Friday, April 19, 2024

अनुच्छेद 370 का गला घोंट कर आरएसएस/भाजपा नेताओं ने सरदार पटेल को किया शर्मसार

आरएसएस के बौद्धिक शिविरों (वैचारिक प्रशिक्षण शिविरों) में गढ़े जाने वाले “सत्य” में से एक यह भी है कि भारत पर अनुच्छेद 370 को जवाहरलाल नेहरू ने थोपा था, जबकि भारत के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल इसके विरोध में थे। मोदी सरकार के भीतर और उसके बाहर, आरएसएस के नेता जवाहरलाल नेहरू पर लगातार यही आरोप लगाते हैं कि कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 नेहरु के ही बदौलत है।

अगस्त 5, 2019 को इस अनुच्छेद का क़त्ल किए जाने के बाद, पीएम मोदी को ऐसे महान नेता के रूप में महिमामंडित किया जा रहा है, जिसने सरदार पटेल के “एक भारत” के सपने को पूरा किया। राम माधव जिन्हें आज कल आरएसएस और बीजेपी दोनों के प्रमुख विचारक के रूप में जाना जाता है, उन्होंने यह घोषित कर दिया है कि “जवाहर लाल नेहरू द्वारा की गर्इ ऐतिहासिक भूल को अंततः दुरुस्त कर लिया गया है।”1 दावा यह भी है कि अनुच्छेद 370 को हटाने का अर्थ ‘शहीद’ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपने को साकार करना है, जिन्होंने कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की खातिर ही अपने प्राण न्यौछावर किए थे।

इस प्रकार, आरएसएस/भाजपा के शासकों का दावा है कि सरदार पटेल के विरोध के बावजूद अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान में सम्मिलित करने के लिए जवाहरलाल नेहरू ही पूरी तरह से जिम्मेदार थे। उनका यह दावा एकदम दुर्भावनापूर्ण और कुत्सित है और इसमें लेश मात्र भी सत्य नहीं है। उस समय के आधिकारिक दस्तावेज, खासतौर पर सरदार पटेल के कार्यालय से संबंधित दस्तावेज इस प्रकार के किसी दावे को पुष्ट नहीं करते। इसके विपरीत, ढेर सारे दस्तावेज हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि अनुच्छेद 370 को भारतीय संविधान में सम्मिलित किए जाने की प्रक्रिया में सरदार पटेल भी पूरी तरह शरीक थे। धारा 370 के लिए नेहरू को खलनायक के रूप में पेश किए जाने के पक्ष में दी जाने वाली दलीलों से संबंधित कुछ खास तथ्यों पर आइए थोड़ा विचार कर लिया जाए।

संविधान सभा ने जिस समय धारा 370 संविधान में सम्मिलित किया उस समय नेहरू विदेश यात्रा पर संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए गए हुए थे।

सरदार पटेल के निजी सचिव, विद्या शंकर नामक एक वरिष्ठ आईसीएस (अब आईएएस) थे। वे 1946-50 तक सरदार पटेल के निजी सचिव और सबसे विश्वसनीय सलाहकार थे। उन्होंने दो विशालकाय ग्रंथों में सरदार पटेल के पत्राचार को संकलित और संपादित किया है। सरदार के विचारों और कार्यों की जानकारी के लिए यह संकलन बतौर प्रामाणिक रिकॉर्ड जाना जाता है।

इस संकलन के (अध्याय 3) में जम्मू और कश्मीर से संबंधित पत्राचार हैं। शंकर ने इस खंड की भूमिका में सरदार की तारीफ करते हुए लिखा है कि किस तरह सरदार पटेल ने तमाम बाधाओं के बावजूद, अनुच्छेद 370 को संविधान में सम्मिलित करने का प्रस्ताव पारित कराया था। शंकर के इस लेख से यह जानकारी मिलती है कि संविधान सभा द्वारा अनुच्छेद 370 को संविधान में सम्मिलित किए जाने का प्रस्ताव जिस समय पारित हुआ, नेहरू भारत में नहीं थे, बल्कि वे अमेरिका एक आधिकारिक यात्रा पर गए हुए थे।

शंकर के अनुसार:

