Friday, March 29, 2024

स्मृति शेष: शेषनारायण सिंह

सिरहाने ‘मीर’ के आहिस्ता बोलो
अभी तकी रोते-रोते सो गया है

मीर तकी ‘मीर’ (1723 – 1810)

अदब की दुनिया में ‘ख़ुदा-ए-सुख़न’ यानि शायरी का ख़ुदा माने जाने वाले उर्दू के बड़े शायर ‘मीर’ यकीनन, सीनियर सहाफी शेषनारायण सिंह को नहीं जानते होंगे जो उनके गुजर जाने के डेढ़ सदी बाद पैदा हुए और जिनका 07 मई 2021 की सुबह भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिल्ली से कुछ दूर उत्तर प्रदेश के उपनगर, ग्रेटर नोएडा के जिम्स अस्पताल के आईसीयू-5, बेड नंबर-7 पर कोविड महामारी की नई मारक लहर में निधन हो गया। पर अपने मित्रों ही नहीं हिंदुस्तानी सियासत, मीडिया और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेह्ररू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के देश-विदेश में पसरे हजारों पूर्व छात्रों के बीच भी ‘शेष भाई’ के रूप में ज्ञात मानवीय गुणों से लबरेज इस इंसान ने मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब ही नहीं अल्लामा इकबाल समेत तमाम शायरों को पढ़ रखा था।

सीपी झा के मुंबई स्थित मकान में शेष नारायण सिंह।

तभी जब महाराष्ट्र के पुरुष, महिला और आदिवासी किसानों ने 2017 में नासिक से मुंबई तक लॉन्ग रेड मार्च मार्च निकाला तो फ़ोटोग्राफी की वैश्विक ‘गेती’ एजेंसी की क्लिक उनकी फोटो देख अचंभित दुनिया को मामला सरल रूप से समझाने के लिए शेष भाई ने सोशल मीडिया पर इकबाल का एक आशायर उसके हर कठिन लफ़ज के मायने के साथ लिख दिया:

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो

दहकाँ = किसान,  मयस्सर= उपलब्ध ,खोशा-ए-गंदुम= गेहूँ की बालियाँ


मोदी  सरकार के कृषि कानून

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के संसद में विवादास्पद तरीकों से पारित काराये तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर विभिन्न राज्यों के दिल्ली बॉर्डर पर जुटे असंख्य किसानों की दशा और दिशा जान कर हमने दिल्ली से बिहार के सहरसा जिला के अपने गाँव में बरस भर के आत्मनिर्वासित जीवन के दौरान 27 नवम्बर 2021 को एक कविता लिख सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के साथ ही शेष भाई को ये लिख अलग से भेजी कि हम इस कविता के माध्यम से अपने मनोभाव व्यक्त करने के अलावा शायद और कुछ नहीं कर सकते। कविता थी: 

हमारे किसान
दिल्ली आए हैं
अपना हक लेने
अपना हक लेकर ही जाएंगे
हमारे किसान
मुंबई भी आए थे
अपना हक लेने
तब वे छले गए
हमारे किसान
सुंदर रूप में मुंबई आए थे
तीन बरस पहले
समुंदर तट से
पहाड़ से
मैदान से
पैदल मार्च कर

हमारे किसान
इस बरस भी
सुंदर रुप में ही दिल्ली आए
हर तरीके से
हर रास्ते से
शांति से

हमारे किसान
औरतें हैं
मर्द हैं
बच्चे और बूढ़े भी
तय कर रखा है हमारे किसानों ने
इस बार अपना हक लेने
हुक्मरानी की हेंकड़ी निकाल देंगे


शेष भाई ने लिखित संदेश भेजा: मायूस न हो। मुंबई और दिल्ली के आरामदेह जीवन से दूर गाँव चले गए। वहां खेती बाड़ी करने, स्कूल चलाने और कोरोना महामारी से बचाव के लिए घर-घर हाथ धोने का साबुन निःशुल्क वितरित करने, किताब पर किताब लिखने के अलावा जो ये कविता लिखी क्या कम है?

उन्होंने ‘न्यू इंडिया में किसान’ और ‘इंडिया दैट इज भारत का बदलता समाज’ शीर्षक हमारी दो नई प्रस्तावित किताबों की प्रस्तावना लिखने का वादा किया। साथ ही कहा कि अपनी कच्ची-पक्की सभी कविताओं को व्यवस्थित कर कविता संग्रह निकालने में जुट जाओ और इस संग्रह में दो शब्द लिखने के लिए वे कविताएं मनमोहन जी को रोहतक भेज दो। शेष भाई जेएनयू में कवि मनमोहन जी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) के पूर्व महासचिव प्रकाश करात और मौजूदा महासचिव सीताराम येचुरी के भी लगभग समकालीन थे।

नोएडा में अंतिम संस्कार।

कामरेड करात ने शेष भाई के निधन की खबर पर दुख व्यक्त किया है। उन्होंने इस लेखक के माध्यम से शेष भाई के परिजनों को भेजे शोक संदेश में लिखा ‘शेष नारायण की खबर जान अत्यंत दुःख हुआ। वो जेएनयू में अच्छे मित्र थे। उनके समस्त परिवार को मेरी गहरी शोक संवेदना से अवगत करा दें’

