजाद प्रकृति के दीवाने ‘हो’ जनजाति के लोगों का जीवन दर्शन है। राजतंत्र में राजाओं का प्रभाव हो या ब्रिटिश हुकूमत की दबंगई, इन्होंने कभी भी इनकी पराधीनता स्वीकार नहीं की। बताते हैं कि पोड़ाहाट के राजा सहित अन्य कई राजाओं ने इनके क्षेत्र को अपने अधीन करने की कई बार कोशिश की, परंतु ‘हो’ समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़कर इनके छक्के छुड़ा दिए, इन राजाओं को सदैव ही मुंह की खानी पड़ी है।
झारखंड के सिंहभूम जिले तथा ओडिशा के क्योंझर, मयूरभंज, जाजपुर जिलों में बसे हुए हैं ‘हो’ समुदाय के आदिवासी। इन इलाकों में ये कब से बसे हुए हैं, इसपर कोई ठोस जानकारी नहीं है।
‘हो’ जनजाति की संस्कृति, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यता अन्य आदिवासी समुदायों से कुछ अलग है। वैसे तो आदिवासी समुदाय प्रकृति का उपासक होता है, परंतु ये विशेष तौर पर प्रकृति के उपासक होते हैं। इनके अपने-अपने गोत्र के कुल देवता होते हैं। ये मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते।
‘हो’ समुदाय के लोग अपने ग्राम देवता ‘देशाउलि’ को अपना सर्वेसर्वा मानते हैं। अन्य अवसरों के अलावा प्रति वर्ष ‘मागे परब’ के अवसर पर बलि चढ़ा कर ग्राम पुजारी जिसे ‘दियूरी’ कहा जाता है, के द्वारा इसकी पूजा-पाठ की जाती है तथा गांव के सभी लोग पूजा स्थान पर एकत्रित हो कर ग्राम देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ‘मागे परब’ सबसे बड़ा पर्व के रूप में जाना जाता है।
बताते जाता हैं कि ‘हो’ बहुल कोल्हान का क्षेत्र कभी भी किसी राजतंत्र के अधीन नहीं रहा। इनका जीवन स्वाधीन रहा। इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में रही है। इनका निशाना कभी नहीं चूकता था, इनके धनुष से निकला तीर बंदूक से भी ज्यादा मारक होते थे।
इतिहास बताता है कि इनका रणकौशल अंग्रेजों की सेनाओं को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर देता था। बताते हैं कि जगन्नाथपुर, हाटगम्हरिया, कोचोड़ा, पुखरिया, चैनपुर आदि जगहों से इन्होंने अंग्रेजी सेना को भागने पर विवश कर दिया था। जब सारा भारत गुलामी की जंजीर में जकड़ा था, तब केवल ‘हो’ समुदाय ही आजादी की सांस ले रहा था। ‘हो’ आदिवासियों को कई बार अंग्रेजों ने अपने अधीन रखने का प्रयास किया था परन्तु हर बार उन्हें करारा जवाब मिला।
इतना ही नहीं सिंगासोबुरु में अंग्रेज लेफ्टिनेंट कोरफिल्ड के नेतृत्व में लड़ने वाली फ़ौज को इपिलसिंगी, पांगा, चिमिसाई, जान्गिबुरु आदि गाँवों के हो समुदाय के लोगों ने समझौता करने पर विवश कर दिया था।
1831-32 में हुआ ‘कोल विद्रोह’ का परिणाम यह रहा कि 1831 का बंगाल रेगुलेशन 13 दिसम्बर 1833 को गवर्नर जनरल इन काउन्सिल से पारित हुआ। इसी के तहत सन 1837 को विल्किंसन रूल बना। इस नियम का मुख्य उद्देश्य था, इस क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे पारंपरिक व्यवस्था के माध्यम से अच्छा प्रशासन देना और शीध्र ही सामान्य और सस्ता न्याय दिलाना। इसके साथ ही यहां की जमीन को गैर-आदिवासियों के हाथों में जाने से बचाना। विल्किंसन रूल में 31 नियम-कानून बनाये गए थे। यह ‘हो’ विद्रोहियों को शान्त करने का कूटनीतिक प्रयास था।
