Wednesday, April 24, 2024

महाबोधि विहार का महाविवाद: आखिर कब चमकेगा मुक्ति का सूरज?

भारत में बौद्ध पक्ष अनुत्तरित है और उसके दावों को न्याय से वंचित किया जाता है, इसका एक उदाहरण बोधगया के महाबोधि विहार का महाविवाद भी है। इसके सिलसिले में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर, 1954 को कहा था कि मैं यह सिद्ध कर सकता हूं कि वैदिकों में यज्ञ की संकल्पना थी और उनमें मन्दिर की परंपरा नहीं थी, इसलिए किसी भी उत्खनन में डेढ़ से दो हजार वर्ष पहले वैदिकों या शैव/वैष्णव पंथ की मूर्तियां नहीं दिखती हैं। केवल ईस्वी सन 700 से 800 की मूर्तियां मिलती हैं। डॉ. अम्बेडकर ने यह भी दावा किया था कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) में बौद्ध मंदिर थे। अयोध्या विवाद के समय भी बौद्धों ने बार-बार कहा कि इस प्रकरण में उनका पक्ष भी सुना जाये, लेकिन न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया, जबकि अयोध्या का प्राचीन नाम साकेत भी है, जिसका सम्बन्ध बौद्ध अतीत से रहा है। बौद्धों ने गुहार लगायी थी कि विवादित स्थल के उत्खनन में बौद्ध अवशेष मिले हैं, लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया। 

अभी भी बौद्ध उपासना स्थलों पर बहुसंख्यक धर्मों के कब्जे की बात उठती रहती है। अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमा के ध्वंस का उदाहरण दुनिया ने देखा है और बड़े धर्मों की असहिष्णुता से सभ्यता का इतिहास भरा-पूरा है। 

20 अप्रैल, 1992 को अखिल भारतीय भिक्खु महासंघ के 22वें अधिवेशन में तीन सौ भिक्षुओं ने प्रस्ताव पारित किया कि ‘आज जिस प्रकार मक्का मुसलमानों, काशी-मथुरा हिन्दुओं और यरुशलम यहूदियों के हाथों में है, उसी प्रकार हमारा महाबोधि विहार हमारे हवाले किया जाये।’ संघ ने मंदिर की वर्तमान प्रबंध समिति को अलोकतांत्रिक करार देते हुए उसे भंग करने की मांग की और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। 3 मई, 1992 को नई दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय बौद्ध महासम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर महाविहार का प्रबन्ध पूर्णरूपेण बौद्धों के हवाले करने, मंदिर से शिवलिंग हटाने और परिसर को पंच-पाण्डव मंदिर से मुक्त कराने की मांग केन्द्र सरकार से की गयी। 

मांगों के पीछे संदेश था कि बौद्धों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। 15 मई को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर देश-विदेश के बौद्ध महाबोधिविहार में एकत्र थे। श्रीलंका के तत्कालीन उच्चायुक्त लेनिल कनकरत्ने की उपस्थिति में महाविहार के पंडे-पुजारियों और बौद्धों में विवाद और संघर्ष हुआ। महाराष्ट्र भिक्खु संघ और आल इंडिया डिपे्रस्ड पीपुल्स माइनारिटीज के एक हजार सदस्यों ने प्रदर्शन किया और धरना दिया। संघ के अध्यक्ष थेरोडि संघ रक्षित और आल इंडिया डिपे्रस्ड पीपुल्स माइनारिटीज के अध्यक्ष रामचन्द्र डोगरे ने नेतृत्व किया। इसका सीधा प्रसारण श्रीलंका रेडियो से हो रहा था। बौद्धों ने हिन्दू पुजारियों द्वारा परिसर में कर्मकाण्ड करने, बुद्ध को कपड़ा पहनाने, बुद्ध के प्रिय पांच शिष्यों की मूर्तियों को पंच पांडव बनाकर वस्त्र पहनाने और महामाया की प्रतिमा को द्रौपदी बनाने का भी विरोध किया। धरने के बाद बौद्धों ने गया के जिलाधिकारी के जरिये बिहार सरकार को ज्ञापन दिया कि मंदिर पर हिन्दुओं का कब्जा समाप्त किया जाये और 1949 के कानून में परिवर्तन किया जाए। स्पष्ट है कि महंत और बौद्धों के विवाद ने महाबोधिविहार के अतीत और वर्तमान को परत-दर-परत उधेड़ दिया।

अतीत के प्रमाण

इतिहासकारों का मत है कि महाबोधिविहार का निर्माण ईसापूर्व दूसरी शती और बुद्ध की मूर्ति स्थापना तीसरी शती में हुई। छठी शती के चीनी यात्री ह्वेनसांग की किताब में इस विहार का वर्णन है। पूर्व राज्यपाल रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर के संपादन में प्रकाशित ग्रंथ ‘बिहार थ्रू एजेज’ में स्पष्ट उल्लेख है कि गौर प्रदेश (अब बंगाल) के सम्राट शशांक (602-605 ईस्वी) ने मगध में बौद्धों का विनाश किया। उसने बोधिवृक्ष को नष्ट किया और विहारों का ध्वंस किया। उसने बुद्ध की खड़ी प्रतिमा हटाकर शिवलिंग स्थापित किया। वर्तमान बोधिवृक्ष श्रीलंका स्थित अनुराधापुर से लाये गये तने का ही विशाल आकार है। हालांकि अनुराधापुर से लायी गयी कलम उसी शाखा का रूपांतरण है, जिसे लेकर संघमित्रा श्रीलंका गयी थीं। यह विश्व का प्राचीनतम वृक्ष है। पंच पाण्डव मंदिर की पांच पुरुष मूर्तियां भी बुद्ध की ही पंच मुद्राएं हैं और छठी मूर्ति बुद्ध की मां महामाया की है। आचार्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण ने भी हिन्दुओं के इस दावे को अमान्य किया था कि मूर्तियां पांडव और द्रौपदी की हैं। बौद्धों का एक तबका पंच पाण्डवों की मूर्तियों को बुद्ध के पांच शिष्यों की प्रतिमाएं मानता है।

महाबोधि मंदिर

ऐसा पता चलता है कि 1590 में महंत गोसाईं घमण्डी गिरि ने बोधगया में अपना मठ बनाया और आसपास के विशाल भूखण्ड पर कब्जा कर लिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संस्थापक एजेक्जेंडर कनिंघम ने 1861 में बोधगया के निरीक्षण में देखा था कि बोधगया  के तत्कालीन महंत के अनुयायी बौद्ध आस्था के खिलाफ आक्रामक गतिविधियों में संलग्न थे। 1876 में बर्मा (म्यामार) के राजा ने विहार की मरम्मत और खुदाई के लिए अधिकारी तैनात किया था। अंततः 1880 में तत्कालीन सरकार ने उत्खनन के लिए कदम उठाया और वज्रासन सहित अनेक महत्वपूर्ण अंश प्राप्त हुए। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा उत्खनन और पुनर्निर्माण के बावजूद महंत ने बिहार परिसर पर कब्जा किए रखा। 1886 में ‘लंदन टेलीग्राफ’ में बोधगया और महाबोधिविहार की दुःस्थिति पर पत्रकार एडविन अर्नाल्ड का लेख छपा जिसे पढ़कर श्रीलंका के अनागरिक धर्मपाल क्षुब्ध हुए। धर्मपाल ने लिखा-सारे संसार को निर्वाण की राह दिखाने वाले की मूर्ति को बिल्कुल नष्ट होने के लिए छोड़ दिया गया है। 13 अक्टूबर, 1891 में श्रीलंका में विश्व बौद्ध सम्मेलन हुआ जिसमें महाबोधि सोसायटी का गठन किया गया और सोसायटी के जिम्मे उपेक्षित बौद्धस्थलों के विकास का भार दिया गया। 

आंशिक हस्तांतरण

1891 में जब चार भिक्षुओं के साथ अनागरिक धर्मपाल महाबोधि विहार पर दावा करने बोध गया आये तब महंत ने दावा अमान्य कर दिया और गुंडों से दो भिक्षुओं पर जानलेवा हमला करवाया। धर्मपाल ने महाविहार पर महंत के कब्जे के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। 1893 में बौद्ध समिति ने मांग रखी कि महंत को राजी कर विहार का पुनर्निर्माण कर बौद्धों को सौंपा जाए। महंत राजी नहीं हुए। 1894 में समिति ने सरकार से मंदिर के अधिग्रहण की मांग की, लेकिन सरकार राजी नहीं हुई। उसके बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्ति पुराने मंदिर में ले जाने की कोशिश की तो बौद्धों और महंत में फौजदारी मुकदमा हुआ और सालों चलता रहा। लार्ड कर्जन ने महंत को संदेश भेजा कि बौद्धों से समझौता कर लें, लेकिन महंत अड़ा रहा। 

