Friday, March 29, 2024

रंजन गोगोई की राज्य सभा नामजदगी पर उठते कुछ सवाल

रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश थे, अभी कुछ ही महीने पहले और कल यह खबर लगी कि वे राज्यसभा के लिये नामजद हो गए हैं। संविधान में न्यायपालिका को अंतिम सर्वोच्चता प्राप्त है। कुछ भी गलत न हो और न्यायमूर्ति गण कभी भी किसी दबाव में न आएं इस हेतु सुप्रीम कोर्ट को असीमित शक्तियां दी गयी हैं। यहां तक जहां कोई स्पष्ट कानून न हो वहां वह कानून भी तय कर सकती है। पर संस्थाओं के महान होने से ही सब कुछ महान नहीं हो जाता है। उस संस्था या कुर्सी पर बैठा कौन है उसकी नीति, नीयत और निर्णय ही किसी संस्था को अच्छा बुरा बनाती है। अब एक उद्धरण पढ़ें। 

“अगर आपकी न्यायपालिका में कमजोर अंतरात्मा से युक्त लोग बैठे हैं, जो राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों के अधीन होने जैसा व्यवहार करते हैं, तो सबसे पहले संविधान की सर्वोच्चता को ही क्षति पहुंचती है। इस शुरुआत के बाद संविधान को चोट पहुंचाने वाले दूसरे रास्ते खुलते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों को भरोसा हो जाता है कि उनके रास्ते में अब कोई रोड़ा नहीं है। इस तरह की परिस्थिति में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि संवैधानिक अराजकता और कानूनी अव्यवस्था का रास्ता खुल जाएगा।”

यह कथन है, न्यायमूर्ति एचआर खन्ना का, जिन्होंने 1977 में सुप्रीम कोर्ट से जज के पद से त्यागपत्र दे दिया था।

आज जब पूर्व सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई को सरकार द्वारा राज्यसभा के लिये नामजद किये जाने की खबर मिली तो रंजन गोगोई की वह क्रांतिकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस अचानक याद आ गयी जिसमें वे एक इतिहास बनाते हुए, संविधान की रक्षा अदालत में ही नहीं सड़क पर भी करते हुए दिखे। फिर, वक़्त बदला। लोग बदले। किरदार बदला। कोर्ट नम्बर 1 में अचानक एक दिन एक रोशनी आयी और उस कोर्ट नम्बर 1 की आंखें चुंधिया गईं। रोशनी का सम्मोहन अंत तक  रहा। अब भी है। तब कितना था, यह कोई नहीं जान पाया तो किसी को इन सबकी पल-पल की खबर थी। जस्टिस रंजन गोगोई को सरकार द्वारा उपकृत किये जाने की संभावना तो हवा में तैर ही रही थी ही पर इतनी जल्दी और इतने खुलेपन के साथ यह सब हो जाएगा, इसकी उम्मीद तो संभवतः नहीं ही थी।

उनका नामांकन संविधान के अनुच्छेद 80 के अंतर्गत हुआ है। इस अनुच्छेद 80 के अनुसार राज्य सभा के लिए वही लोग मनोनीत हो सकते हैं जो- साहित्य, विज्ञान, कला या समाज विज्ञान के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखते हों और जिन्होंने इस क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान भी दिया हो। सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर, मैरीकॉम आदि नामचीन लोग इसी नियम के अंतर्गत नामांकित हुए हैं। यह नियम, राजनीति से दूर उन महानुभावों के लिये प्राविधित किया गया है ताकि साहित्य, संगीत, खेलकूद, समाज सेवा आदि क्षेत्रों के निर्विवाद रूप से प्रतिष्ठित लोग उच्च सदन में पहुंच सकें और देश को उनकी प्रतिभा का लाभ मिले। 