इतिहास बताता है कि 1820-21 में ‘हो’ विद्रोह और 1831-32 में कोल विद्रोह हुआ था। ‘हो’ आदिवासिओं ने अंग्रेजों को अपनी जमीन पर कभी हक़ नहीं जमाने दिया था। फिर भी ‘हो’ आदिवासिओं पर पूर्णतः नियंत्रण करने तथा सिंहभूम में अपना आधिपत्य स्थापित करने के ख्याल से अंग्रेजी हुकूमत ने गवर्नर जेनेरल के एजेंट कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में एक सामरिक योजना बनाई।
क्षेत्र के लोगों को अधीन करने के उद्देश्य से पीड़ के प्रधान मानकी एवं ग्राम के प्रधान मुंडा को अपना कूटनीतिक मोहरा बनाने का प्रयास किया। लेकिन उनकी यह मंशा भी कामयाब न हो सकी और कई जगहों पर अंग्रेजी हुकूमत को लगातार ‘हो’ छापामार आक्रमणों का सामना करना पड़ा। ‘हो’ लोगों के जुझारू तेवर को देखते हुए कैप्टन विलकिंसन ने इस क्षेत्र में एक सैन्य अभियान चलाया और 1837 तक कोल्हान क्षेत्र में प्रवेश किया। परन्तु इस क्षेत्र के ‘हो’ जनजातियों के दिलों में अंग्रेजी सत्ता कभी भी स्थापित न हो सकी।
उल्लेखनीय है कि उसके बाद पोटो हो के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ कोल्हान में एक भयंकर विद्रोह की ज्वालामुखी फूट पड़ी। अंग्रेजों को इस क्षेत्र से खदेड़ने के लिए जगह-जगह घने जंगलों में गुप्त सभाएं की गयीं तथा रणनीति तैयार की गई, छापामार जत्था बनायी गयी। जगन्नाथपुर के निकट पोकाम ग्राम में इनकी गुप्त सभाएं हुआ करती थी। पोटो हो के अतिरिक्त शहीदी जत्था में बलान्डिया का बोड़ा हो और डीबे, पड़सा ग्राम का पोटेल, गोपाली, पांडुआ, नारा, बड़ाए सहित इनके 20-25 साथी थे।
कोल्हान में यह विद्रोह लालगढ़, अमला और बढ़ पीढ़ सहित असंख्य ग्रामों में फैल गया और एक जन आन्दोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। इस विद्रोह में बलान्डिया के मरा, टेपो, सर्विल के कोचे, परदान, पाटा तथा डुमरिया के पांडुआ, जोटो एवं जोंको जैसे वीर इस स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए। स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के क्रम में अंग्रेजों ने कई गांवों को जला डाला। महिलाओं और बच्चों की निर्मम हत्या की गई।
पोटो हो के नेतृत्व में संचालित शहीदी जत्था का एकमात्र उद्देश्य राजनीतिक और आर्थिक बाहरी हस्तक्षेप से ‘हो’ आदिवासियों को सुरक्षित रखना और अंग्रेजों से इसका बदला लेना था, उन्हें कोल्हान से खदेड़ना था। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सिरुंग साईं (सेरेंग्सिया) और बगाविला घाटी में स्वतंत्रता संग्राम सेनानिओं ने अपना आधिकार बनाये रखा और एक सुसंचालित एवं सुसंगठित लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ जारी रखा।
19 नवम्बर 1837 को सिरुंग साई घाटी में जब अंग्रेज सेना पहुंची तो पहले से घात लगाये पोटो हो की शहीदी जत्था ने उन पर अचानक तीरों की बछौर कर दी। दोनों ओर पहाड़ों से घिरी घाटी और जंगलों से आच्छादित होने के कारण ‘हो’ आदिवासियों को अंग्रेजों को हराने में दिक्कत नहीं हुई। असंख्य अंग्रेज मारे गए, जिसका आंकड़ा अंग्रेजों ने अपनी नामहंसाई के कारण नहीं दिया। अंग्रेजों को इस लड़ाई में भारी नुकसान उठाना पड़ा। हार से गुस्साये अंग्रेजों ने 20 नवम्बर 1837 को ग्राम राजाबसा में आक्रमण कर दिया और पूरे ग्राम को जला डाला। अंग्रेजी सेना ने पोटो हो के पिता एवं अन्य ग्रामीणों को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु पोटो हो की गिरफ्तारी में उन्हें सफलता नहीं मिली।
अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ बटालियन के 300 सैनिकों को कोल्हान क्षेत्र में बुलवाया। सैन्य शक्ति से परिपूर्ण होकर पुन: कोल्हान में ‘हो’ लड़ाकों को पकड़ने का अभियान चलाया गया। अंग्रेजों ने कई कूटनीतिक चालों एवं ग्रामीणों को प्रलोभन देकर तथा मानकी मुंडाओं को अपने वश में कर 8 दिसम्बर 1837 को पोटो हो और सहयोगी जत्था को गिरफ्तार कर लिया। 18 दिसम्बर 1837 को जगन्नाथपुर में इस आन्दोलनकारियों पर मुकदमा चलाया गया। एक सप्ताह के अंदर यह मुकदमा 25 दिसम्बर 1837 को समाप्त हुआ और 31 दिसम्बर 1837 को मुकदमे का फैसला भी सुना दिया गया।
ज्ञातव्य हो इसकी सुनवाई ख़ुद कैप्टन विल्किंसन ने की, जो संविधान सम्बद्ध तो बिलकुल ही नहीं थी। अंग्रेज चूंकि यह जानते थे कि पोटो हो और उनके सहयोगियों के जीवित रहते वे कोल्हान पर कभी भी स्थायी रूप से नहीं ठहर सकते, इसीलिए 1 जनवरी 1838 को विशाल जनसमूह के समक्ष जगन्नाथपुर में लोगों को आतंकित करने के लिए पोटो हो, बड़ाय हो, डेबाय हो को फांसी दे दी गई। पुन: 2 जनवरी 1838 की सुबह, बाकि बचे नारा हो, पांडुआ हो, देवी हो एवं अन्य को सिरुंग साई (सेरेंग्सिया) ग्राम में फांसी दी गई।
बता दें कि ठीक इसके 110 साल के पश्चात, भारत की आजादी के साढ़े चार माह बाद 1 जनवरी 1948 को खरसावां हाट में हजारों आदिवासियों को ओडिशा सरकार के सिपाहियों ने अंधाधुंध फायरिंग करके मौत के घाट उतार दिया था, जिसकी याद में हर पहली जनवरी को खरसावां में काला दिवस मनाया जाता है।
बताया जाता है कि पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह की नीयत अच्छी नहीं थी। वे हमेशा ‘हो’ बहुल क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाने की जद्दोजहद करते रहते थे। इसी जद्दोजहद के क्रम का नतिजा यह रहा कि 1857 में अर्जुन सिंह ने सेरेंगसिया घाटी को जब अपने राज्य में मिलाने की कोशिश की, तो ‘हो’ समुदाय के लोगों ने उनको नाकों चने चबवा दिया था। उनके कई सिपाहीयों को बंधक बना लिया था।
‘हो’ समुदाय द्वारा अंग्रजों के खिलाफ 1820 में युद्ध का बिगुल फूंका। चोएंबसा जो वर्तमान में चाईबासा कहलाता है, में घमासान लड़ाई हुई। जिसमें अंग्रेजों ने राजाबसा, पूर्णिया इलाकों से कई ‘हो’ योद्धाओं को पकड़ा था और इन योद्धाओं को चाईबासा जेल के सामने एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दी थी। बाद में कई बार ‘हो’ जनजाति के जनप्रतिनिधियों ने खास कर स्व. शुभनाथ देवगम, अंकुरा हो दोराईबुरु ने इस स्थान पर शहीद पार्क बनवाने के लिए भारत सरकार तथा तब के बिहार सरकार से निवेदन किया था। परंतु आज वहां पर बस पड़ाव बना दिया गया।
‘हो’ समुदाय में अपनी अलग भाषा है जिसे ‘हो भाषा’ के नाम से जाना जाता है यही इनकी मातृभाषा भी है। इनकी अपनी लिपि -वरंगक्षिति है। जो प्रचलन में कम है। ‘हो’ जाति के लोगों का घर बनाने का तरीका अन्य जनजातियों थोड़ा अलग है। ये साफ़-सुथरा रहना ज्यादा पसंद करते हैं। घरों तथा घर के आसपास के क्षेत्र को भी साफ़-सुथरा रखते हैं। इनका पेय पदार्थ डियंग् (हंडिया) होता है, जो चावल से बनता है। वैसे ये लोग चावल खाना ज्यादा पसंद करते हैं। मांस-मछली इत्यादि भी बड़े चाव से खाते हैं। ये स्वास्थ के दृष्टिकोण से काफी हट्टे-कट्टे होते हैं। इस समुदाय के लोगों की औसत आयु 70 साल की होती है। चूँकि ‘हो’ समुदाय के लोग वीर बहादुर एवं लड़ाकू योद्धाओं के रूप में भी जाने जाते थे। अत: इन्हें ‘लाड़का हो’ के रूप में भी जाना जाता है।
