Tuesday, April 23, 2024

नयी शिक्षा नीतिः गैरपेशेवर शिक्षकों के जरिए तालीम को रसातल में मिलाने का दस्तावेज

‘शिक्षकों की गैरपेशेवर पहचान को बढ़ावा देती नई शिक्षा नीति’ लेख का दूसरा और अंतिम भाग…
शिक्षक शोध कर सकें इसका जिक्र नहीं किया गया
नयी शिक्षा नीति का दस्तावेज़ पढ़ते हुए इस बात की तलाश थी कि स्कूली शिक्षा में शामिल शिक्षकों को रिसर्च का मौका मिलेगा या नहीं। कई संस्थाएं जैसे SCERT और NCERT इस को बढ़ावा देने की कोशिश करती आई हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति में इसका जिक्र नहीं होना बेहद आश्चर्य में डालने वाला है।

एक उदाहरण के जरिए इसे समझने की कोशिश करते हैं। जब तक महिलाओं ने खुद अपने बारे में लिखना नहीं शुरू किया था, पुरुषों के द्वारा रचे हुए साहित्य में महिलाओं को लेकर कल्पना होती थी कि उन्हें घर में रहना पसंद है। सजना-संवरना पसंद है। बच्चों को पालना पसंद है। इत्यादि।

जब महिलाओं ने खुद लिखना शुरू किया तो अपने बारे में रचित इन सभी धारणाओं को उन्होंने तोड़ दिया। उनके लेखों से पहली बार यह स्थापित हुआ कि पुरुषों की तरह उन्हें भी आजादी पसंद है। पढ़ना-लिखना पसंद है। खेलना-कूदना पसंद है। इत्यादि।

स्कूली शिक्षा के बारे में हमारे पास बेहतर ज्ञान (Authentic Knowledge) तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक स्कूली शिक्षा में सीधे रूप से शामिल लोगों को हम रिसर्च के लिए उत्साहित नहीं करेंगे। शिक्षकों के द्वारा किया हुआ रिसर्च ‘पार्टिसिपेंट रिसर्च’ होता है, जिसमें रिसर्च का मकसद उस व्यवस्था में बदलाव लाना रहता है, जिसका वह खुद भी एक हिस्सा हैं।

जब शिक्षकों के हाथ ऊपर से थोपी व्यवस्था आती है, उनकी प्रतिक्रिया होती है- ऐसा कैसे कोई सोच सकता है! ऐसे किताब कैसे बनाई जा सकती है! ऐसा कैसे किया जा सकता है! और रिसर्चर को लगता है- टीचर इतना भी नहीं कर सकते, यह भी नहीं समझ सकते हैं।

रिसर्चर, शिक्षक नहीं है और शिक्षक रिसर्चर नहीं है। जब तक इस खाई को पाटने की व्यवस्था हम नहीं करेंगे यह खाई बनी रहेगी। शिक्षक इसके भुक्तभोगी तो होते ही हैं, लेकिन असली नुकसान हमारे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को उठाना पड़ता है। स्कूली दुनिया से जुड़ा हुआ अधिकतर रिसर्च ऐसा होता है जहां रिसर्चर स्टेकहोल्डर नहीं होते हैं।

यहां दो-तीन सवाल महत्वपूर्ण हैं…
1) क्या स्कूली शिक्षकों को हम इस काबिल नहीं मानते हैं?
2) क्या पढ़ाना और रिसर्च करना दोनों एक साथ नहीं हो सकता है?

