Friday, March 29, 2024

झारखंड: कोरोना के विपत्ति काल में लौटे प्रवासी मजदूर फिर से पलायन के लिए मजबूर

झारखंड के मजदूरों की रोजी-रोटी के सवाल जब मुंह फाड़े खड़े थे, तब राज्य की हेमंत सरकार ने सूबे में लौटे प्रवासी मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने के लिए तीन महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू कीं। इनमें नीलांबर-पीतांबर जल समृद्धि योजना, बिरसा हरित ग्राम योजना और मनरेगा पर आधारित वीर शहीद पोटो खेल विकास योजना प्रमुख हैं।। इन योजनाओं की घोषणा के बाद लगा कि राज्य के मजदूरों की रोजगार की समस्या का निदान हो गया। लेकिन मौजूदा हालात बताते हैं कि राज्य में रोजगार की समस्या जस की तस बनी हुई है। नतीजतन राज्य के मजदूर रोजगार के लिए फिर से दूसरे राज्यों की ओर पलायन करने लगे हैं। 

कारण साफ है। लॉकडाउन में वापस आए प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के तहत भी काम नहीं मिल रहा है। बता दें कि झारखंड में 52,96,000 ग्रामीण परिवार मनरेगा जॉब कार्डधारक हैं। जिनमें 91,48,000 मनरेगा मजदूर रोजगार में शामिल हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के सभी 24 जिलों में कार्यरत मनरेगा कार्यालयों की सूची में 51,2668 ऐसे मजदूर हैं, जो रजिस्टर्ड तो हैं, लेकिन उन्हें जॉब कार्ड नहीं मिला है। जिसमें 300 से लेकर 41 हजार रजिस्टर्ड मजदूर हैं। रजिस्ट्रेशन के बाद भी जॉब कार्ड न मिलने वाले जिलों में सबसे कम संख्या सरायकेला की है। यहां महज 288 मजदूर हैं जिनको जॉब कार्ड नहीं मिला है। लेकिन शायद यह अपने किस्म का अपवाद है। क्योंकि बाकी जिलों में यह संख्या दो हजार से लेकर 41 हजार है। और अवसत संख्या 15 हजार है। पलामू में सबसे ज्यादा संख्या गैर जॉबकार्डधारियों का है। यह 41 हजार के करीब है।

वहीं मनरेगा आयुक्त सिद्धार्थ त्रिपाठी कहते हैं कि ”आंकड़ों की एंट्री अब तक अपडेट नहीं की गई है। यह मामला संज्ञान में है, जिस पर तेजी से काम किया जा रहा है। मजदूरों की बड़ी संख्या होने की वजह से लगभग 10 दिन का समय लग सकता है। मनरेगा में जॉब मांगने वालों को लगातार काम दिया जा रहा है। खेती का मौसम होने से काफी संख्या में लोग उधर भी मजदूरी करने जा रहे हैं।” 

मतलब साफ है कि पलायन करने वाले मजदूरों की जानकारी सरकारी को है।

दूसरी तरफ कोरोना संक्रमण को लेकर राज्य में रोजगार की संभावना जिस तरह से निचले पायदान पर है, ऐसे में सरकारी स्तर से रोजगार की बात करें तो मनरेगा ही एक ऐसी योजना बची है जिसमें राज्य के मजदूर वर्ग व उनके परिवार वालों के पेट भरने की गुंजाइश दिखती है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में 29.19 लाख श्रमिक मनरेगा में पंजीकृत हैं, 9 लाख से अधिक अप्रवासी मजदूर रोजगार खत्म होने के कारण देश के विभिन्न राज्यों से झारखण्ड वापस लौटे। इसके अतिरिक्त मजदूर परिवारों की एक बड़ी संख्या है जो इन दोनों आंकड़ों से बाहर है। कुल मिलाकर देखा जाए तो राज्य में लगभग 40 लाख मजदूर हैं, जिनके पास एकमात्र विकल्प मनरेगा योजना ही है, जिससे वे अपने परिवार का पालन पोषण कर सकते हैं। 

दूसरी तरफ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन यह मानते हैं कि ”अब किसान भी घटते हुए खेतिहर मजदूर बनते जा रहें हैं।” यह बात उन्होंने राज्य में धान उत्पादन एवं बाजार अभिगम्यता व सुलभता हेतु ‘सहायता’ नामक प्रस्तावित नई योजना एवं बाजार समिति के प्रस्ताव की समीक्षा के दौरान कही।  

मुख्यमंत्री ने कहा कि ”किसान बढ़ नहीं रहे, बल्कि किसान अब घटते हुए खेतिहर मजदूर बनते जा रहे हैं। मौसम की विषमता छोटे और मंझोले किसानों की परेशानी का सबब बन गया है। किसान पलायन भी कर रहे हैं। ऐसे में स्थिति को बदलने और इस विषय पर विशेष कार्य योजना बनाने की जरूरत है।” 

मतलब कि मुख्यमंत्री हालात को जानते हैं, फिर वह स्थिति से नपटने के लिए जरूरी पहल क्यों नहीं कर रहे हैं यह सबसे बड़ा सवाल बना हुआ है।

राष्ट्रीय स्तर की बात करें तो देश के 35 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों की कुल संख्या 13 करोड़ 68 लाख है। जिसमें 26 करोड़ 65 लाख मजदूर शामिल हैं। मतलब कि मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों में हर परिवार से दो-तीन लोग शामिल हैं। इसे समझने के लिए यह जान लेना जरूरी है कि एक परिवार में जितने भी सदस्य हैं उनकी गिनती मनरेगा के तहत पंजीकृत संख्या एक ही होती है और कार्य दिवस गिनती भी एक ही पंजीकृत परिवार की होती है। यानी परिवार में अगर चार वयस्क लोग हैं और कार्य दिवस 100 दिन का है तो उन चारों के हिस्से में 25-25 दिन का कार्य दिवस आएगा। मतलब 365 दिन में मनरेगा के तहत एक परिवार को मात्र 100 दिन ही काम मिलेगा, चाहे परिवार में जितने भी वयस्क सदस्य हों। जो ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। ऐसे में जाहिर है पलायन तो होगा ही। अत: इससे उबरने के लिए मनरेगा के कार्य दिवस को 300 दिन किया जाना चाहिए। 

बता दें कि देश में मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों की कुल संख्या 13 करोड़ 68 लाख होने के बाद भी सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कुल 7.61 करोड़ परिवार ही ऐसे हैं जो विगत 3 वर्षों के दौरान किसी मनरेगा योजना में कार्य किए हैं। जिन्हें मनरेगा में ‘एक्टिव जॉब कार्ड धारक’ कहा जाता है। ऐसे कुल श्रमिकों की संख्या 11.7 करोड़ है। एक्टिव मजदूरों में 19 फीसदी दलित तथा 16.3 फीसदी आदिवासी हैं। ‘एक्टिव जॉब कार्ड धारक’ का फंडा यह है कि जिन मजदूरों का विगत 3 वर्षों के दौरान मनरेगा के मस्टर रोल (मजदूरों के कायों का लेखा-जोखा) में नाम नहीं है उन्हें एक्टिव जॉब कार्ड धारक नहीं माना जाता है। चाहे इस बीच सरकारी स्तर से भी मनरेगा का काम उन्हें नहीं दिया गया हो। 

आर्थिक जानकारों की मानें तो 2008 में जब कई देश वैश्विक आर्थिक मंदी झेल रहे थे तब भारत पर उसका गहरा प्रभाव नहीं पड़ा था, क्योंकि तब देश में मनरेगा जैसी योजना क्रियाशील थी, जिसमें ग्रामीण इलाकों के करोड़ों मजदूरों को रोजगार मिल रहा था और उनकी क्रय शक्ति कम नहीं हुई थी।                         

गौरतलब है कि उस वक्त मनरेगा में आज की तरह तकनीकी जटिलताएं नहीं थीं। मजदूर सीधे कार्य स्थल पर पहुंच कर कार्य करते, कार्यान्वयन एजेंसी की जवाबदेही थी कि वे मजदूरों का रिकार्ड संधारित कर उनको समय से मजदूरी भुगतान करें। प्रत्येक पंचायत के खाते में भुगतान के लिए पैसे होते थे। भुगतान के बाद दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जाता था। लेकिन 1 अप्रैल, 2013 के बाद मनरेगा में पारदर्शिता, भ्रष्टाचार में अंकुश लगाने और समय से मजदूरी भुगतान के नाम पर मनरेगा योजनाओं में इतने प्रयोग हो रहे हैं कि जिसमें न पारदर्शिता है, न चोरी रुकी है और न ही मजदूरी भुगतान में सुधार दिखाई पड़ता है। हां इतना जरूर हुआ है कि कागजों पर सरकारी रिपोर्टिंग खूब हो रही है और अनपढ़ व कम पढ़े लिखे मजदूर दिन ब दिन मनरेगा कामों से ओझल होते जा रहे हैं।

बता दें कि राज्य की 76 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में और शेष 24 फीसदी आबादी शहर में रहती है। आज के ठीक 20 साल पहले 2001 में राज्य की आबादी 2.69 करोड़ थी। दशकीय जनसंख्या वृद्धि के तहत 2011 में हुए जनगणना के अनुसार राज्य की कुल आबादी लगभग 3.3 करोड़ हो गई। इसी क्रम के 2020 में राज्य की कुल आबादी अब 4.01 करोड़ हो गई है। एक परिवार में औसतन 5 सदस्य होते हैं। इस हिसाब से देखें तो पूरे झारखंड में करीब 80 लाख 20 हजार परिवार निवास करते हैं।                                                 

झारखंड सरकार द्वारा काम मांगने वाले मजदूरों को 24 घंटे के अन्दर रोजगार गारंटी कानून मनरेगा के तहत काम उपलब्ध कराने को जिला प्रशासन को निर्देश दिया गया है। बावजूद इसके अफसरशाही अपनी लापरवाही से बाज नहीं आ रही है। 

खबर है कि राज्य के लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखण्ड के अन्तर्गत नेतरहाट पंचायत के आधे गांव के 13 मजदूरों ने पिछले 6 जुलाई को ही प्रखण्ड कार्यालय में सामूहिक काम के लिए आवेदन दिया था। परन्तु उनको 12 दिनों तक काम तो नहीं ही दिया गया, बल्कि उल्टे काम मांगने वाले श्रमिकों के नाम मस्टर रोल सृजित करके प्रखण्ड प्रशासन ने उन मजदूरों को बेरोजगारी भत्ते के अधिकार से भी वंचित कर दिया। 

सबसे दुखद बात तो यह है कि काम की मांग करने वाले सभी आदिम जनजाति बिरजिया परिवार के सदस्य थे। झारखंड में कुल 32 जनजातियों में से आठ को आदिम जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, इसमें बिरजिया जनजाति भी एक है। 

काम मांगने वाले संतोष बिरजिया, मानती  बिरजिया, सोमरी देवी, दुखु  बिरजिया आदि ने बताया कि प्रखण्ड मुख्यालय से काफी दूर गांव होने की वजह से यहां कोई भी सरकारी कर्मी जैसे रोजगार सेवक, पंचायत सेवक, मुखिया आदि कभी नहीं आते हैं। पंचायत मुख्यालय पहुंचने के लिए गांव के लोगों को 4 घंटे पैदल और जंगली पहाड़ी रास्तों से होकर जाना पड़ता है। विगत 3 जुलाई को नरेगा सहायता केन्द्र के सदस्य अफसाना एवं एग्नेसिया गांव में आये थे। उनके सामने सभी मजदूरों ने काम के आवेदन के साथ 6 जुलाई से काम की मांग की थी। उनका आवेदन प्रखण्ड विकास पदाधिकारी को सौंपा गया। उनके स्तर से कोई कार्रवाई न होते देख जिले के उपायुक्त एवं उप विकास आयुक्त को भी आवेदन प्रेषित किया गया। उसके बाद से आनन-फानन में मजदूरों का मस्टर रोल आधे गांव की मिलयानी देवी के खेत में डोभा निर्माण के काम के लिए 8 जुलाई से 14 जुलाई तक सृजित किया गया। लेकिन किसी कर्मी ने उन मनरेगा मजदूरों को काम पर लगने की सूचना नहीं दी और वगैर काम किये मस्टर रोल की अवधि समाप्त हो गई।

जबकि दूसरी तरफ दुरूप पंचायत के दौना गांव में फिलिप सारस के आम बागवानी योजना में वगैर मस्टर रोल के मजदूरों से काम कराया गया। सिर्फ यही नहीं अब उन श्रमिकों के बदले दूसरे मजदूरों के नाम से फर्जी मस्टर रोल तैयार कर सरकारी पैसे की लूट जारी है। पैसा पाने वाले ऐसे लोग शामिल है जिन्होंने मौके पर काम किया ही नहीं है। यह फर्जीवाड़ा ग्राम पंचायत मुखिया, ग्राम रोजगार सेवक, पंचायत सेवक एवं प्रखण्ड कर्मियों की मिलीभगत से की जा रही है। इस संबंध में प्रखण्ड विकास पदाधिकारी एवं जिले के वरीय अधिकारियों को शिकायत आवेदन दिया गया। परन्तु किसी प्रकार की कार्रवाई अभी तक नहीं हुई।

इस बाबत नरेगा वाच के झारखंड राज्य संयोजक, जेम्स हेरेंज ने जिला प्रशासन सहित सरकार को भी इसकी जानकारी देते हुए लिखा कि ”कोविड 19 लॉक डाउन में मनरेगा मजदूरों जिनके तमाम आर्थिक स्रोत बन्द हैं, उनको मनरेगा जैसे कानूनी अधिकारों से वंचित करना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।” उन्होंने बताया कि ”कई मनरेगा मजदूरों के बदले दूसरे मजदूरों के नाम से फर्जी मस्टर रोल तैयार कर सरकारी पैसे की लूट जारी है, मस्टर रोल में ऐसे मजदूरों के नाम हैं जिन्होंने योजना स्थल पर काम ही नहीं किया है। यह फर्जीवाडा ग्राम पंचायत मुखिया, ग्राम रोजगार सेवक, पंचायत सेवक एवं प्रखण्ड कर्मियों की मिलीभगत से की जा रही है।”

जेम्स हेरेंज बताते हैं कि अंतत: बहुत दबाव देने के बाद महुआडांड़ के नेतरहाट पंचायत के आधे गांव के बिरजिया आदिम जनजाति के 25 नरेगा मजदूरों में से 20 मजदूरों को 3 किसानों के टीसीबी निर्माण योजना में 21 जुलाई से 3 अगस्त तक काम दिया गया। 5 मजदूरों को इस बार भी नरेगा काम से वंचित कर दिया गया है।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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