उत्तराखण्ड के गो-सदनों में भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर रही हैं ‘राष्ट्रमाता’

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राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पास करा कर गाय को राष्ट्रमाता घोषित करने वाला उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य तो बन गया लेकिन राज्य में गोवंश की दुर्दशा में सुधार होता नजर नहीं आ रहा है। क्रूरता और गोवंश के प्रति घोर लापरवाही का ताजातरीन उदाहरण राज्य सरकार की ठीक नाक के नीचे देहरादून के कांजी हाउस में सामने आया है जहां कांग्रेस की नेत्रियों ने अचानक छापा मार कर गायों की दुर्दशा की फोटो तथा वीडियो वायरल किये हैं। अगर राज्य सरकार सचमुच गौ-संरक्षण के प्रति संवेदनशील होती तो नैनीताल हाईकोर्ट को स्वयं को राज्य की गायों का कानूनी संरक्षक घोषित नहीं करना पड़ता और राज्य सरकार को गोवध को तत्काल रोकने और पर्याप्त संख्या में कांजी हाउस या गौसदन स्थापित करने का आदेश नहीं देना पड़ता।

राज्य के कानून के अनुसार किसी भी पालतू या लावारिश पशु को गंभीर हाल में या लाइलाज बीमारी में दयामृत्यु का भी प्रावधान है मगर सरकारी संरक्षण वाले गो-सदनों या कांजी हाउसों में गायें तड़प-तड़प कर स्वयं ही मर जाती हैं, लेकिन उन बेजुबानों के दर्द से किसी का दिल नहीं पसीजता। सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि गोभक्त पार्टी के नेतृत्व वाले देहरादून नगर निगम द्वारा संचालित कांजी हाउस मृत पशुओं को दफनाने के बजाय उनकी खाल खिंचवाने के लिये उन्हें एक ठेकेदार को सौंप देता है। उन गायों के मांस के डिस्पोजल का भी कोई रिकॉर्ड नहीं है।

उत्तराखण्ड कांग्रेस की मुख्य प्रवक्ता गरिमा महरा जो अचानक देहरादून के कांजी हाउस जा पहुंची का कहना था कि, ‘‘वहां पहुंचकर जो नजारा था वह बहुत ही मन को विचलित करने वाला था। वहां गायों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी, आधा दर्जन से अधिक गायें मरी पड़ी हुई थी और उनके ऊपर मक्खियां भिन-भिना रही थीं। वहां चार-पांच गाय गंभीर रूप से घायल अवस्था में मिली जिनके शरीर से बहुत खून बह रहा था और जख्म बहुत गहरे थे। उनके खून से फर्श लहूलुहान था। जख्मों को देखकर यह साफ पता लगाया जा सकता था कि उनका कोई इलाज नहीं किया गया है। मरियल स्थिति में पहुंची गायें भूख-प्यास से भी तड़पती भी देखी गई।

पानी और भूसे के लिए बनाए हुए कुंड एकदम खाली थे, केयर टेकर से पूछने पर उसने भूसे का आर्डर दिए जाने की बात कही। एक पशु के चारे के लिये प्रति दिन 30 रुपये का बजट है। कांजी हाउस के वेटरनरी डॉक्टर से जख्मी गायों के इलाज के बारे में पूछा तो उन्होंने अपने पास एडवांस दवाई इंजेक्शन न होने की बात कही।’’

प्रदेश में 8 नगर निगमों सहित कुल 90 नगर निकाय हैं और नियमानुसार प्रत्येक निकाय में कांजी हाउस या गोसदन होने चाहिये। लेकिन वर्तमान में राज्य में केवल 39 मान्यता प्राप्त गोसदन हैं जिनमें लगभग 10 हजार पशुओं को रखने की व्यवस्था है जबकि 2019 की पशु गणना के अनुसार राज्य में 18.56 लाख गोवंशीय पशु हैं। इस हिसाब से राज्य में बड़ी संख्या में लावारिश या परित्यक्त पशु होंगे।

गोसदनों में रखी गयी गायों की वास्तविक स्थिति जानने की फुर्सत भी किसी को नहीं है। इतने नगर निकायों में से केवल देहरादून नगर निगम के पास एक कांजी हाउस है, जिसकी क्षमता लगभग 300 गायों की है। कांजी हाउस के डाक्टर के अनुसार वर्तमान में उसमें लगभग 350 पशु हैं। शासन में 81 लाख रुपये लागत से एक बड़ी गोशाला के निर्माण का प्रस्ताव पिछले ढाई सालों से सचिवालय में लंबित पड़ा हुआ है। राज्य में राजनीतिक शासकों और नौकरशाहों के लिये एक से बढ़ कर एक आलीशान भवन बन रहे हैं, जबकि बेजुबान पशुओं को मरने के लिये एक तंग शेड में ठूंसा जा रहा है।

