Friday, March 29, 2024

आइए हम कन्वर्ट करें और खुद कन्वर्ट हो जाएं

मुझे एक सच कबूलना है। यह कि मैं कई बार परिवर्तित (कन्वर्ट) हुआ हूं। एक आस्था से दूसरी में,अंतहीन बार। और मैं तो बस इस अनुभव से प्यार करने लगा हूँ।

कभी-कभी मैं एक रोचक पुस्तक को पढ़कर, किसी सम्मोहक विचार की शक्ति से परिवर्तित हो गया हूँ। या कोई अच्छी फिल्म देखने या गाना सुनने से (खासकर मोहम्मद रफी साहब द्वारा गाया गया)।

कई बार मैं एक विलक्षण व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से एक सच्चा आस्तिक बन गया हूं। मैंने उनके माध्यम से धरती पर इतनी आध्यात्मिक राहत प्राप्त की है कि मैंने स्वर्ग की अपनी यात्रा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी है।

और मुझे यह बड़ी बेशर्मी से स्वीकार करना होगा कि मुझे बार-बार पैसे के लालच ने भी परिवर्तित किया है – खासकर जब मुद्रा अमेरिकी डॉलर हो और सही मात्रा में भी हो।

बदले में मैंने भी कई लोगों को कन्वर्ट किया है जिनके साथ मैं रहा हूं – चाहे परिवार, पड़ोसी, सहपाठी, पूर्ण अजनबी क्यों न हों। पेड़ लगाने से लेकर पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने तक कई हितों के बारे में मैं धार्मिक निष्ठा के साथ प्रचार करता रहा हूँ। इन दिनों मैं अपने बच्चों को ‘चर्च ऑफ स्टॉप शॉपिंग’ में शामिल करने की कोशिश (असफल)  कर रहा हूं – जो मॉल और अमेज़ॉन जैसे ऑनलाइन खुदरा विक्रेताओं को शैतान के एजेंट के रूप में देखता है।

यही कारण है कि “भारत में धर्मांतरण एक समस्या है” कहने वाले ‘हिंदू धर्म’ के कुछ स्वयंभू चैंपियनों द्वारा किए जा रहे शोर से मैं पूरी तरह  चकित हूं। देश भर के कई राज्यों में कठोर कानून बनाने के अलावा उनके कायर गुंडों ने गिरजाघरों में तोड़फोड़ की, पादरियों को पीटा और ईसाइयों को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी – सिर्फ इस कारण कि वो ईसाई हैं !

भारत के मुसलमानों को पिछले दो दशकों में और भी अधिक क्रूरता का शिकार बनाया गया है। उनपर गैर-मुसलमानों को विभिन्न प्रकार के ‘जिहाद’ के माध्यम से परिवर्तित करने का आरोप लगाया गया  – रोमांस से लेकर सिविल सेवा परीक्षाओं में सफलता हासिल करने तक। फिर यह वास्तव में हैरान करने वाली बात है – क्यों ईसाई या मुसलमानों को धर्मांतरण में लिप्त होने वालों के रूप में लक्षित किया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि लोगों को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित करना प्राचीन काल से भारत के इतिहास का एक प्रमुख हिस्सा रहा है।

वास्तव में भारत में ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा और सबसे सफल धर्मांतरण आंदोलन ब्राह्मणवाद (जिसे सनातन धर्म भी कहा जाता है) के समर्थकों द्वारा किया गया है, जो बहुत ही कड़े और विशिष्ट अनुष्ठानों, विश्वासों, मिथकों का समूह है। आखिरकार, अगर वैदिक संस्कृति, ब्राह्मणवाद की प्रेरणा, 3500 साल पहले वर्तमान पंजाब के क्षेत्र में उत्पन्न हुई थी, तो यह धर्मांतरण के माध्यम से नहीं तो आखिर देश के सभी हिस्सों में कैसे पहुंची? और इस देश में स्थानीय, स्वदेशी भगवानों और देवी-देवताओं के हुजूम को ‘हिंदू धर्म’ नामक काल्पनिक, छत्र ढांचे में, यदि सक्रिय धर्मांतरण के माध्यम से नहीं, तो कैसे शामिल किया गया? 

 निश्चित रूप से सदियों से चल रहा यह सारा परिवर्तन केवल अनुनय-विनय के द्वारा नहीं किया गया था। बल और रिश्वत दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है; ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया जातियों के बीच गठबंधन को देखते हुए यह स्पष्ट है, आबादी को उनकी प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों और यहां तक ​​​​कि देवताओं को बदलने के लिए राज़ी कराने में इनकी भूमिका रही है।

यह एक प्रक्रिया है जो आज भी जारी है क्योंकि ब्राह्मणवाद के महायाजक -ज्यादातर भारत के काउ बेल्ट (cow belt) से – सभी हिंदुओं को निर्देश देते हैं कि उन्हें क्या खाना है, क्या पहनना है, उनकी बेटियों को किससे शादी करनी है, उन्हें किस देवता की पूजा करनी है और उन्हें गैर-हिंदुओं के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए। देश के आदिवासी इलाकों में स्थिति और भी खराब है क्योंकि उन्हें खुद को ‘हिंदू’ कहने के लिए मजबूर किया जाता है, इस प्रकार वे अपने स्वयं के धर्मों और परंपराओं को नकारते हैं जो कई सदियों पुरानी हैं।

