Wednesday, April 17, 2024

कर्नाटक हाईकोर्ट ने किया ‘आरोग्य सेतु’ की अनिवार्यता को खारिज

‘आरोग्य सेतु‘ से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान कर्नाटक हाईकोर्ट ने 19 अक्तूबर को याचिकाकर्ता के पक्ष में अंतरिम आदेश देते हुए कहा है कि आरोग्य सेतु न डाउनलोड करने वाले नागरिकों को केंद्र या राज्य सरकार जरूरी सुविधाओं से महरूम नहीं रख सकतीं। जस्टिस अभय ओका और जस्टिस अशोक एस किनागी की बेंच ने आरोग्य सेतु के अनिवार्य डाउनलोड के खिलाफ याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि सार्वजनिक सेवाएं बाधित नहीं की जा सकतीं। अदालत का यह फैसला आम लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 

दरअसल बेंगलुरु निवासी एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर अनिवार ए अरविन्द ने जो एक गैरसरकारी संस्था के साथ जुड़कर नागरिक अधिकारों के लिए काम करते हैं, ‘आरोग्य सेतु’ के खिलाफ याचिका दायर की थी। अरविंद ने सार्वजनिक सेवाओं तक पहुंचने के लिए आरोग्य सेतु आवेदन के अनिवार्य उपयोग को चुनौती दी है।

इस मामले में सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से पेश हुए अधिवक्ता एमएन कुमार ने कहा कि “सभी अथॉरिटी राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एनईसी) के आदेश से बंधी हैं। एनईसी आदेश स्पष्ट रूप से कहता है कि आरोग्य सेतु एप का उपयोग अनिवार्य नहीं है। कोई भी प्राधिकरण एनईसी के आदेश से आगे नहीं जा सकता है। अभी तक किसी भी अथॉरिटी ने किसी भी नागरिक को सेवाओं से वंचित नहीं किया है”। 

हालांकि केंद्र सरकार की ओर से मामले में आपत्तियां दर्ज करने के लिए और समय की मांग की गयी है और अदालत ने मामले में अंतरिम आदेश देते हुए केंद्र सरकार को 3 नवंबर तक अपनी आपत्तियां दर्ज करने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही मामले को 10 नवंबर को आगे की सुनवाई के लिए पोस्ट कर दिया।

आपको बता दें कि एक सप्ताह पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) प्रमुख ने आरोग्य सेतु की तारीफ करते हुए कहा था कि इससे अथॉरिटीज को कोविड-19 की पहचान करने में बड़ी सफलता मिली है। 

यह बात उन्होंने किस आधार पर कही थी पता नहीं। क्योंकि आरोग्य सेतु होने के बाद भी भारत में उपराष्ट्रपति सहित दर्जनों संसद सदस्य कोरोना पीड़ित हुए हैं। यहां तक कि सरकार की ओर से कोविड-19 से देशवासियों को सावधान करने वाले मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन और उनके परिवार वाले भी कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। सवाल है कि क्या सरकार से जुड़े और सरकारी प्रचार करने वालों ने इस एप को डाउनलोड नहीं किया क्या? यदि किया तो वे कोरोना से संक्रमित कैसे हुए? 

गौरतलब है कि केंद्र सरकार कोरोना की रोकथाम में आरोग्य सेतु को कारगर हथियार मानती रही है। जब इस एप की लॉन्चिंग हुई थी तब लोगों के मेडिकल डेटा को लेकर भी चिंताएं जाहिर की गयी थीं। तब सरकार की तरफ से साफ किया गया था कि लोगों का गोपनीय डेटा गोपनीय ही रहेगा। यह भी बताया गया था कि एप को मोबाइल से अनइंस्टॉल करने के कुछ समय बाद डेटा अपने-आप गायब हो जाएगा।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि केंद्र सरकार ने अब तक के अपने कार्यकाल में इस तरह का कोई भ्रामक जनविरोधी निर्णय लिया हो। इससे पहले आधार नम्बर को लेकर भी मोदी सरकार का रवैया ऐसा ही था।

गरीबों को राशन और मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं जो केवल सरकारी विज्ञापनों तक सीमित हैं, पाने के लिए आधार नंबर का अनिवार्य बनाना ऐसा ही एक कदम था।  

बीते 23 सितम्बर को नई दुनिया में खबर थी कि अब भोपाल जिले में किसी भी व्यक्ति को बिना आधार कार्ड राशन नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं परिवार के उसी सदस्य को राशन दिया जाएगा, जिसका आधार नंबर सॉफ्टवेयर में अपडेट हो।

जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में कहा था कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है। 

बिना आधार नम्बर के मोबाइल नम्बर भी नहीं बदल सकते। यहां तक कि मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए आधार संख्या अनिवार्य है! यहां जीवन और मौत सब आधार नम्बर पर आधारित कर दिया गया। बीजेपी जब विपक्ष में थी तो आधार का विरोध करती थी, सत्ता पाते ही उसी आधार को नागरिक के जीवन का आधार बना दिया। 

याददाश्त ताजा करने के लिए इस वीडियो को देखिए। क्या जो सवाल गुजरात के तत्कालीन सीएम मोदी ने तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आधार के बारे में पूछा था, उन सवालों और संख्याओं से जुड़े जवाब पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को दे दिया है? 

राजनीति में पाखंड की कोई सीमा नहीं होती, यह बात मोदी, बीजेपी और मोदी सरकार से सिद्ध किया है। विपक्ष में रहते बीजेपी का जीएसटी विरोध याद है आपको? 

उसी तरह विपक्ष में रहते भारत के खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश का विरोध और सत्ता में आते ही 100 फीसदी विदेशी निवेश का फैसला! 

मोदी सरकार ने अपने 6 साल के कार्यकाल में वे सब निर्णय लिए विपक्ष में रहते बीजेपी जिनका विरोध करती थी। तमाम जन विरोधी निर्णय लिए जिनसे केवल पूंजीपतियों और अडानी, अम्बानी जैसे कुछ ख़ास उद्योगपतियों को फायदा हुआ है। श्रम कानूनों में बदलाव और हाल ही में राज्यसभा में अलोकतांत्रिक तरीके से पारित किसान विरोधी कृषि विधेयक इसके ताजा उदाहरण हैं। 

(नित्यानंद गायेन कवि और पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

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