Saturday, April 20, 2024

गौरी लंकेश की बरसी पर होगा ‘हम अगर नहीं उठे तो….’ का आगाज

देश भर में लोगों के संवैधानिक अधिकारों पर हो रहे लक्षित हमलों के खिलाफ एक बड़े आंदोलन की तैयारी है।  अगले महीने 5 सितंबर को गौरी लंकेश की शहादत की तीसरी वर्षगांठ पर देश भर में 400 से ज्यादा नारीवादी संगठन, LGBTQIA समुदाय और मानव अधिकार संगठन जुट रहे हैं। इस दिन ‘हम अगर नहीं उठे तो…’ (If we do not rise…) आंदोलन का आगाज होगा।

आयोजकों ने कहा कि भारत का लोकतंत्र और संविधान एक अभूतपूर्व संकट से जूझ रहे हैं। देश में पिछले कुछ सालों में लोकतांत्रिक और विधि प्रणाली का पतन हुआ है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अन्य संस्थानों की कार्यप्रणाली, गंभीर समीक्षा के तले आ गई है और संसद के कामकाज का संगीन रूप से समझौता किया गया है। सरकार ने चुनावी फंडिंग में भ्रष्टाचार का व्यवस्थित आयोजन कर, चुनावी बांड की प्रणाली में पारदर्शिता की कमी को एक संस्थागत रूप दिया है, जो निगमों को सत्तारूढ़ दल के संदूकों में काले धन को भरने की प्रकिया को मजबूती देता है।

सरकार पर किसी प्रकार के सवाल न उठाए जा सकें और न ही उन्हें किसी भी निर्णय का ज़िम्मेदार ठहराया जा सके, इसके लिए सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करके नागरिकों के मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार पर प्रहार किया है।

आयोजकों ने कहा कि देश में फासीवादी और नव-उदारवादी ताकतों की वृद्धि के परिणामस्वरुप समाज में हिंसा में बढ़ोतरी हुई है, जिससे खासकर LGBTQIA समुदायों के लोगों और महिलाओं के जीवन और सुरक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। अल्पसंख्यकों पर लगातार हमलों ने देश में भय और असुरक्षा का माहौल बना दिया है। देश में सांप्रदायिक घृणा फैलाने और लोगों को धार्मिक तर्ज पर विभाजित करने का एक व्यवस्थित प्रयास देखा जा रहा है। देश के धर्मनिपेक्ष ढांचे को नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) द्वारा नष्ट करने की कोशिश संसद के माध्यम से पुरज़ोर तरीके से की जा रही है।

साथ ही साथ राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) और राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर (NPR) जैसे अधिनियम द्वारा नागरिकता को धर्म से जोड़कर भारत के संविधान के ताने-बाने को नष्ट करने का प्रयास है। पूरे भारत में लोग सरकार के इस प्रतिगामी फैसले के विरुद्ध शांतिपूर्ण और अनोखे तरीके से उठे; महिलाओं ने संविधान की रक्षा के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया। दुर्भाग्य से, आंदोलन के जवाब में लक्षित सांप्रदायिक हिंसा को सत्ताधारी दल द्वारा समर्थित किया गया।

आयोजन से जुड़े लोगों ने कहा कि हिंसा को उकसाने वाले घृणास्पद भाषण देने वाले नेताओं को गिरफ्तार करने के बजाय, उन महिलाओं और लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, जिन्होंने एकता, शांति और संविधान के लिए काम किया।

अगस्त 2019 में, सरकार ने अनुच्छेद 370 को अभिनिषेध कर भारत के संविधान और संघीयता/संप्रभुता पर हमला किया है और जम्मू कश्मीर के राज्य होने के दर्जे को नष्ट किया। एक साल होने पर भी अभी तक वहां पर इंटरनेट सेवाएं फिर से बंद की गई हैं। भाषण और लोकतंत्र पर पूरी तरह से पाबंदी है और कश्मीरी राजनीतिक कैदियों को बिना मुकदमे के भारत की जेलों में बंदी बना दिया गया है। यहां तक कि वहां पूर्व मुख्यमंत्री को भी गिरफ्तार कर घर में ही रखा गया है। हाल ही में, सरकार ने इस क्षेत्र के अधिवास कानून में इसीलिए संशोधन किया है।

पिछले कुछ वर्षों में, संविधान द्वारा प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति की आजादी पर एक प्रत्यक्ष हमला हो रहा है। जैसे कपड़े पहनने का अधिकार, बोलने, लिखने, खाने, किसी धर्म विशेष को चुनने का अधिकार- जिसने महिलाओं और LGBTQI समुदायों को असंगत रूप से प्रभावित किया है।

आयोजन में शामिल एक्टिविस्ट के मुताबिक असंतुष्टि की जो आवाजें उठीं उन्हें व्यवस्थित रूप से चुप करा दिया गया और राष्ट्र-विरोधी का ठप्पा लगाया गया। विभिन्न आंदोलनों में लगे कार्यकर्ता, पत्रकार और शिक्षाविद् जमानत के कानूनी प्रावधान के बिना, जेलों में सड़ रहे हैं, गौरी लंकेश जैसी महिलाओं को भाषण और अभिव्यक्ति के अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग करने का भुगतान अपने प्राण देकर करना पड़ा है।

गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (2019) में संशोधन किया गया है और इसका इस्तेमाल असंतुष्टों को फंसाने और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए किया जा रहा है। पुलिस हिरासत में होने वाली मौत और ज्यादती के खतरनाक मामलों के साथ, कानून के न्याय संगत शासन का लगातार पतन हुआ है।

