Friday, March 29, 2024

मोदी सरकार ने सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार खो दिया है: अखिलेन्द्र

मजदूर वर्ग जिसने आधुनिक युग में कई देशों में क्रांतियों को संपन्न किया, जिसने भारत में भी आजादी के आंदोलन से लेकर आज तक उत्पादन विकास में अपनी अमूल्य भूमिका दर्ज कराई है। वही मजदूर यहां कोरोना महामारी के इस दौर में जिस त्रासद और अमानवीय दौर से गुजर रहा है वह आजाद भारत को शर्मशार करता है। फिर भी मजदूर वर्ग की इतिहास में बनी भूमिका खारिज नहीं होती। घर वापसी के क्रम में भी मजदूर वर्ग ने मोदी सरकार के वर्ग क्रूरता को बेनकाब कर दिया है। फासीवादी राजनीति के विरुद्ध मजदूरों की यह स्थिति नए राजनीतिक समीकरण को जन्म देगी।

यह मजदूर बाहर केवल अपने लिए दो जून की रोटी कमाने ही नहीं गया था, उसके भी उन्नत जीवन और आधुनिक मूल्य के सपने थे। वह बेचारा नहीं है जिन लोगों ने उन्हें न घर भेजने की व्यवस्था की और न ही रहने के लिए आर्थिक मदद दी मजदूर उनसे वाकिफ है और समय आने पर उन्हें राजनीतिक सजा जरूर देना चाहेगा। क्योंकि बुरी परिस्थितियों में भी वह किसी के दया का मोहताज नहीं है, आज भी वह अदम्य साहस और सामर्थ्य का परिचय दे रहा है। मजदूरों के अंदर आज भी राजनीतिक प्रतिवाद दर्ज करने की असीम योग्यता है और पूरे देश को नई राजनीतिक लोकतांत्रिक व्यवस्था देने में वह सक्षम है। जरूरत है उसे शिक्षित और संगठित करने की।  

लॉकडाउन के समय घर जाना मजदूरों का स्वभाव नहीं मजबूरी थी। परिस्थितियों से बाध्य होकर वे परिवार बच्चों सहित पैदल ही लम्बी यात्रा के लिए चल पड़े। इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना और रास्ते में पुलिस द्वारा उनका उत्पीड़न करना सरकार की बर्बरता है। अभी भी वक्त है सरकार इन्हें सकुशल घरों को भेजने का इंतजाम करे, सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। यह भी सच है कि मोदी सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा करने के पहले यदि प्रवासी मजदूरों और बाहर बसे हुए नागरिकों को घर भेजने की व्यवस्था कर दी होती तो आज जिस तरह कोरोना की बीमारी बढ़ रही है वह भी इतनी तेजी से न बढ़ती।

 अब यह निर्विवाद है कि न केवल महामारी बल्कि चौपट हो गई देश की अर्थव्यवस्था से निपटने में भी कथित महामानव की सरकार पूरी तौर पर नाकाम साबित हुई है। अभी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मोदी सरकार की 20 लाख करोड़ रुपए और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 प्रतिशत खर्च करने की बात पूरी तौर पर बेईमानी साबित हो रही है। देश के अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत है कि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने, बेरोजगारी से निपटने के लिए लोन मेला लगाने की जगह सरकार को लोगों की जेब में सीधे नगदी देने की जरूरत है ताकि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ सके। 20 लाख करोड़ रुपए की सरकारी घोषणा में सरकार ने अपने खाते से अर्थशास्त्रियों का मत है कि लगभग दो लाख करोड़ ही दिए हैं जो जीडीपी के एक प्रतिशत से भी कम है।

यह बताने की जरूरत नहीं है कि कई देश अपनी जनता की जेब में सरकारी कोष से अच्छा खासा पैसा डाल रहे हैं। मोदी सरकार का नारा है ‘लोकल से ग्लोबल’ बनने का और व्यवहार में जनता की सभी सार्वजनिक संपत्ति को यह सरकार विदेशी ताकतों के हवाले कर रही है। लोग मजाक में कहते हैं कि मोदी सरकार के self-reliance का मतलब अपनी रक्षा करना और रिलायंस की सेवा करना।

मोदी सरकार को भले महामानव की सरकार उनके प्रचारक बता रहे हों लेकिन यह सच्चाई है कि यह सरकार अंदर से डरी हुई है और बेहद कमजोर है। जनता के सवालों को उठाने वाले और लोकतांत्रिक आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले लोगों को भले यह सरकार जेल में डाल रही हो। लेकिन अपनी कारपोरेट मित्र मंडली के सामने यह पूरी तौर पर लाचार है। कारपोरेट घरानों के ऊपर उत्तराधिकार और संपत्ति कर लगाने की बात तो दूर रही, कारपोरेट घरानों के डर से यह आज के दौर के लिए बेहद जरूरी वित्तीय घाटे को भी बढ़ाने से डरती है। क्योंकि इसको लगता है कि इससे भारत की दुनिया में आर्थिक रेटिंग कमजोर हो जाएगी और विदेशी पूंजी यहां से भागने लगेगी।

विदेशी पूंजी कैसे भागेगी यदि मोदी सरकार यह दम दिखाए कि कोई भी पूंजी भारत से 5 साल के लिए बाहर नहीं जा सकती। इसे यह भी डर लगता है यदि घाटा बढ़ता है तो कॉरपोरेट घराने इस सरकार से नाराज हो जाएंगे क्योंकि उन्होंने दुनिया के बाजार से ऋण ले रखा है और उन्हें अधिक भुगतान करना पड़ेगा। अर्थशास्त्री बताते हैं कि रुपए के अवमूल्यन से घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे हमारा निर्यात बढ़ेगा। कारपोरेट घरानों को अधिक भुगतान न करना पड़े चाहे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाए यही नीति मोदी सरकार की है। भारत की मौजूदा दुर्दशा इसी अर्थनीति की देन है जिसे आज पलटने की सख्त जरूरत है।

