ग्राउंड रिपोर्ट: न मोदी के ‘गारंटी की गाड़ी’ देखी ना ही ‘सांसद-विधायक’ को जानते

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मिर्ज़ापुर। चुनावी शोर का दौर, गर्मी पुरजोर, पर बाजार में कोई शोर नहीं, बाजार पूरी तरह से बेजार नज़र आते हैं। मिर्ज़ापुर मंडलीय अस्पताल के समीप कलेक्ट्रेट की ओर जाने वाले मार्ग पर सड़क की पटरी पर फल का ठेला लगाकर ग्राहक कीआस में बैठा दुकानदार अचानक झपकी लेने लगता है। मई महीने के पहले सप्ताह की दोपहर की तपती दुपहरी, बाजार में पसरी खामोशी ऊपर से तन-बदन को झुलसाती गर्मी जीवन पर भारी पड़ती हुई लग रही है। बावजूद इसके रोजमर्रा के सामान एवं फल इत्यादि की दुकानें सड़क की पटरियों पर लगाकर परिवार की जीविका चलाने वाले दुकानदारों का कोई पुरसाहाल नहीं है। अगर वह दुकान न लगाएं तो उनके समक्ष खाने को लाले पड़ जाएं।

28 वर्षीय ग्रेजुएट अमित सोनकर नौकरी पाने की आस में प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तिका के साथ फल का ठेला लगाकर ग्राहकों के साथ प्रतियोगी पुस्तक में भी नज़रें गड़ाए हुए नज़र आते हैं। पूछे जाने पर कि “किसकी तैयारी कर रहे हैं?” तो वह तपाक से बोलते हैं यह मत पूछिए, क्योंकि जो भी परीक्षाएं हो रही हैं सभी के पेपर ही लीक हो जा रहे हैं तो किसको बताया जाए? और किससे उम्मीद लगाई जाए? “हां, तैयारी कर रहा हूं कहीं भाग्य साथ दे गया तो ठीक नहीं तो यह (फल के ठेले और किताब की ओर इशारा करते हुए) ठेला और ज्ञान तो रहेगा ही?

इतना बोलकर वह बुझे मन से ठेले पर रखे हुए फलों पर पानी का फुहारा मारने लगते हैं, ताकि गर्मी के वजह से फल को सूखने से बचाया जा सके। अमित कहते हैं मां-बाप की जिंदगी तो जैसे-तैसे कट गई है, कम से कम मैं पढ़-लिखकर कुछ बनना करना चाहता हूं, लेकिन वर्तमान की स्थिति को देखकर नहीं लगता कि सपना साकार होगा और मैं कुछ बन पाऊंगा?, तो फिर यह पुस्तक और पढ़ाई क्यों? के सवाल पर वह तपाक से बोल पड़ते हैं ज्ञान के लिए, शिक्षित होने के लिए?

अमित सोनकर के शब्दों में दर्द के साथ ही जज्बा भी दिखाई देता है। वह यह कि वह अज्ञानता भरा जीवन नहीं जीना चाहते हैं। अमित सोनकर चार भाईयों में सबसे बड़े हैं। दो भाई फल का ठेला लगाकर परिवार की जीविका चलाते हैं, जबकि दो छोटे भाई पढ़ाई करने के साथ कुछ समय ठेले पर भी देते हैं।

अमित के बगल में ही एक अन्य फल विक्रेता अपने ठेले के साथ नज़र आतें हैं, बाजार में आने-जाने वाले वाहनों-बाइक के शोर को छोड़ पूरी तरह से ख़ामोशी रहती है। न ग्राहक नजर आते और ना ही कोई भीड़, गर्मी का आलम यह कि शरीर सूख जाए। ऐसे में फल विक्रेता ठेले के ही बगल में प्लास्टिक के कैरेट को चारपाई का रुप देकर नींद मारने लगता है। जिन्हें देखकर लगता है कि वह काफी थके होने के साथ-साथ गर्मी से व्याकुल और बाजार बेजार होने से ग्राहकों की राह ताकते नींद की आगोश में चले गए हैं। आहट होने पर वह आंखों को मलते हुए बोल पड़ते हैं “भईया जी का लेंगे? केले का भाव (दाम) पूछने पर उत्साह से कहते हैं 60 रुपये दर्जन चल रहा है भैया ले लीजिए 50 लगा दूंगा।”