आदिवासी ‘हो’ जनजाति में लगभग 132 गोत्र हैं। प्रचलित लोक कथाओं के अनुसार किलियों (गोत्रों) के विभाजन के सम्बंध में अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। ‘हो’ जन जाति के विश्वास के अनुसार, मंरग बोंगा की पूजा कर्म को आधार माना गया है। जैसे-आदिकाल में जो मानव सिडवोंगा / पूजा (वोंगाबुरु) आरंभ किया उसे ‘बोबोंगा’ कहा गया। जो मिट्टी से लेपने का काम किया उसे हसा-दः या ‘हांसदा’ कहा गया। घास-पात साफ कर गोबर लगाया तो वह लः-गुरिः या ‘लागुरी’ कहलाया। इस पूजा में जिन्होंने रस्सी (सिकुवर बयेर) से बांधकर कंधे में ढोने का कार्य शुरू किया उसे बा-रि अर्थात ‘बारी’ कहा गया।
समान किलियों (गोत्रों) में इनकी शादी-ब्याह नहीं होता है। कुछ किलि असमान होते हुए भी एक दूसरे से वैवाहिक सम्बंध नहीं बनाते हैं। क्योंकि वे एक दूसरे को अपना भाई या ‘हगा’ (एक खानदान के, मगर उपनाम अलग-अलग) मानते हैं। कुछ क्षेत्रों (गांव-पीड़) में इस पर विवाद भी है। इनके 132 किलि यानि गोत्र हैं।
‘हो’ आदिवासियों की पारंपारिक व्यवस्थाएं
हो आदिवासियों की पारंपरिक व्यवस्था को मानकी / मुंडा व्यवस्था कहते हैं। जिसके तहत मुंडा, मानकी, डाकुवा, दियुरी व तहसीलदार जैसे पद सृजित होते हैं। मुंडा गांव का प्रधान होता है। इसे मालगुजारी लेने का अधिकार होता है। गांव की बैठक की अध्यक्षता कर फैसला सुनाने का भी अधिकार होता है।
कई गांव मिलाकर एक पीड़ होता है और मानकी एक पीड़ का मालिक होता है। यदि गांव की समस्या का समाधान मुंडा द्वारा नहीं हो पाता है, तो मुंडा उसे मानकी के पास लेकर जाता है। जिसे मुंडा तथा मानकी मिलकर सुलझाते हैं। मुंडा वसूली गई मालगुजारी को मानकी को भिजवाता है।
डाकुवा मुंडा द्वारा बुलायी गयी किसी भी बैठक की सूचना गांव वालों को देता है। यह मुंडा का सहायक होता है। दियुरी गांव का पुजारी होता है। धार्मिक अपराध की सजा दियुरी तय करता है। तहसीलदार मानकी के कार्यों का सहायक होता है। मानकी के आदेश पर मुंडा द्वारा ली गई मालगुजारी वसूलता है।
बताते चलें कि ‘हो’ होड़ शब्द की व्युत्पति है। ‘हो’ लोग मुंडा समुदाय के सदस्य हैं। यह समुदाय कोलारियन ट्राइब्स, आग्नेय समुदाय, ऑस्ट्रो एशियाटिक आदि के नाम से जाना जाता है। वे बताते हैं कि किसी समय इस समुदाय के लोगों का भारत देश में काफी दब-दबा था। उनकी सभ्यता उन्नत थी। इस समुदाय के अनेक राजा-महाराजा एवं वीर पुरुष थे। बुजुर्गों का कहना है कि हड़प्पा (होड़ रपा) सभ्यता इन लोगों की सभ्यता थी। लेकिन समय एवं परिस्थितियों के कारण यह समुदाय आज हासिए पर है।