वैसे देखा जाए तो जब बुद्ध ने, 2500 साल पहले, चार आर्य सत्य और निर्वाण के आष्टांगिक मार्ग के अपने संदेश का प्रचार किया था, क्या वह जनता को अपनी आस्था में परिवर्तित नहीं कर रहे थे? ऐसे सोचा जाए, तो  बिना किसी प्रकार की धर्मांतरण प्रक्रिया के भारत में जैन धर्म और सिख धर्म के इतने अनुयायी कैसे हैं ? क्या भगवान महावीर या गुरु नानक धर्म परिवर्तन करने के ‘दोषी’ माने जाएंगे, और वैसे भी, इसका क्या अर्थ होगा?

हाल के इतिहास में, 1956 में, जब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया और हजारों दलितों को उनका अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया, तो क्या उन पर वर्तमान धर्मांतरण विरोधी कानूनों के तहत उस समय आरोप नहीं लगाया गया होता? और क्या अमित शाह या योगी आदित्यनाथ ने ‘धार्मिक परिवर्तन’ के आरोप में बाबासाहेब को बुक किया होता?

अब मैं उस मुख्य बिंदु पर आता हूं जिसे मैं कहने की कोशिश कर रहा हूं। भारत के मुसलमानों या ईसाइयों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो पहले हर किसी ने नहीं किया, और धर्मांतरण एक बिल्कुल ही भारतीय परंपरा है – और, हर किसी को कोशिश कर हर दूसरे को बदलने का अधिकार है।

रूपांतरण या कनवर्ज़न अनिवार्य रूप से विभिन्न विश्वास प्रणालियों के लोगों की वह प्रक्रिया है जिसमें अपनी धारणाओं, आदतों और नैतिक या सांस्कृतिक मानदंडों को बदलने के लिए विभिन्न तरीकों से एक-दूसरे से बातचीत कर प्रभावित किया जाता है । प्रत्येक टेलीविजन चैनल और विज्ञापनदाता अपने दर्शकों के विश्वास को बदलने के लिए लगातार प्रयास करता है – ताकि वे कोका कोला छोड़ पेप्सी की भक्ति करने लगें। यह इतनी सामान्य गतिविधि है कि इसे एक दण्डनीय अपराध बनाना तो दूर, रोकने के बारे में सोचना तक उच्च स्तर की मानसिक विक्षिप्तता का संकेत है।

वास्तव में भारत में अब यह हो रहा है कि उच्च जाति के हिंदुओं का एक वर्ग बुनियादी तौर पर देश में बाकी सभी को बता रहा है कि केवल उसी को हर किसी को बदलने का अधिकार है और इस मामले में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए! और उनके लिए यह सिर्फ धर्म परिवर्तन की बात नहीं है, क्योंकि ये लोग कम्युनिस्टों, नास्तिकों, लोकतंत्रवादियों, धर्मनिरपेक्षतावादियों और भारतीय संविधान के समर्थकों द्वारा की गई ‘धर्मांतरण गतिविधि’ को पसंद नहीं करते हैं।

वे क्या चाहते हैं – और जो वे हासिल करने के करीब हैं – सभी भारतीय नागरिकों के जीवन और पुनर्जीवन दोनों को तय करने की निर्विवाद शक्ति। व्यवहार में भारतीय संदर्भ में इसका अर्थ एक ऐसे धर्मतंत्र की स्थापना है जहां एकमात्र ‘शासक देवता’ उत्तर प्रदेश के क्षत्रियों के साथ मराठी ब्राह्मणों और गुजराती बनियों का एक समूह होगा। यह व्यापक अनुपात में शक्ति हथियाना है, जो कि केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों को ही नहीं, शेष भारत को भी द्वितीय श्रेणी के नागरिकों के रूप में छोड़ देगा।

 सभी धर्मों और विश्वासों के सच्चे भक्त (नास्तिकों सहित, जो सबसे अधिक आध्यात्मिक लोगों में हैं जिनसे मैं अब तक मिला हूं) से जिस प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जाती है, वह है कि वे अपने प्रचार व धर्मांतरण करने तथा परिवर्तित होने के अधिकार के लिए लड़ें। आइए हम परिवर्तन करें और खुद भी परिवर्तित हों, यही हमारे मौलिक मानव अधिकार के रूप में हमारा नारा होना चाहिए ।

विरोध न करने का अर्थ आज सत्ता में बैठे अत्याचारियों के प्रति समर्पण होगा-न केवल हमारा अपना, बल्कि हमारे देवताओं का भी। और सच्चे आध्यात्मिक के लिए यह कोई विकल्प नहीं है।

तो आइए हम सब आगे बढ़ें और परिवर्तित करें – नफरत को प्यार में, अपशब्दों को प्रार्थना में, निराशा को आशा में, क्रोध को सहानुभूति में, विभाजन को एकता में और पीड़ा को एकजुटता में।

(सत्य सागर एक पत्रकार और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जिनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है। लेख का हिंदी अनुवाद महिला एक्टिविस्ट कुमुदिनी पति ने किया है।)

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