स्कूली शिक्षा में शिक्षकों के द्वारा रिसर्च को लेकर जिक्र नहीं होने के कारण ऐसा लगता है कि ज्ञान के क्षेत्र में उस बंटवारे को हम 21वीं सदी में भी जायज ठहरा रहे हैं, जहां यह माना जाता है कि स्कूल में शिक्षक काम करेंगे, लेकिन उनके बारे में रिसर्च यूनिवर्सिटी में होगा। छात्र और शिक्षक महज डाटा बनकर रह जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे माना जाता है कि एम्पेरिकल रिसर्च पूर्व के देशों में होता है और थ्योरी तो हमेशा पश्चिम के विद्वान ही रचा करते हैं।

क्या टेक्नोलॉजी भी डिप्रोफेशनलाइज कर सकती है
यह बहुत पेचीदा सवाल है। अभी तक का हमारा अनुभव है कि टेक्नोलॉजी हमारे प्रोफेशनलाइजेशन में मदद करती है, इस तरह का रहा है। यहां कुछ बातों को समझना महत्वपूर्ण है। टेक्नॉलॉजी जब तक शिक्षकों के हाथ में एक टूल के रूप में है तब तक वह शिक्षकों का प्रोफेशनलाइज करती है, लेकिन जैसे ही शिक्षक टेक्नोलॉजी के हाथ में पड़ जाएंगे तो डिप्रोफेशनलाइज ही नहीं वह कॉलोनाइज कर सकती है। यह संघर्ष जारी है। एक तरफ जहां ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों के हाथ में टेक्नोलॉजी को पहुंचाने की जद्दोजहद हो रही है वहीं दूसरी तरफ टेक्नॉलॉजी भी ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों को अपने हाथ में लेने की तैयारी कर रही है।

पहले काम में (यानी शिक्षकों के हाथ में टेक्नोलॉजी हो) बड़े पैमाने पर संसाधन की आवश्यकता होती है। प्रशिक्षण देना होता है, और इन सब में वक्त लगता है, लेकिन दूसरा काम (टेक्नोलॉजी के हाथ में शिक्षक) बहुत तेजी से होता है, आसान होता है और किसी तरह के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है। संसाधन बचाता है। जैसे ही बड़े पैमाने पर शिक्षकों को डीप्रोफेशनलाइज कर दिया जाएगा, जिसका मतलब होगा कि आप ऐसा काम कर रहे हैं जहां सोचने की बहुत जरूरत नहीं है (थिंकिंग इन्वॉल्व नहीं है)। ऐसे हर काम को करने के लिए टेक्नोलॉजी तैयार बैठी है। अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है, सोचने का काम भी टेक्नोलॉजी करती है।

NEP टेक्नोलॉजी को शिक्षकों तक पहुंचाने की बात कर रही है, लेकिन साथ ही शिक्षकों को टेक्नोलॉजी के हाथ में सौपने की भी व्यवस्था की गई है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा से जुड़ा संपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम टेक्नोलॉजी के हाथ में होगा। सेवाकालीन प्रशिक्षण (In-service) के दौरान हर अध्यापक के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह वर्ष में 50 घंटे का टेक्नोलॉजी द्वारा संचालित कार्यक्रम में हिस्सा ले।

अभी तक यह स्थापित रहा है कि सीखना-सिखाना मानवीय संवाद (ह्यूमन इंटरेक्शन) का नतीजा है। हमारे इस एपिस्टमिक समझ में जैसे ही बदलाव लाया जाएगा कि सीखना-सिखाना ह्यूमन और मशीन के इंटरेक्शन से भी संभव है। उसी वक्त शिक्षकों की जरूरत हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। इस संबंध में अभी कोई निर्णायक समझ नहीं बनी है, लेकिन इसके बारे में सजग रहना, जानते रहना हम सबके लिए जरूरी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि टेक्नॉलॉजी हमेशा हमारे लिए सहायक (aid) की भूमिका में हो न कि हम टेक्नोलॉजी के लिए सहायक की भूमिका में आ जाएं।

क्या जेंडर आधारित भूमिका डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है?
“5.2- उत्कृष्ट विद्यार्थी ही-विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र से-शिक्षण पेशे में प्रवेश कर पाएं यह सुनिश्चित करने के लिए एक उत्कृष्ट 4-वर्षीय एकीकृत बीएड कार्यक्रम में अध्ययन के लिए बड़ी संख्या में मेरिट-आधारित छात्रवृत्ति देश भर में स्थापित की जाएगी। ग्रामीण क्षेत्र में कुछ विशेष मेरिट आधारित छात्रवृत्ति को स्थापित किया जाएगा, जिसके तहत चार वर्षीय बीएड डिग्री सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद स्थानीय इलाकों में निश्चित रोजगार भी शामिल होगा।

