Friday, March 29, 2024

कश्मीर:अब आगे क्या ?

यह सवाल अब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और निष्पक्ष राष्ट्रीय मीडिया में यक्ष प्रश्न की तरह पूछा जा रहा है कि कश्मीर में आगे क्या? यह भी कि क्या खुद सरकार जम्मू कश्मीर को बंद पिंजरा समझती है, जिसे पर्यटन के नाम पर 10 अक्टूबर के बाद देखने आने की इजाजत दी गई है? तथाकथित भावी पर्यटक वहां देखेंगे क्या? सरकारी संगीनों के साए में बंद जेल में तब्दील कर दिया गया एक ‘आजाद राज्य?’ जहां कर्फ्यू का अंधेरा चौतरफा पसरा हुआ है और स्टेट–दमन चक्र बेखौफ दनदना रहा है ! नागरिक अधिकार सरेआम कत्ल किया जा रहे हैं। कश्मीरियत बेदर्दी से कुचली जा रही है। वर्दीधारियों के जरिए किए जा रहे अत्याचारों को बदला और जवाबी हमला करार दिया जा रहा है। यह उस महान देश में हो रहा है, जो अपनी सरजमीं पर जन्म लेने वाले महात्मा गांधी की 150वीं जयंती बेहद धूमधाम के साथ मना रहा है।
खैर, जम्मू कश्मीर में धारा 370 निरस्त करने के वक्त लगाए गए प्रतिबंधों को दो महीनों से ज्यादा बीत चला है। जम्मू क्षेत्र के कुछ जिलों और लद्दाख को छोड़कर समूची कश्मीर घाटी पूरे देश–दुनिया से अलग-थलग है। कितने बच्चे, किशोर और व्यक्ति कहां किन जेलों में बंद हैं और उन पर क्या क्या आरोप हैं, यह कोई सरकारी बाशिंदा बताने को तैयार नहीं। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में खबरें आईं कि बेशुमार नाबालिग नाजायज तौर पर जेलों में या जेलों में तब्दील कर दी गई जगहों में बंद हैं और उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जा रही हैं, तब जाकर प्रशासन ने माना कि 9 से 14 साल के 144 बच्चे हिरासत में लिए गए हैं, इनमें से 142 को रिहा कर दिया गया है। कश्मीर से राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय रिपोर्टिंग कर रहे मीडिया कर्मियों की माने तो यह तादाद कहीं ज्यादा है। नाबालिग बंदियों और उनकी रिहाई की बाबत खुला झूठ बोला जा रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक ताजा रिपोर्ट भी एजेंसियों के दावों की पोल खोलती है। कुछ अभिभावकों के हवाले से पता चलता है कि पुलिस, सेना या अर्धसैनिक बल के हथियारबंद लोग आकर लोग बावर्दी या बेवर्दी रात को उनके बच्चे उठाकर ले जाते हैं और बाद में पूछताछ केंद्रों से रटारटाया जवाब मिलता है कि उनकी हिरासत में कोई बच्चा नहीं है। यकीनन यह बड़ी गंभीर स्थिति है। इस तरह की कई रिपोर्ट मीडिया में आ रही हैं और आदत के मुताबिक सरकार उन्हें झूठ का पुलिंदा बता रही है। सरकार का साथ देने के लिए ट्रोल–गिरोह हैं ही!
कश्मीर में मौजूदा इस तरह के तमाम हालात के मद्देनजर सरकार से पूछा जा सकता है कि अनुच्छेद 370 निरस्त कर के और 35-ए हटाकर देश ने आखिर क्या पाया? संक्षेप में बात करें तो कश्मीर समस्या लंबे समय से चली आ रही है और यह आबादी के कुछ हिस्से में अलगाववादी भावना एवं ईथोस (मानसिक मौसम) की उपज है। इसकी हिंसक अभिव्यक्ति समय समय पर आतंकी कारगुजारियों के जरिए होती रही है। अंध राष्ट्रवादी इस सच पर पर्दा डालने की भरसक कोशिश कर रहे हैं कि कश्मीर के लोगों का एक और बड़ा हिस्सा भी है, जो सदैव भारत के साथ चट्टान की मांनिंद खड़ा रहा है। लोकसभा, विधानसभा, यहां तक कि पंचायत चुनाव तक उनकी शिरकत इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण रही है। इनकी अगुवाई करने वाले बहुतेरे राजनैतिक व समाजिक रहनुमा भी हुकूमती जबर का शिकार हैं और सलाखों के पीछे हैं।
वैसे तो कश्मीर का हर छोटा-बड़ा सियासतदान आज के दिन नजरबंद है और उनकी रिहाई की संभावनाएं भी फिलहाल बंद हैं। ऐसे में, लोकतंत्र कश्मीर में किस हश्र को हासिल है, यह खुले घाव की तरह उन सबको दिख रहा है जिनकी आंखों पर अंधराष्ट्रवाद के भगवा अथवा काले चश्मे नहीं चढ़े हैं। कश्मीर समस्या के समाधान का एक रास्ता यह भी था कि हिंसक और अहिंसक अलगाववादी भावनाएं व उनके चलते सक्रिय लोग तथा शक्तियां इतनी कमजोर हो जातीं कि उनकी कोई प्रासंगिकता ही ना रह जाती। यह समाधान संगीनों की दहशत की बजाए वहां के लोगों का विश्वास जीत कर ही संभव था।
इस सरकार की तो बात ही क्या करें, अतीत की किसी केंद्र सरकार ने भी न ऐसा सोचा, न किया। दीगर है कि प्रधानमंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और इंद्र कुमार गुजराल इस दिशा में सोचते-सोचते रह गए पर कतिपय मजबूरियों के चलते कर कुछ नहीं पाए।
तल्ख हकीकत है कि आजादी के बाद की किसी भी केंद्रीय सरकार ने घाटी के लोगों को अटूट भारत के साथ रखने के लिए सजिंदगी से कभी कुछ नहीं किया। महज बिसात और खिलौना भर समझा। मोदीशाही तो तमाम हदें ही तोड़ गई। अटल बिहारी वाजपयी के वक्त के वक्त कुछ सकारात्मक काम जरूर हुआ था, पर उसकी निरंतरता बहाल ना रह सकी। हमारे टीवी एंकर भाजपा प्रवक्ताओं की तरह रोज चीख-चीख कह रहे हैं कि पांच अगस्त के बाद पूरा भारत ‘एकजुट’ हो गया है लेकिन 2 महीने बीतने के बाद भी इस तथाकथित एकजुटता में एक भी कश्मीरी क्यों नजर नहीं आ रहा? वैसे, समकालीन राष्ट्रवाद के इस दौर में यह सवाल पूछना देशद्रोह का गुनाह हो सकता है पर फिर भी, हकीकत तो हकीकत है! जाहिर–गैरजाहिर हकीकतों में से एक यह भी है, जो स्थानीय आतंकवादी वारदातें करके गुप्त पनाहगाहों में छुप जाते थे, उन्हें जनसमर्थन मिलने के हालात अब सरकार ने खुद पुख्ता कर दिए हैं।

