Friday, April 19, 2024

चंद लड़ाइयों और आंदोलन से नहीं रोका जा सकता संघ का दानवी अभियान

आप जिससे लड़ रहे हैं, उसे इस बात से बहुत कम फर्क पड़ता है कि आपकी बात कितनी सही है, आप कितना उनका पर्दाफाश कर रहे हैं। उसके पास अपना एजेंडा है। उसे भारतीय जनमानस की मानसिकता पता है, और उसे पूरा भरोसा है कि भारतीय समाज अब काफी हद तक उसकी ग्रिप में आ चुका है।

पिछले कई दशकों से राष्ट्रवाद की घुट्टी में पाकिस्तान, मुसलमान के साथ सेना का नरेटिव रचा गया। सेना पर कोई सवाल नहीं खड़ा करना है (भले ही सेना ही क्यों न इसमें पिस रही हो) और हिंदुत्व के हित के नाम पर कुछ भी परोस दिया जाएगा, उसकी स्वीकार्यता खुद सभी राजनीतिक दलों, नागरिक समाजों ने दे दी है।

यही वजह है कि वो चाहे 55% आबादी वाले किसान का गला घोटना हो, बेरोजगारों की करोड़ों की संख्या में फ़ौज हो, पेट्रोल, डीजल और गैस पर पिछले 6 सालों में दुगुनी तिगुनी मार हो, बच्चियों पर अपराध की घटनाओं में कई गुना इजाफे का प्रश्न हो, दलितों आदिवासियों मुस्लिमों पर दमन को अबाध गति से बढ़ते देखते हुए भी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है।

कल देश के कई जगहों पर बैंकों के कर्मचारी प्रदर्शन करते देखे गये। दो बैंकों का इस साल और दो का अगले साल निजीकरण करना प्रस्तावित है। अब मार सीधी उन पर पड़ने लगी है, जो खुद को इस व्यवस्था में सबसे सुरक्षित महसूस करता था और सरकार का समर्थक रहा है।

भारतीय औद्योगिक विकास में कामगारों के दो स्पष्ट वर्ग दिखाई देते हैं। वामपंथियों ने एतिहासिक रूप से अभी तक अपना सारा जोर इसी वर्ग के नेतृत्व में बदलाव को लेकर रखा था। आज भी है, और शायद ही इस प्रस्थापना में कोई बदलाव हो।

लेकिन आज तक जहाँ यूनियनें बनीं, उनके पास सरकार पोषित संस्थाएं थीं। उनके पास काम के घंटे से लेकर, बीमा, महंगाई भत्ता, वेतन आयोग, पीएफ, ईएसआई, पेंशन इत्यादि के अधिकार हासिल थे।

एक दूसरा वर्ग असंगठित क्षेत्र में था, जिसके पास ये अधिकार नहीं थे। 80 के दशक के बाद जहाँ पहले वर्ग में भर्तियों में काफी कमी होने लगी, वहीं सारा देश ठेके पर चलने लगा। धीरे-धीरे निजी क्षेत्रों में भी ठेके के साथ यह व्यवस्था जो शुरू हुई, आज वह अस्पताल, स्कूल, सार्वजनिक क्षेत्रों से होते हुए संसद के भीतर तक पहुँच चुकी है।

कई राज्यों में पुलिस तक (गुजरात) ठेके पर है। इनके अधिकारों के लिए आवाज उठाना एक सबसे बड़ा टेढ़ा काम है। ये अपनी आवाज भी बुलंद कर पाएं, समाज और देश का अग्रणी बनने की भूमिका तो काफी दूर की कौड़ी है।

ऐसे में संगठित क्षेत्र के मजदूरों के नेता और पार्टियों के पास साल में एक बार भारत बंद का आह्वान एक वार्षिक अनुष्ठान लगता है।

भारतीय कृषि के संकट में मौजूदा सरकार ने गति देने के लिए जिन कृषि कानूनों को पारित किया है, वे ताबूत में आखिरी कील ठोकने वाले साबित होने जा रहे थे। इसे किसान संगठनों ने समझा और सबसे पहले एमएसपी पर बाकी देश से बेहतर हालात वाले किसानों ने आवाज उठाई। धीरे-धीरे हरियाणा, पश्चिमी यूपी से यह आन्दोलन अब राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र की सीमा से होता हुआ तमिलनाडु, तेलंगाना तक पहुँच गया है। जितना ही यह आन्दोलन बढ़ता जाएगा, उतना ही कृषि संकट, पूंजी के संकट से उत्पन्न मलाई खा रहे बेहद सीमित वर्ग के लिए अवरोध बढ़ता जाना है।