कुछ बोलने से पहले ही वह पुनः बोल पड़ते हैं, भैया गर्मी का आलम देख ही रहे हैं, बाजार में ग्राहक दिखाई नहीं दे रहे हैं। पानी का छींटा मारकर फल को सूखने से बचाना पड़ रहा है। बिका तो ठीक नहीं बिका तो घाटा सहना पड़ेगा।”

बेरोजगारी के साथ बढ़ती जा रही है रेहड़ी-पटरी दुकानदारों की संख्या

दरअसल, देश में ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है जो अपनी व परिवार की आजीविका के लिए फुटपाथों पर काम करते हैं। इस संबंध में कानून यह है कि शहर की आबादी के ढाई फीसदी के बराबर रेहड़ी-पटरी वाले हो सकते हैं। लेकिन देखा जाए तो रेहड़ी-पटरी वालों को आज भी कई प्रकार की परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। कभी जाम के नाम पर तो कभी सड़क की पटरियों पर भी कब्जे अतिक्रमण के नाम पर इनका उत्पीड़न किया जाता है। हद तो तब हो जाती है जब पुरानी स्थापित दुकानों को भी अतिक्रमण बताकर या अन्य कारणों से तोड़ दिया जाता है और मजबूरन इनको फुटपाथ पर छोटी-छोटी दुकानें लगाने पर बाध्य होना पड़ता है। कुछ समय पहले फुटकर विक्रेताओं के लिए कानून भी आया है, लेकिन आए दिन सड़क पर खड़े रहकर आजीविका कमाने वाले प्रताड़ित होते रहते हैं। इस तरह के कारोबार करने वालों की एक सीमा है। इनकी संख्या शहर की कुल आबादी के ढाई फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए।

देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में निर्मित ट्रॉनिका सिटी के औद्योगिक क्षेत्र में पूर्व में फुटपाथ पर छोटी-छोटी दुकान लगाकर अपनी आजीविका चलाने वाले सभी लोगों को एक दिन प्रशासन ने उजाड़ दिया था। प्रशासन ने विभिन्न आरोप लगाकर इन्हें हटा दिया, किंतु सच यह था कि पास के मॉल में बनी दुकानों को इसका फायदा पहुंचाना ही उद्‌देश्य था। कोई गरीब आदमी किस तरह से पांच-दस हजार तक का किराया देकर दुकान ले सकता है? जब दुकान किराये पर नहीं ले सकता है, तो फिर खरीदने की तो बात ही दूर है। ऐसे में फुटपाथ ही सहारा होता है।

कानून के बाद भी भटकने को विवश

दु:खदाई यह है कि संसद ने जब इनके हक में कानून पास कर दिया है। तो भी यह क्यों उपेक्षित पड़े भटक रहे हैं। इस सवाल पर सभी निरुत्तर नजर आते हैं। जनता की रहनुमाई करने वाले जनप्रतिनिधियों ने भी इस पर पूरी तरह से चुप्पी साध ली है। पूर्व के पटरीवासियों के नाम से विख्यात केस में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में आजीविका का अधिकार भी सम्मिलित है। यदि आजीविका के अधिकार को संविधान में दिए गए जीवन के अधिकार का हिस्सा नहीं माना जाता है तो किसी व्यक्ति को उसके जीवन के अधिकार से वंचित करने का सबसे आसान तरीका उसकी आजीविका छीनकर प्राप्त हो जाता है। (ओलगा टेल्लिस बनाम बंबई नगर निगम एआईआर 1986 एससी 180)।

अनुच्छेद 21 में इसके अलावा न्यायालयों के विभिन्न फैसलों में इसके परिक्षेत्र का विस्तार भी किया है। जीवित रहने का अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीवित रहने का अधिकार भी इसके अंतर्गत आ जाता है। गौर करें तो रेहड़ी-पटरी वालों के लिए काम करने वालों ने इनके हक अधिकार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में एक लंबा संघर्ष भी किया है। बावजूद इसके आज भी इन्हें अपने को बचाने के लिए संघर्षरत देखा जा सकता है।

