रंजन गोगोई और डीवाई चंद्रचूड़ जैसे न्यायाधीश हैं ‘हाथीटटोल सूरदासी हिंदू’

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स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के लिए कहा था कि “वो एक हजार विवेकानंद को पैदा कर सकते हैं।” राम कृष्ण परमहंस ने सर्वधर्म समभाव की शिक्षा देते हुए कहा था कि सारे ही धर्म ईश्वर की ओर ले जाते हैं। उन्होंने विभिन्न धर्मों के धर्मांध लोगों के लिए चार अंधे व्यक्तियों का दृष्टांत देते हुए कहा था कि “चार अंधे एक हाथी (ईश्वर की उपमा) को आगे, पीछे, और दाएं बाएं से स्पर्श कर रहे हैं और अपने-अपने आंशिक, सीमित अनुभव के अनुसार हाथी (ईश्वर) की कल्पना कर रहे हैं और आपस में झगड़ रहे हैं।”

वह कहते थे कि वही ब्रह्म डुबकी लगाकर कहीं कृष्ण के रूप में बाहर आता है, कहीं ईसा मसीह के रूप में और कहीं मोहम्मद के रूप में। यही नहीं उन्होंने स्वयं हर धर्म की पूरी साधना कर स्वयं उच्च आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त किए थे। वैसे क्या नानक, क्या चैतन्यदेव, क्या साईं बाबा सभी तो सेक्युलर जैसे ही थे। स्वामी विवेकानंद भी इसी मत को मानने वाले थे।

रामकृष्ण मिशन के अंतर्गत आने वाले अद्वैत आश्रम, (मायावती, चंपावत, उत्तराखंड) ने दस खण्डों में “विवेकानंद साहित्य” का प्रकाशन किया है। दसवें खंड के पेज संख्या 385 के अनुसार स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि, ” …वेदांत सभी को ग्रहण करता है। दूसरे देशों की तुलना में भारत में हमारी धर्म शिक्षा का एक विशेषत्व है। मान लीजिए, मेरे एक लड़का है। मैं उसे किसी धर्म मत की शिक्षा नहीं दूंगा, मैं उसे प्राणायाम सिखाऊंगा, मन को एकाग्र करना सिखाऊंगा और थोड़ी बहुत सामान्य प्रार्थना की शिक्षा दूंगा; परंतु वैसी प्रार्थना नहीं, जैसी आप समझते हैं, वरन् इस प्रकार की कुछ प्रार्थना-“जिन्होंने इस विश्व ब्रह्मांड की सृष्टि की है, मैं उनका ध्यान करता हूं- वे मेरे मन को ज्ञानालोक से आलोकित करें।”

इस प्रकार उसकी धर्म शिक्षा चलती रहेगी। इसके बाद वह विभिन्न मतावलंबी दार्शनिकों और आचार्य के मत सुनता रहेगा। उनमें से जिनका मत वह अपने लिए सबसे अधिक उपयुक्त समझेगा, उन्हीं को वह गुरु रूप से ग्रहण करेगा और स्वयं उनका शिष्य बन जाएगा।…

हमारी मूल बात यह है कि आपका मत मेरे लिए तथा मेरा मत आपके लिए उपयोगी नहीं हो सकता। प्रत्येक का साधन-पथ भिन्न-भिन्न होता है। यह भी हो सकता है कि मेरी लड़की का साधन मार्ग एक प्रकार का हो, मेरे लड़के का दूसरे प्रकार का, और मेरा इन दोनों से बिल्कुल भिन्न प्रकार का…. मेरा कोई लड़का इच्छा करे तो ईसा, बुद्ध या मुहम्मद का उपासक बन सकता है, वे उसके ईष्ट हैं।”

हमारे प्रधानमंत्री मोदी स्वामी विवेकानंद को अपना गुरु बताते हैं तो भारतीय दंगा पार्टी और आरएसएस के आनुषंगिक संगठनों के तमाम नेता भी स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श पुरुष मानने का दिखावा करते हैं। अफसोस तो यह है कि हमारे तथा कथित विद्वान कहे जाने वाले रंजन गोगोई और चंद्रचूड़ जैसे मुख्य न्यायाधीश भी ऐसे ही “हाथीटटोल सूरदासी हिंदू” हैं। आगे देखिये, स्वामी विवेकानंद भक्ति योग के संबंध में क्या उपदेश दे रहे हैं।

“भक्ति अपनी निम्न या गौण अवस्था में मनुष्य को बहुधा मतांध और कट्टर बना देती है। हिंदू, इस्लाम या ईसाई धर्म में जहां कहीं धर्मांध लोगों का दल है वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। वह ईष्ट निष्ठा जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विकास संभव नहीं अक्सर दूसरे सब धर्म की भी निंदा का कारण बन जाती है।

प्रत्येक धर्म और देश में दुर्बल और अविकसित बुद्धि वाले जितने भी मनुष्य हैं वह अपने आदर्शों से प्रेम का एक ही उपाय जानते हैं। और वह है, अन्य सभी आदर्शों को घृणा की दृष्टि से देखना। यहीं इस बात का उत्तर मिलता है कि वही मनुष्य जो धर्म और ईश्वर संबंधी अपने आदर्शों में इतना अनुरक्त है कि किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उसके संबंध में कोई बात सुनते ही इतना खूंखार क्यों हो उठता है।

इस प्रकार का प्रेम कुछ कुछ दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की संपत्ति की रक्षा करने वाले एक कुत्ते की सहज प्रवृत्ति के समान है। पर हां, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से श्रेष्ठ है। क्योंकि वह कुत्ता अपने स्वामी को शत्रु समझ कर कभी भ्रमित तो नहीं होता। भले ही उसका स्वामी किसी भी वेश में सामने क्यों ना आ जाए। फिर मतान्ध व्यक्ति अपनी सारी विचार शक्ति खो बैठता है।

व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अनुरक्ति रहती है कि वह यह जानने का बिल्कुल इच्छुक नहीं रह जाता कि कोई व्यक्ति कहता क्या है? वह सही है या गलत? उसका तो एकमात्र ध्यान यह सुनने में रहता है कि वह बात कहता कौन है? तुम देखोगे अपनी संप्रदाय के लोगों के प्रति जो आदमी दयालु है, भला है और सच्चा है, वह अपने संप्रदाय से बाहर के लोगों के विरुद्ध बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकिचायेगी।

लेकिन ऐसी आशंका केवल भक्ति की निम्न स्तर की अवस्था में ही रहती है। इस अवस्था को गौण भक्ति कहते हैं। परंतु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त कर जाती है जिसे हम परा भक्ति कहते हैं तब कट्टरता और मदांधता की कोई आशंका नहीं रह जाती। इस तरह की भक्ति से अनुभूत व्यक्ति प्रेम स्वरूप भगवान के इतने निकट पहुंच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा भाव के विस्तार का यंत्र नहीं बन सकता।

(उमेश चन्दोला पशु चिकित्सक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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