1977 में हम इलाहाबाद आए। तब से लेकर आज तक इलाहाबाद में बहुत बदलाव देखे। तब यह शहर फल, फूल और बगीचों का शहर था। अमूमन एक मंजिले, दो मंजिले मकानों का शहर। तिमंजिले मकान थे लेकिन बहुत कम। शहर के सड़क-चौराहे पहले भी चौड़े थे आज उनमें से कुछ और चौड़े हो गये हैं लेकिन शहर पेड़ विहीन, उजाड़ , बुल्डोजर, क्रेन और बहुमंजिले अपार्टमेंट्स का शहर बन कर रह गया है। निराला ने अपनी जिस और जिसकी दृष्टि से तब ‘इलाहाबाद के पथ पर देखा’ था वह अब आज के प्रयागराज का सच बनता गया है।
स्टेशन से उतरकर सिविल लाइन्स की तरफ निकलते ही दोनों तरफ बड़े बड़े बंगले हुआ करते थे। पूरा शहर ही बंगलों का शहर था। बंगले में एक तरफ सर्वेंट क्वार्टर भी रहता था और उनके लिए एक पब्लिक शौचालय भी। बाद के दिनों में धीरे -धीरे बंगलों की जमीनें बिकनी शुरु हुईं और सर्वेंन्ट क्वार्टर भी खाली कराये जाने लगे। अनुग्रह नरायन सिंह, चितरंजन सिंह आदि ने सागर पेशा वालों के आंदोलन का नेतृत्व किया और एक सीमा तक उनका हक उन्हें मिला भी शायद उनको कहीं जगह दी भी गई।
आज के समय में बहुत कम बंगले बचे हैं। एक बंगले में कई-कई अपार्टमेंट बन गए हैं। खुद बंगले के मालिक भी उसी अपार्टमेंट में रहने लगे या सब बेचकर कहीं और शिफ्ट हो गए। सिविल लाइन्स के कई बंगलों में बड़े-बड़े मॉल बन गए। सिविल लाइन्स में सुभाष चौराहे पर चारों तरफ बड़े- बड़े पेड़ थे। मई दिवस या अन्य कार्यक्रमों के लिए यहां इकट्ठे होने पर इन पेड़ों की छाया रहती थी। सारे पेड़ सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ गए। सड़कों के किनारे के पेड़ों के नीचे ठेले-खोमचे वाले खाने-पीने का सामान बेचकर अपना परिवार चलाते थे। इन पेड़ों को मशीनों से कटवाकर इलाहाबाद के सौन्दर्यीकरण के नाम पर इसकी सुंदरता तो नष्ट कर ही दी गई साथ में ठेले खोमचे वालों का जीना भी दूभर कर दिया गया। अब गर्मी के दिनों में कोई सड़क पर दिखता ही नहीं है। सामने अब ‘नहीं छायादर कोई वृक्ष’ -सब ओर गमलों में ‘तरु-मालिका, अट्टालिका (अपार्टमेंट्स) प्रकार’ ही नज़र आते हैं।
कुछ ऐसी जगहें थीं जहां कवि, लेखक, अध्यापक और छात्र एक साथ बैठते थे और घंटों बातचीत होती थी। जिसमें एक मात्र कॉफी हाउस ही बचा है। वह भी अब पहले की तरह का नहीं रहा। सब का बाजारीकरण हो गया। पी डी टंडन पार्क में कोई कार्यक्रम हो जाता था उसका भी सौंदर्यीकरण हो गया। कुल मिलाकर अब ऐसा हो रहा है कि लोग एक दूसरे से मिलें हीं नहीं। मिलने पर बातें होंगी फिर इकट्ठा होकर कोई न कोई कार्यक्रम करने की योजना बनेगी। तो लो अब सब बंद हुआ जाता है।
