एग्जिट पोल नतीजे: केजरीवाल का मकसद जीतना नहीं कांग्रेस को हराना

हिमाचल प्रदेश और गुजरात का जनादेश 8 दिसम्बर को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से बाहर निकलने वाला है। उससे पहले जो एक्जिट पोल नतीजे आये हैं उनसे एग्जेक्ट ना सही मगर चुनाव परिणाम के संकेत तो मिल ही गये हैं। ये संकेत भाजपा के लिये तो उत्साह वर्धक हैं ही लेकिन केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिये दोनों राज्यों में बुरी तरह हार के संकेतों के बावजूद उत्साहवर्धक संकेत यह है कि गुजरात में कांग्रेस की स्थिति 2017 के चुनाव से बदतर और हिमाचल में डावांडोल की जैसी नजर आ रही है।

अगर हिमाचल में भी कांग्रेस हार जाती है तो जीतने वाली भाजपा से अधिक खुशी केजरीवाल की आप पार्टी को होगी। क्योंकि केजरीवाल का असली मकसद देश की राजनीति में कांग्रेस का विकल्प बनने का है और यह तभी संभव है जबकि कांग्रेस का राज्य दर राज्य हार का सिलसिला जारी रहे। वैसे भी कांग्रेस दो राज्यों तक सिमट गयी है और केजरीवाल की पार्टी भी दो ही राज्यों में शासन कर रही है।

हिमाचल की ही तरह उत्तराखण्ड में भी पिछले 20 सालों से दो पार्टी सिस्टम चल रहा था। हिमाचल की ही तरह उत्तराखण्ड में भी एण्टी इन्कम्बेसी फैक्टर काम करता रहा है। लेकिन भाजपा 2022 में ही उस ट्रेंड को तोड़ने में कामयाब रही। इसके लिये भाजपा का बेहतरीन चुनावी प्रबंधन और विशाल संगठित संगठन तो जिम्मेदार थे ही लेकिन साथ में ’’आप’’ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी भाजपा की काफी मदद कर गयी। अगर हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा बारी-बारी चुनाव जीतने का ट्रेंड तोड़ती है, तो इसका श्रेय काफी हद तक ‘‘आप’’ को दिया जा सकता है।

गुजरात और हिमाचल प्रदेश की तरह आप पार्टी ने उत्तरखण्ड में भी लाखों की संख्या में गारंटी कार्ड बांट थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि चुनाव से पहले बड़ी संख्या में लोगों ने बिजली के बिल जमा करने बंद कर दिये। लेकिन इतनी गारंटियां देने के बाद भी पार्टी उत्तराखण्ड में एक भी सीट नहीं जीत सकी। उसका मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी अपनी जमानत तक जब्त करा गया। बाद में उन्होंने पार्टी को ही अलविदा कह कर भाजपा का दामन थाम लिया। लेकिन उत्तराखण्ड में जबरदस्त एण्टी इन्कम्बेंसी और बारी-बारी सरकारें बदलने के ट्रेंड के बावजूद कांग्रेस के सत्ता में न आ पाने से आप का मकसद तो पूरा हो ही गया। वोट कटने से कांग्रेस के कई प्रत्याशी हार गये और भाजपा प्रत्याशी मामूली अन्तर से जीत गये।

केजरीवाल इतने भोले नहीं कि उन्हें गुजरात में हारने का पूर्वाभास न रहा हो। प्रधानमंत्री मोदी की छवि और अमित शाह की चाणक्य बुद्धि के आगे उनके ही गृह राज्य गुजरात में उनको ललकार कर सीधे सत्ता की दावेदारी करना अरविन्द केजरीवाल का दुस्साहस नहीं बल्कि एक सुविचारित रणनीति थी। गुजरात में केजरीवाल का मकसद कांग्रेस को तीसरे नम्बर पर धकेल कर स्वयं दूसरे नम्बर पर आना था ताकि यह साबित किया जा सके कि अब मोदी का मुकाबला इस देश में केजरीवाल के अलावा कोई अन्य नहीं कर सकता।

बहरहाल नम्बर दो पर आने का उनका मकसद तो एक्जिट पोल में पूरा होता नजर आ नहीं रहा। फिर भी कांग्रेस के वोट काट कर उसकी हालत 2017 के मुकाबले बेहद कमजोर कराने में तो केजरीवाल सफल होते नजर आ ही रहे हैं। अगर वह गुजरात में नम्बर दो पार्टी बन गये तो समझो 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ विपक्ष की साझा पसन्द बनने का उनका लक्ष्य पूरा हो सकता है।

आम आदमी पार्टी अन्ना हजारे के आन्दोलन की ही उपज थी। इसमें उसी आन्दोलन के प्रमुख नेता शामिल थे, जिनमें से अधिकांश धीरे-धीरे खिसकते गये और केजरीवाल पार्टी के एकछत्र नेता बनते गये। नेताओं के खिसकने के साथ ही पार्टी के लोकपाल जैसे असली मुद्दे भी खिसक गये। जिस लोकपाल/लोकायुक्त के नाम पर इतना बड़ा आन्दोलन हुआ उसे केजरीवाल भूल गये। जिस लोकपाल को वह ‘‘जोकपाल’’ कह कर उपहास उड़ाते थे, वह भी उनको हासिल नहीं हुआ और दिल्ली में आज भी 1996 का लोकायुक्त चल रहा है।