क्या इसी प्रकार के आन्दोलन की सुगबुगाहट सार्वजनिक क्षेत्र से देखने को मिल सकती है? यह एक बड़ा प्रश्न बना हुआ है।

बीएसएनएल के एक लाख से अधिक कर्मचारियों ने स्वैच्छिक पेंशन के जरिये खुद को इस आन्दोलन से अलग कर लिया था। 50 की संख्या में सुरक्षा क्षेत्र से जुड़े सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचे जाने के खिलाफ आन्दोलन पिछले कुछ वर्षों में देखा गया था। लेकिन उसकी कोई स्पष्ट छाप अभी भी देश में नहीं बन पाई।

बीपीसीएल की नीलामी जल्द ही होगी। एयर इंडिया बिकने के लिए कब से खड़ा है, लेकिन घाटे के कारण कोई खरीदार नहीं मिला। क्या लाभ में चलने वाले बैंकों को बेचना भी इसी तरह आसान रहने वाला है? या यहाँ से मजदूरों के आन्दोलन को बल मिलेगा, जो असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ लोगों को अचानक से राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की गिरफ्त में ले सकता है?

इस सबके लिए जिस राष्ट्रीय सोच की जरूरत है, उसका पूरी तरफ से अभाव अभी भी बना हुआ है।

किसान संगठनों द्वारा आहूत आन्दोलन से इसकी कुछ पड़ताल की जा सकती है। किसानों को जब इस बात का अहसास हुआ कि उनके खिलाफ दशकों से चल रहे शोषण के साथ-साथ अब जमीन भी कुछ वर्षों में छीनी जा सकती है, वे शहरों में लाचार भीख मांगने के लिए और आज की मजदूरी से भी आधी पर काम करने के लिए विवश किये जा सकते हैं, तब कहीं जाकर उन्होंने दिल्ली की सीमाओं पर खुद को तबतक डटे रहने के लिए विवश किया है। वरना किसान कौम हर हालत में सबसे अधिक असंगठित, वर्गीय अंतर्विरोधों का शिकार रही है। इसमें जातीय अंतर्विरोध भी अहम् भूमिका निभाते आये हैं। हाल के दिनों में मुजफ्फरनगर काण्ड के जरिये साम्प्रदायिक विभाजन ने इसे एक स्थाई विभाजन में तब्दील कर दिया था।

क्या इसी प्रकार से मजदूरों कर्मचारियों के आन्दोलन में भी कल तेजी देखने को मिल सकती है?

इन सभी का उत्तर देना बेहद कठिन सवाल है। किसानों के आन्दोलन में राजनीतिक दलों की भूमिका न के बराबर है। वे खुद अपने औचित्य को ढूंढने में लगे हुए थे। आज राष्ट्रीय लोकदल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी इसमें अपना अक्स तलाश रही हैं। वामपंथी पार्टियों ने जरूर पंजाब में किसानों को संगठन बनाने की कला सिखाई हो, लेकिन यह विशुद्ध किसानों के अंदर की आवाज ही थी जिसने इतने सतत आन्दोलन को खड़ा किया है। उसके साथ उनके शहरों और विदेशों में नाते रिश्तेदारों ने अपने ग्रामीण परिवेश के लगाव को मजबूती प्रदान की है।

इस प्रकार का लगाव क्या औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाला मजदूर, कर्मचारी अपने ऑफिस, फैक्ट्री से रखता है? यदि नहीं रखता और सोचता है कि एक जगह से हटाए जाने पर वह दूसरी जगह नौकरी पा सकता है, तो वह आन्दोलन के प्रति कितना अडिग रह पायेगा?

राजनीतिक दलों और विशेषकर वाम दलों के पास जो एजेंडा था, क्या वे आज भी उस पर टिके हुए हैं? या उनके लिए किसी तरह अपनी पुरानी पहचान को ही बना पाने की जद्दोजहद अभी भी सबसे अहम् बनी हुई है?