हम शेष भाई के बहुत बाद जेएनयू पढ़ने आए थे। उनसे पहली भेंट और भी बाद हर नव वर्ष के दिन से दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के होने वाले सालाना आयोजन में हुई। शेष भाई ने मुझे कहा था कि सहमत ने संस्कृति के क्षेत्र में जनपक्षधर हस्तक्षेप के तीस साल के काम से फासिस्ट ताक़तों के खिलाफ अवाम को बड़ा मंच दिया है। देश की राजनीति में बहुमतवाद की अधिनायकवादी रूढ़िवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर लगाम लगाने के लिए सहमत के काम पर पत्रकारों द्वारा ज्यादा लिखा जाना चाहिए। हमने काफी लिखा है। तुम नए तेवर में हिन्दी और अंग्रेजी में भी और लिखो। मुझे पता है तुम सफ़दर हाशमी के करीब रहे हो। जेएनयू में छात्र जीवन में उनके जन नाट्य मंच के नुक्कड़ नाटक खेला करते थे। अब और बहुत कुछ कर सकते हो। हमने शेष भाई की बात मान सहमत पर लगातार लिखने का सिलसिला जारी रखा। 

शेष भाई के बाद जेएनयू में पढ़े फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने लिखा:

सालों पहले एक दिन दोपहर में कॉल आया। नंबर अनजाना था। आदतन फोन उठाया तो आवाज आई, ‘अजय ब्रह्मात्मज बोल रहे हो?’ ‘जी हां बताइए’ यह पूछने पर उन्होंने कहा राजेंद्र शर्मा ने तुम्हारा नंबर दिया था। मैं मुंबई आया हूं। आकर मिलो।

‘आकर मिलो या आता हूं मिलने’ का सिलसिला उसके बाद निरंतर चलता रहा। शायद ही किसी मुंबई प्रवास में उनसे मुलाकात नहीं हुई हो। वे हाथ नहीं मिलाते थे। हथेली हाथ में कुछ यूं भींचते थे कि आप अनायास उनकी तरफ खिंचते चले जाएं। वैचारिक रूप से संपन्न ज्यादातर व्यक्ति नीरस हो जाते हैं, लेकिन उनकी सरलता बातों और विचारों को सरस रखती थी। देश के राजनीतिक परिदृश्य को समझने-समझाने में दक्ष शेष जी सिनेमा में भी गहरी रुचि रखते थे। अपने ओज, तेज और मेधा से वे प्रेरित और प्रोत्साहित करते थे। यकीनन बहुत पढ़ते और सुनते थे। बोलने में उन जैसे स्मृति संपन्न, मुखर और संवादप्रिय पत्रकार कम ही मिले हैं। किसी मुद्दे पर अगर किसी बिंदु को लेकर मतभेद हुआ तो वह सामने वाले को कभी नासमझ या कम जानकार नहीं ठहराते थे।  अपनी बात को और स्पष्ट करते थे।

उनके मुंबई आने के साथ मेरे मिलने का प्रोग्राम तय हो जाता था। शाम की बैठकें कई घंटे चलती थीं और विषय मुंबई के मौसम से लेकर देश के राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं तक होता था। बीच-बीच में सिनेमाई बातों में उनका दृष्टिकोण भी जाहिर होता था।

शेष भाई की सियासी समझ 
शेष भाई को देश-विदेश की सियासत की अच्छी समझ थी। उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश से इतर सूबों ही में समाजवादियों, कांग्रेसियों और ‘संघियों’ की खूब मालूमात थी। वे इनके किस्सों को भी सुनाया करते वे किसान परिवार से निकले कलमजीवी थे। खुद पर कटाक्ष कर कहते थे: सत्तर साल की उम्र में कलम घिसना पड़ रहा है! यूरोप- अमेरिका के पत्रकार इस उम्र में आराम फरमाते हैं, सरकारों के द्वारा दी जाने वाली सामाजिक सुरक्षा लाभ, पेंशन आदि पाते हैं और यहां दिहाड़ी खटने को मजबूर हैं।

गांव की याद शेष भाई के शब्दों में

शेष भाई ने लगभग इसी समय पिछले बरस लिखा था: आजकल मुझे अपना गाँव बहुत याद आता है, आम में खूब बौर लगे हैं, महुआ के पेड़ के नीचे सफ़ेद चादर जैसे महुआ के फूल टपके हुए हैं, न गर्मी है, न ठंडी है। नीम में बिलकुल नई ललछौंह पत्तियां आ गयी हैं। दही में गुड़ डालकर मेरी बहन ने दे दिया है, गरम-गरम रोटी के साथ खा लिया है और स्कूल जाने की तैयारी है। स्कूल से लौटते हुए प्यास लग जाती थी। इसलिए मेरे बाल सखा अमिलियातर के नन्हकऊ सिंह के झोले में लोटा डोरी विद्यमान है। हम जूते नहीं पहनते थे तब, होते ही नहीं थे। इसलिए लौटते हुए गरम हो चुकी दोपहर की बलुही ज़मीन खल जाती थी। घास के टुकड़ों पर पाँव रखने की कोशिश में बहुत कूद फान करना पड़ता था। पेड़ों के नीचे शान्ति होती थी। बाद में पता चला कि अवध की सरज़मीं के इस मौसम का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत ही बढ़िया तरीके से किया है। रामनवमी के मौसम का चित्र देखिये। बाबा फरमाते हैं:

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकुल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक विश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरितामृतधारा॥

(चंद्रप्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं। और यूएनआई में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles