मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. चंद्रू की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने सिफारिश की है कि तमिलनाडु सरकार स्कूलों में छात्रों को उनकी जातीय पहचान बताने वाले रंगीन कलाई बैंड या अंगूठी पहनने तथा माथे पर तिलक लगाने से रोके। इसने स्कूलों के नामों में जातिसूचक शब्द हटाने की भी सिफारिश की है।
न्यायमूर्ति चंद्रू की अध्यक्षता में इस एकसदस्यीय समिति का गठन अगस्त 2023 में तिरुनेलवेली जिले के नांगुनेरी में हुई एक घटना के मद्देनजर किया गया था। इसमें अनुसूचित जाति के दो स्कूली बच्चों पर मध्यवर्ती जाति (ओबीसी) के छात्रों के एक समूह ने उनके घर में घुस कर दरांती द्वारा बेरहमी से हमला किया गया था।
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अंबिकापति का 17 साल का बेटा और 14 साल की बेटी सरकारी सहायता प्राप्त उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढ़ते थे। वहां की ताक़तवर थेवर जाति (ओबीसी) के लड़के उनके बेटे को सिर्फ़ इसलिए परेशान करते थे क्योंकि वह दलित था। वे लड़के अपनी जातिगत श्रेष्ठता का दावा करते रहते थे। वे अपने लिए नाश्ता, सिगरेट और बस टिकट खरीदने के लिए उसे मजबूर करते थे। जब उसने विरोध किया, तो उसे पीटा गया। जब उनके बेटे ने दो महीने से ज़्यादा समय तक दुर्व्यवहार से तंग आकर स्कूल जाना बंद कर दिया, तब इस उत्पीड़न के बारे में उसकी मां को पता चला। उन्होंने स्कूल प्रशासन को लिखित शिकायत दर्ज कराने का फ़ैसला किया। इसी गुस्से में उन लड़कों ने उनके घर में घुसकर भाई-बहन पर दरांतियों से हमला करके उन्हें खून से लथपथ कर दिया।
स्कूलों में मध्यम जाति के लड़के इमारतों और शौचालयों की दीवारों पर अपनी जाति के नाम लिख देते हैं। और डेस्क पर अपने नाम उकेर देते हैं। इस जातीय दबंगई की वजह से एक सरकारी हाई स्कूल में छात्रों की संख्या कुछ साल पहले 1,500 से घटकर कुछ सौ रह गई है। एससी और ओबीसी सहित सभी समुदायों के माता-पिता ने अपने बच्चों को स्कूल से निकाल लिया है।
तमिलनाडु के मुख्यतः गांवों, क़स्बों और छोटे शहरों में वहां की प्रभावशाली पिछड़ी जातियों द्वारा दलितों के साथ भेदभाव और जातीय हिंसा की जड़ें काफी गहरी हैं। वहां न केवल विद्यालयों में, बल्कि पानी के पाइपों और बस स्टैंडों तक के इस्तेमाल के लिए अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग रंगों से निशान बनाये गये हैं। जातिगत वोट बैंक वाली पार्टियों की चुनावी सफलता ने ऐसे और संगठनों को जन्म दिया है जिनके नेता प्रभावशाली किशोरों को राजनीतिक पूंजी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे अपने तथाकथित जातीय गौरव के प्रदर्शन और दलित जातियों को नीचा दिखाने के लिए अपने जातीय प्रतीकों का खुलेआम इस्तेमाल करते हैं। ऐसी ही दबंगई वहां मंदिरों के त्योहारों और सांस्कृतिक उत्सवों के दौरान भी की जाती है, जहां वे खुद को शासक जाति के रूप में पेश करते हैं।
गांवों में ज्यादातर दलित भूमिहीन और खेतिहर मजदूर हैं, जो अपनी ग़रीबी के कारण इन प्रभावशाली जातियों के साहूकारों के क़र्जदार बने रहते हैं। भारी ब्याज पर दिये गये क़र्ज न चुका पाने के बहाने ये साहूकार अक्सर उनकी नाममात्र की जमीनों को अपने नाम पर लिखवा लेने की कोशिश में रहते हैं। दलित अगर बैंक से क़र्ज लेकर ई-रिक्शा चलाना चाहता है, तो ये उच्च जातियों के लोग उसमें बैठने से भी बचते हैं। यहां तक कि कमजोर वर्ग अपनी संपत्ति को अपनी मर्जी या कीमत पर भी नहीं बेच सकता क्योंकि प्रमुख जाति दरें तय करती है। तमिलनाडु के ग्रामीण इलाक़ों में आर्थिक-सामाजिक शोषण