ऐसे बदलते हालात पर मुंडा समुदाय में एक कहावत प्रचलित है। ” टुन्डु बिंग नागु जना, सिंह कुला बिलाय जना” मतलब ”ढोंड़ सांप (सुस्त प्रजाति) नाग बन गया, जंगल का राजा बिल्ली बन गया।” अर्थात बाहरी लोग (दिकू) राजा बन गए और मुंडा समुदाय के लोगों को जंगलों की ओर भगा दिया। भागने के क्रम में मुंडा समुदाय के लोग झारखंड क्षेत्र में पहुंच गए और यहां से ही हो अलग-अलग क्षेत्रों में स्थापित गए। ‘हो’ समुदाय के लोग मुंडाओं के साथ बहुत दिनों तक रहकर सिंहभूम जिले के सिंकूहातु, पिंकूहातु, गागरीहातु, चतोमहातु, कुंटीया (खूंटी), हलदा (हसदा) सरोवादा (सारूदा) हेसाडीह, चाकी आदि स्थानों से गुजरते हुए टेबोघाटी को पार कर पोड़ाहाट (नागरा)में आ गए।
होड़ (‘हो’) लोग लड़ाकू होने के कारण सिंगदिशुम या कोलपीड़ में बाहरी लोगों को रहने एवं आने जाने नहीं देते थे। वह मुगल- मराठा के अधीन नहीं थे। कभी भी मालगुजारी नहीं दी। वे सारंडा जंगलों के सात सौ शेरों एवं एशिया में जापान और यूरोप में स्कॉटिस हाइलेंडर्स की तरह स्वतंत्र थे। पोड़ाहाट, सरायकेला एवं खरसावां के राजा सिंगदीशुम किला एवं खाके राजा सिंगदिशुम (कोलपीढ़) को अपने कब्जे में करने के लिए कई पीढ़ी तक लड़ाकू होड़ लोगों से लड़ते रहें। लेकिन वे बार-बार हारते रहे।
छोटा नागपुर के महाराजा दिलीप नाथ शाहदेव ने पोड़ाहाट राजा की मदद से लगभग 20 हजार लोगों के साथ सिंगदिशुम पर 18 वीं शताब्दी के मध्य में दो बार आक्रमण किया था। वे दोनों बार हार गए। बामनघाटी के जमींदार ने 1780 में सिंगदिशुम पर आक्रमण किया था। लेकिन वे भी हार गए। बार-बार हार जाने के बाद पोड़ाहाट, खरसावां एवं सरायकेला के राजाओं ने सिंगदिशुम पर ब्रिटिश सरकार की मदद से नियंत्रण करने की कोशिश की। लगातार 12 वर्षों तक कोशिश करने के बाद 1 फ़रवारी 1820 को पोड़ाहाट के 49 वें राजा घनश्याम सिंह ने ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता किया। इसी समझौता के अनुसार 18 मार्च 1820 को मेजर रफसेल ने सिंगदिशुम पर एक बटालियन के साथ आक्रमण की शुरुआत की। वह 200 घुड़सवार फौजियों के साथ टेबो घाटी को पार कर राजा घनश्याम सिंह की राजधानी पोड़ाहाट पहुंचा।
मेजर रफसेज 20 फरवरी 1820 को राजा घनश्याम सिंह और खरसावां राजा ठाकुर चेतन सिंह को साथ लेकर सरायकेला राजा के यहां पहुंचा और कई वर्षों से स्वतंत्र रह रहे सिंगदिशुम (कोलपीड़) के लोगों को ब्रिटिश सरकार के अधीन करने के लिए अभियान शुरू किया।
काफी नरसंहार हुआ। गांव श्मशान में बदल गया। लड़ाकू होड़ लोगों ने अपने तीर धनुष से 4 ब्रिटिश फौज एवं 24 घोड़ों को मार गिराया। काफी संघर्ष करने पर भी जब होड़ लोग फौजियों के कब्जे में नहीं आए, तो फौजों ने औरतों पर अत्याचार शुरू कर दिया। 26 मार्च 1820 के अभियान में मेजर रफसेज को मिली सफलता की सूचना गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स को दी गई। इस सफलता के बाद मेजर रफसेज अपने काफिला के साथ जांगीबुरु घाटी से होकर जैंतगढ़ की ओर बढ़ा, जैसे ही काफिला बलांडिया गांव के निकट पहुंचा, वैसे ही ‘हो’ छापामार योद्धओं ने काफिले पर हमला कर दिया, तीरों की वर्षा होने लगी। जैसे- जैसे ब्रिटिश फौज आगे बढ़ती जाती वैसे-वैसे लड़ाकू होड़ टिड्डी दल की तरह ब्रिटिश फौज पर टूट पड़ता था। घुड़सवार कप्तान मेलार्ड परेशान हो गया। काफी कठिनाइयों का सामना करते हुए जैंतगढ़ पहुंच गया। लड़ाकू हो लोगों के इस छापामार युद्ध से परेशान होकर आगे के अभियान के लिए दुभाषियों का प्रयोग किया।