विदित हो कि पूर्व में नगर पालिका के कर्मचारी तथा पुलिस वाले रेहड़ी-पटरी वालों से रिश्वत भी लेते हैं और इन्हें प्रताड़ित भी करते हैं। फुटपाथ पर चलने वाले लोगों के अधिकारों की आड़ में इन्हें हटा देते हैं। मुंबई की संस्था ‘सेवा’ ने रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकारों और आजीविका के समाधान के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाया था। तब शीर्ष न्यायालय ने रेहड़ी-पटरी वालों, सब्जी बेचने वालों को वैकल्पिक व्यवस्था देने के निर्देश दिए थे। स्पष्ट रूप से चेताया भी था कि जब तक व्यवस्था न हो, आजीविका के अधिकार के तहत उन्हें (रेहड़ी-पटरी वालों को) व्यवसाय करने देने की सहूलियत दी जाए।

साल 1989 में इसी प्रकार के एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सोधन सिंह एवं अन्य बनाम एनडीएमसी केस के फैसले में कहा था कि “यदि नियमित रूप से फुटपाथ पर व्यापार और दुकानदारी होती है तो लोगों से इस अधिकार को न छीना जाए। यह तर्क कहां तक उचित है कि फुटपाथ पर चलने वाले या सड़कों पर पैदल चलने वालों की जगह पर और कोई काम नहीं किया जा सकता।

ऊपर दिए गए उदाहरणों और न्यायालय के निर्णयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि फुटपाथ पर काम करने वाले गरीब रेहड़ी और पटरी व्यवसायी के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बदला जाना चाहिए। ये लोग गरीब तथा कम हुनर व कम पूंजी वाले हैं, जो फुटपाथ पर कामकर किसी तरह रोजी-रोटी चलाते हैं तथा अपने परिवार बाल-बच्चों का भरण-पोषण व शिक्षण की व्यवस्था करते हैं।

एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 1 करोड़ से भी ज्यादा है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में ढाई लाख, कोलकाता में डेढ़ लाख तथा अहमदाबाद में एक लाख के करीब ऐसे लोग आजीविका के लिए फुटपाथों पर काम करते हैं जिनके आजीविका का एक मात्र साधन फुटपाथ ही बचते हैं जिसपर यह सड़कों की धूल फांक जाड़ा, गर्मी, बरसात के थपेड़ों को सहते हुए पेट और परिवार के लिए जद्दोजहद करतें हैं। महानगरों में फुटपाथ पर काम करने वाले ज्यादातर लोगों में अधिकतर प्रवासी और गरीब होते हैं। जो जीविकोपार्जन के लिए 12-12 घंटे हाड़तोड़ काम करते हैं। गुजरात, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली जैसे महानगरों में तो रेहड़ी-पटरी वाले संगठित हैं तथा एकताबद्ध होकर साथ लड़ाई लड़ते हैं। पर देश के अन्य भागों में यह लोग कमजोर और असंगठित नजर आते हैं। जिससे इनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है।

दुनियां के अन्य देशों में भी है पटरी कारोबार का प्रचलन

भारत देश में ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में भी फुटपाथ पर कारोबार होता आया है। बैंकॉक की बात करें तो वहां सार्वजनिक जगह पर दिन-रात काम करने की आज़ादी है। वहां ऐसी संस्थाएं हैं, जो अधिकारियों, वेंडरों और नागरिकों के बीच अच्छे संबंध बहाल करती हैं। कैरेबियाई द्वीप समूह, अमेरिका सहित अफ्रीका में घाना, दक्षिण अफ्रीका, केन्या आदि देशों में भी स्ट्रीट वेंडिंग की प्रथा है। अनेक देशों में महिलाएं भी काम करती हैं। अधिकांश देशों में स्ट्रीट वेंडिंग पर विवाद होते हैं।

रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकार के लिए संघर्षरत एडवोकेट मनीष सिंह कहते हैं कि “साल 2014 में रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकार का कानून संसद ने पास तो जरूर कर दिया है, लेकिन अभी पटरियों पर जीविका के लिए जद्दोजहद करने वालों की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। वह बताते हैं कि “लंबे संघर्षों के बाद संसद ने गरीबों के अधिकार की रक्षा वाला कानून पास कर दिया। नगर पालिकाओं को आदेश दिया गया कि सर्वेक्षण कर वर्तमान में फुटपाथ पर कार्य करने वाले लोगों की सूची तैयार की जाए तथा उन्हें लाइसेंस दिया जाए। शहरों में हॉकिंग जोन बनाए जाएं। खरीददारों और विक्रेता दोनों को विशेष सुविधा दी जाए। नई व्यवस्था होने तक पुराने काम करने वालों को परेशान न किया जाए। ऐसा भी प्रावधान किया गया है कि हर नगर में समिति बनाकर वेंडर्स, अधिकारी, समाजसेवी, महिलाएं, अल्पसंख्यक समुदाय, अजा और अजजा, अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को रखें, जो निर्णायक की भूमिका में रहें। प्रत्येक पांच वर्ष में सर्वे होना चाहिए तथा लाइसेंस दिए जाएं। लेकिन देखा जाए तो इसका भी समुचित ढंग से पालन नहीं किया जाता है।”

फुटपाथ पर खपा दी जवानी

मिर्ज़ापुर के कोन विकास खंड क्षेत्र के रहने वाले राजेश शर्मा गर्मी से बेहाल होकर जमींंन पर प्लास्टिक की बोरी बिछाकर लेटे हुए मिलते हैं। बगल में उनके 70 वर्षीय पिता भी लेटे हुए थे। गर्मी से बेहाल राजेश कार्टून के टुकड़े को पंखा की तरह झलते रहते हैं, ताकि गर्मी से बचने का जुगाड़ हो सके। टूटे-फूटे लकड़ी के पटरे का सहारा बनाकर उसी को ही सैलून का रूप दे दिए हैं। तकरीबन दो दशक से ज्यादा समय से इसी के सहारे वह अपने परिवार के चार सदस्यों (माता-पिता, स्वयं व पत्नी के आलावा अबोध बच्ची) का पेट पालते आ रहे हैं। कितनी आमदनी हो जाती होगी? के सवाल पर झट से कहते हैं, “खर्च और जरुरतें बढ़ी है, आमदनी नाही।”

‘कैसे’ के सवाल पर एक बार पुनः अपनी माली हालत, पटरी पर सैलून की हालत, बढ़ती हुई मंहगाई और आमदनी के नाम पर दिन भर की मेहनत के बाद हासिल होने वाले कुछ रुपयों को उंगलियों पर रखते हुए सवाल दाग बैठते हैं “अब आप ही बताइए कि बंदा खाए क्या और बचाए क्या?”

राजेश आगे भी बोलते हैं, “किसी प्रकार ब्याज पर पैसा लेकर काम चलाना पड़ता है तब जाकर किसी तरह पेट-परिवार चल रहा है। बचाने की बात ही सोचना सपना है क्योंकि परिवार को जिलाने और ब्याज पर लिए पैसे की भरपाई से ही कुछ नहीं बचता तो बचत कैसे करें।”

‘पीएम स्वनिधि योजना’ का लाभ नहीं मिला है? इस वह कहते हैं “यह क्या है?” विस्तार से जानकारी देने पर बताते हैं काफी पहले फोटो खींच कर रसीद काटकर गये थे कुछ लोग फिर कुछ पता नहीं चला।”

खैर थोड़ा वह थमते हैं, फिर बोलते हैं “ई सरकारी योजना हौ, जे देत-लेत हौ ओके झट से लाभ मिल जात हौ।

राजेश के इन कथनों में दम भी है वह इसलिए कि ज्यादातर पटरी दुकानदारों को इस योजना का या तो पता नहीं चला है या उन्हें लाभ नहीं मिला है।

