Tuesday, March 19, 2024

गोरखपुर के मनीष हत्याकांड ने एक बार फिर पुलिस सुधार की जरूरत को प्रासंगिक कर दिया है

कानून लागू करने का एक मूल सिद्धांत यह है कि, उसे कानूनी तरह से लागू किया जाय। कानून, कानून लागू करने वाली एजेंसियों, चाहे वह पुलिस हो, या अन्य कोई भी एजेंसी, को जब उक्त कानून लागू करने का अधिकार और शक्ति देता है तो, उक्त एजेंसी को, उस कानून को कैसे लागू करना है, इसके भी विस्तृत दिशा निर्देश या रूल्स उसमें निहित रहते हैं। अदालतों में न केवल कानून के उल्लंघन और अपराध तथा दंड पर ही बहस और फैसले होते हैं, बल्कि, उक्त कानून को लागू करते समय, कानून की किताब में जो नियम दिए गए हैं, क्या उन सब का भी पालन किया गया है या नहीं, इस पर भी अदालतें अपना दृष्टिकोण रखती हैं और वे गम्भीर उल्लंघन पर स्ट्रिक्चर भर्त्सना भी प्रदान करती हैं। पुलिस पर अक्सर यह आरोप लगता है कि उसने अपने नियमित प्रोफेशनल कार्य में भी ज्यादती की जिससे न केवल उक्त कार्य का उद्देश्य समाप्त हो गया, बल्कि अन्य बड़े तथा जघन्य अपराध भी हो गए। कानून को जब भी कानूनी तरह से लागू नहीं किया जाएगा, ऐसी समस्याएं होती रहेंगी।

गोरखपुर में कानपुर के प्रॉपर्टी डीलर, मनीष गुप्ता की हत्या का मामला पुलिस तंत्र के लिए शर्मनाक और निंदनीय घटना है। इस हत्याकांड में मृत 35 वर्षीय मनीष गुप्ता कानपुर के रहने वाले थे और अपने दो दोस्तों हरदीप सिंह चौहान और प्रदीप चौहान के साथ 27 सितंबर को गोरखपुर गए थे। यह तीनों दोस्त गोरखपुर के रामगढ़ ताल इलाके के एक होटल कृष्णा पैलेस में रुके हुए थे। उसी रात क़रीब साढ़े 12 बजे 5-6 पुलिस वाले होटल में जांच करने पहुंचे। उन्होंने कमरे का दरवाजा खुलवाया। साथ में होटल का रिसेप्शनिस्ट भी था। पुलिस ने आईडी मांगी, और मनीष गुप्त को साथ ले गए। बाद में पता चला कि मनीष की हत्या कर दी गई है। इस आपराधिक घटना पर गोरखपुर में हत्या का मुकदमा दर्ज है और इसकी तफ्तीश हो रही है। घटना कैसे घटी तथा पुलिस की क्या भूमिका थी, इस पर कोई टिप्पणी करना फिलहाल न तो उचित है और न ही सम्भव।

हालांकि जो खबरें आ रही हैं, उसके अनुसार, इस पूरे केस में गोरखपुर पुलिस का रवैया लगातार सवालों के घेरे में है। मनीष गुप्ता की मौत के कुछ ही घंटों बाद एसएसपी विपिन ताडा ने इसे एक दुर्घटना बताया था। बाद में एक वीडियो भी सामने आया, जिसमें वे, मृतक मनीष गुप्ता की पत्नी मीनाक्षी गुप्ता को मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह देते दिख रहे हैं। केस को लेकर आ रहे तमाम अपडेट्स के बीच मीनाक्षी लगातार कहती रहीं कि उनके पति की हत्या में पुलिस वालों का हाथ है। गुरुवार 29 सितंबर को मीनाक्षी ने मीडिया को बताया, कि पुलिस-प्रशासन लगातार उन पर एफआईआर न लिखवाने का दबाव डाल रहा है। लेकिन, पुलिस ने उसी दिन 6 पुलिस वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज भी कर लिया। एफआईआर में केवल 3 पुलिस वालों की नामजदगी थी, शेष 3 आरोपियों को अज्ञात बताया गया है। एफआईआर में नामजद हैं, रामगढ़ ताल के एसओ जेएन सिंह, सब इंस्पेक्टर अक्षय मिश्रा और सब इंस्पेक्टर विजय यादव बाकी 3 अज्ञात आरोपी हैं।