कालांतर में गांधी जी ने भी समाधान की अपील की। 1903 में तत्कालीन बंगाल सरकार (तब बिहार राज्य नहीं था)  ने दो सदस्यीय वायसरीगल आयोग गठित किया। आयोग ने संयुक्त प्रबंध समिति का सुझाव दिया। शक्तिशाली महन्त ने आयोग का प्रस्ताव ठुकरा दिया। 1909 में सिक्किम के राजा के अनुरोध पर ब्रिटिश कार्यवाही का भी महंत ने विरोध किया। 1914-18 के विश्वयुद्ध में जापान ने अंग्रेजों का साथ दिया और लड़ाई समाप्त होने के बाद अंग्रेजों से बोधगया मंदिर में बौद्धों को कुछ हक देने का सुझाव दिया, लेकिन अंग्रेज इंकार कर गये। बौद्धों के अधिकार के लिए 1922-23 में बर्मा, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड और मलेशिया में व्यापक प्रदर्शन हुए। 1912 में बिहार स्वतंत्र राज्य बन चुका था, इसलिए मामला बिहार सरकार के अधीन आ गया।

1922 में गया में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस से समाधान का आग्रह किया, क्योंकि बौद्ध राष्ट्रों से दबाव पड़ रहा था। कांग्रेस ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को इसका भार दिया। डॉ. प्रसाद ने ब्रजकिशोर नारायण और प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल की एक उपसमिति बनायी। समिति ने 1903 की वायसरीगल कमीशन की अनुशंसाओं का अनुमोदन कर दिया, लेकिन महंत ने अस्वीकार कर दिया। 1930 में अनागरिक धर्मपाल का निधन हो गया और 1947 में ब्रिटेन ने भारत को सत्ता हस्तान्तरित की। बौद्ध राष्ट्रों ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष विवाद रखा।

नेहरू ने राजेन्द्र बाबू को सक्रिय किया तो उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को प्रेरित कर बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 पारित करवाया। अधिनियम में व्यवस्था की गयी कि आठ सदस्यीय प्रबंध समिति के चार हिन्दू और चार बौद्ध सदस्य होंगे। गया के जिलाधिकारी इसके पदेन अध्यक्ष होंगे। यदि जिलाधिकारी अहिंदू होंगे तो सदर अनुमंडलाधिकारी पदेन अध्यक्ष होंगे। अधिनियम बनने के बावजूद महंत ने समिति को मंदिर हस्तांतरित करने से इंकार कर दिया और राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को महंत को सहमत करने के लिए बोधगया की यात्रा करनी पड़ी। 23 मई, 1953 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने बोधगया में मंदिर पर नियंत्रण कर हस्तांतरण कराया। 

नया विधेयक 

अधिनियम के अनुसार ईसाई और मुसलमान जिलाधिकारी पदेन अध्यक्ष बनने से वंचित रहे। सिर्फ एक सिख जिलाधिकारी पदेन अध्यक्ष बन सके। प्रबन्ध समिति में चार-चार बौद्ध और हिन्दू सदस्य नामित होते रहे, लेकिन अधीक्षक पद का प्रावधान नहीं होते हुए भी भंते ज्ञानजगत अधीक्षक बन गये। वे धर्मांतरित भिक्षु और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के सभापति और धर्म संसद के सदस्य रहे। उनका दावा था कि विहिप का सदस्य और भिक्षु होने में विरोधाभास नहीं है क्योंकि परिषद सभी धर्मों की मूलभूत एकता में विश्वास करती है। दोहरी आस्था वाले भंते ज्ञानजगत और पदेन अध्यक्ष के कारण समिति में हिन्दू बहुमत में रहे। 