अब उन सारे मुकदमों के फैसलों पर सवाल उठेंगे और चर्चायें होंगी जो जस्टिस गोगोई ने अपने मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में दिए हैं। वे फैसले अंतिम हैं। उनमें कोई फेरबदल सम्भव भी नहीं है और न ही होना चाहिए। जस्टिस सबरवाल ने जब वे सीजेआई थे तो एक बात कही थी कि, हम सही हैं या गलत यह अलग बात है लेकिन यह एक तथ्य है कि हम अंतिम हैं। अगर कानून की बात करें तो उनका यह नामांकन संविधान सम्मत है। संसद में कोई भी चुनाव लड़ कर जा सकता है। और ऐसा भी नहीं कि यह अकेले पूर्व सीजेआई हैं, जो संसद में पहुंचेंगे। इनसे पहले रंगनाथ मिश्र थे जो चुनाव लड़ कर कांग्रेस के टिकट पर संसद में पहुंचे थे। ये दूसरे हैं लेकिन राज कृपा से नामजद होकर पहुंचने वाले यह पहले सीजेआई होंगे ।

रंजन गोगोई ने कुछ ऐसे मुक़दमे निपटाए हैं जिनके फैसले अगर विपरीत हुए होते तो उसका असर सीधे सरकार और कुछ हद तक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर निजी रूप से पड़ता। वे मुख्य फैसले हैं, राफेल घोटाला से सम्बंधित यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण की जनहित याचिका और सीबीआई जज बीएस लोया की संदिग्ध मृत्यु की एफआईआर दर्ज कर के जांच कराने के मामलों के। लोया के मामले में बार-बार एफआईआर तक दर्ज न कराने की बात करना यह संदेह पुख्ता करता है कि अदालत कहीं न कहीं किसी न किसी के बेजा दबाव में है।

यह दबाव किसका है यह तब भी छुपा नहीं था, और अब तो और अयाँ हो गयी है। एक संदिग्ध मृत्यु की एफआईआर न हो केवल इसलिए सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई को कानूनी सर्कस करना पड़े, न्याय व्यवस्था का मज़ाक़ था। एफआईआर इसलिए नहीं होने दी जा रही थी कि उसमें सीधे-सीधे सन्देह की अंगुली अमित शाह पर उठ रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस शक को साफ नहीं किया बल्कि अपनी मज़बूरी भी खोल दी और शक को और पुख़्ता ही किया। 

राफेल घोटाला में सीधे प्रधानमंत्री पर आंच आ सकती है । क्योंकि जिन परिस्थितियों में यह सौदा आनन फानन में बदला गया, जहाजों की संख्या से लेकर सौदे की शर्तों तक में जो फेरबदल किये गए, एचएएल द्वारा राफेल को देश में ही बनाने के ठेके से लेकर अनिल अंबानी के रिलायंस डिफेंस को राफेल का ऑफसेट ठेका देने तक के जितने मामले इस प्रकरण में हैं उन सब में प्रधानमंत्री की स्पष्ट भूमिका है, पर रंजन गोगोई के फैसले ने प्रधानमंत्री को उस संकट से बचा लिया। अब फिर इन मुकदमों की चर्चा होगी।

असम की एनआरसी कराने का निर्णय भी उन्हीं का था। एनआरसी जब लाने की बात की गई तो उम्मीद थी कि यह वास्तविक घुसपैठियों की पहचान करने में सफल होगी। पर जैसा उसे लागू किया गया उसने घुसपैठियों की समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझा दिया जिससे असम सहित पूरे नॉर्थ-ईस्ट में कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गयी। अब भी एनआरसी का सबसे प्रबल विरोध वहीं है। पर इस निर्णय से भाजपा को एक ऐसा मुद्दा मिला जो उसके ध्रुवीकरण के एजेंडे को और धार देता है। 

उसी के आधार पर अमित शाह ने देश भर में उसके बाद होने वाले चुनावों में एनआरसी कराने की बात की और यही क्रोनोलॉजी संसद में भी समझाई। यह अलग बात है कि अब जब से सीएए या नया नागरिकता कानून सरकार ने बनाया है तब से जो देशव्यापी विरोध हुआ है उससे उनकी क्रोनोलॉजी थोड़ी गड़बड़ाई है। इसका कारण अंतरराष्ट्रीय प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी है। क्या यह विडंबना नहीं है देश का सत्तारूढ़ दल देश के बिखराव पर ही समृद्ध हो सकता है ? 

