Friday, April 19, 2024

‘न्यायिक बर्बरता’ की संज्ञा पर तिलमिला गए कानून मंत्री!

26 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित संविधान दिवस समारोह में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री और इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने न्यायपालिका की ‘निष्पक्ष आलोचना’ और ‘परेशान करने वाली प्रवृत्ति’ की बात की, जो हाल ही में उभरी है और जिन पर चर्चा किए जाने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा, “कोलेजियम की तरह कई चीजों की आलोचना हो रही है, लेकिन हाल ही में लोगों द्वारा दायर की गई किसी भी याचिका पर फैसला क्या होना चाहिए, लोग इन पर विचार रखने लगे हैं। अख़बारों में इस तरह के दृष्ट‌िकोण छपने लगे हैं और अगर अदालत का फैसला उस दृष्ट‌िकोण के अनुरूप नहीं है तो अदालत की आलोचना हो रही है।”

रवि शंकर प्रसाद ने आगे कहा, “न्यायाधीशों को कानून के आधार पर फैसले लेने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। संविधान निर्माताओं की यह राय नहीं थी कि न्याय लोकप्रिय मतों के आधार पर हो।” रवि शंकर प्रसाद ने इसके बाद भानु प्रताप मेहता के शब्द का जिक्र करते हुए कहा, “’न्यायिक बर्बरता’ जैसे शब्दों के उपयोग की निंदा की जानी चाहिए, उनका उपयोग करने वाले व्यक्ति के कद की परवाह किए बिना इसकी निंदा करनी चाहिए।”

बता दें मशहूर पत्रकार, बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने हाल ही में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका द्वारा इलेक्टोरल बांड के मसले पर, सुधा भारद्वाज, स्टेन स्वामी, वर्वरा राव, आनंद तेलतुंबड़े को जमानत से इनकार किए जाने और कश्मीर मसले पर कोर्ट सुनवाई टालने जैसे मुद्दों पर न्यायपालिका के संदर्भ में ‘न्यायिक बर्बरता’ शब्द-युग्म का इस्तेमाल किया था। उन्होंने लिखा था, “ये न्याय नहीं है, बल्कि इस वक्त भारत में जिस तरह की लोकतांत्रिक बर्बरता चल रही है, यह उसी से होड़ लेती हुई न्यायिक बर्बरता है।”

प्रताप भानु मेहता ने कहा था, “राजनीति शास्त्र की भाषा में एक बात कही जाती है- लोकतांत्रिक बर्बरता। लोकतांत्रिक बर्बरता अमूमन न्यायिक बर्बरता से पलती है। ‘बर्बरता’ शब्द के कई अवयव हैं। पहला है न्यायपालिका से जुड़े निर्णयों में मनमानी का बहुत अधिक देखा जाना। क़ानून के इस्तेमाल में जजों की निजी इच्छा या सनक इतनी हावी हो जाती है कि नियम-क़ानून या संविधान का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। क़ानून उत्पीड़न का औजार बन जाता है या अधिक से अधिक यह उत्पीड़न को बढ़ावा देता है, उसमें मदद करता है।

मोटे तौर पर इसमें यह होता है कि नागरिक अधिकारों और असहमति रखने वालों की सुरक्षा ठीक से नहीं हो पाती है और राज्य की सत्ता का सम्मान, ख़ास कर संवैधानिक मामलों में, बहुत ही बढ़ जाता है। अदालत अपने प्रति ही काफी चिंतित हो उठती है, वह किसी डरे हुए सम्राट की तरह हो जाती है, उसकी गंभीर आलोचना नहीं की जा सकती है, उसका मजाक नहीं उड़ाया जा सकता है। उसकी भव्यता उसकी विश्वसनीयता से नहीं, बल्कि अवमानना के उसके अधिकार से चलती है। और अंत में, ज़्यादा गंभीर अर्थों में बर्बरता होती है। ऐसा तब होता है जब राज्य अपनी ही जनता के एक वर्ग के साथ जनता के शत्रु की तरह व्यवहार करने लगता है।

राजनीति का उद्येश्य सबके लिए बराबर का न्याय नहीं रह जाता है, इसका मक़सद राजनीति को पीड़ित और उत्पीड़क के खेल में बदल देना होता है और यह सुनिश्चित करना होता है कि आपका पक्ष जीत जाए। यह परिघटना सिर्फ कुछ जजों और कुछ मामलों तक सीमित नहीं है। अब यह व्यवस्थागत परिघटना है और इसकी गहरी संस्थागत जड़ें हैं। यह अंतरराष्ट्रीय रुझान का हिस्सा है और इस तरह की घटना तुर्की, पोलैंड और हंगरी में देखी जा सकती है, जहां न्यायपालिका ने लोकतांत्रिक बर्बरता की मदद की है।

निश्चित तौर पर सारे जज इसके सामने घुटने नहीं टेक रहे हैं, व्यवस्था के अंदर ही प्रतिरोध जहां-तहां अभी भी है। बीच-बीच में स्वतंत्रता के सिद्धांतों की महानता के उदाहरण भी आएंगे, बीच-बीच में योग्य वादियों को राहत भी दी जाएगी, ताकि इस संस्थान के ऊपर सम्मान का एक महीन आवरण चढ़ा रहे, लेकिन दूसरी ओर रोज़मर्रा के कामकाज में यह और सड़ता ही जाएगा।”