इस प्रकार की छात्रवृत्ति स्थानीय विद्यार्थियों (विशेषकर छात्राओं) के लिए स्थानीय नौकरियों के अवसर प्रदान करेंगी, जिससे कि वे विद्यार्थी स्थानीय क्षेत्र के रोल मॉडल के रूप में और उच्चतर योग्य शिक्षकों के रूप में सेवा कर सकें जो स्थानीय भाषा बोलते हों।…”

थोड़े से प्रयास से भी कोई यह समझ सकता है कि इस वक्त भारत में स्कूली शिक्षा के पेशे में मुख्य तौर पर दो वर्गों से लोग आते हैं- ग्रामीण युवा और शहरी क्षेत्र से पढ़ी लिखी लड़कियां। किसी भी पेशे को मजबूत बनाने का यह एक तरीका होता है कि उसमें अलग-2 पृष्ठभूमि के लोग आएं। यह दस्तावेज एक बार फिर से उसी बात की वकालत करती है कि और ज्यादा ग्रामीण युवा और शहरी पढ़ी-लिखी महिलाएं इस पेशे में आएं। ‘विशेषकर छात्राओं’ का जिक्र हमारे उस पारंपरिक समझ को और मजबूत बनाता है कि लड़कियां शिक्षक की भूमिका में बेहतर फिट बैठती है। यह धारणा लड़कियों के लिए अन्य पेशे में जाने के रास्ते में रुकावट बनती है।

अधिकतर लड़कियों का यह अनुभव रहता है, उनके घर में कभी न कभी या तो उनके मां-बाप या रिश्तेदार कहते हैं- BEd का कोर्स कर लो, टीचिंग का जॉब पकड़ लो अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए। 21वीं सदी का भारत अपनी महिलाओं की क्षमताओं पर रोक लगाता रहेगा। यह अपेक्षा समाज में महिलाओं से दोहरी अपेक्षा से भी जुड़ी हुई है जो उनके जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। यह दोहरी अपेक्षा है- घर भी संभालो और नौकरी भी करो।

दस्तावेज़ के बिंदु 6.7. में सामान्य तौर पर बहुत ही सुंदर शब्द लिखे गए हैं, लेकिन ये सुंदर शब्द ‘यह नीति समाज में महिलाओं की विशिष्ट और महत्वपूर्ण भूमिका वर्तमान और भावी पीढ़ियों के आचार विचार को आकार देने में उनके योगदान पुरुषों को समाज और परिवार में निभाई जाने वाली कई अन्य भूमिकाओं से मुक्त कर देता है।’

इस प्रयास को भी शिक्षकों के डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया से ही जोड़ कर देखा जाना चाहिए। एक तरफ यह समाज में लिंग आधारित भूमिका की अवधारणा को और मजबूत करता है, दूसरी तरफ शिक्षक के पेशे को जेंडर के साथ जोड़कर उस पेशे की ताकत को कमजोर करता है। शायद वैसे ही जैसे हम गणित को पुरुषों के साथ जोड़ देते हैं और संगीत को महिलाओं के साथ। कई सारे निजी स्कूल शिक्षक भर्ती के इश्तेहारों में बेखौफ होकर लिखते हैं- महिला शिक्षक ही चाहिए।वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जेंडर के बारे में हमारी आधुनिक समझ के नजरिए से अगर आप इन प्रावधानों को पढ़ेंगें तो फिर आप इसके पीछे की सोच और राजनीति को समझ सकेंगे।

