वर्ग चेतना के अग्रज किसान केसरी चौधरी कुम्भाराम आर्य

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कुम्भाराम आर्य के राजनीतिक जीवन की शुरुआत बीकानेर रियासत के निरंकुश राज एवं सामन्ती शासन के क्रूर उत्पीड़न के विरोध से हुई, जो धीरे-धीरे एक बगावत में बदल गई। सदियों से पीड़ित-प्रताड़ित ,अनपढ़, गरीब संत्रस्त किसान वर्ग को युगों-युगों की गहरी नींद से जगाना, संगठित करना और राज के शोषण एवं जागीरदारों के उत्पीड़न के विरुद्ध लामबंद करना एक दुष्कर कार्य था । इस असम्भव को संभव बनाना, चौधरी कुम्भाराम जी के ही बूते की बात थी।
किसान वर्ग के हितैषी, हमदर्द, सहयोगी , सहभागी, जीवनपर्यन्त किसानों के हितों के लिए संघर्षरत रहने वाले, सच्चे अर्थों में किसानों के रहनुमा और मसीहा कुम्भाराम जी आर्य की शख्सियत विलक्षण थी। उनका विरल और विराट व्यक्तित्व बहुआयामी और बेमिसाल था। चौधरी साहब राजस्थान प्रान्त के निर्माण की उस इमारत के पत्थर हैं जिस पर वर्तमान राजस्थान गर्व कर सकता है। उनके अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प और पैनी दृष्टि व समझ के सम्मुख तत्कालीन राजनेताओं का कद बौना पड़ जाता था।

कुम्भाराम जी किसान वर्ग में मात्र खेती-बाड़ी करने वालों को ही नहीं मानते थे, बल्कि उन सभी जाति-समुदाय के उन लोगों को भी शामिल मानते थे जो अपने हाथ-पैरों की मेहनत और पसीने की कमाई से अपने परिवार का पालन करते थे। वे उस धनी वर्ग के खिलाफ थे जो अपने धन-बल पर मेहनतकश वर्ग का शोषण करते हैं। राजस्थान के किसानों को जमीन का मालिकाना हक दिलाकर आर्य जी ने किसान वर्ग के कल्याण और प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया।

आजादी के बाद राजस्थान में एकमात्र कुम्भाराम जी ही किसान नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए; क्योंकि हर जाति का किसान यह महसूस करता था कि राजस्थान में चौधरी कुम्भाराम जी किसान शक्ति के प्रतीक हैं वे राजस्व मंत्री के रूप में, सहकारिता नेता के रूप में, पंचायतराज के प्रणेता के रूप हमेशा ही किसान, गरीब, मजदूर के उत्थान में सतत प्रयत्नशील रहे।

कुम्भाराम आर्य एक स्वाभिमानी निडर राजनीतिज्ञ के साथ-साथ मौलिक चिंतक भी थे। ‘वर्ग चेतना’ और ‘किसान यूनियन क्यों?’ उनकी विचोरोत्तेजक कृतियां हैं। उनकी हर बात सत्य पर अवलंबित होती थी। अपने भाषणों व कृतियों में वे शोषण के विभिन्न आयामों तथा कारणों को उजागर करते रहते थे। श्री कोलायत में किसान सम्मेलन में दिए गए उनके भाषण का यह अंश गौर करने के काबिल है।
”भूख और ग़रीबी शोषण के कारण हैं। इसका संबंध भाग्य-विधाता और कर्मों के फल से नहीं । किसी के भाग्य में गरीबी और अमीरी लिखी हुई नहीं है। विधाता और भाग्य के नाम से बहकाने वाले लोगों का यह षड्यंत्र है। शोषक लोग भाग्य-विधाता के नाम से बहकाते हैं और शोषण द्वारा मौज-मजे करते हैं।

शोषक लोग संख्या में 14 प्रतिशत हैं पर हैं बड़े चालाक और चतुर। ये लोग तीन श्रेणियों में बंटे हैं-एक श्रेणी उद्योगपतियों की है जिन्होंने बड़े-बड़े कारखानों के मालिक बनकर धन व संसाधनों पर कब्ज़ा कर रखा है। दूसरी श्रेणी प्रशासन पर जमी है। प्रत्येक ऊंचे से ऊंचे पद पर ये लोग बैठे हैं। ये श्रेणी नौकरशाही के नाम से जानी जाती है। तीसरी श्रेणी शासकों की है जो राजनेता के नाम से जाने और पुकारे जाते हैं। इन तीनों श्रेणियों की मिलीभगत से शोषण का षड्यंत्र चल रहा है।
इन शोषकों से छुटकारा पाए बिना किसान और मजदूर के घर खुशहाली नहीं आ सकती। शोषण से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग है। किसान और मजदूर को विज्ञान का परामर्श स्वीकारना पड़ेगा।”