न देखी मोदी की गारंटी की गाड़ी, ना सांसद-विधायक को

लोकसभा चुनाव की घोषणा होने से काफी समय पूर्व से ही गांव-गांव में मोदी की गारंटी की गाड़ी दौड़ती रही है। सत्ताधारी दल के लोग खासकर सांसद-विधायक कहते नहीं थकते थे कि यह गाड़ी नहीं मोदी की गारंटी की गाड़ी है जो गांव गांव जाकर लोगों को जागरूक कर सरकारी योजनाओं से वंचित हुए पात्र जनों को उससे जोड़ रही है। लेकिन आश्चर्य हुआ कि अधिकांश पटरी दुकानदारों को इसका पता नहीं है। घोर आश्चर्य हुआ कि अधिकांश ने न तो मोदी के गारंटी की गाड़ी देखी ना ही सांसद विधायक को देखा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तव में जरूरतमंदों को कितना लाभान्वित किया गया होगा।

सोनू केसरवानी अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए कहते हैं “ठेले से शुरू हुई जिंदगी ठेले के साथ ही समाप्त हो जायगी। नहीं लगता कि जीवन में कुछ बदलाव आएगा।” वह कोविड काल को याद करते हुए सिहर उठते हैं। बोलते हैं “कैसे-कैसे व किन हालात से गुजरते हुए परिवार को संभालना-चलाना पड़ा है नहीं भूलता है। किराए के मकान में बीबी बच्चों के साथ गुजारा करते सोनू फल का ठेला लगाकर परिवार को ज़िला रहे हैं। तड़के सुबह ठेला लगाकर देर रात तक ठेला लेकर जमे रहने वाले सोनू की माने तो वह बमुश्किल चार-पांच घंटे ही आराम कर पाते हैं। वह भी रात में बिजली गुल हो गई तो वह आराम हराम हो चलता है।”

सोनू और राजेश से मिलते-जुलते परेशानी अन्य पटरी दुकानदारों के भी हैं जो इस चुनावी वर्ष में कुछ अपने लिए भी सौगात मिलने की उम्मीद लगाए हुए बैठे थे, लेकिन सौगात, घोषणाओं की बात तो दूर रही है किसी ने इनकी ओर पलटकर झांकना भी गंवारा नहीं समझा है। सांसद के सवाल पर पटरी दुकानदारों ने एक स्वर में बताया कि “नाम तो सुना गया है, लेकिन उन्हें देखा नहीं है। क्योंकि सांसद महोदया इधर (नगर में) आती ही कहां है। कभी इधर से अस्पताल जाते समय गुजरी होंगी तो बंद गाड़ी से नीचे उतरकर हम गरीब पटरी दुकानदारों से मिलना मुनासिब कहां उन्हें।”

स्ट्रीट वेंडरों को स्थान की दरकार

मिर्ज़ापुर नगर पालिका परिषद क्षेत्र के मुकेरी बाजार, स्टेशन रोड, घंटाघर, शुक्लहा, भरूहना, पीलीकोठी, संगमोहाल व तेलियागंज आदि में बाजार हैं। यहां बड़ी संख्या में स्ट्रीट वेंडर्स रहते आए हैं। खासकर मुकेरी बाजार व घंटाघर में तो सब्जी विक्रेताओं की संख्या सैकड़ों में है। बावजूद इसके अभी तक स्ट्रीट वेंडर्स को कोई जगह नहीं मिल सकी है। वेंडिंग जोन बनाने का आदेश हवा हवाई साबित हो रहा है। इस संबंध में शासनादेश के बाद भी अभी तक स्ट्रीट वेंडरों के लिए जगह की तलाश नहीं की जा सकी है। नगर के सीटी क्लब मैदान को छोड़ दिया जाए तो सभी जगहों पर सड़क की पटरियां ही सहारा बनी हुई है।

एडवोकेट मनीष सिंह बताते हैं कि “शासनादेश के तहत टाउन वेंडिंग कमेटी का गठन कर इनके लिए निश्चित क्षेत्र व स्थान का चयन कर वहां स्थानांतरित करने की बात कही गई है। नगर में पटरी दुकानदारों को कई बार बल प्रयोग कर हटाया भी जा चुका है। कई बार प्रदर्शन भी हो चुके हैं, लेकिन अभी समस्या का समाधान नहीं हुआ है। वह बताते हैं कि पथ विक्रेताओं की एक ही मांग है कि यदि उनको हटाया जा रहा है तो कम से कम यह तो बताया जाय कि उनको दुकान के लिए कहां जगह दी जा रही है? उधर, वेंडिंग जोन का निर्धारण नहीं होने से बाजारों में एवं अन्य जगहों पर जाम की समस्या आए दिन पैदा होती है। जगह निर्धारित नहीं होने से ठेला व खोमचा वाले एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने को विवश होते हैं। इससे बाजारों में जाम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।”