हमारे समय में इलाहाबाद प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा, कथाकार मार्कंडेय, प्रसिद्ध उपन्यासकार उपेन्द्र नाथ अश्क, कहानीकार अमरकांत, अजीत पुष्कल, शेखर जोशी का शहर था। लक्ष्मीकांत जी कभी-कभी साइकिल चलाते हुए मेरे कमरे पर आ जाते। खाना-पीना भी होता और बातें भी। मार्कण्डेय जी के यहां अक्सर ही जाना होता था। उपेन्द्रनाथ अश्क के बेटे नीलाभ अश्क के सिविल लाइन में स्थित ‘नीलाभ प्रकाशन’ में भी काफी जमावड़ा होता था। वहां साहित्यकार, कहानीकार, आलोचक, संस्कृतिकर्मी और नाटककार-नाट्यकर्मी सभी का संगम हो जाता था। जब तक नीलाभ अश्क रहे यह सिलसिला ज़िंदा रहा। बाद में उनके दिल्ली चले जाने के बाद यहां का जमावड़ा खत्म हो गया। बहुत दिनों बाद कार्यक्रमों के लिए एक ठीक ठाक जगह बर्धा यूनिवर्सीटी के इलाहाबाद वाले ब्रांच में मिली। वह कार्यक्रमों के अलावा मिलने-जुलने का स्थल भी बना। संतोष भदौरिया के इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में जाते ही वहां कार्यक्रम होना भी बंद हो गया। इस प्रकार लोग अपने-अपने घरों में सिकुड़ते गए। और कोरोना ने इसे और बढ़ावा दिया।
इलाहाबाद ‘फिराक’, ‘निराला’ और महादेवी वर्मा का शहर रहा आया है। दारागंज में महाकवि निराला की मूर्ति थी। इनके नाम पर ही निराला चौराहा था। बसंत पंचमी वाले दिन निराला चौराहे पर कार्यक्रम होता था। इलाहाबाद में इस अवसर पर अन्य जगहों पर भी कार्यक्रम आयोजित किया जाता था। अब तो हर कार्यक्रम स्थल ही किराए पर मिलने लगा है। दारागंज में महाकवि ‘निराला’ की मूर्ति भी 2019 के तथाकथित महाकुंभ के समय सौंदर्यीकरण के नाम पर हटा दी गई। हो हल्ला करने पर आगे बढ़कर दूसरी जगह उसे लगा दिया गया। इसी तरह महादेवी वर्मा की मूर्ति भी रातों रात तोड़ दी गई थी। बाद में उसे भी लगाया गया। विकास का ऐसा रास्ता अपनी विरासत के प्रति कैसा सुलूक करता है इसे समझा जा सकता है।
इलाहाबाद में देखने लायक जगह कंपनीबाग, आनंद भवन, भारद्वाज पार्क, खुशरु बाग, संगम, मैकफर्शन झील आदि हैं। इनमें भी लोग बड़ी संख्या में जाते हैं।
कंपनी बाग चारों तरफ इतना हरा भरा रहता था कि गांव जैसा लगता था। यहां आम, अमरूद, आंवला का बहुत बड़ा बगीचा था। अमरुद का तो पूरा बगीचा ही उजाड़कर निचाट मैदान (तथाकथित पार्क) बन गया। मैदान है तो लोग बैठते ही हैं। ज्यादातर लड़के उसमें क्रिकेट खेलते हैं। विक्टोरिया की मूर्ति के पीछे साइड में आम के पेड़ बचे हैं और आंवला के भी कुछ पेड़ हैं। सेन्ट्रल लाइब्रेरी के अगल-बगल फूलों का बगीचा था। जिसमें कई तरह के फूल थे। एक तरफ अलग-अलग रंग के गुलाब के ही छोटे-छोटे बगीचे थे कि चले जाओ तो आने का मन नहीं करता था। पेड़ इतने घने और छायादार होते थे कि गर्मी के दिनों में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र अपने उमस भरे लाजों, छात्रावासों से निकलकर पूरे दिन इन पेड़ों के नीचे गमछा बिछाकर पढ़ते रहते थे और वहीं सो भी जाते और अंधेरा होने पर अपने कमरे पर जाते।
यहां सुबह शाम बड़ी संख्या में लोग टहलने आते हैं। अब तो चारों तरफ के पेड़ कटवाकर सौंदर्यीकरण हो रहा है। गर्मी में दोपहर में जाने लायक नहीं है। और तो और अब तो अंदर जाने का टिकट देना पड़ता है। कंपनी गार्डेन के एक हिस्से में चन्द्रशेखर की मूर्ति है। जिनके नाम पर कंपनी गार्डेन का दूसरा नाम आजाद पार्क रखा गया। बाहर से आने वाले लोग यहां जरूर आते थे। यहां छोटी मीटिंग्स भी हो जाया करती थीं। अब सब कुछ पर पाबंदी लगा दी गयी है। जिसका नाम ही आजाद था उसे भी कैद कर दिया गया है।