इस मामले में भी पुलिस की सबसे सामान्य शिकायत कि, थानों पर मुकदमा आसानी से दर्ज नहीं होता है, भी सामने आयी। थाने, अमूमन मुकदमा दर्ज करने में थोड़ी ना नुकुर करते रहते हैं। पर होशियार थाना इंचार्ज, जब यह समझ लेता है कि इस मामले में मुकदमा दर्ज करना ही पड़ेगा तो, वह तुरंत मुकदमा दर्ज कर अपनी कार्यवाही शुरू कर देता है। पर इस मामले में एक अजीब तथ्य सामने आया है कि, मुकदमा दर्ज न कराने के लिये, डीएम और एसएसपी ने मीनाक्षी गुप्ता को समझाया। उन्हे मुकदमा दर्ज न कराने के फायदे भी समझाए। यह गवर्नेंस का एक नया चेहरा है, जो पहले कभी नहीं सामने आया था।

गोरखपुर के मनीष गुप्त हत्याकांड पर मुकदमा दर्ज न कराने की सलाह देना एक अनुचित मशविरा था। यह घटना बेहद क्रूर और निंदनीय है। पुलिस कर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज है। उनकी गिरफ्तारी होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्यवाही भी। मुआवजा और नौकरी देने की भी बात सरकार ने की है। कम से कम मुकदमा दर्ज होने या, हल्के अपराध की धाराओं में किसी मुक़दमे को दर्ज करने के पीछे, आंकड़ों में अपराध स्थिति की गुलाबी तस्वीर दिखाने की मानसिकता भी होती है। लेकिन, आंकड़ों से अपराध और कानून व्यवस्था की स्थिति का असल आकलन नहीं होता है यह बात सभी जानते हैं।

कनसीलमेंट (अपराध का मुकदमा दर्ज न करना) और मिनिमाइजेशन (अपराध को कम कर के दर्ज करना) किसी समय पुलिस थाने से मिलने वाली शिकायतों में गम्भीर शिकायतें मानी जाती थीं। थानों पर टेस्ट रिपोर्ट, इसे चेक करने के लिये लिखाई जाती थी ताकि रिपोर्ट दर्ज न करने वालों के खिलाफ कार्यवाही हो। अपराध के पीड़ित को मुआवजा और सरकारी नौकरी देने से अपराध की गम्भीरता कम नहीं हो जाती है। यह सरकार के लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप का एक अंग है। अपराध का मुकदमा दर्ज न करने की सलाह देना, अपराध को बढ़ावा देना है। जब अधिकारी खुद ही चाहते हैं कि केस न दर्ज हो तो, वे कार्यवाही क्या करेंगे?

गोरखपुर मनीष गुप्त हत्याकांड के काफी पहले, उत्तरप्रदेश महोबा का एक निशिकांत तिवारी हत्याकांड भी हो चुका है। जिसमें तत्कालीन एसपी महोबा, पाटीदार, भी मुल्जिम हैं। आज तक उनकी भी गिरफ्तारी नहीं हुयी है। हालांकि वे इस समय निलंबित हैं। पर ऐसे उदाहरणों से पुलिस की क्षमता और इरादे पर सन्देह उपजता है।

जब भी कोई ऐसी बड़ी घटना होती है जिसमें, पुलिस गम्भीर रूप से आलोचना के केंद्र मे आ जाती है तो अक्सर पुलिस सुधारों की बात होने लगती है। पर सुधरी हुयी पुलिस चाहिए किसे ? राजनीतिक दलों को, सरकार को, पुलिस को या जनता को ? पुलिस सुधार के लिये राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट 1980 में सरकार को सौंपी गयी और लम्बे समय तक वह बस्ता खामोशी में रखी रही। यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिये कुछ निर्देश जारी किये
प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7 बिन्दुओं का एक निर्देश सभी राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को दिया था कि वे राष्ट्रीय पुलिस आयोग जिसे धर्मवीर आयोग भी कहते हैं को लागू करे। इन निर्देशों में एक निर्देश, बिंदु संख्या 6 पर है, जो राज्य और केंद्र सरकारों को एक कम्प्लेंट अथॉरिटी गठित करने के सम्बंध में है। इसे हिंदी में शिकायत प्राधिकरण कहा गया है। पहले सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्देश, शिकायत प्राधिकरण गठित करने के संबंध में दिया है, उसे पढ़ें।

बिंदु 6 को हिंदी में पढ़ें,
● जिला स्तर पर एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण होगा जो पुलिस उपाधीक्षक के स्तर तक के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच करेगा।

● इसी तरह, राज्य स्तर पर एक और पुलिस शिकायत प्राधिकरण होना चाहिए जो पुलिस अधीक्षक और उससे ऊपर के रैंक के अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच करे।

● जिला स्तरीय प्राधिकरण का प्रमुख, एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश को बनाया जा सकता है, जबकि राज्य स्तरीय प्राधिकरण का प्रमुख, किसी भी, उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को बनाया जा सकता है।

● राज्य स्तरीय शिकायत प्राधिकरण के प्रमुख का चयन मुख्य न्यायाधीश द्वारा, राज्य द्वारा प्रस्तावित नामों के पैनल में से किया जाएगा।

● जिला स्तरीय शिकायत प्राधिकरण का प्रमुख, मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश द्वारा, राज्य सरकार द्वारा, प्रस्तावित नामों के पैनल में से भी चुना जा सकता है।

● इन प्राधिकरणों में, विभिन्न राज्यों/जिलों में प्राप्त होने वाली शिकायतों की संख्या के आधार पर तीन से पांच, सदस्यों की नियुक्ति भी की जाएगी, जिनका चयन राज्य सरकार द्वारा राज्य मानवाधिकार आयोग/लोकायुक्त/राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा तैयार किए गए पैनल से किया जाएगा।

● इस पैनल में सेवानिवृत्त सिविल सेवा के सदस्य, पुलिस अधिकारी या किसी अन्य विभाग के अधिकारी या सिविल सोसाइटी के व्यक्ति शामिल हो सकते हैं।

● यह सभी प्राधिकरण के लिए पूर्णकालिक होंगे, और उन्हें उनके द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के लिए राज्य और केंद्र सरकार, उन्हें, उपयुक्त पारिश्रमिक भी देगी।

● क्षेत्रीय पूछताछ करने के लिए प्राधिकरण को नियमित कर्मचारियों की सेवाओं की भी आवश्यकता हो सकती है। इस उद्देश्य के लिए, वे सीआईडी, खुफिया, सतर्कता या किसी अन्य संगठन से सेवानिवृत्त जांचकर्ताओं की सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं।

● राज्य स्तरीय शिकायत प्राधिकरण केवल पुलिस कर्मियों द्वारा गंभीर कदाचार के आरोपों का संज्ञान लेगा, जिसमें पुलिस हिरासत में मौत, गंभीर चोट या बलात्कार की घटनाएं शामिल होंगी।

● जिला स्तरीय शिकायत प्राधिकरण, उपरोक्त मामलों के अलावा, जबरन वसूली, भूमि/घर हड़पने या अधिकार के गंभीर दुरुपयोग से संबंधित किसी भी घटना के आरोपों की भी जांच कर सकता है।

● किसी दोषी पुलिस अधिकारी के विरुद्ध विभागीय या अपराधी किसी भी कार्रवाई के लिए जिला और राज्य दोनों स्तरों पर शिकायत प्राधिकरण की सिफारिशें संबंधित प्राधिकारी के लिए बाध्यकारी होंगी।

पुलिस का सिस्टम ही ऐसा है कि जनता के प्रति, कभी दुर्व्यवहार की, तो कभी करप्शन की, तो कभी उनके पेशेवराना अक्षमता की शिकायत मिलती ही रहेगी। आज भी एसएसपी के कार्यालय में प्राप्त होने वाली अधिकतर शिकायतें ऐसे ही मामलों की होती हैं। इनकी जांचें भी होती हैं, और दोषी पाए जाने पर पुलिसजन दंडित भी होते हैं। पुलिस सरकार का अकेला विभाग है जिसमें, अधीनस्थों के दंडित होने की संख्या, किसी भी अन्य विभाग की तुलना में सबसे अधिक रहती है। कभी कभी तो यह दंड अनावश्यक भी हो जाते हैं। दूसरों के लिये न्याय की राह का अन्वेषण करने वाले पुलिसजन, कभी क़भी खुद के लिये न्याय हेतु तरसते रहते हैं। हम एक ऐसा तंत्र विकसित ही नहीं कर पाए हैं कि किसी भी अधिकारी को दंड उसके कृत्य में उसकी भूमिका के आधार पर मिले। दबाव में भी अधीनस्थों के तबादले, निलम्बन और सज़ायाबी के अनेक उदाहरण हैं। इससे पुलिस के मनोबल पर भी असर पड़ता है और उनकी कार्यशैली तथा क्षमता पर ।

सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं सब समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए एक स्वतंत्र शिकायत प्राधिकरण बनाने का निर्देश सभी राज्य सरकारों को दिया है। इसमें न्यायिक, प्रशासनिक और पुलिस सभी क्षेत्रों के अधिकारियों को रखा गया है ताकि गम्भीर शिकायतों की जांच बिना किसी बाहरी दबाव के की जा सके। पर 2007 से आज तक ऐसे शिकायत प्राधिकरणों का गठन सरकार द्वारा नहीं हो पाया है। ब्रिटेन, जहां से हमने वर्तमान पुलिस सिस्टम लिया है, वहां भी गम्भीर दुराचरण/मिस कंडक्ट के मामले में, जांच हेतु, इंटर डिपार्टमेंटल कमेटी गठित की गयी है। अब लगातार मिलती हुयी गम्भीर शिकायतों के परिप्रेक्ष्य में यह ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के अनुसार, इन शिकायत प्राधिकरणों का गठन किया जाय और पुलिस सुधार को प्राथमिकता से लागू किया जाय।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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