कानून मंत्री की टिप्पणी से स्पष्ट है कि प्रताप भानु मेहता की उपरोक्त बातों से वो और उनकी सरकार असहज हुई है। संविधान दिवस के समारोह में रविशंकर प्रसाद सिंह ने कहा था, “हमें याद रखना चाहिए कि यह न्यायपालिका है, जो गरीबों और वंचितों के साथ खड़ी है। कमियां हो सकती हैं, आलोचना औचित्य की सीमाओं के परे नहीं हो सकती है। हमें न्यायपालिका पर गर्व होना चाहिए।”

इसके अलावा रविशंकर प्रसाद ने अनुच्छेद 21 के उद्देश्य के लिए, कानून की प्रक्रिया पर जोर देने पर, मनमानी के खिलाफ निषेधाज्ञा, उचित और न्यायसंगत होने के लिए सुप्रीम कोर्ट के योगदान की सराहना करते हुए कहा था, “संविधान की मूल संरचना को समग्रता में देखा जाना चाहिए… न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत महत्वपूर्ण है और शक्तियों का पृथक्करण भी उतना ही प्रासंगिक है।”

केंद्रीय कानून मंत्री कानून पर बोलते वक़्त भूल गए कि खुद उनकी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून और सवर्ण आरक्षण का प्रावधान संविधान के खिलाफ़ जाकर किया है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर और मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं। आपको याद दिला दें कि किसी के भी साथ रहने का अधिकार हमारा संविधान से मिला मूल अधिकार है, जिस पर बीजेपी के ये तीनों मुख्यमंत्री कुल्हाड़ी चलाने को बेताब हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट के कहने के बावजूद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रेम पर पहरा रखने वाला कानून तक बना डाला है। यह सीधे-सीधे संविधान तोड़ने की कवायद है।

सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ़ टिप्पणी करके अवमानना के दो-दो मुकदमे झेल रहे कॉमेडियन कुणाल कामरा ने इसी सप्ताह ट्वीट करके सुप्रीम कोर्ट समेत देश की तमाम अदालतों में पेंडिंग पड़े मुकदमों और सालों साल से घिसटते लोगों की समस्या प्रमुखता से उठाई थी। संविधान दिवस के आयोजन में बोलते हुए रविशंकर प्रसाद ने पेंडिंग मुकदमों की बात न सिर्फ़ सिरे से गोल कर दी, बल्कि इसके उलट उन्होंने कहा,  “अक्टूबर तक, 30,000 मामले सुप्रीम कोर्ट में, 13.74 लाख मामले देश के सारे हाई कोर्टों में और 35.93 लाख देश भर की जिला अदालतों में निपटाए जा चुके हैं।

कुल 50 लाख के करीब मामलों का निपटारा किया गया है, और मैं इसमें ट्रिब्यूनल और अन्य आभासी कार्यवाही शामिल नहीं कर रहा हूं। कानून मंत्री के रूप में, मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों, कानून अधिकारियों, वकीलों, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और अन्य न्यायाधीशों और अधीनस्थ अदालतों के न्यायाधीशों की सराहना करना चाहता हूं, जिन्होंने इन कठ‌िन परिस्थितियों में न्याय वितरण सुनिश्चित करने के लिए बढ़िया कामकाज किया।”

उन्होंने आगे कहा, “16,000 डिजिटल अदालतों आदि के रूप में देश भर में तकनीकी रूप से कानून ने अपना विस्तार किया। संविधान के 71 वर्षों में, भारत एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में उभरा है, आय, शैक्षिक, जाति, समुदाय, भाषा अवरोधों के बावजूद भी यह संविधान निर्माताओं के भरोसे को दर्शाता है। देश के 1.3 अरब लोगों के पास मताधिकार द्वारा सरकार को बदलने की शक्ति है… संविधान निर्माताओं ने विरासत को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को खारिज किया और भारत का विचार दिया था, जिसमें वैदिक युग के आदर्शों को शामिल किया गया था, यहां तक कि राम की और कृष्ण, अशोक से लेकर अकबर तक को शामिल किया गया है।”

यहां पर कानून मंत्री यह बात गोल कर गए कि जिन अंग्रेजों की बात वो कर रहे हैं भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग उनकी चापलूसी किया करते थे और यह कभी नहीं चाहते थे कि हमारा मुल्क़ आजाद हो। जिस संविधान की बात इनके मुंह से बार बार निकल रही है, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उस संविधान को हटाकर देश में मनु स्मृति लागू करना चाहते हैं। न्यायपालिका राम मंदिर बनाने के पक्ष में फैसले देकर, बाबरी के गुनाहगारों को बरी करके, सीएए-एनआरसी जैसे मसलों पर सरकार का काम आसान करके, इलेक्टोरल बांड और कश्मीर के मुद्दे पर सरकार के साथ खड़ी होकर सरकार की सहयोगी की भूमिका निभा रही है।  

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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