आनंद भवन में पहले केवल गेट पर टिकट लगता था बाद में जब ‘तारा मंडल’ बना तो उसका अलग से टिकट लगने लगा। यहां तक तो ठीक था कि नया निर्माण हुआ है। लेकिन आनंद भवन के अंदर ही अब नीचे, ऊपर जाने का और पीछे जाने का अलग-अलग तीन बार टिकट लेना पड़ता है। इसका असर भी घूमने वालों पर पड़ा। जिसके पास पैसा है वही न घूम पाएगा अब।
खुशरुबाग इलाहाबाद जंक्शन के पास का ऐतिहासिक पार्क है। 1857 की पहली आज़ादी की जंग का केंद्र। जहां का अमरुद इलाहाबाद का नाम रौशन करता है। यहां का अमरुद सेव की तरह लाल और बहुत मीठा होता है। यहां भी सुबह शाम लोग टहलते हैं। जनवरी-2019 में अर्धकुम्भ को महाकुम्भ का रूप देने के लिए पूरे इलाहाबाद का जो सौंदर्यीकरण किया गया उसमें बहुत लोगों का घर बर्बाद हो गया। खूशरु बाग का तो नक्शा ही बदल गया। उसका प्राचीन समय वाला गेट रातों-रात तोड़ दिया गया। कारण चाहे जो हो लेकिन उसके बाद से खुशरुबाग वाला अमरुद अपने असली रुप में नहीं आ पाया।
गत वर्ष संगम जाने पर पहली बार ऐसा दिखा कि बालू निकाल-निकाल कर गड्ढा करके पानी की गहराई नहाने के लिए बढ़ाई जा रही थी। बीच की रेती में खुदाई का बालू जमा किया गया था। संगम की रेती पर कल्पवासी माघ के महीने में एक महीने का कल्पवास करते हैं। उनकी श्रद्धा आज भी वही है। जितनी भीड़ किसी नहान के समय उमड़ती है, इंतजाम बदहाल रहता है। शौचालय तो बहुत बनते हैं लेकिन 50% शौचालयों में ही पानी की टोंटी दिखती है। टोंटियों में ज़रूरत भर का पानी भी नहीं आता है।
सफाई कर्मियों को निर्धारित पैसा भी पूरा नहीं दिया जाता। 2019 के तथाकथित कुंभ में यह सब कुछ नजदीक से देखने को मिला। भंडारे में खाना खाने के बाद फेंके गए पत्तल से जूठा बटोर कर बच्चे खाना खा रहे थे और उनकी झोपड़ी में उसी जूठन में से बिनी हुई रोटी बाद के दिनों में खाने के लिए सुखाई जा रही थी।
मैकफर्सन झील इलाहाबाद की एक मात्र झील है। जहां बाद के दिनों में नेहरु पार्क बनाया गया था। मैकफर्सन झील इधर मिलिट्री हास्पिटल से तीन कि.मी.और अंदर मिलिट्री एरिया में और सुलेमसराय की तरफ से नेहरु पार्क के पीछे के हिस्से में है। झील के एक किनारे गंगा नदी और दूसरी तरफ नींवा गांव तीसरी तरफ नेहरु पार्क का गेट और चौथी ओर मिलिट्री एरिया था। इसी एरिया में चांदमारी (पुलिस और मिलिट्री वालों के फायरिंग का अभ्यास) होती रहती है। 1981 में मैं नींवा गांव में ही अध्यापिका बनी थी। बहुत ख़तरनाक एरिया था। जिस दिन मैंने ज्वाइन किया उसी दिन पुलिस वाले तीन एनकाउंटर किए थे।