कश्मीर लॉक डाउन करने का मामला हो, वीवीपीएटी की अनिवार्य गिनती हो या इलेक्टोरल बांड का मामला हो सब में इनके फैसले सरकार की तरफ झुके रहे। क्यों झुके रहे? अब यह नामांकन या उनको उपकृत करना महज संयोग हो तो भी यह सवाल सदैव जिंदा रहेगा। वे अगर शांति से अपना अवकाश ग्रहण के बाद का जीवन व्यतीत करते तो इन सब पर कोई चर्चा नहीं होती। क्योंकि चर्चा से स्थिति तो बदलती नहीं। लोग भूल जाते। पर अब चर्चा होगी और खूब होगी।

इसी में राम मंदिर का भी एक मुक़दमा है जिसे अगर कानूनी दृष्टि से उसकी समीक्षा करें तो वह एक न्यायिक रूप से विरोधाभासी फैसला है। पर वह मुक़दमा इतना अधिक पेचीदा हो गया था लोगों ने उसके समाधान से ही राहत की सांस ली और उसके कानूनी पहलुओं की बहुत कुछ मीनमेख नहीं की गयी। पर अन्य मुक़दमे जो राजनीतिक रूप से सरकार को लाभ पहुंचाए हैं की चर्चा तो होगी ही। अब यह सब याद रखा जाएगा। 

कारवां मैगजीन में छपे एक लेख का यह अंश पढ़ें, जो उनके व्यक्तित्व के बारे में हैं।

” गोगोई से लोगों को जो उम्मीदें थी उस पर पानी फिर गया और लोगों ने अटकलें लगानी शुरू कीं कि गड़बड़ी कहां हुई। लेकिन जो लोग बारीकी से उनके कामकाज को देखते रहे हैं उन्होंने कभी यह उम्मीद नहीं की थी कि सुप्रीम कोर्ट में वह किसी बदलाव के वाहक बनेंगे। वरिष्ठ एडवोकेट संजय हेगडे ने मुझे बताया, “वह ऐसे व्यक्ति थे जो तेजी से काम करते थे, जो फिजूल की बातों में नहीं पड़ते थे और फटाफट फैसले लेते थे लेकिन इसके साथ किसी तरह का कोई महान न्यायिक दर्शन नहीं जुड़ा था। 

उनके मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद बहुत सारी उम्मीदें पैदा हो गई थीं क्योंकि उन्होंने दीपक मिश्रा के खिलाफ एक रुख अख्तियार किया था। लेकिन फिर यह स्पष्ट हो गया कि और बातों के मुकाबले कोई फैसला लेने और फिर उससे बंधे रहने की सहज प्रवृत्ति उन पर अपेक्षाकृत हावी रहती थी। और जब उनकी यह सहज वृत्ति सरकार के साथ कुछ ज्यादा ही जुड़ गई, लोग अपने ढंग से उनका आकलन करने लगे।” 

यहां तक कि पिछले वर्ष जब मैंने गोगोई के दोस्तों, उनके परिवारजनों और उनके सहकर्मियों से बात की तो किसी ने भी न्याय के विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की बात नहीं की। एक प्रतिष्ठित परिवार में पैदा गोगोई की कानूनी और राजनीतिक दुनिया में संपर्कों की कोई कमी नहीं थी। सुविधा संपन्नता और महत्वाकांक्षा के संयोग के साथ कार्यक्षमता और दक्षता के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें एक के बाद एक उच्च न्यायिक पदों पर असाधारण गति से पहुंचाया।”