के इस तंत्र ने वहां के दलितों को निस्सहाय, निरुपाय और अकिंचन बना कर रख दिया है।
वहां की शिक्षा-प्रणाली में व्याप्त जातीय भेदभाव से निपटने के लिए चंद्रू समिति की कुछ अन्य सिफारिशें इस प्रकार हैं-
● सरकारी स्कूलों के नामों में ‘कल्लर रिक्लेमेशन’ या ‘आदि द्रविड़ वेलफेयर’ जैसे किसी जाति विशेष के सूचक शब्दों को भी हटा दिया जाए। मौजूदा निजी स्कूलों के मामले में स्कूल शिक्षा विभाग को इन स्कूलों से जातिगत पदनाम छोड़ने का अनुरोध करना चाहिए। “अगर वे इसका पालन करने में विफल रहते हैं, तो व्यापक जनहित में विधायी बदलावों सहित उचित कानूनी कदमों पर विचार किया जाना चाहिए।”
● राज्य सरकार को मौजूदा तमिलनाडु सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1975 में संशोधन करने के लिए कदम उठाने चाहिए तथा इसमें यह प्रावधान जोड़ना चाहिए कि शैक्षणिक संस्थान शुरू करने का इरादा रखने वाली सोसायटी को अपने संस्थान के नाम में कोई जातिसूचक शब्द शामिल नहीं करना चाहिए।
● छात्रों की साइकिलों पर भी जाति का उल्लेख करने या किसी भी तरह से जाति संबंधी भावना के प्रदर्शन को रोका जाना चाहिए और इसके लिए उनके माता-पिता से भी बात की जानी चाहिए।
● छात्रों की उपस्थिति रजिस्टर में उनकी जाति से संबंधित कोई कॉलम या विवरण नहीं होना चाहिए।
● “किसी भी बिंदु पर कक्षा शिक्षक छात्रों को सीधे या परोक्ष रूप से उनकी जाति का उल्लेख करके नहीं बुला सकते हैं, न ही छात्र की जाति या जाति से जुड़े तथाकथित चरित्र के बारे में कोई अपमानजनक टिप्पणी कर सकते हैं।”
● रसोइयों की जातिगत पहचान को छिपाने के उद्देश्य से विद्यालयों की बजाय हर ब्लॉक/पंचायत संघ में एक केंद्रीकृत रसोई की व्यवस्था की जाए।
● सरकार सामाजिक न्याय निगरानी समिति गठित करे जिसमें शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों, जो सामाजिक मुद्दों से संबंधित पाठ्यक्रम की जांच करें और संशोधनों का सुझाव दें, तथा सामाजिक न्याय, समानता और गैर-भेदभाव पर आधारित विषयों को शामिल करने पर जोर दें।
● समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए बी.एड. और डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन के पाठ्यक्रमों को संशोधित किया जाए।
● सभी स्कूलों और कॉलेजों में प्रत्येक कक्षा में विद्यार्थियों के बैठने की व्यवस्था पूरी तरह से उनके नामों के वर्णमाला क्रम पर आधारित हो।
● विद्यालयों में छात्रों द्वारा मोबाइल फोन का उपयोग पहले से प्रतिबंध है, लेकिन उस पर अमल में सख्ती नहीं बरती जा रही है। “मोबाइल फोन पर प्रतिबंध का यह आदेश न केवल राज्य बोर्ड के तहत आने वाले स्कूलों के छात्रों पर लागू होना चाहिए, बल्कि सीबीएसई और आईसीएसई जैसे अन्य बोर्डों से संबद्ध स्कूलों के छात्रों पर भी लागू होना चाहिए, ताकि सभी शैक्षणिक संस्थानों में एक जैसी व्यवस्था लागू हो।”
● तमिलनाडु सरकार स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक सभी छात्रों के लिए एक अलग कानून बनाए, ताकि सामाजिक समावेश की नीति लागू की जा सके और जातिगत भेदभाव को समाप्त किया जा सके। “इस कानून में छात्रों, शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों के साथ-साथ ऐसे संस्थानों के प्रबंधन पर कर्तव्य और जिम्मेदारियां लगाई जानी चाहिए तथा इन निर्देशों का पालन न करने पर पर्यवेक्षण, नियंत्रण और दंड के लिए तंत्र निर्धारित किया जाना चाहिए।”
● “पाठ्यक्रम और मानकों से संबंधित दिशा-निर्देशों को निर्धारित करना और बोर्ड परीक्षा आयोजित करना स्कूल शिक्षा निदेशालय और राज्य सरकार द्वारा प्रबंधित किया जाए।”
● “सरकार को स्थानीय निकायों को वास्तविक स्वायत्त शक्तियां प्रदान करने के लिए नया कानून बनाना चाहिए, मौजूदा तमिलनाडु पंचायत अधिनियम 1994 में संशोधन करके शिक्षा को अधिक जनोन्मुखी बनाना चाहिए।”
● स्कूल शिक्षा प्रणाली में स्थानीय निकायों को दी गई वर्तमान सीमित भूमिका को प्राथमिक शिक्षा पर पूर्ण नियंत्रण तक विस्तारित किया जाए। ब्लॉक-स्तरीय प्रशासन (पंचायत संघों) का स्कूलों पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए, जिसमें कर्मचारियों की नियुक्ति, तैनाती और निष्कासन शामिल है। लगभग 25 साल पहले भी, दक्षिणी जिलों में जातिगत संघर्षों के बाद, सरकार ने परिवहन निगमों और जिलों को दिए गए जाति, समुदाय और नेताओं के नाम हटा दिए थे। बहुत पहले, इसने सड़क के साइनबोर्ड से जातिगत उपनाम हटाने का प्रयोग किया था।
कुछ साल पहले, लोकप्रिय नेताओं के जातिगत उपनाम पाठ्यपुस्तकों से मिटा दिए गए थे। ज़्यादातर बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, विधि-विशेषज्ञों और सामाजिक न्याय- कार्यकर्ताओं ने जस्टिस चंद्रू समिति की सिफारिशों का स्वागत किया है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेता एच. राजा ने कहा: “श्री चंद्रू की रिपोर्ट विवादास्पद है क्योंकि यह हिंदुओं को निशाना बनाती है। रिपोर्ट में तिलक पर आपत्ति कैसे हो सकती है? राज्य सरकार को पूरी रिपोर्ट को खारिज कर देना चाहिए।” यह प्रतिक्रिया भाजपा की स्वाभाविक उच्चजातीय वर्चस्ववादी सोच और दलित उत्पीड़न के प्रति अमानवीय बेशर्मी को ही दर्शाती
है।
लेकिन सवाल तो उठता है कि जातीय भेदभाव के खिलाफ देश में उठे सबसे सशक्त और सफल द्रविड़ आंदोलन की भूमि पर इतने लंबे अरसे के बाद भी इस हद तक जातीय भेदभाव कैसे बना रह गया है? क्या उसकी कुछ अंतर्निहित सीमाएं थीं, जिसके चलते यह ब्राह्मणवाद का खात्मा करने में विफल रहा?
द्रविड़ आंदोलन मुख्यतः ब्राह्मण वर्चस्व के खिलाफ उन ग़ैर-ब्राह्मण मध्यम और निम्न-मध्यम जातियों से आये हुए छोटे दुकानदारों, छोटे किसानों, कारीगरों और पहली पीढ़ी के कर्मचारियों के भारी समर्थन से खड़ा हुआ था, जो संसाधनों के पुनर्वितरण और जातिगत असमानता को चुनौती देने के लिए एकजुट हुए थे। हालांकि इस आंदोलन ने सामाजिक संबंधों और सार्वजनिक संस्कृति पर काफी प्रभाव डाला, लेकिन न तो संपत्ति और आय के पुनर्वितरण के वादे पूरे हुए, न ही दलित जातियों के साथ भेदभाव में ज्यादा फर्क आया।
इस आंदोलन ने ब्राह्मणों से निजात तो दिलायी, लेकिन ब्राह्मणवाद बचा रह गया। और यह आंदोलन भी अन्ततः जाति के विनाश की बजाय जाति के इस्तेमाल के सहारे अभिजात वर्चस्व के नये सत्ता केंद्रों की हिफाज़त में मशगूल हो गया। जाति-व्यवस्था बनी रही, उसका आर्थिक तंत्र भी बना रहा। आंदोलन से पहले शोषण का शिकार हो रही मध्यम जातियां नये शोषकों की भूमिका में आ गयीं। सदियों से शोषण की सबसे निचली पायदान पर रह रहे दलितों की हालत इन नये ब्राह्मणों के सामने भी जस की तस बनी रही।
इससे भी यही पता चलता है कि जाति-व्यवस्था के पूर्ण विनाश के बिना, आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व के निरंतर उभर रहे नये-नये केंद्रों की पहचान और उनके उन्मूलन के सतत अभियान के बिना, एक टिकाऊ लोकतंत्र की कोई संभावना नहीं। फिर भी, उम्मीद की जानी चाहिए कि जस्टिस चंद्रू समिति की सिफारिशें इसकी भयावहता को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी।
( शैलेश का लेख।)