आज वो स्थिति नहीं है। लेकिन मैकफर्सन झील उस समय जितना बढ़िया थी उतनी आज नहीं रह गई। उसमें गोल गोल छोटी नावें चलती थीं। उसमें कई तरह के पक्षी आते थे। झील का पानी गांव वाले पीते भी थे। लोगों के घरों में झील के पानी का उपयोग होता था। साल में 2-3 बार पूरे झील की सफाई भी होती थी। बाद में मिलिट्री वाले अपने कब्जे में ले लिए। तब तक भी झील कुछ साफ थी। लेकिन झील के विकास प्राधिकरण के हाथ जाने के बाद से उसका विकास ही रुक गया। नेहरु पार्क की बाउंड्री घिरी। उसके बाद तो झील, झील रही ही नहीं। वह जलकुंभी भरी अदृश्य-सी रहती और उससे बदबू भी आती है।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का बड़ा नाम था आज भी है। एक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर के मकान में मैं रहती ही थी। मकान मालिक सायकिल से ही यूनिवर्सिटी जाते थे। ऐसे कई लोग संपर्क में थे। डा. रघुवंश, रवि श्रीवास्तव, डा.एम.पी. सिंह, सिन्हा साहब, सत्य प्रकाश मिश्र, राजेन्द्र कुमार, मालती तिवारी, दूधनाथ सिंह, विंध्याचल राय आदि। कितने मिलनसार और सहज।
उस समय एक नये छात्र संगठन के निर्माण का दौर था। यह नया छात्र संगठन प्रगतिशील छात्र संगठन बना। जो पीएसओ के नाम से चर्चित हुआ और आगे चलकर आइसा के नाम से जाना जाने लगा है। पीएसओ प्रत्येक रविवार को यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग के सामने लान में एक स्टडी सर्किल चलाता था। जिसमें बहुत सारे छात्र, अध्यापक, और बुद्धिजीवी आते थे। सर्किल बनाकर लोग बैठते थे और किसी एक विषय पर सभी लोग अपनी बात रखते थे। और अगले रविवार का विषय और मुख्य वक्ता तय हो जाता था। मैं भी अक्सर स्टडी सर्किल में चली जाती थी। इसमें रामजी राय,रवि श्रीवास्तव,निशा श्रीवास्तव, दिलीप सिंह, अखिलेंद्र सिंह, त्रिलोकी राय, लाल बहादुर सिंह, आदित्य बाजपेई, अनिल सिंह आदि रेगुलर रहते थे। बाद में लड़कियां भी आने लगी थीं। जिसमें कामिनी राजवंशी, गुंजा, सुनीता, कुमुदिनी पति, सरोज चौबे, माधुरी पाठक, माया पाठक आदि रेगुलर आने लगीं। छात्रसंघ चुनाव में पीएसओ पहला संगठन था जिसके जुलूसों में लड़कियां भी शामिल रहतीं थीं।
मुझे याद है कि चुनाव प्रचार के अंतिम दिन क्वालीफाइंग स्पीच के बाद जब मशाल जुलूस निकलता था। जिसमें 2-3 बार तो मैं भी गई थी सारे हास्टल में होने के बाद अंत में ईश्वर शरण हास्टल जाते समय मैं लौट आई। मशाल जुलूस के साथ-साथ तारिक नासिर और रवि श्रीवास्तव अपने स्कूटर पर तारकोल लिए चलते थे कि किसी की मशाल न बुझने पाए और वह मशाल आज तक इन सारे लोगों के दिलों में जल रही है भले ही लोग बिखरे हुए हैं। और कुछ लोगों के मशाल में अब मिलावटी तारकोल पड़ जाने के कारण कुछ तो बुझ गए, कुछ का बुझने के पहले का अंतिम दौर चल रहा है।