कांजी हाउस के एक कर्मचारी का कहना था कि यहां लगभग 3 या 4 पशु हर रोज आते हैं और इतने ही हर रोज मर भी जाते हैं। मरी गायों या सांडों को उठाने के लिये राजेश नाम के एक व्यक्ति की संस्था को शव निस्तारण का ठेका दिया हुआ है। वर्ष 2019 का ठेका लगभग 1 लाख रुपये में राजेश के पक्ष में छूटा था। कांजी हाउस द्वारा ऐसी 10 संस्थाएं पंजीकृत हैं जो मृत पशुओं को हासिल करने के लिये टेंडर डालते हैं। कांजी हाउस वालों की जिम्मेदारी केवल मृत पशु को ठेकेदार को सौंपने तक की है और उसके बाद ठेकेदार शव के उपयोग या अपनी सुविधा से निस्तारण के लिये स्वतंत्र है।

जबकि उत्तराखण्ड राज्य गोवंश संरक्षण अधिनियम 2011 की धारा 7 (2) के अनुसार मृत पशु को केवल दफनाया ही जा सकता है। मृत या जीवित पशु के परिवहन के लिये नियम और निर्धारित प्रमाण पत्र होते हैं। मृत पशु की जानकारी भी उचित माध्यम से देनी होती है। कर्मचारियों ने पूछने पर बताया कि ठेकेदार द्वारा मृत गाय की खाल निकाली जाती है। लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि खाल के अलावा मृत गाय के मांस, सींग और हड्डियों का क्या होता है? इस प्रश्न से न तो गौभक्त सरकार का और ना ही समुदाय विशेष को निशाना बनाने वाले कथित गोरक्षकों का कोई वास्ता है।

स्वयं को गोसेवक होने का दावा करने वाली सरकारें बढ़ा-चढ़ा कर दावे करती रही हैं। राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड में भी उत्तर प्रदेश गोवध अधिनियम 1955 लागू हो गया था। इसके बाद राज्य में 2007 में भाजपा सरकार आयी तो उसने उत्तराखण्ड गोवंश संरक्षण अधिनियम 2007 बना दिया जिसकी नियमावली 2011 में प्रख्यापित की गयी। राज्य की भाजपा सरकार ने स्वयं को सबसे बड़ी गो-रक्षक साबित करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुये 21 अक्टूबर 2017 को गढ़वाल और कुमाऊं मण्डलों में दो गोवंश संरक्षण स्क्वाडों का गठन भी कर दिया। उसके बाद राज्य गौ संरक्षण आयोग ने अगस्त 2018 में गो-रक्षकों को बाकायदा मान्यता प्राप्त पहचान पत्र भी दे डाले।

दिसम्बर 2018 के शीतकालीन सत्र में तत्कालीन त्रिवेन्द्र सरकार ने विधानसभा से गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित करा कर उसे केन्द्र सरकार को दिया था। लेकिन वास्तविकता यह है कि राज्य में गोभक्ति और गोवंश संरक्षण के नाम पर केवल ढकोसला ही होता रहा है और राज्य सरकार को सड़कों तथा गली कूचों में बीमार, आशक्त और परित्यक्त गौवंश तड़पते रहे।

नैनीताल हाईकोर्ट ने 13 अगस्त 2018 को अपने ऐतिहासिक फैसले में राज्य में गाय, बैल, बछड़े एवं आवारा साड़ों को छोड़े जाने एवं इन पशुओं पर क्रूरता तथा अशक्त स्थिति में इनको संरक्षण न दिये जाने पर गहरी चिन्ता प्रकट करने के साथ ही स्वयं को इन बेजुबान और लावारिश पशुओं का कानूनी वारिश और संरक्षक घोषित कर एक तरह से सरकार के दावों पर अविश्वास जाहिर कर दिया। न्याय का यह सिद्धांत न्यायालय को ऐसी चीजों का संरक्षक होने की अनुमति देता है जो खुद का खयाल रखने की स्थिति में नहीं होतीं।

उत्तराखंड में गोसेवा आयोग के लिए 2002 में अधिनियम बना था लेकिन आयोग को अस्तित्व में आते-आते आठ साल लग गये। 2010 में आयोग अस्तित्व में आया। उसके बाद अब फिर से आठ साल हो चुके हैं और आयोग में अभी तक अधिकारियों-कर्मचारियों के पदों का ढांचा तक नहीं बन पाया है। आयोग के पास अपना कोई स्थायी अधिकारी-कर्मचारी नहीं है। कुछ कर्मचारी पशुपालन विभाग से अटैच किये गये हैं। प्रभारी अधिकारी के पास आयोग के अलावा शासन में अन्य विभागीय कार्य भी होते हैं। वित्तीय तंगी के कारण कार्यालय का खर्च चलाने के लिये आयोग उधारी पर चल रहा है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं।)

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