वाराणसी। उत्तर प्रदेश के बनारस में गंगा की लहरों पर तैरती आरतियों की रोशनी, मंदिरों और गंगा घाटों पर गूंजते जयघोष-इस शहर की पहचान यही तो रही है। इस बार लाखों तीर्थयात्री काशी पहुंचे, तो उन्हें न शांति मिली, न आध्यात्मिक सुकून। उन्हें मिली तो बस अव्यवस्था, धक्का-मुक्की, भूख-प्यास और बेबसी की लंबी रातें।
प्रयागराज के महाकुंभ में आस्था की डुबकी लगाने के बाद मौनी अमावस्या पर करीब 20 लाख तीर्थयात्री विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने पहुंचे। लेकिन इस बार काशी ने उन्हें बांहें नहीं, बल्कि भीड़, जाम और दुर्व्यवस्था की घुटन दी। किसी यात्री के लिए ठहरने की जगह नहीं, किसी के लिए खाने का ठिकाना नहीं। सड़कों पर पैदल चलना दूभर, और मंदिरों तक पहुंचना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। हर ओर एक ही सवाल था, क्या यही है ‘मोदी की काशी’?”

गंगा किनारे बैठी प्रियंका की आंखों में थकान और चेहरे पर निराशा थी। जब मैंने पूछा, “बहन, इतनी परेशान क्यों लग रही हैं?” तो उनके शब्दों ने कलेजा चीर दिया और कहा “हमने सोचा था कि बाबा विश्वनाथ और कालभैरव के दर्शन कर पुण्य कमाएंगे, गंगा में डुबकी लगाएंगे, लेकिन यहां तो रहने को जगह तक नहीं। बच्चों के साथ पूरी रात गाड़ी में बैठकर बितानी पड़ी। ना खाने का ठिकाना, ना सोने की जगह।”
प्रियंका की तरह ही न जाने कितने परिवार इस हाड़ कंपा देने वाली ठंड में रातभर फुटपाथों पर बैठे रहे। कोई धर्मशाला के बाहर खड़ा रहा, कोई मंदिर परिसर में कोने खोजता रहा। होटल और धर्मशालाएं खचाखच भरी थीं। जहां जगह खाली थी, वहां मनमाने दाम वसूले जा रहे थे।
बनारस जंक्शन, कैंट स्टेशन, और गंगा घाट—हर जगह बस एक ही मंजर था। लोग भूखे-प्यासे, भीड़ के सैलाब में एक अदद छांव की तलाश में भटकते हुए। किसी को गाड़ियों में सोना पड़ रहा था, तो किसी ने फुटपाथ को ही अपना बिस्तर बना लिया। तेलियाबाग से मिंट हाउस तक हर गली, हर चौराहा रातभर जागता रहा, लेकिन शासन-प्रशासन बेखबर बना रहा।

भूख और बेबसी की कहानी
गंगा तट पर बैठी 70 वर्षीय कुसुम देवी कांपते हुए बोलीं, “बेटा, मैं पहली बार आई हूं काशी। सोचा था कि बाबा के दर्शन के बाद मन को शांति मिलेगी। लेकिन यहां तो सब बेचैन हैं, कोई भूख से तो कोई बेबसी से। क्या यही है शिव की नगरी?”
बनारस के सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काशी पर इस बदइंतजामी का सीधा असर पड़ा है। मोदी, जिनका बनारस गढ़ माना जाता है, आज उन्हीं की कर्मभूमि में श्रद्धालुओं को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। बाहर से आने वाले तीर्थयात्री गुस्से और दुख में एक ही सवाल पूछ रहे हैं, “क्या यही है मोदी की काशी? जहां श्रद्धालु भूखे-प्यासे भटकने को मजबूर हैं?”
गंगा बह रही थी, मंदिरों में घंटियां गूंज रही थीं, लेकिन बनारस की सड़कों पर हजारों तीर्थयात्री अपनी आस्था और व्यवस्था के बीच की खाई को महसूस कर रहे थे। काशी की आत्मा जिंदा है, लेकिन उसकी सांसें इस भीड़, जाम और अराजकता में घुट रही हैं।
बनारस के गोदौलिया चौराहे पर खड़ी सीता नामक तीर्थयात्री की आंखों में आंसू थे। थकी हुई आवाज़ में उन्होंने कहा, “हमने सोचा था कि बनारस आकर शांति मिलेगी, बाबा के दर्शन कर मन को सुकून मिलेगा। लेकिन यहाँ तो भूख और बेबसी से लड़ना पड़ रहा है। मेरे बच्चों ने सुबह से कुछ नहीं खाया। ठहरने की कोई जगह नहीं, खाने के लिए कुछ नहीं।”
सीता के शब्द जैसे बनारस की आध्यात्मिक आभा के लिए एक चुभता हुआ प्रश्न थे। यह वही काशी है, जहां अतिथि को भगवान माना जाता था, लेकिन आज श्रद्धालुओं को लूटने और तकलीफ देने का अड्डा बन गई है। दुकानों के शटर के भीतर गद्दे डालकर रात बिताने के लिए 2,000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं। होटल वाले बेहिसाब किराए मांग रहे हैं, धर्मशालाओं के बाहर लोग घंटों कतार में खड़े हैं, लेकिन भीतर जाने का कोई रास्ता नहीं। काशी की इस लूट-खसोट को देखकर कोई भी शर्मिंदा हो जाए।
अपनी पहचान खो रही काशी
बनारस की पहचान इसकी सादगी और मेहमाननवाज़ी रही है। यहां के लोग बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने परिवार का हिस्सा मानते थे। लेकिन इस बार यहां के सीधे-साधे लोग भी परेशान और खामोश दिखे। स्थानीय लोग कह रहे हैं, “हम कुछ कहें तो कैसे कहें? भीड़ इतनी है कि खुद के लिए जगह बचाना मुश्किल हो गया है।”
ऑटो और नाव चलाने वालों की मनमानी चरम पर है। यही हाल फूल और प्रसाद बेचने वालों का है। अस्सी घाट से काशी विश्वनाथ मंदिर के समीवर्ती ललिता घाट तक तक नाव से जाने के लिए, जहां सामान्य दिनों में 50-100 रुपये लगते थे, अब 200-300 रुपये मांगे जा रहे हैं। एक नाविक ने खुलेआम कहा—”भीड़ इतनी है कि पैसे न देने वाले तो ऐसे ही छोड़ दिए जाएंगे।” यह सुनकर तीर्थयात्रियों के चेहरे लाचार हो गए। उनके पास और कोई विकल्प नहीं था।

इस अराजकता और अव्यवस्था के बीच सबसे ज्यादा तकलीफ बुजुर्गों और बच्चों को हो रही है। गंगा घाटों पर घंटों बैठे वृद्ध तीर्थयात्री, जो गंगा स्नान की आस में आए थे, भोजन और पानी की कमी से बेहाल नजर आए। एक सफेद दाढ़ी वाले वृद्ध व्यक्ति नरेश, जो कांपते हाथों से अपनी धोती संभाल रहे थे, की आंखों में आंसू थे। उन्होंने कहा, “हमने पूरी जिंदगी भगवान का नाम लिया, सोचा था कि यहां आकर शांति मिलेगी। लेकिन इस भीड़ और अव्यवस्था ने हमारी उम्मीदें तोड़ दी हैं।”
उनके शब्द काशी की पवित्रता पर सवाल उठा रहे थे। क्या आध्यात्मिक नगरी बनारस अब केवल एक पर्यटन केंद्र बनकर रह गई है? क्या श्रद्धालुओं की आस्था से खिलवाड़ काशी की नई सच्चाई बन चुकी है?
गोदौलिया चौराहे पर भीड़ के बीच सरोज देवी नामक एक महिला तीर्थयात्री खड़ी थी। चेहरे पर थकान, आंखों में आंसू, और मन में निराशा का बोझ। कांपती आवाज़ में बोली-“हमने सोचा था कि बनारस आकर शांति मिलेगी, बाबा के दर्शन कर मन को सुकून मिलेगा। लेकिन यहां तो भूख और बेबसी से लड़ना पड़ रहा है। मेरे बच्चों ने सुबह से कुछ नहीं खाया। ठहरने की कोई जगह नहीं, खाने के लिए कुछ नहीं।”

सरोज अकेली नहीं थी, ऐसे न जाने कितने श्रद्धालु इस आस्था के शहर में आकर बेबसी के शिकार हो रहे थे। जो बनारस कभी साधुओं और यात्रियों के लिए खुली बाहें फैलाए खड़ा रहता था, वहां आज एक रात बिताने के लिए 2,000 रुपये तक वसूले जा रहे थे। दुकानों के शटर के नीचे गद्दे बिछाकर जगह दी जा रही थी, और होटल मालिक बेहिसाब किराया मांग रहे थे। धर्मशालाओं के बाहर लंबी कतारें, लेकिन भीतर जाने का कोई रास्ता नहीं। आस्था और शोषण का यह कैसा खेल?
मंहगी नाव, महंगे ऑटो, श्रद्धालुओं की मजबूरी
काशी, जो कभी अतिथि देवो भव: की परंपरा के लिए जानी जाती थी, आज बेदर्दी से श्रद्धालुओं की जेबें काटने वाली नगरी बनती नजर आ रही है। काशी का यह बदला रूप हर बनारसी व्यक्ति के रूह तक को हिला देने वाला है। गंगा के किनारे नावों की कतारें थीं, लेकिन बैठने वालों की जेब का इम्तिहान लिया जा रहा है।
अस्सी घाट और नमो घाट से दशाश्वमेध तक काशी विश्वनाथ मंदिर तक नाव का किराया, जो पहले 50-100 रुपये था, अब भीड़ और यात्रियों जेबें टटोलकर तय किया जा रहा है। आस्था के नाम पर यह शोषण देखकर श्रद्धालुओं के चेहरे उतरते जा रहे हैं। उनके पास और कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है।
क्या कहता है प्रशासन
मंगलवार रात एक बजे गर्भगृह के पट बंद किए गए, लेकिन भोर 2:45 बजे मंगला आरती के लिए मंदिर दोबारा खोल दिया गया। मंगला आरती के पहले ही गंगाद्वार, नंदूफरिया और ढुंढीराज द्वार पर श्रद्धालुओं की लंबी कतारें लग गई थीं। मौनी अमावस्या पर काशी के 44 प्रमुख घाटों पर करीब 18-20 लाख श्रद्धालु पहुंचे।

भीड़ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रातभर गोदौलिया से मैदागिन तक भक्तों की कतारें लगी रहीं। बड़ी संख्या में लोग रेलिंग और बैरिकेडिंग के सहारे रातभर इंतजार करते रहे और भोर होते ही गंगा में आस्था की डुबकी लगाई।
सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक, श्रद्धालुओं की भारी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए वाराणसी प्रशासन ने 100 से अधिक अफसरों को सड़कों पर तैनात किया है। मंदिर तक पहुंचाने के लिए 10 प्रमुख प्वाइंट बनाए गए हैं और यातायात को नियंत्रित करने के लिए 4 एसीपी, 10 ट्रैफिक इंस्पेक्टर, 24 ट्रैफिक सब इंस्पेक्टर और 300 से अधिक होमगार्ड तैनात किए गए हैं।
काशी विश्वनाथ धाम की सुरक्षा में केंद्रीय सुरक्षा बल, पीएसी और पुलिस के 500 से अधिक जवानों को तैनात किया गया है। क्राउड मैनेजमेंट को देखते हुए पांच फरवरी तक के लिए विशेष यातायात एडवाइजरी लागू की गई है।
प्रशासन के दावे के बावजूद बनारस शहर में घोर अव्यवस्था है। सिर्फ सड़कें ही नहीं, गलियां भी जाम हो गई हैं। प्रशासनिक अमला वीवीआई की सेवा में लगा नजर आ रहा है। बनारस से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार जनवार्ता के संपादक राजकुमार सिंह ने जनचौक से कहा, “बनारस के पुलिस और प्रशासनिनक अफसरों ने क्राउड मैनेजमेंट का कोई रिहल्सल नहीं किया”।