“जम्मू एवं कश्मीर के संबंध में सरदार की उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़ना था। यह अनुच्छेद जम्मू एवं कश्मीर राज्य के साथ भारत के संबंध को परिभाषित करता है। इसे गोपालस्वामी अय्यंगार द्वारा शेख अब्दुल्ला और उनके मंत्रालय के साथ परामर्श करके और पंडित नेहरू के अनुमोदन से संपन्न किया गया था। उस समय, हालांकि नेहरू संयुक्त राज्य अमेरिका में थे परंतु तैयार मसौदे पर उनकी पूर्व अनुमति प्राप्त कर ली गर्इ थी। लेकिन सरदार से सलाह नहीं ली गई थी। संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रस्तावित मसौदे के उस भाग का काफी ज़ोरशोर से, बल्कि हिंसक ढंग से विरोध किया गया था, जिसके अंतर्गत जम्मू एवं कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की व्यवस्था थी। सैद्धांतिक तौर पर, पार्टी में आमराय यह थी कि संवैधानिक रूप से कश्मीर को भी अन्य राज्यों की तरह एक राज्य के बतौर रखा जाना चाहिए। खास तौर से संविधान के मूल प्रावधान, जैसे कि मौलिक अधिकार वहां लागू नहीं किए जाने का जबरदस्त विरोध था। गोपालस्वामी अय्यंगार लोगों को सहमत करने में नाकामयाब हुए और उन्होंने सरदार से हस्तक्षेप करने की गुजारिश की, सरदार चिंतित थे कि नेहरू की अनुपस्थिति में ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे नेहरू को नीचा देखने की नौबत आए। इसलिए नेहरू की ग़ैर माजूदगी में पार्टी को अपना पक्ष बदलने के लिए राजी करने का दायित्व सरदार ने पूरा किया। यह काम उन्होंने इस ख़ूबी से अंजाम दिया कि संविधान सभा में इस विषय पर अधिक चर्चा नहीं हुई और अनुच्छेद (370) का कोई विरोध नहीं हुआ।”2

इस प्रकार सरदार ने अनुच्छेद 370 का प्रारूप तैयार करने और संविधान सभा से इसे मंजूर कराने में सक्रिय भूमिका अदा की थी। इस तथ्य की पुष्टि सरदार पटेल द्वारा नवंबर 3, 1949 को नेहरू को लिखे एक पत्र से भी होती है, जिसमें उन्होंने लिखा था :

“कश्मीर से संबंधित प्रावधान को लेकर कुछ कठिनाइयां थीं … मैं पार्टी को सभी परिवर्तनों को स्वीकार करने के लिए राजी कर पाया सिवाय अंतिम एक को छोड़कर, जिसे इस प्रकार संशोधित किया गया ताकि उस उद्घोषणा द्वारा नियुक्त न केवल प्रथम मंत्रिमंडल बल्कि बाद में नियुक्त किए जाने वाले किसी भी मंत्रिमंडल को इसमें सम्मिलित किया जा सके।”3

इतिहास गढ़ने का माहिर आरएसएस

डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्क्ष्रता में संविधान सभा में अनुच्छेद 370 (मूल रूप से 306ए) चर्चा के लिए प्रस्तुत हुआ। गोपालस्वामी अय्यंगार ने अपनी लंबी टिप्पणी के साथ प्रस्तावित अनुच्छेद को संविधान सभा के सम्मुख पढ़ा। बहस के दौरान केवल एक सदस्य मौलाना हसरत मोहानी थे जिन्होंने अपना मत व्यक्त करते समय बड़ौदा राज्य के शासक के प्रति भेदभाव की ओर ध्यान आकर्षित कराया था। उनका कथन था :

“महोदय,सबसे पहले ही मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं न तो अपने दोस्त शैख़ अब्दुल्लाह को दी जा रही रियायतों की मुख़ालिफ़त कर रहा हूं, न ही मैं महराजा को कश्मीर के शासक के रूप में दी जा रही स्वीकृति के ही मुख़ालिफ़ हूं। कश्मीर के महाराजा को यदि कुछ और शक्तियां और रियायतें मिलती हैं, मुझे खुशी ही होगी…लेकिन क्या मैं एक सवाल पूछ सकता हूं? आप जब कश्मीर के लिए ये तमाम रियायतें प्रदान करते हैं, तो बड़ौदा राज्य को बंबई में विलय के लिए मजबूर क्यों किया जा रहा है। मैं आपकी इस मनमर्ज़ी का पुरज़ोर विरोध करता हूं। बड़ौदा राज्य का प्रशासन अन्य कई भारतीय प्रांतों के प्रशासन से बेहतर है। यह निंदनीय है कि आप बड़ौदा के महाराजा को मजबूर करें कि वे अपना राज बंबई में विलय करें और उनको पेंशन पर भेज दें । कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने खुद अपनी मर्जी से इस विलय को मंजूर किया है। मुझे भी मालूम है और यह राज जग-जाहिर कि उन्हें इंग्लैंड से लाया गया और उनकी इच्छा के खिलाफ उनको पेंशन पर भेज दें करने के लिए मजबूर किया गया…”।4