अब यह भी देखना दिलचस्प होगा कि जस्टिस गोगोई के साथ प्रेस वार्ता करने वाले अन्य तीन साथियों की उनकी नामजदगी पर क्या प्रतिक्रिया होती है। बार की प्रतिक्रिया क्या होगी और उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी जो संविधान और न्यायपालिका के स्वतंत्रता के बारे में अध्ययन करते रहते हैं। जजों के साथ एक बात यह है कि जज साहबान अपनी चर्चा या आलोचना को लेकर थोड़े संवेदनशील होते हैं, क्योंकि उनकी आलोचना पब्लिक में या मीडिया में नहीं होती है या कम होती है तो उन्हें यह सब सुनने की आदत भी नहीं होती।

वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर झुके सिर से योर लॉर्डशिप या मी लॉर्ड का शब्द जिस गुब्बारे को फुला देता है वह थोड़ी भी आलोचना और निंदा की खरोच से फुस्स हो सकता है। इसलिए जब आलोचना मीडिया या पब्लिक में होने लगती है तो वे असहज होने लगते हैं। ऐसे संवेदनशील लोगों को खुद ही विवादित होने से बचना चाहिए। 

अगर जस्टिस गोगोई किसी भी पद पर न जाते या उनकी पुनर्नियुक्ति, राष्ट्रीय  मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के पद पर हुयी होती तो इतनी चर्चा नहीं होती। क्योंकि मानवाधिकार आयोग में सीजेआई की ही नियुक्ति अध्यक्ष के पद पर होती है। पर राज्यसभा की सांसदी से वे बराबर चर्चा में बने रहेंगे तो जब बात निकलेगी तो उनके द्वारा सुने गए मुकदमों तक तो जाएगी ही। इस वाद विवाद से भले ही जस्टिस गोगोइ पर कोई असर न पड़े, पर न्यायपालिका पर इसका असर पड़ेगा। यह न्यायपालिका के लिए किसी एक तरफ झुकने का लोभ भरा आमंत्रण भी है और जो न झुकने के लिए शपथबद्ध हैं उन्हें यह एक प्रकार की लाल आंख का संकेत भी है। इसे जस्टिस गोगोई और जस्टिस मुरलीधर के रूप में दो ध्रुवों पर रख कर फिलहाल देखा जा सकता है।

अंत मे उनके एक भाषण का अंश

” There Is A Strong View Point That Post-Retirement Appointments Is A Scar On Independence Of Judiciary. “

( CJI Ranjan Gogoi )

यह एक मज़बूत धारणा है कि अवकाशग्रहण के बाद जजों की कहीं अन्यत्र नियुक्ति न्यायपालिका के स्वतंत्रता पर एक धब्बा है।

( इति रंजन गोगोई उवाच )

यह दुखद है कि जिन्होंने यह धब्बा कहा था, अब उसी धब्बे के मूर्तिमान हो रहे हैं। कुछ चीज़ें संविधानसम्मत और कानूनन सही होते हुए भी स्थापित नैतिक मानदंडों के विपरीत होती हैं। 

जस्टिस रंजन गोगोई जिस पद पर रह चुके हैं वह पद भारत सरकार के ऑर्डर ऑफ प्रेसिडेंस में छठे नम्बर पर आता है और अब जिस पद पर वह रौनक अफ़रोज़ होने जा रहे हैं वह इक्कीसवें नम्बर पर आता है। ऑर्डर ऑफ प्रेसिडेंस में सांसदों की रैंकिंग हाईकोर्ट के जज से भी नीचे रखी गयी है। राज्यसभा के मनोनीत सदस्य को सदन में भाग लेने का अधिकार तो होता है पर वह किसी विधेयक पर अपना मत नहीं दे सकता है। 

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं।)

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