उन्होंने कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम जैसे प्रतिगामी कानूनों ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। संपूर्ण LGBTQIA समुदाय की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा के लिए बहुत कम प्रावधान हैं। एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम और (SC/ST/OBC) के आरक्षण को कम करने के लिए भी कई कदम उठाए गए हैं।

नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और बढ़ते विकास के लिए इसमें अन्तर्निहित पूंजीवाद ने सामान्य रूप से महिलाओं पर विपरीत ढंग से प्रभाव डाला है, लेकिन विशेष रूप से वे जो दलित, आदिवासी और अन्य हाशिए के समुदायों के सदस्य हैं उनका नाजुक आर्थिक आधार तबाह हो गया है।

COVID-19 संकट ने वर्तमान शासन की गरीब-विरोधी विचारधारा को और उजागर कर दिया है। महामारी से निपटने के लिए लगाए गए अनियोजित और कठोर लॉकडाउन ने देश में आर्थिक तबाही और विनाश को जन्म दिया है। इससे तुरंत प्रभाव से लाखों गरीबों के सभी आय के अवसर समाप्त हो गए और वह बेरोजगार हो गए। इसका विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। प्रवासी श्रमिकों की अपने बच्चों के साथ सैकड़ों किलोमीटर तक पैदल चलने वाले वाली हृदय-विदारक रिपोर्ट और तस्वीरें सामने आई हैं, जो कि लॉकडाउन की विशेषता बन गई हैं।

आयोजकों ने कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था पहले ही 2017 की विमुद्रीकरण (demonetisation) आपदा से उबरने के लिए संघर्ष कर रही थी, जिसके परिणामस्वरूप 45 वर्षों में देश में सबसे अधिक बेरोजगारी देखी गई। लॉकडाउन ने बेरोजगारी के इस संकट को भयावह अनुपात में धकेल दिया है। इस संकट ने देश की स्वास्थ्य प्रणाली की निराशाजनक स्थिति को पूरी तरह उजागर कर दिया है। लॉकडाउन के दौरान दलितों के खिलाफ लिंग आधारित हिंसा और जाति आधारित अत्याचार तेजी से बढ़े हैं।

लॉकडाउन में श्रम अधिकार कानूनों को बदल कर निष्क्रिय और नष्ट कर दिया गया है। ऐसे समय में जब महामारी बड़ी संख्या में लोगों को विरोध करने से रोकती है, सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के निजीकरण में व्यस्त है जो भारत के लोगों की हैं। इसके इलावा पर्यावरणीय प्रभाव की आकलन प्रक्रियाओं को ख़त्म करने की मांग की जा रही है, जिससे हमारी नदियों, वन और भूमि को लूटने में मदद मिल सके और एक ही समय में कृषि नीतियों में प्रतिकूल परिवर्तन का प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

नई शिक्षा नीति कई समस्याओं से ग्रस्त है-यह शिक्षा प्रणाली के अधिक केंद्रीकरण, सांप्रदायिकरण और व्यावसायीकरण को सुनिश्चित करने का प्रयास करती है। COVID 19 को कम करने के नाम पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए प्रदत्त कानूनों को कम करने के कदम उठाए गए हैं, जिससे शासन का महिला विरोधी रवैये का पता चलता है।

आयोजन से जुड़े एक्टिविस्ट ने कहा कि भारत के संविधान को बचाने के लिए आंदोलन में महिलाएं और LGBTQIA व्यक्ति सबसे आगे रहे हैं। हम अगर उठे नहीं तो… “if we do not rise” अभियान संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा के लिए एक पहल है।

अभियान के हिस्से के रूप में, हजारों लोग और समूह देश भर में एक साथ ऑन-लाइन और ज़मीन पर वर्णित मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाने के लिए आएंगे।

आयोजन से जुड़े एक्टिविस्ट ने अपील की है…
●  2-5 मिनट के वीडियो बनाएं और हमारे साथ और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर साझा करें।
●  फेसबुक पर लाइव प्रसारण करें।
●  सोशल मीडिया पर सर्कुलेशन के लिए पोस्टर, एनीमेशन, मीम्स, गाने और अभिनय बनाएं।
●  शारीरिक दूरी मानदंडों का पालन करते हुए 5-10 लोगों के छोटे समूहों में इकट्ठा करें और सोशल मीडिया पर तस्वीरें पोस्ट करते हैं।
●  स्थानीय अधिकारियों को ज्ञापन दें।

अभियान के एक भाग के रूप में हम महिलाओं और ट्रांसजेंडर के खिलाफ हिंसा, स्वास्थ्य, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी, प्रवासी श्रमिकों, महिला किसानों और यौनकर्मियों सहित विभिन्न विषयों पर फैक्टशीट जारी करेंगे।

हम सभी कलाकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और संबंधित नागरिकों से 5 सितंबर को अभियान में शामिल होने की अपील करते हैं। हम अपने संविधान और हमारे लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक साथ खड़े हैं। आनंदी, अनहद, एकला नारी शक्ति मंच, गुजरात महिला मंच, जन विकास, केवदिया विस्तार महिला मंच, कोशिश चैरिटेबल ट्रस्ट, नारी अदालत, सबरंग ग्रुप ऑफ ट्रांसमेन, सहियर स्त्री संगठन, विकल्प, क्वीर अबद जैसे संगठन इसमें शामिल हैं।

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