उन्होंने जो लोकायुक्त केन्द्र सरकार को भेजा था वह संवैधानिक कारणों से मंजूर नहीं हुआ। लेकिन उन्होंने संसद द्वारा लोकपाल के साथ सर्वसम्म्ति से पारित लोकायुक्त भी नहीं अपनाया जबकि यह काफी कारगर था। यद्यपि दिल्ली में कई मामलों में अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर काम हुआ है जिसका फल उनको 2015 के बाद लगातार 2020 में भी मिला और अब नगर निगम चुनावों में भी मिलने जा रहा है।

देश की आजादी में निर्णायक भूमिका निभाने के बाद 6 दशक तक देश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी निश्चित रूप से आज अस्तित्व के लिये लड़ रही है। कांग्रेस आज राजस्थान और छत्तीसगढ़ दो राज्यों तक सिमट गयी। मध्य प्रदेश-कर्नाटक जैसे राज्यों में वह अपनी सरकार नहीं बचा पायी, जबकि पिछली बार गोवा और मणिपुर जैसे राज्यों में सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होते हुयी भी उसने भाजपा के लिये मैदान छोड़ा। उत्तराखण्ड में वह इस बार सत्ता के करीब आते-आते दूर जा गिरी। दूसरी ओर केजरीवाल की आप कांग्रेस के बराबर ही दो राज्यों में सत्ता में है। कांग्रेस की शक्ति का क्षरण हो रहा है तो आप गंवाने के बजाय कुछ न कुछ पा ही रही है। ऐसे में उसे देश की राजनीति में कांग्रेस की जगह लेने की खुशफहमी क्यों न हो? वह दिल्ली के बाद पंजाब में भी काबिज हो गयी।

मोदी या भाजपा से पार पाना और कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी का विकल्प बनना इतना आसान नहीं जितना समझा जा रहा है। कहते हैं मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है। कांग्रेस तो अभी मरणासन्न स्थिति तक भी नहीं पहुंची। कांग्रेसी ईमान्दारी से और निष्ठा से जुटें तो कांग्रेस पुनः पूरी ताकत के साथ खड़ी हो सकती है। आज की तारीख में कांग्रेस और आप की तुलना करना ही अटपटा लगता है। मरी हालत में भी कांग्रेस का ढांचा आज भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक है।

कांग्रेस से बड़ी संख्या में लोग भावनात्मक रूप से जुड़े हुये हैं। कांग्रेसियों ने अगर अपने आचरण से कांग्रेस का भट्टा न बैठाया होता तो कांग्रेस ऐसी अकेली पार्टी है जिसमें अब भी सम्पूर्ण भारत का अक्स नजर आता है। उसमें सभी धर्म, जातियां, संस्कृतियां और भौगोलिक प्रतिबिम्ब नजर आते हैं। जबकि आप भले ही पंजाब तक चली गयी हो फिर भी उसकी अभी अखिल भारतीय छवि नहीं बन पायी।

केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 2013 से अब तक 18 राज्यों के 21 विधानसभा चुनाव लड़े जिनमें से वह केवल दिल्ली और पंजाब में ही सफल हो पायी। दिल्ली और पंजाब के बाद उसे केवल गोवा में 2022 में 2 सीटें मिलीं मगर वह कांग्रेस को हरवाने में कामयाब अवश्य हुयी। बाकी 15 राज्यों में उसे अब तक एक भी सीट नहीं मिल पायी। आप द्वारा पूरी ताकत झोंकने के बाद भी विधानसभा चुनाव में खाता तक न खोल पाने वाले राज्यों में गुजरात, हरियाणा, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र मेघालय, नागालैंड, उड़ीसा, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड शामिल हैं। इनमें केजरीवाल की पार्टी उत्तर प्रदेश में 340 सीटों पर, राजस्थान में 142, मध्य प्रदेश में 208 और हरियाणा में 46 सीटों पर लड़ी थी।

जबकि कांग्रेस के इस हाल में भी लोकसभा में 52 सदस्य हैं और आप का एक भी सदस्य नहीं। इस हालत में भी 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 11,94,95,214 वोट और कुल मतदान के 19.46 प्रतिशत मत मिले थे। केजरीवाल चालाक तो अवश्य हैं मगर उनमें अभी एक राष्ट्रीय पार्टी चलाने के लिये मोदी और अमित शाह जैसी परिपक्वता नहीं आयी। वह जिस तरह कांग्रेस को मिटाने के सपने देख रहे हैं वैसा ही दुरूह सपना भाजपा के हिन्दू वोट बैंक पर सेंध लगाने का भी है। इस चक्कर में वह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों से भी दूर हो रहे हैं। उनको बिल्किस बानो के साथ हुआ अत्याचार भी अत्याचार नजर नहीं आता। उनकी छवि वोटों के लिये किसी भी हद तक गुजरने की बन रही है। वह दो नावों में पांव रख कर राजनीतिक वैतरणी पार करना चाहते हैं जिसमें डूबने का खतरा ज्यादा है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

जयसिंह रावत
Published by
जयसिंह रावत