इस पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने हस्तक्षेप किया, “मौलाना, यहां हमारा विषय बड़ौदा के महाराजा से संबंधित नहीं है” । मौलाना ने निम्नलिखित शब्दों में इसका जवाब दिया:

“ठीक है, मैं किसी प्रकार की तफ़सील में नहीं जाऊंगा। लेकिन मैं कहता हूं कि मुझे इस पर एतराज़ है। यदि आप कश्मीर के महाराजा को ये रियायतें देते हैं, तो आपको बंबई में बड़ौदा का विलय किए जाने का अपना फैसला वापस लेना चाहिए और ये सभी रियायतें बड़ौदा के लिए और अन्य कर्इ रियायतें बड़ौदा के शासक को भी दी जानी चाहिए।”5

क्षोभजनक यह है कि राम माधव मौलाना की टिप्पणी में छांट कर महज तीन लफ्ज़ों का हवाला देते हैं, “यह भेदभाव क्यों?” झूठ बोल-बोल कर उसे सत्य सिद्ध करने की गोएबेल्सियन परंपरा का निर्वाह करते हुए वे इन लफ्ज़ों को संदर्भ से काट करके इस तरह से पेश करते हैं गोया कि मौलाना ने अनुच्छेद 370 के बारे में ही यह सवाल किया था, कि यह अनुच्छेद अन्य राज्यों की तुलना में कश्मीर के प्रति पक्षपाती है। इसके विपरीत, मौलाना न केवल अनुच्छेद 370 की हिमायत कर रहे थे बल्कि वे बड़ौदा के शासक के लिए भी इसी प्रकार के प्रबंध किए जाने की मांग कर रहे थे, जिन्हें सूझ-बूझ वाला शासन चलाने के बावजूद हटा दिया गया था और अपना राज्य बंबई में विलय के लिए मजबूर किया गया था।

सरदार पटेल, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और  संविधान सभा के अन्य तमाम हिंदू सदस्य अनुच्छेद 370 से सहमत थे

संविधान सभा में अनुच्छेद 370 पर जो बहस वास्तव में हुर्इ थी, झूठ बोलने में माहिर आरएसएस की टोली उसे जानबूझ करके छुपाने की कोशिश करती रही है। संविधान सभा में अनुच्छेद 370 को संविधान में सम्मिलित करने के लिए आधे दिन से भी कम चली चर्चा के दौरान डा. राजेंद्र प्रसाद और गोपालस्वामी अय्यंगार के अलावा अन्य कर्इ वरिष्ठ हिंदू नेता जैसे कि पंडित ठाकुरदास भार्गव, पंडित हृदय नाथ कुंजुरु, के. संथानम और महावीर त्यागी ने भाग लिया; किसी ने भी इस अनुच्छेद का विरोध नहीं किया। गौरतलब है कि संविधान सभा के कई सदस्य हिंदू राष्ट्रवादियों के रूप में जाने जाते थे। खास बात यह है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी संविधान सभा के सदस्य थे और 26 नवंबर 1949 को उन्होंने संविधान को स्वीकार करते हुए उस पर हस्ताक्षर किए थे, ऐसा संविधान जिस की धरा 370 अभिन्न अंग थी ।

उन्होंने संविधान सभा में इस अनुच्छेद पर चर्चा के दौरान जम्मूकश्मीर की विशेष स्थिति के विरोध में हल्का सा भी असंतोष जाहिर करना उचित नहीं समझा, जबकि एक हिंदू राष्ट्रवादी सदस्य, जसपत रॉय कपूर ने नवंबर 21, 1949 को संविधान के मसविदा पर चर्चा करते हुए अपना एतराज व्यक्त करते हुए कहा था :

मैं केवल कामना कर सकता हूं कि कश्मीर को भी अन्य राज्यों की तरह ही लिया जाना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होने नहीं जा रहा है। फिर भी अत्यंत असंतोष और खिन्नता के साथ मैं यही कहूंगा कि यह एक नाजुक विषय है। इस विषय पर इससे अधिक मैं और कुछ नहीं कहूंगा।6

