लॉकडाउन पूरी तरह फेल, अब लम्बे समय तक रह सकती है कोरोना महामारी

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क्या लॉकडाउन पूरी तरह फेल हो गया है? क्या लॉकडाउन के कारण कोरोना महामारी की समयावधि बहुत बढ़ गयी है? मोदी का लॉकडाउन देश में वायरस के फैलाव को रोकने के लिए, केंद्र का एक प्रमुख हथियार था जो दुनिया के सबसे सख़्त शटडाउंस में से एक था, जिसमें 100 प्रतिशत कड़ाई बरती गई, जो सबसे अधिक थी। फिर भी भारत कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का जबर्दस्त दबाव झेल रहा है, जो अब 4 लाख से अधिक हो गए हैं। वास्तव में जल्दबाज़ी में लॉकडाउन घोषित करने के बाद से मोदी सरकार ने बहुत सारी ग़लतियां की हैं। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे का कहना है कि लॉकडाउन लागू करने में मनमानी की गई इसलिए उच्चतम न्यायालय को अगली सुबह इस पर रोक लगा देनी चाहिए थी ताकि लोगों को तैयारी का मौका मिल सके।

अगर कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को देखा जाए तो तीन महीने के बाद खुले अनलॉक-1 में संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ी है। देश में कोरोना संक्रमण के लगातार चार दिन से हर दिन 12,500 से अधिक मामले सामने आ रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में आठ दिन पहले संक्रमितों की संख्या तीन लाख थी, जो अब बढ़कर 4,10,461 हो गई है। देश में लगातार चार दिन से हर दिन 12,500 से अधिक मामले सामने आ रहे हैं।तो क्या लॉकडाउन वास्तव में फेल हो गया है और कोरोना महामारी जो पहले तीन महीने में नियंत्रित हो जानी चाहिए थी एक मोटे अनुमान के अनुसार अब कम से कम अगले 6 महीने तक अपना कहर ढाती रहेगी।  

देश में संक्रमण के मामले 100 से एक लाख तक पहुंचने में 64 दिन लगे। अगले 15 दिन में इनकी संख्या दो लाख हो गई थी। उसके अगले दस दिन में कुल मामलों की तादाद तीन लाख के पार हो गई थी। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 306 और लोगों की मौत के बाद कुल मृतक संख्या बढ़कर 13,254 हो गई है। हालांकि कोविड-19 के मरीजों के इस रोग से क्रमिक रूप से उबरने की दर करीब 55.48 प्रतिशत है, जिन्हें संक्रमण मुक्त घोषित कर दिया गया है। यदि लॉकडाउन न किया गया होता तो एक और देश में संक्रमण फ़ैल कर अब तक समाप्ति की ओर आ जाता वहीं दूसरी और लाखों मजदूरों को सड़कों पर ढोर डांगर की तरह मरते खपते अपने गांवों की तरफ न पलायन करना पड़ता और देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह धराशायी होने से बच जाती।

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली (एनएलयूडी) ने “उच्चतम न्यायालय और महामारी: श्री दुष्यंत दवे के साथ एक वार्तालाप” विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया। संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के दृष्टिकोण पर अपना विचार रखते हुए दवे ने कहा, “मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में दिया गया कोई भी कार्यकारी आदेश अवैध है। प्रश्न यह है कि क्या सरकार संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर रही है?” संबंध‌ित उपचारों के बिना संवैधानिक अधिकारों की मिथ्या की चर्चा करते हुए, दवे ने संविधान सभा के भाषणों का उल्लेख किया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः डॉ. बीआर अंबेडकर के तत्वावधान में अनुच्छेद 32 का जन्म हुआ।

दवे ने कहा कि मौजूदा समय में, हालांकि, कार्यपालिका न्यायपालिका पर हावी है, फिर भी संवैधानिक मूल्यों को की रक्षा के लिए न्यायिक समीक्षा की मिसालें पेश की गई हैं। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि संविधान एक मौलिक दस्तावेज है, वह लोकतंत्र के अंगों का निर्माण करता है। सभी अंगों की शक्तियों का निर्धारण करता है। न्यायपालिका को कार्य कारणी के अधिकारों की जांच करनी चाहिए।”

दवे ने लॉकडाउन के कारण हुए व्यापक नुकसान के मामले में न्यायपालिका की तत्‍परता की कमी की विस्तारपूर्वक चर्चा की। लॉकडाउन के फैसले को प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद का स्पष्ट रूप से अनियोजित निर्णय बताते हुए उन्होंने कहा प्रधानमंत्री अदूरदर्शी मंत्रियों की सलाह पर काम कर रहे थे। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन से पहले 4 घंटे का नोटिस दिया। आप भारत जैसे देश में 4 घंटे का नोटिस देकर लॉकडाउन की घोषणा नहीं कर सकते। यह बहुत बड़ी मनमानी थी। जनता कर्फ्यू के दिन थाली-बजाने का कार्यक्रम मजाक था। लॉकडाउन के कारण बहुत से लोग पीड़ित हुए। रोजी-रोटी गंवा देने वालों की संख्या बड़ी है। भारत जैसे देश में लॉकडाउन लागू करना बहुत ही मनमाना फैसला था।

दवे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन के फैसले पर घोषण के तुरंत बाद, अगले दिन सुबह ही, कम से कम एक हफ्ते के लिए रोक लगा देनी चाहिए थी, ताकि लोगों को तैयारी का मौका मिल सके। दवे ने कहा कि ऐसा नहीं करने से लोकतांत्रिक सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना हुई। उन्होंने कहा कि हम सभी ने अपने भाइयों और बहनों की पीड़ा देखी। क्या यह लोकतंत्र का काम है? नागरिकों को सैकड़ों किलोमीटर चलने के लिए मजबूर करना? मुझे नहीं लगता। यह तानाशाही नहीं हैं, लोकतंत्र है। प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं और दुखों के मामले में उच्चतम न्यायालय  की ओर से पास आदेशों को “दंतहीन” और “संकेतात्मक” करार देते हुए उन्होंने कहा कि न्यायपालिका ने 1970 में अधिक कुशलता से काम किया रहा होगा।

दवे ने कहा कि आज उच्चतम न्यायालय  के जज प्रधानमंत्री को हीरो कहते हैं। इस मुद्दे पर दवे ने संविधान सभा में दिए गए डॉ बीआर अंबेडकर के आखिरी भाषण को उद्धृत किया, “धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा, पतन और अंततः तानाशाही का निश्चित मार्ग है।” दवे ने धारा 370 के मुद्दे की भी चर्चा की, जो कि उच्चतम न्यायालय  के समक्ष अभी भी लंबित है। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय महीनों से इस मुद्दे पर बैठा हुआ है, हालांकि उसने अयोध्या मामले पर सुनवाई करके निर्णय सुना दिया।

उन्होंने कहा कि वह खुद एक धार्मिक व्यक्ति हैं, लेकिन वह यह समझ नहीं पा रहे कि मंदिर का निर्माण कैसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे कि हैबियस कॉर्पस याचिकाओं या अनुच्छेद 370 के मुद्दे से पहले उठाया जा सकता है। पीएम केयर्स फंड आरटीआई अधिनियम, 2005 के तत्वावधान और जांच के दायरे में आना चाहिए, इस पहलू पर, दवे ने जोर देकर कहा कि ऐसा नहीं करना स्पष्‍ट धोखाधड़ी होगी।

इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि लॉकडाउन के ख़राब ढंग से अमल में लाने से, लोगों की मौतें हुई हैं। इसे महामारी के दौरान अनिवार्य कोलेटरल डैमेज बताकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता। कोविड के खिलाफ लड़ाई में  भारत के अलावा किसी भी देश में, इतने बड़े पैमाने पर ग़रीबों को, भूख या साधनों की कमी से मरते नहीं देखा गया। भारत ने अपने ग़रीबों को अभी तक किसी सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन नहीं दिया है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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