प्रसंगवश, कश्मीर सरीखी समस्या का सामना पंजाब को भी करना पड़ा था। उस वक्त पंजाब के हालात कश्मीर से भी बदतर हो चुके थे। ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ और उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या। लेकिन बहुत कुछ दरकिनार कर के इंदिरा गांधी के बेटे और उनके बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अकाली नेताओं के साथ पंजाब समझौता किया। इस समझौते ने पंजाब में अमन और सद्भाव की नई खिड़कियां खोलीं। बेशक इसके एक रणनीतिकार संत हरचंद सिंह लौंगोवाल की बलि भी ले ली। लेकिन उस समझौते के कुछ प्रभाव ने भविष्य में बेहद सकारात्मक निशान छोड़े। सबके सबक, कश्मीर के प्रसंग में आज भी प्रासंगिक हैं। दरअसल, राजीव–लौंगोवाल समझोते का मुखर विरोध करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समूह और उस की सबसे बड़ी राजनैतिक इकाई भाजपा तथा आज उनके गठबंधन सहयोगी अकाली रहनुमा प्रकाश सिंह बादल उस तरफ देखना भी नहीं चाहते। आरएसएस–भाजपा का हिंदू राष्ट्र का संकल्प भी इसमें आड़े आता है। खैर, राजीव गांधी ने ऐसा ही समझोता मिजोरम में भी किया था, जिसके बाद वहां शांति स्थापित हुई थी। अगर जम्मू कश्मीर में भी वैसे कदम उठाए जाते तो हालात यकीनन अलहदा होने थे।
गौरतलब है कि बेहिसाब कत्लेआम और बेमिसाल हिंसक घटनाओं के बावजूद पंजाब समस्या का अंतर्राष्ट्रीयकरण नहीं हो पाया था। कश्मीर का हो गया और इसमें मोदी सरकार की बहुत बड़ी भूमिका है। अकेले पाकिस्तान को दोष नहीं दिया जा सकता। उसके पाप और सरासर नाकाम कूटनीतिअपनी जगह हैं। पर हमारी सरकार के ब्यान और गोदी मीडिया का रुख इमरान खान की टिप्पणियों पर ही बहुधा क्यों आधारित हैं? मोदी सरकार ने कश्मीरियों को बंदी ही नहीं बनाया, बल्कि मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण भी किया है। प्रधानमंत्री सहित लगभग हर केंद्रीय मंत्री कहता फिर रहा है कि कश्मीर भारत का अंदरुनी मामला है? सवाल यह है कि यह सब इतनी उग्र मुख्तार से कहने की जरूरत ही क्या है? क्या इसलिए भी कि फिलहाल समूची दुनिया के मुख्य एजेंडे कश्मीर मसला सबसे अहम है?
संयुक्त राष्ट्र संघ ने चीन के कहने पर कश्मीर की बाबत चीन के कहने पर बंद कमरे में अनौपचारिक बैठक की। ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने भारतीय कार्रवाई के खिलाफ बाकायदा प्रस्ताव पास किया। तुर्की ने कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानने से साफ इनकार कर दिया। मलेशिया के प्रधानमंत्री ने तो इसे भारत का कश्मीर पर हमला करार दिया। हमारे मीडिया ने यह भी नहीं बताया कि 57 इस्लामी देशों के संगठन आर्गेनाईजेशन आफ इस्लामिक कापरेशन ने धारा 370 तथा 35–ए से संबंधित लिए गए फैसलों को वापिस लेने की मांग भारत सरकार से की। दुनिया भर के प्रमुख अखबारों ने कश्मीर की जमकर कवरेज की और संपादकीय लिखे। आने वाले वक्त में यह अंतरराष्ट्रीय विरोध और भी दिखाओ सकता है, इसके साफ। संकेत हैं। इसलिए अब यह कहना बेमतलब है कि कश्मीर हमारा अंदरुनी मामला है।
इस सच की तरफ पीठ नहीं की जा सकती कि कोई मुद्दा जब मानवाधिकारों के खुले हनन का बन जाए तो वह हरगिज अंदरूनी मसला नहीं रह जाता। कश्मीर में मानवाधिकारों की अनदेखी आने वाले वक्त में देश के लिए बेहद नागवार साबित हो सकती है।
(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं)

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