कांग्रेस का दायित्व

दुर्भाग्य से, भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान में यकीन रखने वालों के लिए यह निराशाजनक स्थिति है कि अनुच्छेद 370 पर फैसले की गवाह और इस फ़ैसले में शामिल, कांग्रेस को हिंदुत्ववादी गोएबल्सों द्वारा इतिहास को विकृत किए जाने का मुकाबला, संसद में और इस के बाहर, एक होकर करना चाहिए था, उसके कुछ प्रमुख युवा सांसद संसद में मतदान के समय आरएसएस के विभाजनकारी खेल के शिकार हो गए। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता, कर्ण सिंह, कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के पुत्र, उन्होंने भी अनुच्छेद 370 को खत्म करने का समर्थन किया है।

संतोष इसका है कि बतौर एक पार्टी कांग्रेस ने अनुच्छेद 370 और भारतीय संविधान की हिमायत में खड़े रहने का फ़ैसला किया है । लेकिन आरएसएस /बीजेपी जैसे महाझुठ्ठों की इस कहानी का उसे जमकर विरोध करना चाहिए था कि केवल नेहरू ही के बदौलत अनुच्छेद 370 को भारतीय राष्ट्र पर थोपा गया। कांग्रेस को समकालीन दस्तावेजी तथ्यों को आधार बना करके अमित शाह और हिंदुत्व टोली को मुँह-तोड़ जवाब देना चाहिए था । जिस समय संविधान सभा ने अनुच्छेद 370 को हरी झंडी दी थी, नेहरू विदेश यात्रा पर देश के बाहर थे और सरदार पटेल ने इस अनुच्छेद को पारित कराना मुमकिन बनाया था। जो लोग नेहरू को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं, वे वास्तव में संविधान सभा के उन 299 माननीय सदस्यों (जिनमें सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल थे) को नेहरू के बंधुआ मजदूर के रूप में बता करके अपमानित कर रहे हैं। क्या आरएसएस/बीजेपी सरदार पटेल या मुखर्जी (जो 15अगस्त, 1947 से 6 अप्रैल, 1950 तक नेहरू के नेतृत्व में प्रथम मंत्रिमंडल में मंत्री थे) का एक भी ऐसा बयान पेश कर सकते हैं, जिसमें उन्होंने इस अनुच्छेद को मानने से इंकार किया हो? हिंदुत्ववादी शासक क्या यह साबित कर सकते हैं कि क्योंकि संविधान में अनुच्छेद 370 शामिल था इसलिए इन दोनों नेताओं ने संविधान सभा के सदस्य के रूप में भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर नहीं किए?

यह संपूर्ण संविधान सभा को कलंकित करने जैसी निर्लज्जता है । नेहरू को प्रहार का निशाना इसलिए बनाया जाता है क्योंकि कांग्रेस, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह अपनी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विरासत का बचाव करेगी, स्वयं निष्क्रियता के दौर से गुजर रही है। इसका एक कारण अपने गौरवशाली अतीत के बारे में उसकी अज्ञानता भी हो सकती है। आशा है कि कांग्रेस नेतृत्व महसूस करेगा कि यह मुद्दा कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी के अस्तित्व का ही नहीं है बल्कि हमारी प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे को ढांचे को बचाने का भी है।

(शम्सुल इस्लाम इतिहासकार हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम कर चुके हैं। उनके मूल अंग्रेजी के इस लेख का हिंदी अनुवाद कमल सिंह ने किया है।)

सन्दर्भ :

[1]  https://www.msn.com/en-in/health/other/historic-blunder-committed-by-jl-nehru-finally-corrected-ram-madhav/vi-AAFp6jH

2. Shankar, V, (ed.), Select Correspondence of Sardar Patel 1945-50, vol. 1, Navjivan Publishing House, Ahmedabad, 1977, pp. 220-21.

3. Letter reproduced in Shankar, V, (ed.), Select Correspondence of Sardar Patel 1945-50, vol. 1, Navjivan Publishing House, Ahmedabad, 1977, p. 373.

4. Constituent Assembly Debates, vol. X, Lok Sabha Secretariat, Delhi, 2003 [4th reprint], pp. 421-429.

5. Constituent Assembly Debates, vol. X, Lok Sabha Secretariat, Delhi, 2003 [4th reprint], pp. 421-429.

 6. https://indianexpress.com/article/opinion/columns/kashmir-article-370-scrapped-correcting-a-historic-blunder-5880790/

7.  Constituent Assembly Debates, vol. XI, Lok Sabha Secretariat, Delhi, 2003 [4th reprint], p. 762.

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