स्ट्रीट वेंडर्स की मांग है कि बाजारों- कस्बों की आबादी के अनुसार वेंडर की संख्या सुनिश्चित की जाए। नगर क्षेत्र में वेंडरों के लिए सस्ती दरों पर दुकानों की व्यवस्था आदि भी की जाए। इसमें प्रावधान है कि बिना भय और परेशानी के ये कार्य कर सकें। वेंडर्स को कई तरह की परेशानी आगे भी होगी, क्योंकि पुलिस एक्ट के सेक्शन 34 में सड़कों पर अवरोध हटाने का अधिकार उनको प्राप्त है। भले ही स्थानीय इकाइयों ने वेंडिंग जोन बनाए हो पर पुलिस एक या दूसरे तरीके से इन्हें कार्य करने से रोक सकती है। इसको लेकर भी पटरी दुकानदारों को सशंकित देखा जा सकता है।

दूसरी ओर मिर्जापुर नगर पालिका क्षेत्र में स्ट्रीट वेंडर्स के लिए तकरीबन एक दर्जन से ज्यादा स्थान चिह्नित किए गए हैं, अवस्थापना संबंधी कार्य होने हैं। जहां पर मात्र 12 सौ को ही अवस्थापित किया जा सकता है। प्रथम चरण के सर्वे पर नज़र डालें तो महज़ 3957 लोग ही चिह्नित किए गए थे। वहीं प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत तकरीबन 8 हजार लोगों को इस योजना का लाभ मिल चुका है। ऐसे में यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि यदि चिह्नित जगहों पर 12 सौ लोगों को व्यवस्था दे भी दी गई, तो शेष लोगों का क्या होगा?

नगर पालिका मिर्जापुर में वेंडिंग जोन बनाने के लिए पूर्व में 1.75 करोड़ रुपये की कार्ययोजना शासन को भेजी गई थी, लेकिन बजट का आवंटन नहीं हुआ। इसके चलते वेंडिंग जोन बनाने की प्रक्रिया परवान नहीं चढ़ पाई।

बिचौलियों की मौज, जरुरतमंदों को भनक तक नहीं

कहने को भले ही सरकार की ओर से स्ट्रीट वेंडरों के लिए चलाई जा रही प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना का विस्तार किया जा रहा है। इस योजना के लाभार्थियों को अब शासन की 8 योजनाओं का लाभ मिलेगा। लेकिन देखा जाए तो काफी संख्या में पात्र इससे वंचित हो कर रह गए हैं। प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना का विस्तार करते हुए लोन की राशि बढ़ाकर 50 हजार कर दी गई है। योजना का विस्तार करने के लिए नगर पालिका के अधिकारियों को शामिल किया गया है।

यह जगजाहिर है कि कोरोना काल में सबसे अधिक रेहड़ी व पटरी दुकानदारों की स्थिति बिगड़ गई थी। उनके लिए प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना संचालित की गई। जिसके तहत पटरी दुकानदारों को फिर से अपना रोजगार-धंधा चलाने के लिए बिना गारंटी 10 हजार रुपये लोन के रूप में बैंकों के माध्यम से दिए गए। धीरे-धीरे योजना बढ़ाते हुए लोन की राशि 20 हजार कर दी गई। ताकि दुकानदारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके। शासन की ओर से योजना का विस्तार करते हुए अब लोन की राशि बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दी गई है। यानी जिन दुकानदारों ने दस हजार फिर बीस हजार रुपये का लोन चुका दिया है। वह तीसरी बार में 50 हजा रुपये के लिए आवेदन कर सकते हैं।