बौद्ध भिक्खु संघ का आरोप है कि 1949 के अधिनियम में महंत को ज्यादा अधिकार दिये गए हैं और आज तक समिति का अध्यक्ष या सचिव कोई बौद्ध नहीं हुआ है। महंत के तत्कालीन प्रवक्ता जयराम गिरि ने तब कहा था कि हिन्दू किसी भी कीमत पर महाविहार नहीं छोड़ेंगे। समिति के हिन्दू सदस्य और सर्वोदयी नेता द्वारिको सुंदरानी (दिवंगत) ने भी तब यथास्थिति का समर्थन किया था। विहिप-भाजपा तो महाविहार पर हिन्दू वर्चस्व का समर्थन कर ही रही है। 1949 के अधिनियम का स्थान लेने के लिए तत्कालीन लालू सरकार ने बोधगया महाविहार विधेयक, 1994 लाई लेकिन विधानसभा में पारित नहीं करा सकी। इसमें प्रावधान था कि मंदिर की प्रबन्ध समिति के आठ बौद्ध सदस्यों को सरकार मनोनीत करेगी। सदस्य एक सचिव और एक उपाध्यक्ष चुनेंगे और गया के जिलाधिकारी पदेन अध्यक्ष होंगे। इस विधेयक के कानून बनते ही मंदिर पर महंत का 450 साल पुराना कब्जा समाप्त हो जायेगा। 

लेकिन बोधिविहार की मुक्ति नहीं हो सकी, क्योंकि बाद के मुख्यमंत्रियों ने इसकी कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई। बौद्ध निर्णायक मताधार के अधिकारी होते तो यह हो जाता। हालांकि बौद्धों ने लम्बित विधेयक में बौद्ध सदस्यों के मनोनयन को सरकारी हस्तक्षेप माना था। बौद्ध बोधगया की जगह बुद्धगया नाम भी चाहते थे। जैसे पटना सिटी का नाम पटना साहिब किया गया। वैसे सरकार ने महाविहार में हिन्दू कर्मकाण्डों पर रोक लगा दी है। सरोवर में प्रतिमा विसर्जन पर भी रोक है, लेकिन हिन्दुओं का कब्जा बरकरार है। बौद्धों ने मुक्ति की शपथ ले रखी है। उन्हें उसकी पूर्णता की प्रतीक्षा है।

बोधगया महाबोधिविहार विवाद ने भारतीय समाज, सत्ता, व्यवस्था, विधायिका, न्यायपालिका को नंगा किया है कि जितनी तत्परता से हिन्दुओं के पक्ष में निर्णय होते हैं, वैसा बौद्धों के पक्ष में संभव नहीं है। उनका पक्ष सुना ही नहीं जाता है। भले ही जनतंत्र के अधिकांश प्रतीक चिन्ह दिखावे के बतौर बौद्धकाल के हों। यह तब है जब वरिष्ठ साहित्यकार और आंबेडकरी साहित्य के विद्वान डॉ. प्रदीप आगलावे कहते हैं कि भारत में जगन्नाथपुरी (ओड़िसा) तिरुपति बालाजी (आन्ध्र प्रदेश), पंढरपुर (महाराष्ट्र), कांचीपुरम (तमिलनाडु) व महाकालेश्वर (मध्य प्रदेश) जैसे अनेक धर्मस्थल पूर्व के विहार स्तूप और चैत्य हैं। वे प्रबोधनकार केशव ठाकरे की पुस्तक ‘देवल का धर्म और धर्मों के देवल’ का हवाला भी देते हैं।

प्रसंगवश, बोधगया के महंत पुरोहित-सामंत वर्ग के प्रतिनिधि मात्र हैं। उन्होंने महाबोधि विहार पर नियंत्रण के अतिरिक्त व्यापक भूसम्पदा पर भी मालिकाना कर रखा है। वह बिहार के प्रमुख सबल भू-स्वामी भी हैं। उनके खिलाफ छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने लम्बा भूमिमुक्ति आन्दोलन किया था। यही नहीं, बिहार के अधिकांश कबीरपंथी मठों पर दबंग जातियों का कब्जा था। ये मठ कभी निर्गुण धारा के केन्द्र थे। लेकिन सरकार इनकी मुक्ति और भूमि सुधार कानून लागू कराने में विफल रही है। दरअसल, बोधगया सहित सारे महन्त, मंदिर, धर्म, सम्पत्ति, और सत्ता के सशक्त केन्द्र हैं, जिन पर पुरोहिती-महंती व्यवस्था काबिज है। प्रधानमंत्री भले ही लुम्बिनी और कुशीनगर जाएं, अपने जन्मस्थान वडनगर के बौद्ध अतीत का आख्यान रचें लेकिन बोधगया के महाबोधिविहार की अभी तक टलती आ रही मुक्ति कहती रहेगी कि भारत के बौद्ध अतीत के साथ अन्याय हो रहा है।

सवाल है कि आखिर इस विश्व धरोहर पर मुक्ति का सूरज कब चमकेगा? 

(प्रकाश चन्द्रायन वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं और इन दिनों नागपुर में रहते हैं।)

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