 मांग के संकट से निपटने और अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के लिए यह जरूरी है कि कृषि में निवेश बढ़ाया जाए, किसानों की फसलों का लागत से डेढ़ गुना अधिक मूल्य दिया जाए, छोटी जोतों के सहकारी खेती के लिए निवेश किया जाए, रोजगार सृजन के लिए कृषि आधारित उद्योग को बढ़ावा दिया जाए, कुटीर-लघु-मध्यम उद्योग के लिए सीधे सरकार खर्च करे जो ऋण उन्हें दिए जा रहे हैं उस पर उन्हें रियायत मिले, बाजार पर उनका नियंत्रण हो और विदेश से उन चीजों को कतई आयात न किया जाए जो इस क्षेत्र में उत्पादित हो रहे हों। मजदूर और उद्यमियों का कोऑपरेटिव बने और उद्योग चलाने में मजदूरों की भी सहभागिता हो।

कोरोना महामारी के इस दौर में मजदूरों को नगदी दिया जाए उन्हें रोजगार दिया जाए, शहरों में भी मनरेगा का विस्तार हो। किसानों और गरीबों के सभी कर्जे माफ हों। कुक्कुट, मत्स्य, दुग्ध उत्पादन आदि जैसे क्षेत्रों में सीधे निवेश करके लोगों को उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाए और उनके लिए बाजार को सुरक्षित किया जाए और विदेश से इस क्षेत्र में भी आयात रोका जाए, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए, गांव से लेकर शहरों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाए। कोरोना से बीमार लोगों के इलाज का पूरा खर्च सरकार उठाए, स्वास्थ्य कर्मियों व कोरोना योद्धाओं को जीवन सुरक्षा उपकरण दिए जाएं और इस महामारी के कारण दुर्घटना का शिकार होकर मृत व घायल हुए लोगों को समुचित मुआवजा दिया जाए। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करके विस्टा प्रोजेक्ट के तहत जो नई संसद बन रही है उस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाए।

यह सब संभव है यदि कथित महामानव की मोदी सरकार इस आपदा की घड़ी में खर्च करने के लिए वित्तीय घाटे के लिए तैयार हो। अर्थशास्त्रियों का मत है 7-8 लाख करोड़ रुपए यदि सरकार सीधे खर्च करे और लोगों को नगद मुहैया कराए तो महामारी और आर्थिक मंदी से निपटा जा सकता है और अर्थव्यवस्था में मांग को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

आज जरूरत है देश में एक बड़े जनांदोलन की एक नए राजनीतिक विमर्श की इसके लिए मजदूर, किसान, छोटे-मझोले उद्यमी, व्यापारी जो आज संकट झेल रहे हैं उन्हें राजनीतिक प्रतिवाद के लिए खड़ा किया जाए। दरअसल यह युग राजनीतिक प्रतिवाद का है। समाज के सभी शोषित और उत्पीड़ित वर्गों, तबकों और समुदायों को राजनीतिक प्रतिवाद में उतारने और उनके बीच से नेतृत्व विकसित करने की जरूरत है। जिन समाजवादी देशों ने जनता को राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी से रोका यहां तक कि मजदूरों को भी राजनीतिक गतिविधियों से वंचित कर दिया गया और उन्हें ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार भी नहीं दिया गया, इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है और आज भी जो समाजवादी देश राजनीतिक प्रक्रिया से जनता को अलग-थलग किए हैं उन्हें भी देर-सबेर इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा।

इसलिए जो लोग मजदूरों को महज ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित रखना चाहते हैं और मजदूरों को सीधे तौर पर राजनीतिक प्रतिवाद में नहीं उतारना चाहते उन्हें भी समाजवादी देशों की गलतियों से सीखना चाहिए और आज के दौर में सड़कों पर उतरे करोड़ों-करोड़ मजदूरों को मोदी सरकार के खिलाफ राजनीतिक प्रतिवाद में उतारना चाहिए। कोरोना महामारी से निपटने में सरकार की नाकामी की वजह से मजदूरों में जो अविश्वास पैदा हुआ है और सरकार से जो उसने असहमति व्यक्त की है, उसे राजनीतिक स्वर देने की जरूरत है क्योंकि मोदी सरकार शासन करने का नैतिक प्राधिकार खोती जा रही है। विपक्ष का आज के दौर में यही राजनीतिक धर्म है।

एक बात और इधर लोगों को विभाजित करने और अपनी विभाजनकारी राजनीति, संस्कृति और एजेंडे को थोपने की कोशिशें की जा रही हैं उससे भी निपटने की जरूरत है। यह विभाजनकारी ताकतों का संगठित और संस्थाबद्ध प्रयास है जिसे सरकार का पूरा समर्थन है। इसलिए इसका सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतिवाद करना भी बेहद जरूरी है। संविधान हमारी नागरिकता और आधुनिकता का आधार है। नागरिकता और आधुनिकता के मूल्यों को नीचे तक ले जाने की जरूरत है। लोगों को एक नागरिक की भूमिका में खड़ा करना और एक नागरिक के बतौर अपनी मानवीय भूमिका को दर्ज करना आज के दौर का कार्यभार है। हमें याद रखना होगा कि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक आंदोलन एक अविभाज्य इकाई के अंश हैं और एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए इसे संपूर्णता में चलाने की आज जरूरत है।

(अखिलेंद्र प्रताप सिंह स्वराज अभियान की प्रेजिडियम के सदस्य हैं।) 

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