इसके अलावा पटरी व रेहड़ी दुकानदारों को शासन की ओर से संचालित बीमा, पेंशन, बच्चों की शिक्षा सहित आठ योजनाओं को जोड़ा गया है। इनमें प्रधानमंत्री स्वनिधि योजनाओं के लाभार्थियों के लिए शासन की ओर से संचालित प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना, प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पोर्टेबिलिटी लाभ- एक राष्ट्र एक राशन कार्ड, जननी सुरक्षा योजना, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के पंजीकरण भी शामिल किया गया है। यानी पटरी व रेहड़ी दुकानदारों को शासन की ओर से संचालित इन आठ योजनाओं का लाभ भी मिलेगा। जिससे उनके व परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए भी उन्हें प्रमोट किया जाएगा। लेकिन कहना ग़लत नहीं होगा कि अन्य योजनाओं की ही भांति इन सभी योजनाओं का भी हाल बुरा है। बिचौलिए और सत्ता संगठन से जुड़े हुए लोगों ने अपने व अपने चहेतों को लाभ दिलाने के फेर में पात्र और जरुरतमंदों को पीछे छोड़ दिया है। जिन्हें इन योजनाओं का लाभ मिलना तो दूर इन्हें जानकारी तक नहीं है इनके बारे में ऐसे में लाभ मिलना तो दूर की बात है।

नशे की लत, ब्याज पर धंधा उन्नति में बना हुआ है बाधक

रेहड़ी, पटरी दुकानदारों के उन्नति और विकास में सबसे बड़ा बाधक बना हुआ है उनका नशे की प्रवृत्ति से घिरा होना। जो कहीं ना कहीं से उनके शरीर के साथ-साथ उनके कारोबार परिवार को भी खोखला बनाते आया है। “जनचौक” की पड़ताल के दौरान यह बात उभर कर सामने आई है।

इसके पीछे ज्यादातर रेहड़ी-पटरी दुकानदारों ने अपना तर्क देते हुए बताया कि “अत्यधिक थकान और दिनभर खड़े होकर ठेला लगाने की वजह से वह थोड़ा बहुत नशा कर लेते हैं। गुटका, पान मसाला तंबाकू की लत से लगाए शराब, गांजे और हीरोइन के भी लत की आगोश में बुरी तरह से घिरे रेहड़ी-पटरी दुकानदार और ठेले खोमचे वाले यदि इससे बच जाए तो उनके उन्नति और विकास को कोई रोक नहीं सकता, लेकिन उनके आर्थिक डांवाडोल स्थिति में नशे की लत भी काफी हद तक जिम्मेदार, कसूरवार मानी जाती है। वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेश तिवारी पटरी दुकानदारों की बदहाली के लिए व्यवस्था और उनकी उपेक्षा के साथ-साथ कुव्यवस्थाओं को भी कसूरवार मानते हैं। वह कहते हैं कि “जबतक यह समाज कुव्यवस्थाओं की जकड़न से बाहर नहीं निकलता है तब तक इनके आर्थिक उन्नति का राह आसान नहीं है। उनका ‘कुव्यवस्थाओं’ से तात्पर्य नशे इत्यादि से होता है। जिसकी गिरफ्त में फंस पटरी दुकानदार अपनी कमाई का कुछ हिस्सा तो इन्हीं में बहा रहा है।”

मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं विंध्याचल के समाजसेवी रामानंद तिवारी बताते हैं कि सूद-ब्याज पर रुपए लेकर छोटा-मोटा रोजगार करते आए पटरी दुकानदारों को इनसे भी दो-चार होना पड़ता है। समय से सूदी पैसे की भरपाई नहीं की गई तो इनको सूद और ब्याज बढ़ाकर भरपाई करनी होती है।

पटरी दुकानदार महमूद अपनी व्यथा सुनाते हुए कहते हैं “पटरी दुकानदारों को एक नहीं कई समस्याओं से जूझना पड़ता है पुलिस के चालान से लेकर नगर पालिका और प्रशासन के अतिक्रमण हटाओ मुहिम के नाम पर हम लोगों को ही इनके कोप का शिकार होना पड़ता है। मानों ऐसा लगता है कि हम कूड़े-कचरे के ढेर हैं जिसे जब चाहा जहां से चाहा उठाया और फेंक (उजाड़) कर चलते बने।”

(मिर्ज़ापुर से संतोष देव गिरी की ग्राउंड रिपोर्ट)

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