उन्होंने कहा “भगदड़ से बचाव के लिए कोई पुख्ता रूपरेखा तैयार नहीं की गई। बनारस शहर में क्षमता से अधिक लोग आ चुके हैं। हादसों से बचना है तो भीड़ को कम करना होगा। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के लोगों से अपील करनी होगी कि वो फिलहाल बनारस न आएं।”
खुद से लड़ रहा बनारस
बनारस के विश्वनाथ मंदिर के पास रहने वाले पत्रकार ऋषि झिंगरन साफ तौर पर कहते हैं, “बनारस का नज़ारा अब पहले जैसा नहीं रहा। गलियां सिमट चुकी हैं और सड़कों पर चलने के लिए जगह नहीं मिलती। एक तरफ मंदिर में आस्था का उल्लास है, और दूसरी ओर, यहां की सड़कों और गलियों में बेहिसाब भीड़ ने जीवन को असहनीय बना दिया है”।
“पैदल चलने वाले लोग अब भी जाम में फंसे रहते हैं, जबकि पहले तो गाड़ियों का जाम ही किसी दर्द से कम नहीं था। अब वह दर्द पैदल चलने वालों का भी बन गया है। ये शहर जैसे अब खुद से ही लड़ रहा है-भीड़, जाम और असमंजस की चपेट में।”

“जब प्रशासन ने एक दिशा में प्रवेश और दूसरी दिशा से निकासी का निर्णय लिया, तो लोगों के बीच अव्यवस्था ने जन्म लिया। मंदिर के बाहर जूते-चप्पल अब किसी रद्दी की तरह पड़े होते हैं, और शाम को ये कूड़े के ढेर में बदल जाते हैं। यह एक दुखद तस्वीर है, जहां श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक माने जाने वाले सामान का ऐसा अपमान हो रहा है”।
“इन जूतों-चप्पलों की हालत किसी की पीड़ा और सम्मान की बेजां लूट का मंजर पेश करती है। नाविक और माला-फूल के दुकानदार श्रद्धालुओं से इस पवित्र स्थान के नाम पर अपनी जेबें भर रहे हैं। हर कदम पर लूट और ठगी की जो गूंज सुनाई देती है, वह इस शहर के संस्कारों से एक गहरी विडंबना है।”
झिंगरन यह भी कहते हैं, “जब मोबाइल रखने की व्यवस्था प्रशासन ने बंद कर दी, तो इसे लेकर कोई स्पष्ट पहल नहीं की गई। कोई व्यवस्था होनी चाहिए थी ताकि लोग अपने सामान को सुरक्षित रूप से रख सकें, लेकिन अभी भी इनकी परेशानी कम नहीं हुई। दुकानों पर जाते हैं तो वहां भी प्रसाद खरीदने का दबाव बनाया जाता है”।
“यह एक ऐसी मानसिकता की ओर इशारा करता है, जो कमाई के हर मौके को अपनी आस्था से जोड़ कर नफरत और हेराफेरी में बदल देती है। और जूतों-चप्पलों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है, तो फिर कैसे वह श्रद्धालु अपने पास बहुमूल्य चीज़ों को बिना चिंता के छोड़ सकते हैं?”
पत्रकार ऋषि के मुताबिक, “पक्के महाल के लोग अब अपनी बाइकों से भी यहां नहीं आ पा रहे। अगर किसी को गलियों का गहरा ज्ञान नहीं है, तो वह अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता। स्कूल बसों की आवाजाही बंद होने के बाद अब बच्चे घरों में ही बंधे हैं और ऑनलाइन कक्षाएं ही उनका सहारा हैं।
पहले जो जीवन चलने-फिरने का था, वह अब घरों में बंद हो गया है। खाने-पीने की दुकानों की कमी है और उन पर भी भारी दबाव है। नाविकों और पंडों की ओर से लूट मची हुई है, और प्रशासन की तरफ से किसी स्पष्ट दिशा-निर्देश का अभाव है। कुछ होटल और गेस्ट हाउस अब घंटे के हिसाब से किराए पर रूम देने लगे हैं, मगर उनकी दरें मनमाने तरीके से बढ़ रही हैं।”
“यह सब देख कर मुझे लगता है कि इस शहर में जो आधिकारिक प्रबंधन हो रहा है, वह केवल दिखावा बन कर रह गया है। अगर असल में बदलाव लाना है तो प्रशासन को सड़कों की व्यवस्था, श्रद्धालुओं की सुरक्षा और व्यापारियों की लूट पर कड़ी नज़र रखनी होगी”।
“बनारस की परंपरा और संस्कृति, जो श्रद्धा से जुड़ी है, वह अब केवल एक व्यापार बन कर रह गई है। इस पूरी स्थिति में सिर्फ एक ही सवाल है—क्या हमें अपनी पहचान, अपनी संस्कृति और अपनी श्रद्धा को इस तरह के अनियंत्रित संकट में ढलने देना चाहिए?”
बच्चे और बुजुर्ग बेहाल
बनारस में सबसे सबसे ज्यादा तकलीफ बुजुर्गों और बच्चों को झेलनी पड़ रही है। गंगा घाट पर घंटों बैठे वृद्ध तीर्थयात्री, जो गंगा स्नान की आस में आए थे, भोजन और पानी की कमी से बेहाल दिखे। एक सफेद दाढ़ी वाला बुजुर्ग रोशन अग्रवाल जो दिल्ली से आए थे, कांपते हाथों से अपनी धोती संभालते हुए फफक पड़े। बोले, “इस भीड़ और अव्यवस्था ने हमारी उम्मीदें तोड़ दी हैं।” उनके आंसू गंगा में घुलते चले गए, लेकिन क्या इस नगरी की आत्मा अब भी वैसी ही पवित्र बची थी?

काशी की आरती अब भी हो रही है। मंदिरों में घंटे-घड़ियाल की गूंज है, लेकिन इन भक्तों के दिलों में ढेरों सवाल हैं, “क्या अब काशी सिर्फ़ पैसे वालों के लिए है? क्या श्रद्धालुओं की आस्था को अब सौदे की तरह बेचा जाएगा? क्या बनारस सच में बदल गया है?”
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी ने तीर्थयात्रियों और बनारस के निवासियों की कठिनाइयों को लेकर एक कड़ा बयान दिया है। उनका कहना है कि, “बाबा काशी विश्वनाथ वीआईपी दर्शन से परेशान हैं, जबकि भक्तों को सड़कों और गलियों में लंबी लाइनों और धक्कामुक्की का सामना करना पड़ रहा है। व्यवस्थाएं पूरी तरह से चरमरा चुकी हैं और क्राउड मैनेजमेंट के सभी दावे पूरी तरह से बेकार साबित हो गए हैं। सरकार का पूरा सिस्टम अपनी ब्रांडिंग में व्यस्त है, और उसे तीर्थयात्रियों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है।”

महंत तिवारी ने यह भी कहा कि, “बनारस में सबकुछ चकाचक दिखाया जा रहा है, जबकि वास्तविकता में दर्शनार्थियों और बाहरी यात्रियों की पीड़ा नजर नहीं आ रही। बनारस में जो कुंभ उत्सव मनाया जा रहा है, वह सरकार द्वारा प्रायोजित और प्रक्षिप्त रूप से प्रदर्शन किया जा रहा है”।
“बीजेपी यह प्रदर्शित कर रही है कि यह आयोजन केवल सरकार द्वारा किया जा रहा है और पहले कभी कुंभ का आयोजन नहीं हुआ। सरकार की कथनी और करनी में अंतर है, क्योंकि 40 हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद लोगों की जान की कोई परवाह नहीं की जा रही। बनारस में ठहरने और खाने-पीने की व्यवस्था को लेकर भारी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। महंत ने यह भी कहा कि सरकार वीआईपी व्यवस्था और सरकारी इवेंट्स में हजारों करोड़ रुपये लुटा रही है, जबकि आम जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं किया जा रहा।”

इसके अलावा, महंत ने यह भी कहा कि, “वह दिन दूर नहीं जब काशी के लोग काशी से दूर कर दिए जाएंगे। उनका मानना है कि न तो काशी के लोग इस शहर में रहेंगे और न ही वे कभी इस शहर को अपना समझ पाएंगे। पूरी काशी सरकार के आतंक का शिकार हो गई है, और कोई आकस्मिक घटना घटने पर अस्पताल तक पहुंचने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है। महंत ने आरोप लगाया कि काशीवासियों को केवल वोट और नोट की आवश्यकता है, और उनकी भावनाओं को लगातार चोट पहुंचाई जा रही है। काशी, जो पहले आस्था की राजधानी थी, अब लूट और बेबसी का नया पता बन चुकी है।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)
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