शिक्षकों के वेतन संबंधी प्रावधान, क्या इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है?
स्कूली शिक्षा में शिक्षकों की तनख्वाह का विषय स्कूल चलाने वालों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक आकलन के अनुसार करीब 85% स्कूल का खर्चा शिक्षकों के तनख्वाह पर होता है। और न जाने कब से इस बात की कोशिश की जा रही है कि कैसे हम स्कूल तो चलाएं, लेकिन शिक्षकों की तनख्वाह पर होने वाले खर्च को कम कर सकें। डिप्रोफेशनलाइजेशन इसका सबसे बड़ा जरिया है। इस प्रक्रिया के तहत जब किसी पेशे को डाल दिया जाता है तो उस पेशे में शामिल व्यक्ति का अपनी तनखाह को लेकर नेगोशिएशन करने की क्षमता खत्म हो जाती है।

कई सारी संस्थाओं ने यहां तक कि विश्व बैंक ने सरकार को और गैर सरकारी संस्थाओं को भी सुझाव दिए कि किस प्रकार शिक्षकों की तनख्वाह को कम किया जा सकता है। इसमें महत्वपूर्ण था शिक्षकों को ठेके पर रखना जो करीब-2 पूरे देश में प्रचलित है और भी उपाय निकाले गए जैसे मल्टीग्रेड मल्टीपल लर्निंग (MGML) की अवधारणा। बताया गया कि अलग-अलग उम्र के बच्चे एक ही साथ बैठकर बेहतर सीख सकते हैं और इसलिए एक ही टीचर पहली से पांचवी क्लास तक के बच्चों को पढ़ा सकता है।

इसके बाद पूरे देश में लाखों ऐसे स्कूल स्थापित किए गए जहां पर एक ही शिक्षक होते हैं, जिन्हें एकल विद्यालय कहा जाता है जो पहली से पांचवी तक की कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाते हैं। शिक्षकों की तनख्वाह को कम करने के क्षेत्र में लगातार अभिनव प्रयोग होते रहते हैं। कैसे अर्बन क्लैप मोमेंट के जरिए एक तरीके से शिक्षकों की तनखाह संबंधी समस्या पर पुख्ता रूप से निजात मिल सकेगा, लेकिन पॉलिसी कहती है कि ‘फिक्स इंक्रीमेंट’ के सिस्टम को हम बंद करेंगे और परफॉर्मेंस अप्रेजल होगा, जिसमें ‘पीयर रिव्यू’ एक महत्वपूर्ण कड़ी होगा। यह आदर्श स्थिति है, लेकिन पक्षियों के पंख को काट देने के बाद उनको उड़ने के लिए कहने जैसा ही है। पीयर रिव्यू एक उच्च पेशेवर वातावरण में असेसमेंट का तरीका है।

क्या डीप्रोफेशनलआइज़ अवस्था में शिक्षकों के पास अपनी तनख्वाह के लिए नेगोशिएट कर पाने की हैसियत बचती है?
क्या नियमित और पर्याप्त आय किसी भी पेशे की सबसे बड़ी विशेषता नहीं होती है?
क्या आप इसे डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया से जोड़कर नहीं देखते हैं?

आखिर क्या उपाय किए जा सकते थे?
पॉलिसी में उपायों के बारे में बात की गई है। सही पहचान की गई है। इसे दो स्तरों पर देखना होगा। पहला, बेहतरीन व्यक्ति जिसे पॉलिसी में ‘बेस्ट माइंड’ कहा गया है शिक्षक बनने के लिए आएं। दूसरा, जो व्यक्ति अभी शिक्षक हैं उनके लिए उम्दा प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यवस्था हो।बेस्ट माइंड शिक्षक के पेशे को चुनें ऐसी कल्पना पॉलिसी में की गई, लेकिन क्यों चुनें, इस बात पर कोई खास तवज्जो नहीं दी गई है। हां यह कहा गया है कि हम स्कॉलरशिप देंगे।

पहले यह सोचना होगा कि बेस्ट माइंड कहां जा रहा है? हमारे ज्यादातर युवा आईआईटी और मेडिकल की तैयारी करते हैं। क्या वे स्कॉलरशिप पाने के लिए वहां जाते हैं? निश्चित ही नहीं। तो फिर क्या स्कॉलरशिप का प्रावधान कर हम ‘बेस्ट माइंड’ को शिक्षा में आकर्षित कर सकते हैं? ऐसा नहीं है कि शिक्षक के पेशे में कोई कमी है। ऐसे कई व्यक्ति हैं जो आईआईटी और मेडिकल से पास होने के बाद बड़े शहरों की तंग गलियों में बने अंधेरे कमरों में बच्चों को पढ़ाते हैं। हां, उन कमरों में एसी लगी होती है। वे शिक्षक हैं।