पहले क्वालीफाइंग स्पीच सुनने इलाहाबाद के सारे बुद्धिजीवी आते थे। और उसी के आधार पर यह तय सा हो जाता था कि कौन जीतेगा। और तदनुसार रातों रात वोटर का दिल दिमाग भी वोट देने के प्रति स्पष्ट होता था। बाद के दिनों में क्वालीफाइंग स्पीच ही डिस्टर्ब करने के लिए हूटिंग शुरू होने लगी, उसके बाद बम फेंका जाने लगा और धीरे-धीरे छात्र संघ चुनाव पर पार्टियों और सत्ता का अधिकार होने लगा। चुनाव का रिजल्ट सुनाते समय अगर सत्ता या प्रभावी पार्टियों का कंडिडेट नहीं जीत रहा है तो साम, दाम, दंड, भेद सब तरह से विजयी कैंडिडेट को हराने की हर संभव कोशिश होती है। एक ही पद पर दो कंडिडेट हो जाते हैं पहले जो जीता उसे एनाउंस भी किए, फिर री काउंटिंग कर दूसरे को जिताया। फिर पहला विजयी कर दिया। अब भविष्य कुछ यूं बन रहा है कि जीते चाहे कोई ,चलेगा सत्ता के चाटुकारों का ही।
इलाहाबाद से उस दौर में छात्र संगठन से बहुत छात्र नौजवान स्वेच्छा से क्रांतिकारी राजनीति करने पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर निकले। आइसा से अब भी ऐसे लोग निकल रहे हैं पर तादाद कम है और वह धुन भी जो उस समय थी।
खैर, जिस समय नए छात्र संगठन के निर्माण का दौर था उसी समय एक सांस्कृतिक टीम के बतौर एक नाट्य इकाई ‘दस्ता नाट्य मंच’ उभरा। उस समय “दस्ता नाट्य मंच” जगह-जगह नुक्कड़ों पर वर्तमान माहौल से संबन्धित छोटे – छोटे नाटक करता था। इस तरह का नुक्कड़ नाटक इलाहाबाद के लिए नया था। नुक्कड़ नाटक के बारे में पेपर में सनसनी खेज खबरें छपीं- ‘इलाहाबाद में नक्सलियों का प्रवेश। ये एकाएक किसी चौराहे पर इकट्ठे होते हैं, डफली बजाकर भीड़ इकट्ठा करते हैं, गीत गाते हैं, नाटक करते हैं और गायब हो जाते हैं।’
नाटकों का रिहर्सल शुरुआती दौर में बनारस से जलेश्वर उर्फ टुन्ना (महेश्वर जी के छोटे भाई) और पार्थ चौधरी (इलाहाबाद से) कराते थे। नाटक शुरु होने से आधा घंटा पहले गले में ढोलक लटकाकर जोर जोर बजाते हुए यूनिवर्सिटी के यूनियन हाल से कचहरी तक 10-12 लड़कों के झुंड में नाटक का नाम और समय बताते हुए समय से आने के लिए प्रचार किया जाता था। लड़कों के हाथ में पुराने अखबार पर स्याही से नाटक का नाम और समय लिखा पोस्टर रहता था। पहला नुक्कड़ नाटक ” अब ना सहेंगे जोर किसी का” लक्ष्मी चौराहे वाली सब्जी मंडी में हुआ था। और नाटक खत्म होने के बाद मंडी वालों ने चाय भी पिलाई थी।
बाद के दिनों में “दस्ता नाट्य मंच” से बहुत लोग जुड़े। उदय यादव, अमरेश मिश्र, प्रमोद सिंह, विमल वर्मा, अनिल सिंह, सेवाराम आदि की टीम बनी। इस टीम ने “इतिहास गवाह है” नाटक की खुद स्क्रिप्ट तैयार की। बाद के दिनों में ‘दस्ता नाट्य मंच’ का दो नाटक “राजा का बाजा” और ” इतिहास गवाह है” बहुत बार खेला गया और बहुत चर्चित हुआ।
समय का फेर देख लगता है कि जैसे यह सब कुछ सदा के लिए अतीत हो गया लेकिन इसी समय में समाई कोई गहरी बेचैनी भी दिख रही है जो संभव है फिर से सब कुछ बदलने का कोई नया जुनून पैदा करे।
(लेखिका मीना राय माध्यमिक विद्यालय की अवकाश प्राप्त प्रधानाध्यापिका हैं। समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक, जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं। और आजकल इलाहाबाद में रहती हैं।)