पूंजीवाद के अपने खड़े किये गए संकट ने भारतीय समाज के सभी वर्गों, समुदायों को भी भारी संकट में डाल दिया है, उत्तरोत्तर वे इस हमले को होते देख पा रहे हैं। लेकिन अतीत से जीवनी शक्ति लेनी है या अपने वर्तमान और भविष्य के संकट को हल करना है, यह दुविधा और द्वन्द हमेशा जनमानस में बना रहने वाला है। पिछड़ी सोच की संवेदनाओं को भड़काने के लिए देश ने कई दशकों से संघ को खुली छूट दे रखी थी, और उसे लगता था कि ये भौंकते हैं इन्हें भौंकने दो। खुद को विचारधारात्मक सवालों से बचते बचाते आगे बढ़ने की इस ललक में देश भूल गया कि करोड़ों लोगों को विकास के पथ पर वह मुकाम हासिल नहीं हो रहा है, और वे एक एक कर अतीत के गौरव गान में खुद को ढूढ़ रहे हैं। आज व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी न सिर्फ वर्चुअल विश्वविद्यालय बन चुके हैं, बल्कि अक्सर राष्ट्रीय मीडिया तक उसी से चलता है, मंत्रियों के बोल निकलते हैं। रिंकू शर्मा के दिल्ली वाले केस में एक बार फिर से इसे देखा जा सकता है। टूलकिट को लेकर खड़ा किये गए वितण्डा में भी करोड़ों लोगों को नहीं मालूम कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था, यह तो एक किस्म का कार्यक्रम का विवरण था।

यह अवश्य है कि यदि कुछ बुनियादी बदलाव की दरकार है तो कामगार वर्ग के आंदोलन में खुलकर सामने आने पर ही इसके सर्वव्यापी होने की और सरकार के चिंतित होने में देखा जा सकता है। पूंजी पर सीधी चोट का काम भी शहर में होता है। पंजाब के किसानों ने जिओ के बहिष्कार से कुछ लाख ग्राहक कम जरुर हुए हैं, लेकिन उसका कोई प्रभावी असर नहीं पड़ा है।

यह काम एक राजनीतिक आन्दोलन से ही संभव है, जो अगर आज मध्य में होता तो उसके लिए बेहद आसान होता। लेकिन कई बार व्यवस्था परिवर्तन के लिए बनाए गए औजार समय के साथ भोथरे पड़ जाते हैं, विजन काफी कुछ बदल चुका होता है। संगठनों के कार्यकर्त्ता जड़ता का शिकार हो चुके होते हैं, और अंततः संगठन अपने ही बोझ तले कराह रहा होता है। हर बार नए संगठन उन्हीं विचारों को नए तेवर के साथ पेश करते हुए नया नेतृत्त्व प्रदान करते हैं। पुराना बना बनाया ढांचा क्षीण पड़ता जाता है।

धरती के गर्भ में लगातार असंख्य हलचलें जारी रहती हैं। पता नहीं कब भीतर की हलचलों का सतह पर भूकंप के रूप में परिणाम दिखाई दे, इस बारे में भूगर्भशास्त्रियों को आज तक अंदाजा नहीं लग पाया है। समाज भी इसी प्रकार मुख्य अंतर्विरोधों के साथ-साथ असंख्य द्वंद्वों के बीच में गुजर रहा होता है, न जाने कब एक दूसरे से अनजान श्रृंखलाबद्ध भूचाल सतह पर नजर आये, इसका अंदाजा किसी के लिए भी लगा पाना सहज बिल्कुल नहीं है।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

AIPF (रेडिकल) ने जारी किया एजेण्डा लोकसभा चुनाव 2024 घोषणा पत्र

लखनऊ में आइपीएफ द्वारा जारी घोषणा पत्र के अनुसार, भाजपा सरकार के राज में भारत की विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है और कोर्पोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ा है। घोषणा पत्र में भाजपा के विकल्प के रूप में विभिन्न जन मुद्दों और सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर बल दिया गया है और लोकसभा चुनाव में इसे पराजित करने पर जोर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने EVM और VVPAT डेटा के 100% सत्यापन की मांग वाली याचिकाओं पर निर्णय सुरक्षित रखा। याचिका में सभी VVPAT पर्चियों के सत्यापन और मतदान की पवित्रता सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया। मतदान की विश्वसनीयता और गोपनीयता पर भी चर्चा हुई।

Related Articles

AIPF (रेडिकल) ने जारी किया एजेण्डा लोकसभा चुनाव 2024 घोषणा पत्र

लखनऊ में आइपीएफ द्वारा जारी घोषणा पत्र के अनुसार, भाजपा सरकार के राज में भारत की विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है और कोर्पोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ा है। घोषणा पत्र में भाजपा के विकल्प के रूप में विभिन्न जन मुद्दों और सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर बल दिया गया है और लोकसभा चुनाव में इसे पराजित करने पर जोर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने EVM और VVPAT डेटा के 100% सत्यापन की मांग वाली याचिकाओं पर निर्णय सुरक्षित रखा। याचिका में सभी VVPAT पर्चियों के सत्यापन और मतदान की पवित्रता सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया। मतदान की विश्वसनीयता और गोपनीयता पर भी चर्चा हुई।