साफ-सुथरी हवा-पानी, नियमित रोजगार और कंपरेबल क्वालिटी का वेतन (तंग गलियों में बने अंधेरे कमरों में पढ़ाने के लिए अगर उन्हें डेढ़ लाख रुपए मिलता है तो हम अगर उन्हें एक-सवा लाख भी देंगे तो वे जरूर हमारे साथ जुड़ेंगे) अगर हम अपने सभी शिक्षकों को देना सुनिश्चित करते हैं तो बड़ी संख्या में ‘बेस्ट माइंड’ को हम आकर्षित कर पाएंगे। अगर चार साल आईआईटी के कोर्स के बाद एक साल का BEd कार्यक्रम वहां शुरू किया गया तो शायद 50% से अधिक युवा आईआईटी करने के बाद एक साल का बीएड कोर्स भी करेंगे और स्कूल में नौकरी करेंगे।

‘बेस्ट माइंड’ स्कॉलरशिप से नहीं आएगा। शिक्षक के पेशे को डिजायरेबल बनाना होगा। कौन रोक रहा है हमें इस पेशे को मिलिट्री सर्विस, सिविल सर्विस, जुडिशल सर्विस का दर्जा देने से? शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में एजुकेशनल सर्विसेज की बात कही गई थी, लेकिन उसके अंतिम प्रारूप में इसके लिए कोई जगह नहीं है।

दूसरा, जिस पर नीतिगत दस्तावेज में बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया गया है कि जो शिक्षक अभी हमारे व्यवस्था में काम कर रहे हैं उनको पेशेवर बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? हमारे देश में ऐसे कई प्रयोग हुए हैं जहां से सीखा जा सकता है, जिसमें पहला तो यह हो सकता है कि हम बड़े पैमाने पर यूनिवर्सिटी और स्कूल को एक साथ लाने का प्रयत्न करें।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला का आयोजन करें। बड़े पैमाने पर देश के अलग-अलग राज्यों के बीच तथा दूसरे देशों के साथ ‘टीचर एक्सचेंज’ प्रोग्राम की शुरुआत हो। शिक्षकों के द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उनके प्रयासों को ‘पे मेट्रिक्स’ के साथ जोड़ें। ऐसे अनगिनत मंच की व्यवस्था करना जहां शिक्षक अपने काम को लोगों के सामने रख सकें और उसके बारे में बातचीत कर सकें।

अगर इरादा मजबूत हो तो बहुत मुश्किल नहीं है कि एक बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी जा सके। केरल और दिल्ली जैसे राज्यों ने ऐसा कर दिखाया है। कई बार यह सवाल पूछा जाता है कि हम संसाधन कहां से लाएंगे? मेरे ख्याल से संसाधन से अधिक महत्व प्राथमिकता की है। क्या शिक्षा हमारी प्राथमिकता है? जिस दिन यह हमारी प्राथमिकता बन जाएगी संसाधन की व्यवस्था हो जाएगी। लेकिन प्राथमिकता हो जाने के बाद भी खतरा है।

लाभ कमाने की इच्छा से प्रेरित निजी स्कूल और संसाधन बचाने की मजबूरी से प्रेरित सरकारी स्कूल व्यवस्था शिक्षकों के डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मदद करती है। जिसका खामियाजा सबसे ज्यादा हमारे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को भुगतना पड़ता है और अंततः समाज के रूप में हम सब को इसकी कीमत चुकानी होती है। अफसोस कि शिक्षा से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति स्पष्ट रास्ता नहीं दिखाती है।

  • मुरारी झा

(लेखक दिल्ली में शिक्षक हैं।)

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