दलितों की दारुण दशा से कुम्भाराम जी व्यथित रहते थे। विधानसभा में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने यह व्यथा इन शब्दों में व्यक्त की थी:” हरिजनों को सवर्ण वर्ग घृणा की दृष्टि से देखता है। कानून के अंदर उनको सब अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन वे उन्हें पा नहीं सकते हैं। इसके लिए भी कोई प्लान( व्यवस्था) हो, कोई संकेत होना चाहिए, जो नहीं है। मेरे दिमाग पर यह असर पड़ा कि जागीरदार जो शक्तिशाली वर्ग था उसकी आवाज सुनी गई। मैं इस चीज को इस तरह से देखता हूँ कि

सभी सहायक सबल के कोउ न निबल सहाय।
पवन जरावत आग को दीपहिं देत बुझाय।।

सामर्थ्यवान के सभी सहायक होते हैं। जागीरदार विधानसभा के भीतर और बाहर दोनों स्थानों पर ज्यादा हैं। उनके बारे में अच्छे-अच्छे कानून बनाये गए। उनके लिए अच्छी व्यवस्था कायम की गई। उनके पुनर्वास के लिए कमेटी भी बनाई गई, लेकिन इसके साथ अगर हम हरिजनों को देखें तो क्या किया, उसके संबंध में अगर आगे बढ़ाए जाने की कोई बात होती तो मेरे मन में उत्साह होता। और मैं सही मायने में सरकार को धन्यवाद का पात्र समझता।”

कुम्भाराम जी की कृति ‘वर्ग चेतना’ से लिए गए उद्धरण: ”वर्ग चेतना क्रमिक विकास के द्वारा बहुमत वर्ग को राज्य का स्वामी / मालिक बनाती है। भारत का किसान बहुमत वर्ग है। बहुमत वर्ग राज्य के बिना नहीं रहता। वर्ग-चेतना प्राप्त करते ही राज्य का स्वामी किसान है।’
वर्ग चेतना! व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि यह व्यक्ति के अस्तित्व का रक्षण-पोषण एवं स्वाधीनता के साथ सार्थक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करती है। भय, संकट और चिंताओं से मुक्ति दिलाती है। सुख, शान्ति और समृद्धि के अवसर प्रदान करती है।
दुःखों का कारण शोषण है।
शोषण अभाव उत्पन्न करता है।
अभाव वेदना उत्पन्न करता है।

वेदना ग्रसित व्यक्ति सुख, शान्ति,और समृद्धि के लिए तड़पता है।जीवन सार्थक नहीं बना सकता।
शोषण को समाप्त करने वाली शक्ति वर्ग चेतना है। वर्ग चेतना।”
कुम्भाराम जी कहा करते थे कि राज्य व्यवस्था तो गन्ने के समान है जो संगठन शक्ति के दाँत वालों के लिए तो रस भरा है परंतु बिना दांत वालों असंगठितों के लिए तो बांस की लाठी के समान है।
कुम्भाराम जी मानते थे कि नौकरशाही के हाथों आम आदमी का भला होना असंभव है इस लिए लोगों की राज में भागीदारी के लिए किसान यूनियन और पंचायत राज संघ की स्थापना की। इसी प्रकार आर्थिक प्रगति के लिए जनता की सहभागिता के लिए उन्होंने सहकारी आंदोलन के प्रसार में प्रमुख भूमिका निभाई ।

कुम्भाराम जी ने विभिन्न बाधाएं पार करते हुए 50 वर्ष से लंबी अवधि तक राजस्थान एवं राष्ट्र की राजनीति पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई। राजनीति के क्षेत्र में वे एक जुझारू,अक्खड़, स्पष्टवक्ता, निर्भीकता से दो -टूक बात कहने वाले राजनेता थे। विभिन्न राजनीतिक दलों ( प्रजा परिषद, कांग्रेस, जनता पार्टी, भारतीय क्रांति दल, भारतीय लोकदल) में उन्होंने अपने प्रखर व्यक्तित्व की छाप छोड़ी। जहां भी रहे, अग्रणी रहे, शान से रहे ठसक से रहे। कभी मंत्री पद की शपथ, कभी पद से त्यागपत्र, कभी यह पार्टी, कभी वह पार्टी, कभी आंधी, कभी शांति, कभी लड़ाई, कभी सुलह, कभी हार ,कभी जीत। साहस की मशाल जलाकर अंधेरे से जूझते रहे। धीरज का दामन थामकर ,कांटों की राह पर चलते रहे। कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, कभी हिम्मत नहीं हारी। ‘चरैवेति, चरैवेति’ ही उनके जीवन का आदर्श रहा।
(मदन कोथुनियां स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं।)

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