14 दिसंबर 1822 ई. को मेजर रफसेज की मौत हो गयी। मेजर रफसेज की मृत्यु ने कोलकाता के एवं लंदन को सकते में ला दिया। सिंगदिशुम ब्रिटिश के नक्शे से हट गया। रफसेज की मौत ने हिन्दुस्तान भर के यूरोपियनों को विषाद से भर दिया। मेजर रफ़सेज की मृत्यु से सबक लेकर कोलकाता के यूरोपियन अधिकारियों ने सिंगदिशुम को स्वतंत्र छोड़ देने का फैसला कर लिया। यह भी स्वीकार कर लिया गया की पृथ्वी पर होड़ लोग आजाद रहेंगे।
मेजर रफ़सेज की मृत्यु के बाद हजारीबाग का पोलिटिकल एजेंट मेजर गिलबर्ट को बना दिया गया। राजा घनश्याम सिंह ने मेजर गिलबर्ट से मिलकर मेजर रफसेज द्वारा दिया गया आश्वासन की याद दिलायी। आश्वासन को पूरा करने के लिए 7 मार्च 1823 ई. को गिलबर्ट ने ब्राह्मण फौजों को लेकर सरायकेला राजा से पौड़ी देवी को जब्त कर राजा घनश्याम सिंह को वापस दिला दिया। राजा घनश्याम सिंह ने भी मेजर रफसेज को दिए आश्वासन के अनुसार 1821 से लेकर 1827 तक नियमित रूप से सिंगदिशुम से आंरपंचा (मालगुजारी) लेकर ब्रिटिश कंपनी को देता रहा, लेकिन इसकी मृत्यु के बाद सिंगदिशुम की स्थिति बदल गई। ‘हो’ लोग 1830 से 1836 तक राजा एवं जमींदारों के नियंत्रण से बाहर हो गए।
लड़ाकू ‘हो’ सरदार कभी मुंडा विद्रोह (कोल विद्रोह 1831-32) करते, तो कभी बामनघाटी के भंज राजा एवं जमींदारों पर हमला करते, तो कभी खरसावां राजा पर, तो कभी जैतगढ़ के रघुनाथ बी.सी पर। कुंडियाघर के सुबन मुंडा के तीन लड़के नकिया, बुरिया, जुम्बल एवं बलांडिया के सरदार के नेतृत्व में 500 सौ हो लोगों के साथ जैतगढ़ पर हमला कर दिया। रघुनाथ बी.सी के घर को लूट लिया गया। इस प्रकार सिंगदिशुम में पुन: विद्रोह शुरू हो गया।
सिंगदिशुम को फिर से विद्रोह का केंद्र बनता देख ब्रिटिश कंपनी ने उसे दबाने और पुन: उसपर कब्जा करने के लिए विलियम बेंटिक द्वारा मेजर थॉमस विल्किंसन को पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। विल्किंसन ने बड़ी समझदारी से काम करना शुरू किया। उसने लोगों को समझाने के साथ-साथ हिंसा का रास्ता भी अपनाया। वह जगह-जगह सम्मेलन करने लगा, दुभाषियों के द्वारा लड़ाकू हो सरदारों को समझाया गया। फिर से 1821 ई. में हुए समझौता का पालन करने के लिए सरदारों पर दबाव डाला।
सिंगदिशुम के हो भारत के सबसे साहसी, आक्रामक और उत्तेजित होने वाले कबीले होने के कारण विल्किंसन ने हिंसात्मक रास्ता भी अपनाया। 1836 ई. में लगभग डेढ़ सौ लड़ाकू हो विद्रोहियों को गिरफ्तार कर रांची के अपर बाजार के किशनपुर जेल में बंद कर दिया। एक दिन ‘हो’ कैदियों ने जेल के फाटक को तोड़कर भागने का प्रयास किया तो 66 ‘हो’ विद्रोहियों को जेल के फाटक पर ही मार दिए गया। 12 घायल हुए, सिर्फ 4 ही भाग सके। विल्किंसन को इस कार्रवाई पर भारी पश्चताप हुआ। उसने सरकार से आदेश लेकर बाकी बंदियों को रिहा कराया।
‘हो’ (होड़) मुंडाओं के समान पहले नागपुर में रहते थे। मुंडा के साथ ‘हो’ की जो भी भाषा एवं सांस्कृतिक समानताएं पायी जाती है, उससे या अनुमान किया जा सकता है, कि यह दोनों ही जातियां शताब्दी पूर्व एक दूसरे से अलग हुई हैं। फिर भी कोल्हान में ‘हो’ की व्यापकता उनके सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तन के अस्पष्ट अधिकार की प्रथा मुंडा और ‘हो’ में एक दूसरे से थोड़ा भिन्न है।
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)
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